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शनिवार, 14 अप्रैल 2012

पुस्तक परिचय-25 : वह, जो शेष है

पुस्तक परिचय-25

 वह, जो शेष हैIMG_3707

मनोज कुमार

इस सप्ताह आपका परिचय अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बंगलुरू के स्रोत केन्द्र में टीचर्स ऑफ इंडिया पोर्टल में हिंदी संपादक, श्री राजेश उत्साही के कविता-संग्रह “वह, जो शेष है” से कराने जा रहे हैं। इस संग्रह में राजेश जी छंदों के जटिल बंधन में न पड़कर छंदमुक्त शिल्प में कविताएं लिखी हैं।

इस संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए लगभग सभी जगह कवि की उपस्थिति महसूस तो होती रहती है, पर समग्र रूप से संग्रह पर विचार करते हुए यह कहा जा सकता है कि परिदृश्य में अपनी उपस्थिति की निरंतरता मात्र को बनाए रखने के लिए उन्होंने कविताएं नहीं लिखी हैं। उनका मकसद कुछ और है। कहते हैं :

“पढ़ो

कि कवि

स्वयं भी एक कविता है

बशर्ते कि तुम्हें पढ़ना आता हो!”

इस संग्रह में राजेश जी ने क़रीब दो दर्जन ऐसी कविताओं का समावेश किया है जिनके ताल्लुक़ात सामाजिक सरोकारों से है। वर्तमान हिंदी कविता में ऐसे विषयों पर लिखी कविताओं में “लाउडनेस” लाना एक फैशन सा हो गया है। कई बार तो ये नारेबाजी से अधिक कुछ नहीं लगतीं। लेकिन राजेश जी ने ऐसे शिल्प में इन कविताओं को गढ़ा है कि ये न तो “लाउड’ स्वर में गायी हुई लगती हैं और न मात्र नारेबाजी ही। यह एक सधे हुए कुशल काव्य-शिल्पी का कमाल ही है। “धोबी” कविता को ही लें :

“ठेले, तांगे, रिक्शे वाला

मज़दूर

आप और मैं

तुम और हम

सभी धो लेते हैं अपने कपड़े

धोबी

धोता

कुछ खास लोगों के कपड़े”

इस संग्रह में चार दर्जन (48) कविताएं हैं। राजेश जी ने खुद ही कहा है कि इनका रचना काल 1980 से 2011 तक फैला है। हां, इसमें समाहित कविताओं का क्रम रचना काल के हिसाब से नहीं – विषय-वस्तु के अनुसार है। अर्थात्‌ उन्होंने एक मूड की कविताओं को एक जगह रखने का प्रयास किया है। पहले प्रेम कविताएं हैं, फिर सामाजिक सरोकार की कविताएं और अंत में व्यक्तिगत अनुभवों और अहसासों की कविताएं। हालाकि यह उनका पहला काव्य-संग्रह है, पर सारी-की-सारी कविताएं उनके एक मैच्योर कवि होने का अहसास ही नहीं करातीं बल्कि विश्वास दिलाती हैं।

सामाजिक सरोकार की उनकी कविताएं गहरी करुणा से उपजी ऐसी कविताएं हैं जो मन के भीतरी हिस्से पर देर तक दस्तक देती रहती हैं। ये कविताएं गहरी संवेदनशीलता से लिखी गई हैं और उनके काव्य-व्यक्तित्व को हमारे सामने खोलकर रखती हैं। “वह एक मासूम चिड़िया” को ही लें, वे कहते हैं :

“न वह उड़ सकेगी

ख़्वाबों के आसमान में

न तैर पाएगी

मधुर स्मृतियों के समन्दर में

वह सिर्फ़ काम आएगी

गरम गोश्त के व्यापारियों के”

राजेश जी की प्रेम विषयक कविताएं प्रेम की तन्मयता और उदात्तता की जगह उसका विस्तार ज़्यादा हैं। अन्य बातों की तरह प्रेम का होना भी जीवन की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। प्रेम के अनुभवों को साझा करने भर के लिए ये कविताएं नहीं लिखी गई हैं। प्रेम की सूक्तियां लिखने की जगह, इन कविताओं में उससे जुड़े अनुभवों को दर्ज़ करने की उनकी कोशिश नज़र आती हैं। प्रेम संबंधित उनकी कविताएं, आकार में चाहे छोटी हों या बड़ी, अपने विस्तार से पाठकों को अपने में समाहित कर लेती हैं और पाठक निःशब्द उनमें डूबा रहता है।

“मैं भूल

जाना चाहता हूं बोकर

प्रेम के कुछ क्षण

यहां-वहां

ताकि

उदास होने लगूं

जब इस नश्वर दुनिया से

तब जी सकूं

उनके लिए”

