मंगलवार, 31 मई 2011

सुन रहे हैं अन्ना भाई

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अरुण चन्द्र रॉय

कुछ दिन पहले तक विश्वास नहीं था कि ग्रह दशा ख़राब होती है, इन सबका कोई असर पड़ता है जीवन पर. विश्वास अभी भी नहीं है. लेकिन पिछले तीन शनिवार और रविवार कुछ अच्छे नहीं गुज़र रहे हैं .. कुछ न कुछ उल्टा पलता हो रहा है. संयोग मात्र है यह. पत्नी पीछे पड़ी है कि किसी पंडित ज्योतिष से दिखवाइये. खैर मुद्दा यह नहीं है.

मुद्दा है कि कुछ बातें अन्ना भाई से बांटना चाहता हूँ . भ्रष्टाचार अब भ्रष्टाचार नहीं रह गया है. यह एक सुविधा शुल्क बन गया है और अन्ना भाई के साथ जो जनता खड़ी थी, कैमरे के फ्लैश के साथ नारे लगा रही थी,  वह इस सुविधा शुल्क को स्वीकार करती है. पिछले कुछ महीनो से मैं अपने स्तर पर इस विषय पर शोध कर रहा हूँ और बहुत आश्चर्यजनक तथ्य सामने आये हैं.

    • नगर निगमों में बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए जो ५०० रूपये से १००० रूपये का रिश्वत देना पड़ता है, ९०% से अधिक लोग उसे भ्रष्ट्राचार नहीं मानते क्योंकि इस से उनके कुछ घंटे, नगर निगम आने जाने का खर्चा आदि बच जाता है. मैंने लगभग चालीस पचास लोगों से इस बारे में पूछा है.
    • घर के लिए ऋण लेने में तमाम कागजात पूरे होने के बाद भी २ से ५ फिसदी का खर्चा आता है. लोग घर लेने के उत्साह में, घर की डील छूट ना जाये, कौन बैंको के चक्कर मारे, यह रकम देने को तैयार रहते हैं. कोई ३० मामलों में से २६-२७ मामलों में मैंने ऐसा पाया है. 
    • बिजली का कनेक्शन, सीवर का कनेक्शन पानी का कनेक्शन बिना सुविधा शुल्क के नहीं हो सकता. ग्रामीण इलाकों में नरेगा से मिलने वाली मजदूरी, गरीबी रेखा के नीचे वालों के लिए इंदिरा आवास के लिए रकम आदि में कमीशन तय है. लोग इसे भ्रष्टाचार नहीं मानते. इस दिशा में लगभग सौ लोगों से मेरी बात हुई है.

और जिस बात से मैंने यह लेख शुरू किया था वहीँ पहुचते हुए कहूँगा कि पिछले शनिवार को अपनी कालोनी के साप्ताहिक बाज़ार में मेरा मोबाइल चोरी हो गया. किसी जेबकतरे ने उड़ा लिया. महंगा हैंडसेट था सो बहुत खुश हुआ होगा. डाटा का बैक अप  मैंने रखा नहीं था सो मेरा नुक्सान भी हुआ. कुछ बेहद जरुरी नंबर नहीं है अभी मेरे पास. महीनो लगेंगे अपनी इष्ट मित्रों का नंबर फिर से जुटाने में.

अपने पुराने नंबर का नया सिम लेने के लिए कुछ औपचारिकतायें होती हैं. जैसे सिम के गुम होने की पुलिस रिपोर्ट करनी होती है. मैं भी चला गया. सरकारी महकमे में होने का परिचय नहीं दिया. एक आम आदमी की तरह गया. पहले तो सब इंस्पेक्टर साहब ने डेढ़ घंटे तक चौकी के बाहर इन्तजार कराया जैसे कि मैंने अपना मोबाइल खुद चुराया हो. फिर उस आवेदन पत्र को स्वीकार नहीं किया जिसमे मैंने लिखा था कि मोबाइल चोरी हो गया है. मुझसे लिखवाया गया कि मोबाइल गुम हो गया है कहीं.

फिर मुझसे चाय मंगवाई गई. मुझे चाय मिली नहीं क्योंकि वहां आसपास कहीं कोई चाय की दुकान थी ही नहीं. पुलिस वालों को पता था वह. सो मुझे उनके लिए २ लीटर वाली कोल्ड ड्रिंक और नमकीन लानी पडी. साथ में सौ रूपये अलग से देने पड़े. मैंने दिए भी क्योंकि मैं देखना चाहता था कि एक आम आदमी को एक छोटी सी रिपोर्ट लिखवाने के लिए क्या कुछ करना पड़ता है.

जाते जाते अन्ना भाई साहब, आम आदमी जंतर मंतर पर धरना भी नहीं दे सकता. यह अधिकार भी उस से छिन चुका है. विश्वास ना हो तो इन दिनों कभी भट्टा परसौल आकर देखिये . दिल्ली से बहुत दूर है.

सोमवार, 30 मई 2011

चमत्कार

आज एक हास्य रचना प्रस्तुत है ..इसे मात्र निर्मल हास्य के रूप में ही लीजियेगा …आभार

एक महोदय का ये स्वाभाव था
कोई सुंदरी रहे पास ये ख्वाब था .
कल्पना की उड़ान में
हवाई उड़ान भरते हुए
विमान परिचारिकाओं को
देखा करते थे चलते हुए
और कभी अपने आफ़िस की
सुंदर स्टेनो को देखते हुए
ख्वाब में खो जाते थे
बहरहाल ज़रा संकोची थे
इसलिए मुख से
कुछ कह नही पाते थे.



इसी तरह ख्वाबों की दुनिया में
चलते - चलाते
कर बैठे एक्सिडेंट काफ़ी
बचते - बचाते .
बेहोश थे सड़क पर
चोट थी गंभीर
तमाशा देख रहे थे
कई राहगीर
किसी तरह उनको
किसी ने अस्पताल पहुँचाया



जहाँ उन्हें
काफ़ी देर बाद होश आया .
होश में आते ही जब
अपने चारों ओर नज़र दौड़ाई
स्वाभाव से मजबूर हो
कल्पना की एक उड़ान लगाई
देख रहे थे वो
एक सुंदर सी नर्स को

दिल बेज़ार था उनका
उससे कुछ कहने को
इत्तफ़ाकन वो नर्स
उनके पास आ गयी
अंजाने ही उनकी ज़ुबान
कुछ इज़हार कर गयी


बड़े बेज़ार हो कर वो बोले
काश मुझे दोबारा चोट लगे
और आपके वॉर्ड में आ सकूँ
इस तरह आपके पास रहने का
एक मौका पा सकूँ .
घूमी वो नर्स
और बोली मुस्कुरा कर
हर इच्छा पूरी
नही होती है चाह कर
दरअसल मेरे वॉर्ड में
आप जैसा कोई आ नही सकता है
मेरी ड्यूटी मेटरनिटी वॉर्ड में है
जहाँ आपको -
कोई चमत्कार ही ला सकता है .

रविवार, 29 मई 2011

कहानी ऐसे बनी - 25 : 'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको’

कहानी ऐसे बनी - 25 :

'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको’

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

नमस्कार जी !

अरे बाप रे बाप ........ उस दिन जो बघुअरा वाली और चमनपुर वाली के बीच 'महाभारत' हो रहा था..... ! ऊँह पूछिये मत। कितने दिनों बाद ऐसा-ऐसा आशीर्वाद सुने कि मन तृप्त हो गया। अब आप पूछेंगे कि ये बघुअरा वाली कौन है ? अरे उनको पहचाने नहीं... ? वही चमनपुर वाली की पड़ोसन। धत्त तेरे की .... अब ये चमनपुर वाली कौन है ? अरे महराज कहा तो.... बघुअरा वाली की पड़ोसन.... ? अब आपको लग रहा होगा कि ये दोनों कौन है .... ? अरे साहब ! इसमें भी कोई मैथमेटिक्स थोड़े है .... दोनों अड़ोसन-पड़ोसन हैं ! हा.... हा... हा.... !! देखे कितना मजेदार चुट्कुल्ला सुनाए हम .... लेकिन उस दिन की कहानी भी कम मजेदार नहीं है।

अरे हम झींगुर दास के साथ पैतैली पेठिया (हाट) से बैल बेच कर आ रहे थे। जैसे ही काली थान से आगे बढे की खूब जोरदार चख-चुख सुनाई दिया। देखे अच्छी-खासी भीड़ भी जुट गयी थी। उस बीच में पीली साड़ी के आंचल को कमर में घुमा कर बांधी हुई चमनपुर वाली ऐसा चमक रही थी कि क्या बताएं .... ! उसी तरह उसकी देवरानी जमी हुई थी, बघुअरा वाली। चमनपुर वाली चमके तो इसके मुँह से भी स्नेह की झड़ी फूट पड़े। चमनपुर वाली चमक कर इस कोने से उस कोने को एक कर रही थी। इधर बघुअरा वाली का हाथ ही काफ़ी था। ऐसे चमकाए कि मुँह के बोल को हरी-पीली चूड़ियों का ताल मिल जाए। भीड़ कभी इसकी बात पर हंस पड़े तो कभी उसकी बात पर समझाए। गाँव में ऐसा डृश्य हमेशा ही देखने को मिल जाता है, लेकिन इन दोनों देवरानी-जेठानी के मधुर संवाद की तो बात ही कुछ और है........ ! एकदम समझिये कि सुर-ताल से सजा। एक बोले ‘मैय्याखौकी’ तो दूजा ‘भैय्याखौकी’ ... !