“छोकरा” शीर्षक चार कविताएं जीवन के देखे-सुने-भोगे यथार्थ की अभिव्यक्ति हैं जिसे कलात्मक कुशलता से रचकर उन्होंने सार्थक संदेश दिया है –

“उसकी नज़रें ढूंढ़्ती हैं

सिर्फ़ चमड़े के चप्पल-जूते

वाले पैर

ढेर सारे पैर

पैरों पर टिका होता है

उसका अर्थशास्त्र

मां को देने के लिए

बाप को दिलाने के लिए शराब

और अपनी शाम की पिक्चर का बजट”

राजेश जी की भाषा की एक आंतरिक लय है जिसकी व्याप्ति संग्रह में शुरू से अंत तक बनी रहती है। प्रकृति, समाज और जीवन को देखने वाली उनकी एक खास दृष्टि है जो एक साधारण, संघर्षशील, मध्यमवर्गीय चेतना से निर्मित हुई है। सबसे उल्लेखनीय है मध्यमवर्गीय आम लोगों के जीवन की त्रासदी, जो इस पूरे संग्रह के केन्द्र में रहती है, और खुलकर “नीमा” शीर्षक कविता में प्रकट होती है,

“मैंने महसूस किया जैसे

मैं गर्म तवे पर बार-बार गिराई जा रही कोई बूंद हूं”

या

“परम्परा से चली आ रही

तकरार हमारे घर

में भी मैज़ूद थी।”

“वह, जो शेष है” काव्य-संग्रह में राजेश जी मध्यम-जीवन की त्रासदी को उजागर करने के साथ-साथ उसकी प्रकृति, संस्कृति और संघर्ष से भी पाठकों को रू-ब-रू कराते हैं। चक्की, धोबी, छोकरा, औरत, स्त्री, आदि कविताओं से गुज़रते हुए हमें ऐसा लगा कि राजेश जी परोक्ष रूप से ही सही, उन संघर्षों को महसूस करते हैं और उस संघर्ष के साहस के पक्ष में बयान भी देते हैं, जो जीवन के लिए ज़रूरी है :

“पत्थर तोड़ती औरत

उस ठेकेदार का

सिर क्यों नहीं फोड़ देती

जो देखता है उसे गिरी हुई नज़रों से”

पुरुष सत्तात्मक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री जीवन की संघर्षशीलता, पराधीनता और विडंबनाओं को राजेश जी ने बड़े सहज भाव से ‘तुम अपने द्वार’, ‘चक्की’, ‘वह औरत’, ‘स्त्री’ और ‘नीमा’ शीर्षक कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। सामाजिक रूढ़ियों और मानसिक संकीर्णताओं के बीच स्त्री अस्मिता, सशक्तिकरण, जागरूकता को इन कविताओं में देखा जा सकता है।

कुल मिलाकर यही कहना चाहूंगा कि उनका पहला कविता-संग्रह आम आदमी के जीवन-संघर्ष, असंतोष, विवशता, सामाजिक क्रूरता, जटिलता, सामाजिक असमानता का स्वर मुखरित करते हुए राजेश उत्साही के जनवादी सरोकारों से लैस होकर सामाजिक विषमता के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाता है।

इसे एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए।

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पुस्तक का नाम

वह, जो शेष है

रचनाकार

राजेश उत्साही

प्रकाशक

ज्योतिपर्व प्रकाशन, नई दिल्ली

संस्करण

प्रथम संस्करण : 2012

मूल्य

99 clip_image002

पेज

127

पुराने पोस्ट के लिंक

1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18. गुडिया भीतर गुड़िया 19. स्मृतियों में रूस 20. अक्षरों के साये 21. कलामे रूमी पुस्तक परिचय-22 : हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श पुस्तक परिचय-23 : बच्चन के लोकप्रिय गीत पुस्तक परिचय-24 : विवेकानन्द

बुधवार, 25 मई 2011

उपन्यास साहित्य - आधुनिकयुग

IMG_0545मनोज कुमार

उपन्यास साहित्य की चर्चा के क्रम में अब हम आधुनिक युग के उपन्यासों की चर्चा करेण्गे।

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आधुनिक युग के उपन्यासकार यूरोप के उपन्यासकारों से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होते हैं। पश्चिमी साहित्य के प्रभाव के कारण ही उपन्यासकारों ने आज जात-पात, वर्ण-धर्म तथा देश और संस्कृति के बंधन को तोड़ डाला है। आज वे नवीन मानवता की सृष्टि में संलग्न हैं। यही कारण है कि आज के उपन्यासकार किसी एक धारा को नहीं स्वीकार करते हैं वरन्‌ वे पश्चिमी साहित्य के आधुनिकतम या नवीन वादों से प्रभावित होकर नवीन विचारधाराओं को विकसित करने का प्रयास करते हैं।

प्रेमचंद के बाद उपन्यास कई मोड़ों से गुज़रता हुआ दिखाई देता है। इन्हें मुख्यतः तीन वर्गों में बांटा जा सकता है –