ऊपर से तो ‘हा-हा’ करें मगर यह सब सुनकर अन्दर से हमरा मन भी प्रफुल्लित हो जाता था। हमने हिम्मत की और दोनों अखाड़े  में घुस गए। हमको देखते ही चमनपुर वाली चमक के आ गयी और हमारे दोनों हाथ पकड़ कर लगी चिल्लाने, "देखिये बौआ ! हमारा केलबन्नी (केले का बगान) ! हमारे केला का घौंद !! और ये छुछिया .... ! लुत्तिलगौनी ..... बेइमनठी … ! काट के रख ली है।"

हमारी दृष्टि बघुअरा वाली पर पड़े कि उससे पहले ही उसका स्पीकर चालु हो गया। हाथ को उल्टा चमका-चमका कर कहने लगी, "हाँ ! यही तो एगो छुलाछन (सुलक्षण) है। हरजाई कहीं की..... ! इतना ही गौरव है तो अपनी जमीन में क्यों नहीं रखी केला के बीट।"

इधर बघुअरा वाली भट्ठी में पड़े चना की तरह फरफरा ही रही थी कि उधर चमनपुर वाली तीसी की तरह चनचना उठी।

अब क्या करें ... मजा तो हमको इसमें रानी सुरुंगा के खेल से भी अधिक आ रहा था। लेकिन गाँव-घर का लिहाज। लोग-वाग एक तो हमें पढ़-लिखा बुद्धिमान समझते हैं। मामला की तहकीकात कर दोनों के मरद को तलब किये। चमनपुर वाली के मरद फुलचन गए हुए थे कुटमैती। बघुअरा वाली का मरद रूपचन ताश का खेल छोड़ कर आया। अब हम, झींगुर दास, बदरू झा, फजले मियाँ सब इधर बात ही कर रहे थे कि उधर फिर एक राउंड शुरू हो गया।

चमनपुर वाली कहे ‘शौखजरौनी ! तेरे जुआनी में लुत्ती लगा देंगे’ .... तो बघुअरा वाली भी कहाँ कम थी .... वो कहे ‘तोरे धन में बज्जर गिरा देंगे।’

इसी पर बदरू झा दोनों को डपटकर बोले, "धत्त ! तोरी जात के मच्छर काटे ! लाज-शर्म नहीं है तुम दोनों जनानी को क्या ? अरे इधर मरद-मानुस बात कर ही रहे हैं न .... ममला सुलझाना है कि कपरफोरी करना है.... ! तभी से कें...कें.... कें.... कें.... गाली-गलौज करे जा रही है।" बदरू झा की बोली में अभी भी सरपंची रुआब था। दोनों चुप हुई। तब हमलोग विस्तार से माजरा समझे।

वो क्या था कि फुलचन और रूपचन दोनों भाई ही थे। फुलचन के केला का पौधा गिर गया था रूपचन के मटर खेत में। रूपचन की जनानी घौंद काट के ले आयी। दोनों घर में वैसे ही बहुत प्रेम था। ऊपर से मालभोग केला के घौंद ने और रस बढ़ा दिया। बस हो गया मंगल के दंगल वीर बली का नाम ले कर।

रूपचनमा कहता कि पहले से ही केला का बीट हटाने को बोले थे तो हटाये नहीं .... हमारा धुर भर का मटर बर्बाद हो गया .... तो हम केला कैसे दे दें..... ! उधर चमनपुर वाली कहे कि हम छोड़ेंगे नहीं !

हमलोग बड़े जतन से रूपचनमा को समझाए। कहे, "अरे जैसे तू ... वैसे फुलचन ... ! दोनों घर तो एक ही है। तू भी खाओ ... तेरा भाई-भतीजा भी खायेगा। आधा घौंद केला इसे भी दे दो।"

रूपचनमा तैयार हो गया। हमलोग के सामने ही कचिया हांसू से बराबर दो भाग काट दिया। तब झींगुर दास बोला, "हे चमनपुर वाली कनिया ! सुनो ! केला तेरा ही सही ... लेकिन इसके खेत में गिरा तो मटर तो बर्बाद हो ही गया। काट कर ले आया तो कोई बात नहीं थी .... जैसा तेरा बाल-बच्चा, वैसा इसका। दोनों आदमी आधा-आधा ले लो !"

लेकिन यह भलाई की दुनिया नहीं। चमनपुर वाली लगी फिर चनचनाने। हमारा केला हम आधा क्यों लेंगे.... ? लबरा पंच सब ! मुँह देख कर पंचैती करता है .... !’

लेओ भैय्या ! अब हम लोगों पर ही उखड़ गयी। उधर बघुअरा वाली भी चिल्लाए जा रही थी, "एक छीमी भी नहीं देंगे केला... ! हमारे मटर का हर्जाना कौन भड़ेगा ?"

रूपचन किसी तरह अपनी लुगाई को समझाए मगर उसकी भौजाई को कौन समझाए.... ! वह तो आकाश-पाताल एक कर रही थी। रह-रह के गुर्राने लगे। हमलोग भी क्या करें ... मूकदर्शक बने हुए थे।

अंत में बेचारा रूपचन भी आजीज हो गया। पत्नी को डांट-डपट कर खुद ही टोकरी में केला डाल कर चला गया भौजाई को देने .... मगर चमनपुर वाली ने उसका तन-वदन, धरम-ईमान का एक भी गति नहीं छोडी। आखिर मरद का जात कितना सहे .... ! वह भी तमसा गया। एकदम से बोल पड़ा, "हे.... ! 'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको...... !!' जय हो अगिन-देवता ! लो केला का भोग लगाव.... !" कह कर धान उबालने के लिए जो बड़ी भट्टी जल रही थी उसी में दोंनो टोकड़ी का केला उड़ेल दिया..... ! ‘अब लो खा लो केला छील-छील कर ... ! "न तोको न मोको....चूल्हे में झोंको !!"

हा.... हा... हा..... ठी... ठी... ठी.... ! खें..... खें....खें...खें...... हे.... हे...हे....हे.... ! एक पहर से यह कीर्तन भजन का आनंद ले रही भीड़ के मुँह से समवेत ठहाके निकल पड़े।

हम भी बोल उठे, "एकदम सही किया, रूपचन ! यह औरतिया झगड़ा .... बाप रे बाप ! छोटा-बड़ा किसी की बात नहीं समझती है। हमारा है तो हमारा है। हम लेंगे तो हम नहीं देंगे..... ! लो अब ठन-ठन गोपाल.... ! न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!" अब तो संतुष्टि हुई न .... आधा में संतोष नहीं था तो पूरा गया अग्नि देवता के पेट में।"

हम भी अपनी भड़ास निकाल लिए और भीड़ को पुकार कर बोले, "चले-चलो भाई ! चले-चलो !! खेल ख़तम हुआ... !"

हम भी अपना बटुआ संभाले और झींगुर दास के साथ बढ़ गए घर की तरफ। लेकिन एक बात तो भूल ही गए ..... अरे आप आज की कहावत का मतलब समझे कि नहीं .... ? यह तो एकदम सिंपल है ... । अरे

जब किसी वस्तु के लिए दो आदमी इतना खींचा-तानी करें कि न इसका हो सके न उसका .... और खा-म-खा बर्बाद हो जाए तो आप रूपचन की तरह कह दीजिएगा "न तोको, ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!"

तो यही था इसका अर्थ। अब चलते हैं। घर जाने में आज बहुद देरी हो गई। लोग घर पे अंदेशा कर रहे होंगे कि बैल बेच के आ रहा है ..... कहीं राहजनी तो नहीं हो गया ..... ! जय राम जी की !!!

शुक्रवार, 27 मई 2011

खुजली का सुख

 
मनुष्य शरीर  में  व्यापने वाले  असंख्य व्याधियों में ऐसी कोई  व्याधि नहीं जो कष्टकर न हो...परन्तु " खुजली " एक ऐसी व्याधि है जो भले त्वचा को  लाख घात पहुंचाए, पर खुजाने के  सुख आनंद और तृप्ति का वह भली प्रकार कह  सकता है जो कभी भी इस व्याधि के चपेट में आ चुका हो और खुजाने का सुख पा चुका हो....सोचिये न ,कहीं किसी ऐसे स्थान और स्थिति में जहाँ चहुँ ओर से हम वरिष्ठ जनों  से घिरे हुए हों और  उसी पल  शरीर के नितांत वर्ज्य प्रदेश में जोर की खजुआहट  मचे.. शिष्टाचार  का तकाजा, हम खुलकर खजुआ ही  नहीं सकते...कैसी कष्टप्रद स्थिति बनती है, कितनी कसमसाहट होती है...घोर खुजलीकारक उस क्षण  में यदि मन भर खुजलाने का सुअवसर मिल जाए तो वह सुख बड़े बड़े सुखो को नगण्य ठहराने लायक हो जाती है.
 
खुजली एक ऐसा रोग है, जितना खुजाओ, त्वचा  जितनी ही छिले जले , आनंद उतना ही बढ़ता चला जाता है...खुजाते समय इस बात का किंचित भी भान  कहाँ रहता है कि चमड़ी की क्या गत बन रही है..परन्तु क्या  खुजली का निराकरण खुजलाना है ???
नहीं !!!
बल्कि समय रहते यदि इसका उपचार न कराया गया तो कभी कभी त्वचा पर पड़ा दाग जीवन भर के लिए अमिट बनकर रह जाता है या फिर कई अन्य असाध्य रोग का कारण भी बन जाता है.....
 
अब आगे,
क्या  खुजली केवल एक बाह्य शारीरिक रोग है,जो शरीर के त्वचा में ही हुआ करती है????
नहीं !!!
खुजली का प्रभावक्षेत्र केवल शरीर नहीं...मन भी है. शारीरिक खुजली के विषय में तो हम सभी जानते हैं,चलिए आज हम मानसिक खुजली को जाने,जो कि त्वचा के रोग से कई लाख गुना अधिक गंभीर और अहितकारी है.. शारीरिक  खुजली तो कतिपय  औषधियों द्वारा मिटाई भी जा सकती है, परन्तु मानसिक खुजली के निराकरण हेतु तो बाह्य रूप में खा सकने वाली कोई गोली या सिरप अभी तक  बनी ही नहीं  है..
 
अब  यह मानसिक खुजली है क्या  ?? 
"जीवन में घटित दुखद कष्टदायक घटनाओं की स्मृति को  वर्षों तक स्मृति पटल पर संरक्षित और पोषित रखना ही मानसिक खुजली है".
जिस प्रकार शारीरिक खुजली त्वचा को घात पहुंचाते हुए भी सुखकारी लगती है,ठीक वैसे ही यह मानसिक खुजली भी मन मस्तिष्क को क्षत विक्षत करते संतोषकारी लगती है...
सचेत रहें ,देखते रहें , जब भी हमारी प्रवृत्ति इस प्रकार की बनने लगे कि हम अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं को, दुखद स्मृतियों को बारम्बार दुहराने लगे हैं, नित्यप्रति उनका  स्मरण  करने और दुखी होने को सामान्य  दिनचर्या का अंग  बनाते जा रहे हैं, तो निश्चित मानिए कि हम उस गंभीर असाध्य रोग  से ग्रसित हो रहे  हैं..यह रोग आगे बढ़ते हुए  दीमक की भांति  मनुष्य के अंतस को खोखला करता जीवन  दृष्टिकोण ही नकारात्मक करने लगता है और इसके चपेट में आया मनुष्य इसका आभास भी नहीं कर पाता..
 
इस व्याधि संग  हमें दुखी रहने का व्यसन लग जाता  है.. हम दुखी रहने में ही सुख पाने लगते हैं.. अवस्था यहाँ तक पहुँच जाती है कि यदि कभी कोई दिन ऐसा बीता कि दुखद स्मृतियों को दुहराया नहीं,तो और दुखी हो जाते हैं और फिर यह जीवन जगत  सब निस्सार  अर्थ हीन लगने लगता है..हमारे सम्मुख लाख सुख आकर क्यों न बिछ जाँय हम हर्षित नहीं हो पाते  और यही नहीं हमारे आस पास हमारा नितांत ही आत्मीय भी यदि  प्रसन्न  हो तो हम यथासंभव प्रयास करेंगे कि वह हमारे दुःख के कुएं में आ उसमे डूब जाय और ऐसा न हुआ तो अपने उस  आत्मीय  की प्रसन्नता से ही  चिढ होने लगेगी...
 
मन और मष्तिष्क यदि निरंतर ही दुखद ( नकारात्मक ) स्थिति में पड़ा रहे, तो न केवल हमारे  संरचनात्मक सामर्थ्य का ह्रास होता है अपितु यह तीव्रता से शरीर को भी रोग ग्रस्त कर देता है..स्वाभाविक ही तो है,शरीर का नियंत्रक  मन मष्तिष्क  ही जब स्वस्थ न रहे,तो हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि मनन चिंतन सोच कार्य व्यवहार सब स्वस्थ  और सकारात्मक हो .... 
 
अब विचार रोग के स्रोतों पर :-
अन्न जल के रूप में जो भोज्य पदार्थ हम  ग्रहण करते हैं वह शारीरिक सञ्चालन हेतु भले यथेष्ट हो ,पर मनुष्य को इतना ही  तो नहीं चाहिए, उसे मानसिक आहार भी चाहिए.यद्यपि ग्रहण की गयी अन्न जल वायु रूपी आहार भी मनोवस्था पर प्रभाव डालती है,पर इसके अतिरिक्त  विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमो से तथा मनन चिंतन द्वारा नित्यप्रति जो हम ग्रहण करते हैं,वह आहार मुख्य रूप से हमारे मानसिक स्वस्थ्य को प्रभावित और नियंत्रित करता है.. और जैसे  दूषित भोजन शारीरिक अस्वस्थता का कारण होता है,वैसे  ही विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमों से ग्रहण की गयी दूषित/नकारात्मक  सोच विचार हमारे मानसिक अस्वस्थता का हेतु बनती है...
 
विडंबना है कि दिनानुदिन जटिल होते जीवन चक्र के मध्य  जितनी मात्रा में हमारे मानसिक सामर्थ्य का ह्रास/खपत  हो  रहा है, उतनी मात्रा में न तो पौष्टिक शारीरिक आहार जुटा पाने में हम सक्षम हो पा रहे हैं और न ही  स्वस्थ मानसिक आहार..आज तनाव ग्रस्त मष्तिष्क जब मनोरंजन के माध्यम से विश्राम चाहता है, तो मनोरंजन के साधन रूप में उसे सबसे  सुगम साधन टी वी के रूप में ही मिलता है. और देखिये न, मन मष्तिस्क और नयनों  को चुंधियाते  इस चमकीले माध्यम ने ,जो अहर्निश नकारात्मक पात्र कथाएं परोस परोस कर, षड़यंत्र ,अश्लीलता और सनसनी दिखा दिखाकर लोगों को क्या खुराक दे रहा है..बड़े आराम  से यह मानव मन मस्तिष्क का प्रेम पूर्वक भक्षण कर रहा है. यद्यपि ऐसा नहीं है कि  इससे नियमित जुड़े रहने वाले भी यह सब देख खीझते नहीं हैं,पर इनमे स्थित रहस्य रोमांच इन्हें इनसे दूर नहीं होने देता और फलतः सब जानते समझते भी  इस से जुड़े रहते हैं..अपनी हानि देख सह भी उसी से जुड़े रहना, यह मानसिक  खुजली नहीं तो और क्या  है ??
 
पठन पाठन, बागवानी,समाज सेवा ,विभिन्न कला माध्यम, इत्यादि  अनेक रचनात्मक कार्य  जो व्यक्ति में असीमित सकारात्मक उर्जा भर सकते हैं...पर आज कितने लोग  रह गए हैं जो इन श्रोतों के साथ जुड़े हुए सुख संतोष पाने को प्रयासरत हैं ??  भौतिक सुख सुविधायों के साधनों की आज कैसी बाढ़ सी आई हुई है,पर जितनी तीव्रता  से इनकी भरमार हो रही है, उससे दुगुनी  तीव्रता  से मानवमात्र में मानसिक अवसाद भी बढ़ रहा है,मनोरोग बढ़ रहें हैं, आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, सम्बन्ध आत्मीयता सहनशीलता धैर्य सब  ध्वस्त हुए जा  रहे हैं,परिवार ,समाज  और देश टूट रहा है..यह सब टूट इसलिए रहा है क्योंकि इसकी प्रथम इकाई मनुष्य रोज स्वस्थ मानसिक आहार  के आभाव में अन्दर से टूट रहा है..
 
इस त्रासद अवस्था में गंभीर रूप से आत्मावलोकन तथा  शारीरिक मानसिक स्वस्थ्य के प्रति यथेष्ट सचेष्ट रहने की आवश्यकता है.नहीं तो हमारा सुखी रहने का ध्येय कभी पूर्णता न  पायेगा.. व्यापक रूप में हमें अपने जीवन दृष्टिकोण को भी  निश्चित रूप से बदलना पड़ेगा...हमारा वश अपने भाग्य पर, अपने जीवन में घटित  घटनाओं पर भले न हो ,पर  हमारा वश इसपर अवश्य है कि हम उन घटनाओं को किस रूप में देखें..इस संसार का एक भी मनुष्य  यह दावा नहीं कर सकता कि उसके जीवन में सुखद कुछ भी न घटा है...तो हमें  करना यही होगा कि दुखद स्मृतियाँ जो घट  चुकी हैं,बीत चुकी हैं,उन्हें बीत जाने दें,मुट्ठी में भींच कर ,ह्रदय से लगाकर सदा उन्हें जीवित  पोषित न रखें और इसके विपरीत सुखद स्मृतियों को सदा ही जिलाएँ  रखें,नित्यप्रति उसे दुहराते रहें...जब हम अपने सुखद स्मृतियों की तालिका  को दुहराते रहने की प्रवृत्ति बना लेंगे,  न केवल  दुखद  परिस्थितियों के धैर्यपूर्वक  सामना करने की अपरिमित क्षमता पाएंगे बल्कि हमारी प्रसन्न  और प्रत्येक परिस्थिति में सहज, धैर्यवान  रहने की जीवन दृष्टियुक्त  सकारात्मक सोच,  कईयों के जीवन में सुख और सकारात्मकता  बिखेरने का निमित्त बनेगी... 
 
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रंजना.

गुरुवार, 26 मई 2011

श्रीकांत वर्मा की पुण्य-तिथि पर …

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जीवन परिचय

जन्म : कवि, कथाकार, समालोचक एवं संसद सदस्य श्रीकांत वर्मा का जन्म छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में 18 सितम्बर 1931 को हुआ था।

शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा के लिए उनका दाखिला बिलासपुर के एक अंग्रेज़ी स्कूल में कराया गया लेकिन वहां का वातावरण उन्हें रास नहीं आया। उन्होंने उस स्कूल को छोड़ दिया और नगर पालिका के स्कूल से शिक्षा ग्रहण की। मैट्रिक पास कर लेने के बाद आगे की शिक्षा के लिए उन्हें इलाहाबाद भेजा गया। वहां उन्होंने क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया। पर वहां उन्हें घर की याद सताने लगी और बिलासपुर वापस लौट आए। यहीं पर बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी की। प्राइवेट से नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. किया।

कार्यक्षेत्र : पिता राजकिशोर वर्मा वकील थे। हलाकि यह एक सम्पन्न परिवार था, फिर भी श्रीकांत वर्मा को काफ़ी कठिन दिन देखने पड़े। 1952 तक बेकारी झेलते रहे। घर की आर्थिक स्थिति ख़राब थी। स्कूल शिक्षक की नौकरी शुरु की। परिवार में सबसे बड़े थे इसलिए परिवार की जिम्मेदारी भी उन पर आ पड़ी। 1954 में उनकी भेंट मुक्तिबोध से हुई। उनकी प्रेरणा से बिलासपुर में नवलेखन की पत्रिका ‘नयी दिशा’ का संपादन करना शुरु किया। 1956 से नरेश मेहता के साथ प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘कृति’ पत्रिका का दिल्ली से संपादन एवं प्रकाशन करते थे। 1956 से लेकर 1963 तक का समय उनके लिए संघर्ष का काल था। 1964 में रायपुर की सांसद मिनी माता ने उन्हें दिल्ली के अपने सरकारी आवास में रहने के लिए बुला लिया, जहां वे अगले ग्यारह साल तक रहे। दिल्ली में वे पत्रकारिता से जुड़े। 1965 से 1977 तक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के प्रकाशन समूह से निकलने वाली पत्रिका ‘दिनमान’ में उन्होंने विशेष संवददाता की हैसियत से काम किया। बाद में वे कॉंग्रेस की राजनीति में सक्रिय हो गए और उन्हें ‘दिनमान’ से अलग होना पड़ा। 1969 में वे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के काफ़ी क़रीब आये। वे कॉंग्रेस के महासचिव थे। 1976 में वह मध्यप्रदेश से राज्य सभा में निर्वाचित हुए। 1980 में कॉंग्रेस प्रचार समीति के अध्यक्ष थे। 1985 में राजीव गांधी के काल में उन्हें महासचिव के पद से हटा दिया गया।

मृत्यु : जीवन के अंतिम क्षणों में उन्हें बीमारियों ने भी घेर रखा था। अमेरिका में वे कैंसर के इलाज कराने के लिए गए। 26 मई 1986 को न्यूयार्क में उनका निधन हो गया।

पुरस्कार : उन्हे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिसमें ‘मगध’ काव्य संग्रह पर साहित्य अकादमी तथा मध्य प्रदेश का शिखर समान भी शामिल है।

:: प्रमुख रचनाएं ::

:: काव्य रचनाएँ :: भटका मेघ (1957), मायादर्पण (1967), दिनारंभ (1967), जलसाघर (1973), मगध (1983), और गरुड़ किसने देखा (1986)।

:: उपन्यास :: दूसरी बार (1968)।

:: कहानी-संग्रह :: झाड़ी (1964), संवाद (1969), घर (1981), दूसरे के पैर (1984), अरथी (1988), ठंड (1989), वास (1993), और साथ (1994)।

:: यात्रा वृत्तांत :: अपोलो का रथ (1973)।

:: संकलन :: प्रसंग

:: आलोचना :: जिरह (1975)।

:: साक्षात्कार :: बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में (1982)।

:: अनुवाद :: ‘फैसले का दिन’ रूसी कवि आंद्रे बेंज्नेसेंस्की की कविता का अनुवाद है।

:: साहित्यिक योगदान ::

मुक्तिबोध के बाद की पीढ़ी की कविता का मिजाज़ श्रीकांत वर्मा की काव्यकृतियों से पहचाना जा सकता है। बेचैनी, तनाव, नाराज़गी, विरोध आदि उनकी कविता का प्रमुख गुण है। आरंभ में तो उन्होंने रोमांटिक आवेग वाली कविताएं लिखीं लेकिन बाद में राजनीतिक, सामाजिक विसंगतियों का अपनी कविताओं में जम कर खुलासा किया है। सातवें दशक के राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ ने कविता की दिशा को पलट दिया। नयी कविता के अभिजात्य का मिथ दूर हो गया था। इसलिए समय और समाज के यथार्थ को व्यक्त करने के लिए श्रीकांत जी को नयी काव्यभूमि की खोज करनी पड़ी।

विलासपुर एक कस्बा है और यही कस्बाई देशजता उनके जीवन और लेखन में मौज़ूद रही। इसको तोड़ने की भी उन्होंने कोशिश की पर कस्बाई संवेदन उनके व्यक्तित्व में अपनी जड़ें गहरी जमा चुकी थी। उनके चाचा नंदकिशोर वर्मा विलासपुर की एक जमींदारी केंदा के दीवान थे। केंदा के घने जंगलों के परिवेश ने उनके बाल मन पर अमिट छाप छोड़ी। इस प्रभाव से उनके लेखन में पहाड़, नदी, जंगल, तालाब की स्मृतियां हमेशा आती रही।

वे काफ़ी संवेदनशील भी थे। एक खास तरह का अकेलापन उनके जीवन का एक हिस्सा था। इस अकेलेपन से रिसता हुआ अवसाद उनके व्यक्तित्व में भरा हुआ था। अंतिम दौर की अपनी कविताओं के द्वारा वे काव्य के उन प्रतिमानों को भी तोड़ते रहे जिन्हें वे स्वयं अपनी कविताओं से बनाते थे। ‘मगध’ और ‘गरुड़ किसने देखा’ एक ऐसे कवि की की करुणा की पुकार है जो युग संधि पर खड़ा अपने समय के मनुष्य, समाज, राजनीति, इतिहास और काल के प्रति बेहद निर्मम होकर उसके संकट को परिभाषित करना चाहता है।

पत्रकारिता और राजनीति के कारण उन्होंने देश-विदेश की यात्रा की और कई महान लेखकों-बुद्धिजीवियों के सम्पर्क में आए। उनकी वैचारिक मुठभेड़ प्रगतिवादियों, प्रगतिवाद विरोधियों और अधुनिकतावादियों से होती रहती थी। शुरु में मुक्तिबोध के प्रभाव से उनका मार्क्सवाद को ओर झुकाव था लेकिन हंगरी की घटनाओं के कारण मार्क्सवाद से उनका मोहभंग हुआ। वे प्रगतिविरोधी नहीं थे। उनपर डॉ. राममनोहर लोहिया के समाजवादी चिन्तन का गहरा प्रभाव पड़ा। उनका मानना था कि साहित्य एक सीमा तक ही समाज को प्रभावित कर पाता है। उसे बदलने का माध्यम राजनीति ही हो सकती है। वे नेहरू जी के आधुनिक समाज बनाने के विचारों से सहमत थे। वे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास का समर्थन करते थे।

मूलतः कवि होते हुए भी श्रीकांत वर्मा ने कविता के साथ-साथ कहानियां भी लिखीं। उनकी कहानियां उनकी कविता की पूरक हैं। वर्मा जी खुद स्वीकार करते हुए कहते हैं,

“कविता लिखते हुए मेरे हाथ सचमुच कांप रहे थे। तब मैंने कहानियां भी लिखनी आरंभ की – यह सोचकर कि रचना से रचना की कम्पन कुछ कम होगी। और यह सच है कि मैंने कथा-साहित्य के बतौर जो कुछ लिखा उससे मेरी आत्महीनता कुछ कम हुई; क्योंकि जैसे-जैसे मैं लिखता गया, संसार में पैठता गया। संसार में पैठना ही मुक्ति है। प्रवेश गिरफ़्तारी नहीं, आज़ादी है। ग़ुलामी है गमन, बहिर्गमन। कविताओं ने मुझे जो दुनिया दी थी, मेरी कहानी उसी का विस्तार है, उसी का एक और रूप जिसे मैं कविताओं के माध्यम से पहचान नहीं पा रहा था।”

कहानियों के पात्र उसी यथार्थ से जूझते हैं जिस यथार्थ को श्रीकांत वर्मा कविता में व्यक्त कर रहे थे। नयी कहानी आन्दोलन से अलग हटकर उन्होंने सामाजिक यथार्थ के भीतर जूझ रहे अभिशप्त चेहरों को उजागर किया है। वे नयी कहानी के ढ़ांचे को तोडकर कहानी विधा को बदलते नये यथार्थ से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। उनकी कहानियां नयी कहानी के दौर में प्रेम भरे खेल के मैदान से बाहर जाकर ठंड, झाड़ी, अरथी, शवयात्रा और घर जैसे सामाजिक यथार्थ की अविस्मरणीय दुनिया रचती हैं।

अपने एक मात्र उपन्यास ‘दूसरी बार’ के द्वारा वे साबित करना चाहते हैं कि आज प्रेम मानवीय दुनिया से बहिष्कृत हो गया है।

श्रीकांत वर्मा ने गद्य की विभिन्न विधाओं आलोचना, डायरी, यात्रा वृत्तांत और साक्षात्कार आदि में अपनी रचनात्मकता का परिचय दिया है। उन्होंने विदेशी साहित्य का भी अनुवाद किया।

श्रीकांत वर्मा की ख्याति एक ऐसे लेखक के रूप में है जिसने अपने युग के उत्थान-पतन, नैराश्य, द्वन्द्व, अवसाद तथा अन्धकार को एक जबर्दस्त आवेग के साथ पेश किया है। उनका लेखन एक अनवरत चलने वाली बहस और जिरह है, कभी दूसरों से, कभी खुद से।

बुधवार, 25 मई 2011

उपन्यास साहित्य - आधुनिकयुग

IMG_0545मनोज कुमार

उपन्यास साहित्य की चर्चा के क्रम में अब हम आधुनिक युग के उपन्यासों की चर्चा करेण्गे।

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आधुनिक युग के उपन्यासकार यूरोप के उपन्यासकारों से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होते हैं। पश्चिमी साहित्य के प्रभाव के कारण ही उपन्यासकारों ने आज जात-पात, वर्ण-धर्म तथा देश और संस्कृति के बंधन को तोड़ डाला है। आज वे नवीन मानवता की सृष्टि में संलग्न हैं। यही कारण है कि आज के उपन्यासकार किसी एक धारा को नहीं स्वीकार करते हैं वरन्‌ वे पश्चिमी साहित्य के आधुनिकतम या नवीन वादों से प्रभावित होकर नवीन विचारधाराओं को विकसित करने का प्रयास करते हैं।

प्रेमचंद के बाद उपन्यास कई मोड़ों से गुज़रता हुआ दिखाई देता है। इन्हें मुख्यतः तीन वर्गों में बांटा जा सकता है –

१. 1950 तक के उपन्यास,

२. 1950 से 1960 तक के उपन्यास और

३. साठोत्तरी उपन्यास।

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1950 तक के उपन्यास में मुख्यतः चार प्रकार की विचारधाराएं विकसित हो रही हैं –

१. फ़्रायडियन धारा,

२. मनोवैज्ञानिक धारा,

३. मार्क्सवादी धारा, और

४. राजनीतिक धारा

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फ़्रायड ने सेक्स को महत्ता प्रदान की है। यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो काम-वासनाओं की अतृप्ति से उत्पन्न होने वाली कुंठाओं को लेकर ही फ़्रायड के सेक्स मनोविज्ञान ने प्रगति की है। फ़्रायड के कुंठावाद के आधार पर लेखकों ने मनुष्य की दमित वासनाओं, कुंठाओं, काम-प्रवृत्तियों, अहं, दंभ और हीन-भावना आदि ग्रंथियों का चित्रण करके हिन्दी उपन्यास में व्यक्ति का ऐसा रूप प्रस्तुत किया जिसमें वह अपनी आन्तरिक छवि देख सकता है। इन कुंठाओं का हल उपस्थित करने के लिए जिस प्रणाली को अपनाया गया उसे ही मनोविश्लेष्णात्मक प्रणाली कहा जाता है।

प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में समाज के साथ व्यक्ति के एडजस्ट होने के प्रश्न को अधिक महत्व दिया। प्रेमचंद के बाद हिन्दी उपन्यास में मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों की एक ऐसी पंक्ति तैयार हुई जिसने हिन्दी को अनेक श्रेष्ठ उपन्यासों से समृद्ध किया है। फ़्रायड, एडलर और युंग की मनोविश्लेषण-संबंधी मान्यताओं का इस धारा के लेखको पर गहरा प्रभाव है।

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हिन्दी उपन्यासकारों में इलाचंद्र जोशी इस प्रणाली (फ़्रायड के मनोविश्लेषण) से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने फ़्रायड के सिद्धान्तों के आधार पर मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास लिखे। उनका पहला उपन्यास ‘घृणामयी’ (1929) है। परन्तु उन्हें ख्याति ‘संन्यासी’ (1941) से मिली। उनके लिखे उपन्यास हैं - ‘संन्यासी’, ‘पर्दे की रानी’ (1941), ‘प्रेत और छाया’ (1946), ‘निर्वासित’ (1946), ‘मुक्तिपथ’ (1950), ‘जिप्सी’ (1955), ‘जहाज का पंछी’ (1955), ‘ऋतुचक्र’ (1973), ‘भूत का भविष्य’ (1973) सुबह के भूले, और कवि की प्रेयसी।

इलाचंद्र जोशी का जन्म 13 दिसंबर 1902 को अल्मोड़ा में हुआ था। उनका निधन 14 दिसंबर 1982 को हुआ। हिंदी में मनोविश्लेषवादी उपन्यास और कहानी लेखन की दृष्टि से उनका स्थान शीर्ष पर है।

जोशी जी के उपन्यास चेतन और अचेतन मन में छुपी हुई वासनाओं और कुंठाओं का ही अध्ययन उपस्थित करते हैं। इनकी भावभूमियां एकांगी, संकुचित और छोटी हैं। इनके पात्र किसी न किसी मनोवैज्ञानिक ग्रंथि का शिकार हैं। इन ग्रंथियों के कारण वे असामाजिक कार्य में संलग्न होते हैं। उनके उपन्यासों में मनोविश्लेषण का इतना प्रभाव है कि उनके उपन्यास फ़्रायड की मान्यताओं के साहित्यिक संस्करण प्रतीत होते हैं। उनके उपन्यासों के पात्र अनेक मनोग्रंथियों से पीड़ित रुग्ण और दुर्बल हैं। फ़्रायड के मनोविश्लेषण का मूल आधार काम-भावना है। उसी को केन्द्र में रख कर ये उपन्यास लिखे गए हैं।

‘संन्यासी’ उनका सफल उपन्यास है जो कला के विचार से उच्चकोटि का है। इसमें आत्महीनता की ग्रंथि है। ‘प्रेत और छाया’ में इडिपस ग्रंथि है, जबकि ‘पर्दे की रानी’ के सभी पात्र मानसिक कुंठाओं से ग्रस्त हैं। ‘मुक्तिपथ’, ‘जिप्सी’ और ‘जहाज का पंछी’ में जोशी जी ने सामाजिकता का भी सन्निवेश किया है।

जोशी जी के उपन्यासों को पढककर लगता है, मानो उनका प्रतिपाद्य यह है कि जीवन के चरम सत्य की उपलब्धि सेक्स में ही होती है।

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जोशी जी के अतिरिक्त इस पद्धति के उपन्यासकारों में सचिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन अज्ञेय का भी प्रमुख स्थान है। अज्ञेय ने उपन्यास कला को एक नया शिल्प दिया। इनसे पहले अंग्रेज़ी उपन्यासों के जिस गद्य को लोग आदर्श मानते थे, उसे ‘अज्ञेय’ जी ने आत्मसात्‌ कर अपनी रचनाओं में मूर्तरूप दिया। इनकी कहानियों में जीवन की सच्चाई, व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक और विचारों की ताज़गी थी। फ़्रायड के मनोविश्लेषण शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान अज्ञेय जी ने मनोविश्लेषण शास्त्र के प्रतीकों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है।

‘शेखर एक जीवनी’ (1941-1944) (अज्ञेय जी के बारे में यहां और यहां पढ़ें) के प्रकाशन के साथ हिन्दी उपन्यास की दिशा में एक नया मोड़ आया। यह उपन्यास हिन्दी के उपन्यास जगत में एक बिल्कुल नए अध्याय का श्रीगणेश करता है। यह उपन्यास मानव के मनोविकास का वैज्ञानिक चित्र उपस्थित करता है। इसमें मूलतः व्यक्ति-स्वातंत्र्य की समस्या उठाई गई है। कथ्य, शिल्प और भाषा की दृष्टि से यह परंपरा हट कर एक नया प्रयोग था। आधुनिकता का सर्वप्रथम समावेश इसी उपन्यास में दिखाई देता है। इसका मूल मंतव्य है – स्वतंत्रता की खोज। यह खोज सबसे काट कर नहीं की गई है, बल्कि मनवीय परिस्थितियों के बीच की गयी है। स्वतंत्रता की तलाश में शेखर अनेक प्रकार के आंतरिक संघर्षों से जूझता है, किंतु अपने निषेधात्मक रोमांटिक विद्रोह को लेकर वह बहिर्मुखी नहीं हो पाता। फलतः सारा संघर्ष मौखिक रह जाता है, क्रिया में नहीं बदलता। फिर भी शेखर के विद्रोह के पीछे आज की पीढ़ी का विद्रोही स्वर है। दूसरे भाग में उसका बिखरा व्यक्तित्व संघटित होकर रचनात्मक बनता है। शेखर एक विद्रोही है। समाज के निर्मित प्रतिमान उसे सह्य नहीं है। अपनी अनुभूतियों को वह अभिव्यक्ति देता है। यह एक प्रयोगधर्मी उपन्यास है। एक रात में देखे गए विजन को शब्दबद्ध किया गया है। इसमें अनुभूति के टुकड़ों को जहां-तहां से उठा लिया गया है। चेतना प्रवाह, प्रतीकात्मकता और भाषा की अंतरिकता के कारण यह उपन्यास अप्रतिम है।

अज्ञेय का दूसरा उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ (1951) में व्यक्तिवादी जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है। उन्होंने मध्यम वर्गीय कुंठित जीवन के प्रतीक के रूप में नदी के द्वीप की कल्पना की है। नदी का द्वीप धारा से कटा हुआ है। मध्यवर्गीय जीवन भी शेष-जन-प्रवाह से विछिन्न है। अज्ञेय का अपनी-विद्रोह भावना, वरण की स्वतंत्रता और व्यक्तित्व की अद्द्वितीयता के कारण विशिष्ट स्थान है। उन्हें भाषा एवं मनोविश्लेषण की दृष्टि से ‘नदी के द्वीप’ में अपूर्व सफलता मिली।

‘अपने-अपने अजनबी’ (1961) अज्ञेय का तीसरा उपन्यास है। इसमें एक प्रकार की धार्मिक दृष्टिसंपन्नता दिखाई पड़ती है। इसमें मुख्य समस्या स्वंत्रता के वरण की है। संत्रास, अकेलेपन, बेग़ानगी, मृत्युबोध, अजनबीपन आदि से स्वंत्रता संयुक्त हो गई है। स्वतंत्रता को अहंकार से जोड़कर अज्ञेय जी ने इसमें अस्तित्ववादी स्वतंत्रता मे मूल अर्थ को ही बदल दिया है।

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‘नर – नारी’ और ‘हमारा मन’ नाम की दो अनूठी पत्रिकाओं का सम्पादन - प्रकाशन करने वाले द्वारिका प्रसाद के उपन्यास ‘मम्मी बिगड़ेगी’ और ‘घेरे के बाहर’  भी इसी कोटि के अन्तर्गत आते हैं। ये एक विवादास्पद उपन्यास थे।  हिन्दी में सेक्स और मनोविज्ञान के ऊपर लेखन में यह  पहला गंभीर प्रयास था जिसे पाठकों ने पढ़ा और सराहा।  इन उपन्यासों में कथा के विकास पर ज्यादा जोर न देकर इस सम्बन्ध को जायज ठहराने की कोशिश अधिक की गयी है। इन उपन्यासों के चर्चित होने का मुख्य कारण इसका विषय था। उपन्यास कला की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास नहीं कहा जा सकता, किन्तु हिन्दी में यह एक अनूठा और साहसपूर्ण उपन्यास है।

डॉ. देवराज के ‘पथ की खोज’, ‘अजय की डायरी’ और ‘मैं, वे और आप’ भी इसी श्रेणी के उपन्यास हैं।

मनोहर श्याम जोशी का ‘हमजाद’ भी इसी श्रेणी के तहत आता है।

संदर्भ -

1. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 2. हिंदी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र 3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – श्यामचन्द्र कपूर 4. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी 5. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली खंड-7 6. साहित्यिक निबंध आधुनिक दृष्टिकोण – बच्चन सिंह 7. झूठा सच – यशपाल 8. त्यागपत्र – जैनेन्द्र कुमार

राजभाषा विकास परिषद: ललित लेखन और शब्द शक्तियाँ

राजभाषा विकास परिषद: ललित लेखन और शब्द शक्तियाँ

सोमवार, 23 मई 2011

जा रहे हो कौन पथ पर ???



ज्ञान चक्षु खोल कर
विज्ञान का विस्तार कर
जा रहे हो कौन पथ पर
देखो ज़रा तुम सोच कर।


कौन राह के पथिक हो
कौन सी मंजिल है
सही डगर के बिना
मंजिल भी भटक गई है।

अस्त्र - शस्त्र निर्माण कर
स्वयं का ही संहार कर
क्या चाहते हो मानव ?
इस सृष्टि का विनाश कर ।

विज्ञान इतना बढ़ गया
विनाश की ओर चल दिया
धरा से भी ऊपर उठ
ग्रह की ओर चल दिया ।

हे मनुज ! रोको कदम
स्नेह से भर लो ये मन
लौट आओ उस पथ से जहाँ
हो रहा मनुष्यता का पतन।
 


शुक्रवार, 20 मई 2011

जन्म दिन पर सुमित्रानंदन पंत की काव्य-यात्रा के विविध चरण

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आज कविवर पंत जी का जन्म दिन है। इस अवसर पर एक विशेष आलेख।

 पंत जी का जीवन परिचय और साहित्यिक उपलब्धियां यहां पढ़े।

clip_image008पंत जी हिन्दी के छायावादी युग चार के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रकृति के एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी बचपन से ही काव्य प्रतिभा के धनी थे और 16 वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता रची “गिरजे का घंटा”। तब से वे निरंतर काव्य साधना में तल्लीन रहे।

कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, “संभवतः प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर अधिकतर बाहर ही रहते हैं।” अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेजी कवियों का प्रभाव भी है।

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‘उच्छ्वास’ से लेकर ‘गुंजन’ तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य उपादान हैं – प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्रकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां की ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी मां हो। उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की

गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा

मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया।

पंतजी को जन्म के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।

नियति ने ही निज कुटिल कर से सुखद

गोद मेरे लाड़ की थी छीन ली,

बाल्य ही में हो गई थी लुप्त हा!

मातृ अंचल की अभय छाया मुझे।

मां की कमी उन्हें काफी सालती रही और प्रकृति माँ की गोद का सहारा मिला तो मानों वे उसके लाड़ से अपने आप को पूरी तरह सरोबार कर लेना चाहते थेः

मातृहीन, मन में एकाकी, सजल बाल्य था स्थिति से अवगत,

स्नेहांचल से रहित, आत्म स्थित, धात्री पोषित, नम्र, भाव-रत

हालाकि पंत जी ने गद्य की भी कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई लेकिन मूलतः वे कविता के प्रति ही समर्पित थे। 1918 से 1920 तक की उनकी अधिकांश रचनाएं ‘वीणा’ में छपी हैं। यद्यपि अपनी आरंभिक रचनाओं ‘वीणा’ और ‘ग्रंथि’ से पंत जी ने काव्यप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा ज़रूर पर एक छायावादी कवि के रूप में इनकी प्रतिष्ठा ‘पल्लव’ से ही मिली। ‘पल्लव’ की अधिकांश रचनाएं कॉलेज में पढने जब वे प्रयाग आए, उसी दौरान लिखी गईं। पंत जी कहते हैं, “शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों से बहुत-कुछ मैंने सीखा। मेरे मन में शब्द-चयन और ध्वनि-सौन्दर्य का बोध पैदा हुआ। ‘पल्लव’-काल की प्रमुख रचनाओं का आरम्भ इसके बाद ही होता है।”

प्रकृति-सौन्दर्य और प्रकृति-प्रेम की अभिव्यंजना “पल्लव” में अधिक प्रांजल तथा परिपक्व रूप में हुई है। इस संग्रह के द्वारा पंत जी प्रकृति की रमणीय वीथिका से होकर काव्य के भाव-विशद सौन्दर्य प्रासाद में प्रवेश पा सके। छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का काम किया। सुमित्रानंदन पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा कि मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का प्रयोजन है।

पल्लव को आलोचक भी छायावाद का पूर्ण उत्कर्ष मानते हैं। डॉ. नगेन्द्र का मानना है, “‘पल्लव’ की भूमिका हिंदी में छायावाद-युग के आविर्भाव का ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है।” भाव, भाषा, लय और अलंकरण के विविध उपकरणों का बड़ी कुशलता से इसमें समावेश किया गया है। ‘पल्लव’ में प्राकृतिक रहस्य की भावना ज्ञान की जिज्ञासा में परिणत हो गयी है। इसकी सीमाएं छायावादी अभिव्यंजना की सीमाएं हैं। इसमें पंत जी कल्पना द्वारा नवीन वास्तविकता की अनुभूति प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे थे। इसके साथ ही इसमें मानव जीवन की अनित्य वास्तविकता के भीतर सत्य को खोजने का प्रयत्न भी है, जिसके आधार पर नवीन वास्तविकता का निर्माण किया जा सके।

कवि पंत की रचनाओं को देख कर ऐसा लगता था जैसे वे स्वयं प्रकृति स्वरूप थे। उनकी विभिन्न रचनाओं में ऐसा लगता है जैसे कवि प्रकृति से बात कर रहा हो, अनुनय कर रहा हो, प्रश्न कर रहा हो। मानों प्रकृति कविमय हो गई है और कवि प्रकृतिमय हो गया है। प्रकृति से परे सोचना उनके लिए असंभव सा थाः-

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।

बाले! तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन॥

कवि सम्राट पंत जी ने स्वयं माना कि छायावाद वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है। अपनी संकुचित परिभाषा के कारण कुछ लोग पंत की रचनाओं में भी केवल पल्लव और पल्लव में भी कुछेक कविताओं को ही छायावाद के अंतर्गत स्वीकार करते हैं। मौन निमंत्रण में अज्ञात की जिज्ञासा होने के कारण रहस्यवाद है, अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता के कारण छायावाद है और कल्पनालोक में स्वच्छंद विचरण करने के कारण स्वच्छंदतावाद भी है। पंत का रहस्य भावना ‘अज्ञात’ की लालसा के रूप में व्यक्त हुई है। पंत सीमित ज्ञान की सीमा को तोड़कर प्रकृति और जगत के प्रति जिज्ञासु की तरह देखते हैं। पंत का बालक मन हर चीज से सवाल पूछता है।

प्रथम रशमि का आना रंगिणि, तूने कैसे पहचाना

‘गुंजन’, विशेषकर ‘युगांत’ में आकर पंत की काव्य यात्रा का प्रथम चरण समाप्त हो जाता है। ‘गुंजन’-काल की रचनाओं में जीवन-विकास के सत्य पर पंत जी का विश्वास प्रतिष्ठित हो जाता है।

सुन्दर से नित सुन्दरतर, सुन्दरतर से सुन्दरतम

सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर सुन्दर जग जीवन!

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उनकी काव्य यात्रा का दूसरा चरण ‘युगांत’, ‘युग-वाणी’ और ‘ग्राम्या’ को माना जा सकता है। इस काल तक आते-आते कवि स्थायी वास्तविकता के विजय-गीत गाने को लालायित हो उठता है और उसके लिए आवश्यक साधना को अपनाने की तैयारी करने लगता है, उसे ‘चाहिए विश्व को नव जीवन’ का अनुभव भी होने लगता है।

नवीन जीवन तथा युग-परिवर्तन की धारणा को सामाजिक रूप देने की कोशिश ‘युगान्त’ में सक्रिय रूप में सामने आई है। ‘युगान्त’ की अधिकांश कविताएं कवि की तीखी भाव चेतना के परिवर्तन का संकेत देती हैं। यह परिवर्तन वस्तुवादी चेतना के प्रति अधिक आग्रहशील दिखता है। “द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र, हे स्रस्त, ध्वस्त, हे शुष्क शीर्ण” में जहां ओजपूर्ण आवेश है वहीं गा कोकिल में नवीन जीवन पल्लवों से सौन्दर्य-मंडित करने का भी आग्रह है।

गा कोकिल, बरसा पावक कण

नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन –

झरे जाति-कुल; वर्ण-पर्ण धन –

व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष-रण –

झरें-मरें विस्मृत में तत्क्षण –

गा कोकिल, गा, मत कर चिन्तन -

‘ग्राम्या’ प्रगतिशील आन्दोलन के प्रभाव के अन्तर्गत लिखी हुई रचना है। इसमें मार्क्सवाद, श्रमिक-मज़दूर, किसान-जनता के प्रति इन्होंने भावभीनी सहानुभूति प्रकट की है।

जगती के जन-पथ कानन में

तुम गाओ विहग अनादि गान।

चिर-शून्य शिशिर-पीड़ित जग में,

निज अमर स्वरों से भरो प्राण।

‘ग्राम्या’ 1940 की रचना है, जब प्रगतिवाद हिन्दी साहित्य में घुटनों के बल चलना सीख रहा था। पंत जी कहते हैं, “‘ग्राम्या’ में मेरी क्रान्ति-भावना मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित ही नहीं होती, उसे आत्मसात्‌ कर प्रभावित करने का भी प्रयत्न करती है।”

भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,

जहां आत्म-दर्शन अनादि से समासीन अम्लान।

इन सब के साथ-साथ आदर्श तथा यथार्थ के बीच व्यवधान पंत जी के भीतर बना ही रहा। कवि के मन में आदर्श और यथार्थ की चिन्तन-धाराओं का संघर्ष तथा मंथन चलता रहा। डॉ.. नगेन्द्र ने ठीक ही कहा है,

“मार्क्सवाद में श्री सुमित्रानंदन पंत का व्यक्तित्व अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं पा सकता।”

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शीघ्र जी फिर वे अपने परिचित पथ पर लौट आये। मार्क्सवाद का भौतिक संघर्ष और निरीश्वरवाद पंत जैसे कोमलप्राण व्यक्ति का परितोष नहीं कर सकते थे। काव्य यात्रा के तीसरे चरण की रचनाओं ‘स्वर्णकिरण’, ‘स्वर्णधूलि’, ‘युग पथ’, ‘अतिमा’, ‘उत्तरा’ में वे महर्षि अरविन्द से प्रभावित होकर आध्यात्मिक समन्वयवाद की ओर बढ़ते दिखते हैं। कवि की अनुभूति वस्तु जगत को समेटती हुई उस बौद्धिक चेतना से ऊपर उठकर एक सूक्ष्म अतिमानवीय चेतना को ग्रहण करती लगती है।

सामाजिक जीवन से कहीं महत्‌ अंतर्मन,

वृहत्‌ विश्व इतिहास, चेतना गीता किंतु चिरंतन।

इस चरण को पंत जी के चेतना-काव्य का चरण कहा जा सकता है। इसमें उन्होंने मानवता के व्यापक सांस्कृतिक समन्वय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।

भू रचना का भूतिपाद युग हुआ विश्व इतिहास में उदित,

सहिष्णुता सद्भाव शान्ति से हों गत संस्कृति धर्म समन्वित।

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पंत जी की कव्य यात्रा का चौथा चरण ‘कला और बूढ़ा चांद’ से लेकर ‘लोकायतन’ तक की है। इसमे उनकी चेतना मानवतावाद, खासकर विश्व मानवता की ओर प्रवृत्त हुई है। इन रचनाओं में लोक-मंगल के लिए कवि व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य के महत्व को रेखांकित करता है।

हमें विश्व-संस्कृति रे, भू पर करनी आज प्रतिष्ठित,

मनुष्यत्व के नव द्रव्यों से मानस-उर कर निर्मित।

‘लोकायतन’ कविवर पंत के लोक-कल्याण संबंधी नेक इरादे का भव्य एवं कलात्मक साक्षात्कार कराता है। अरविन्द दर्शन से प्रभावित होकर पंत की चेतना इस चरण में फिर से वापस लौटकर अपने प्रथम चरण की चेतना से जुड़ जाती है। अरविन्द दर्शन के प्रभाव में आने के बाद पंत को भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय का एक ठोस आधार प्राप्त हो गया।

समग्र रूप से देखें तो पाते हैं कि कवि के चिंतन में अस्थिरता है। निराला और पंत की जीवन-दृष्टि और काव्य-चेतना की तुलना करें तो हम पाते हैं कि निराला की जीवन-दृष्टि का लगातार एक निश्चित दिशा में विकास होता है जबकि पंत का दृष्टि विकास एक दिशा में न होकर उसमें कई मोड़ आते हैं। कभी वे प्रकृति में रमे रहते हैं तो कभी मार्क्सवाद, अरविन्द दर्शन और गांधीवाद की गलियों के चक्कर लगाते हैं। ‘ग्रंथि’ से ‘पल्लव’ और ‘पल्लव’ से ‘गुंजन’, ‘ज्योत्सना’ और ‘युगांत’ में वे क्रमशः शरीर से मन और मन से आत्मा की ओर बढ़ रहे थे। बीच में ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में आत्म-सत्य की अपेक्षा वस्तु-सत्य पर बल देते हैं। ‘स्वर्णकिरण’, और ‘स्वर्णधूलि’ में फिर से वे आत्मा की ओर मुड़ जाते हैं।

फिर भी ‘द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र’ जैसी रचनाओं द्वारा पंत जी छायावादी काव्य-धारा को सम्पन्न बनाया। वे छायावादी कविता के अनुपम शिल्पी हैं। उनकी भाषा में कोमलता और मृदुलता है। हिन्दी खड़ी बोली के परिष्कृत रूप को अधिक सजाने-संवारने में इनका योगदान उल्लेखनीय है। भाषा में नाद व्यंजना, प्रवाह, लय, उच्चारण की सहजता, श्रुति मधुरता आदि का अद्भुत सामंजस्य हुआ है। शैली ऐसी है जिसमें प्रकृति का मानवीकरण हुआ है। भावों की समुचित अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत सहज अलंकार विधान का सृजन उन्होंने किया। नये उपमानों का चयन इनकी प्रमुख विशेषता है। उनकी कविताओं में प्राकृतिक उपमानों का सर्वथा एक नया रूप देखने को मिलता है। जैसे

पौ फटते, सीपियाँ नील से

गलित मोतियां कान्ति निखरती

या

गंध गुँथी रेशमी वायु

या

संध्या पालनों में झुला सुनहले युग प्रभात

इसी तरह उन्होंने छाया को, परहित वसना”, “भू-पतिता” “व्रज वनिता” “नियति वंचिता” “आश्रय रहिता” “पद दलिता” “द्रुपद सुता-सी कहा है। इस तरह उन्होंने भाषा को एक नया अर्थ-संस्कार दिया।

ध्वन्यार्थ व्यंजना, लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शैली के उपयोग द्वारा उन्होंने अपनी विषय-वस्तु को अत्यंत संप्रेषणीय बनाया है। शिल्प इनका निजी है। पंत जी की भाषा शैली भावानुकूल, वातावरण के चित्रण में अत्यंत सक्षम और समुचित प्रभावोत्पादन की दृष्टि से अत्यंत सफल मानी जा सकती है।

उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। आकर्षक और कोमल व्यक्तित्व के धनी कविवर सुमित्रा नंद पंत जिस तरह से अपने जीवन काल में सभी के लिए प्रिय थे उसी तरह से आज भी आकर्षण का केंद्र हैं। प्रकृति का परिवर्तित रूप सदा पंतजी में नित नीवन कौतूहल पैदा करता रहा। उन्होंने सबकुछ प्रकृति में और सब में प्रकृति का दर्शन किया। यही कारण है कि वे प्रकृति के सुकुमार चितेरे थे और अंत में शास्वत सत्य की जिज्ञासा उन्हें अरविंद दर्शन, स्वामी रामकृष्ण आदि के विचारों की ओर खींच ले गई। इस प्रकार उन्होंने काव्य सृजन से वे चारों पुरूषार्थ उपलब्ध किए जो काव्य का फल हैं। अंत में ‘आंसू’ की ये पंक्तियां ...

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।

उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।

बुधवार, 18 मई 2011

हिंदी के प्रति मनोवृत्ति का अध्ययन


हिंदी के प्रति मनोवृत्ति का अध्ययन
हमने राजभाषा विकास परिषद के ब्लॉग पर एक मतदान कराया था कि क्या हिंदी के बारे में मनोवृत्ति पर अखिल भारतीय स्तर पर अध्ययन की ज़रूरत है? इस मतदान में 10 मत आए और दसों मत इसके पक्ष में आए। इसका मतलब यह है कि हिंदी के बारे में लोगों की राय स्पष्ट नहीं है। आइए इस विषय में कुछ चिंतन किया जाए।

हिंदी का प्रश्न भाषा का प्रश्न नहीं है बल्कि इस प्रश्न का संबंध राष्ट्रीयता से है। परंतु इधर इस सोच में परिवर्तन आ गया है। हिंदी के प्रति जिस संकल्पशील निष्ठा की ज़रूरत है उसकी झलक हिंदी कक्ष/विभाग से जुड़े कार्मिकों के अलावा कहीं और नहीं दिख रही है। गैर सरकारी, गैर शिक्षण संस्थाओं द्वारा किए जा रहे कार्य ही वास्तव में हिंदी के प्रचार-प्रसार में ज़्यादा सहायक हैं। इसका मतलब है कि अन्यत्र इस विषय में सकारात्मक सोच का अभाव है या नकारात्मक सोच सकारात्मक सोच पर अभिभावी हो गई है। हम एक ऐसी संस्था में कार्य कर रहे हैं जिसका स्वरूप अखिल भारतीय है और हमारा संपर्क अनेक भाषा भाषी व्यक्तियों से होता है। उस परिस्थिति में हमसे क्या अपेक्षित है और हमारा व्यवहार कैसा हो?  

2.  हम पहले इस पहलू पर विचार कर लें कि सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच क्या है और इसका प्रभाव किस प्रकार पड़ता है? - (क) सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समाधान होता है और नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समस्या होती है। वह हर काम में समस्या देख लेता है। (ख) सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास कार्यक्रम होता है और नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास बहाना होता है। (ग) सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति काम करने का इच्छुक होता है और नकारात्मक सोच वाल व्यक्ति कहता है कि यह काम मेरा नहीं है। (घ) सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समस्या में समाधान होता है जबकि नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समाधान में समस्या होती है। (ङ) सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास यह सोच होती है कि कठिन ज़रूर है पर असंभव नहीं है।

अतः मैं इस मंच से किसी अध्यवसायी व्यक्ति का आह्वान करता हूं कि इसे पीएच. डी. या किसी परियोजना के तहत इसका अध्ययन करे और अपना शोधप्रबंध प्रस्तुत करे। राजभाषा विकास परिषद ऐसे शोधार्थी को अध्ययन का टूल बनाने तथा अध्ययन की सिनॉपसिस बनाने में निःशुल्क सहायता करेगी।
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मंगलवार, 17 मई 2011

ऐतिहासिक उपन्यास

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हिन्दी उपन्यासों के विकास के दौर में इतिहास संबंधी एक नए दृष्टिकोण का उदय हुआ। इस कोटि के उपन्यासों में भारतीय इतिहास के उन अध्यायों और घटनाओं को चित्रित किया गया है, जिनसे वर्तमान को नयी दिशा और प्रेरणा मिलती है।

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वृन्दावन लाल वर्मा (1889-1969) ने हालाकि सामाजिक उपन्यास भी लिखे हैं, लेकिन उनका नाम ऐतिहासिक उपन्यासों लेखन में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके ‘संगम’ (1928), ‘लगन’ (1929), ‘प्रत्यागत’ (1929), और ‘कुंडलीचक्र’ (1932) सामाजिक उपन्यास और ‘गढ़ कुंडार’ ((1929), ‘विराटा की पद्मिनी’ (1936), ‘झांसी की रानी’ (1937), जैसे उपन्यास स्वतंत्रता के पहले और ‘कचनार’, ‘मृगनयनी’, ‘अहिल्याबाई’, ‘भुवन विक्रम’, ‘माधव जी सिंधिया’. ‘रामगढ़ की रानी’, ‘महारानी दुर्गावती’ आदि उपन्यास स्वतंत्रता के बाद लिखे गए है।

वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यासों में इतिहास के तथ्यों की रक्षा की है और ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का प्रसार किया है। उनमें इतिहास और कल्पना का समन्वय दिखायी पड़ता है। इन उपन्यासों में लेखक का अभीष्ट विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में जीवन का आदर्शात्मक यथार्थ निरूपण भी है।

‘झांसी की रानी’ तथ्याश्रयी और विवरणात्मक उपन्यास है जबकि ‘मृगनयनी’ मे तत्कालीन परिवेश को उसकी समग्रता के साथ आकलन किया गया है। उपन्यासकार ने ग्वालियर के महाराज मानसिंह और गांव की मृगनयनी के प्रेम के ताने बाने में उस समय के समय के सांस्कृतिक वातावरण को उसके विभिन्न आयामों में चित्रित करके उस कालखंड को जीवंत बना दिया है। तत्कालीन धर्म, राजनीति, चित्रकला, संगीतकला और वास्तुकला को उनके ब्यौरे ने सजीवता प्रदान किया है।

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हजारी प्रसाद द्विवेदी के ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ एक अभिनव प्रयोग है। ऐतिहासिक जीवनवृत्त से जुड़ी कुछ घटनाओं के उपयोग के बावज़ूद यह न तो आत्मकथा है, न जीवनी। प्रयोगशीलता इसकी प्रमुख विशेषता है। भरत के सांस्कृतिक यथार्थ को चित्रित करने वाला यह अनूठा ऐतिहासिक उपन्यास है। इसके अलावा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ‘चारुचन्द्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ सातवें और आठवें दशक में प्रकाशित हुए।

द्विवेदी जी के उपन्यास इतिहास के तथ्यों पर आधारित नहीं है, उनमें कल्पना के आधार पर ऐतिहासिक वातावरण की सृष्टि की गई है। वे किसी कालखंड को जीवंत रूप में प्रस्तुत करने के साथ-साथ उसे आज की ज्वलंत समस्याओं के साथ भी जोड़ते चलते हैं।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में मध्यकालीन जड़ता पर प्रहार किया गया है। अलंकृत शैली में लिखे जाने के बावज़ूद भी यह गद्यात्मक है, काव्यत्मकता ही इसकी भाषा और वस्तु दोनों है।

‘चारुचन्द्रलेख’ अनाकर्षक है और इसका विन्यास बिखरा-बिखरा लगता है। इसमें द्विवेदी जी ने कुतूहल, विस्मय, रोमांस और रहस्य की सृष्टि की है।

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यशपाल जी का ‘दिव्या’ एक काल्पनिक ऐतिहासिक उपन्यास है। उन्होंने ने इसे मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखा है। इस उपन्यास की नायिका दिव्या अनेक प्रकार के संघर्ष झेलती है। यह एक रोमांस विरोधी उपन्यास है। यशपाल जी की दिव्या भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा से इस मामले में अलग है कि जहां चित्रलेखा को परिस्थितियों के कारण जीवन में कोई राह नहीं सूझती, वही दिव्या में राह की खोज है। ‘अमिता’ यशपाल जी का दूसरा ऐतिहासिक उपन्यास है। किन्तु इसमें वह ऊंचाई नहीं है जो ‘दिव्या’ में है।

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राहुल सांकृत्यायन (1893-1963) ने शैतान की आंख, 1923, विस्मृति के गर्भ में, 1923, सोने की ढ़ाल, 1923, बाइसवीं सदी, सिंह सेनापति, जीने के लिए, जय यौधेय, भागो नहीं, दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास, विस्मृत यात्री, दिवोदस, आदि उपन्यास लिखे जिनमें ‘सिंह सेनापति’ और ‘जय यौधेय’ मार्क्सवादी दृष्टि से लिखे गए ऐतिहासिक उपन्यास हैं, जिनमें लिच्छवी गण और यौधेय गण के संघर्ष चित्रित हैं।

महापंडित की उपाधि से विख्यात, अविश्रांत यात्री, तत्वान्वेषी, इतिहासविद्‌ और युगपरिवर्तनकामी साहित्यकार के रूप में राहुल सांस्कृत्यायन जी को जाना जाता है। हिंदी की सभी विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले राहुल जी ने ‘चरैवेति, चरैवेति’ का सत्य अपने जीवन में साकार किया।

जीवन पर्यंत ज्ञान पिपासु रहे राहुल सांस्कृत्यायन खुले दिमाग के मार्क्सवादी थे। उन्होंने समाजवाद को पुस्तकों से ही नहीं जीवन से भी सीखा। राहुल जी मार्क्सवादी चेतना से अनुप्राणित होकर द्वान्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर इतिहास का विश्लेषण करने वाले उपन्यासकार हैं।

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रांगेय राघव ने भी ‘मुर्दों का टिला’ मार्क्सवादी दृष्टि से लिखा है और इसमें मोहनजोदाड़ो के गणतंत्र का चित्रण किया गया है।

चतुरसेन शास्त्री

चतुरसेन शास्त्री ने अपने उपन्यासों ‘वैशाली की नगरवधु’, ‘सोमनाथ’ और ‘वयं रक्षामः’ में भारतीय संस्कृति का संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत किया है। ‘वैशाली की नगरवधू’  में लिच्छवी गणतंत्र की चर्चा मिलती है। इस उपन्यास में आधुनिक नगर जीवन के सहारे तत्कालीन इतिहास की प्रमाणिकता को संदिग्ध बना दिया गया है।

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यह काल हिन्दी उपन्यास का स्थापना काल था। एक ओर इस काल में जहां प्रेमचंद द्वारा हिन्दी उपन्यास को साहित्य का दर्ज़ा दिलाया गया, वहीं दूसरी ओर जैनेन्द्र ने उसे आधुनिक बनाया। प्रसाद, कौशिक, उग्र, भगवतीचरण वर्मा, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, निराला आदि ने अपने-अपने ढ़ंग से उसे समृद्धि प्रदान कर बाद के दिनों में आने वाले उपन्यासकारों का मार्गदर्शन किया।