१. 1950 तक के उपन्यास,

२. 1950 से 1960 तक के उपन्यास और

३. साठोत्तरी उपन्यास।

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1950 तक के उपन्यास में मुख्यतः चार प्रकार की विचारधाराएं विकसित हो रही हैं –

१. फ़्रायडियन धारा,

२. मनोवैज्ञानिक धारा,

३. मार्क्सवादी धारा, और

४. राजनीतिक धारा

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फ़्रायड ने सेक्स को महत्ता प्रदान की है। यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो काम-वासनाओं की अतृप्ति से उत्पन्न होने वाली कुंठाओं को लेकर ही फ़्रायड के सेक्स मनोविज्ञान ने प्रगति की है। फ़्रायड के कुंठावाद के आधार पर लेखकों ने मनुष्य की दमित वासनाओं, कुंठाओं, काम-प्रवृत्तियों, अहं, दंभ और हीन-भावना आदि ग्रंथियों का चित्रण करके हिन्दी उपन्यास में व्यक्ति का ऐसा रूप प्रस्तुत किया जिसमें वह अपनी आन्तरिक छवि देख सकता है। इन कुंठाओं का हल उपस्थित करने के लिए जिस प्रणाली को अपनाया गया उसे ही मनोविश्लेष्णात्मक प्रणाली कहा जाता है।

प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में समाज के साथ व्यक्ति के एडजस्ट होने के प्रश्न को अधिक महत्व दिया। प्रेमचंद के बाद हिन्दी उपन्यास में मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों की एक ऐसी पंक्ति तैयार हुई जिसने हिन्दी को अनेक श्रेष्ठ उपन्यासों से समृद्ध किया है। फ़्रायड, एडलर और युंग की मनोविश्लेषण-संबंधी मान्यताओं का इस धारा के लेखको पर गहरा प्रभाव है।

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हिन्दी उपन्यासकारों में इलाचंद्र जोशी इस प्रणाली (फ़्रायड के मनोविश्लेषण) से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने फ़्रायड के सिद्धान्तों के आधार पर मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास लिखे। उनका पहला उपन्यास ‘घृणामयी’ (1929) है। परन्तु उन्हें ख्याति ‘संन्यासी’ (1941) से मिली। उनके लिखे उपन्यास हैं - ‘संन्यासी’, ‘पर्दे की रानी’ (1941), ‘प्रेत और छाया’ (1946), ‘निर्वासित’ (1946), ‘मुक्तिपथ’ (1950), ‘जिप्सी’ (1955), ‘जहाज का पंछी’ (1955), ‘ऋतुचक्र’ (1973), ‘भूत का भविष्य’ (1973) सुबह के भूले, और कवि की प्रेयसी।

इलाचंद्र जोशी का जन्म 13 दिसंबर 1902 को अल्मोड़ा में हुआ था। उनका निधन 14 दिसंबर 1982 को हुआ। हिंदी में मनोविश्लेषवादी उपन्यास और कहानी लेखन की दृष्टि से उनका स्थान शीर्ष पर है।

जोशी जी के उपन्यास चेतन और अचेतन मन में छुपी हुई वासनाओं और कुंठाओं का ही अध्ययन उपस्थित करते हैं। इनकी भावभूमियां एकांगी, संकुचित और छोटी हैं। इनके पात्र किसी न किसी मनोवैज्ञानिक ग्रंथि का शिकार हैं। इन ग्रंथियों के कारण वे असामाजिक कार्य में संलग्न होते हैं। उनके उपन्यासों में मनोविश्लेषण का इतना प्रभाव है कि उनके उपन्यास फ़्रायड की मान्यताओं के साहित्यिक संस्करण प्रतीत होते हैं। उनके उपन्यासों के पात्र अनेक मनोग्रंथियों से पीड़ित रुग्ण और दुर्बल हैं। फ़्रायड के मनोविश्लेषण का मूल आधार काम-भावना है। उसी को केन्द्र में रख कर ये उपन्यास लिखे गए हैं।

‘संन्यासी’ उनका सफल उपन्यास है जो कला के विचार से उच्चकोटि का है। इसमें आत्महीनता की ग्रंथि है। ‘प्रेत और छाया’ में इडिपस ग्रंथि है, जबकि ‘पर्दे की रानी’ के सभी पात्र मानसिक कुंठाओं से ग्रस्त हैं। ‘मुक्तिपथ’, ‘जिप्सी’ और ‘जहाज का पंछी’ में जोशी जी ने सामाजिकता का भी सन्निवेश किया है।

जोशी जी के उपन्यासों को पढककर लगता है, मानो उनका प्रतिपाद्य यह है कि जीवन के चरम सत्य की उपलब्धि सेक्स में ही होती है।

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जोशी जी के अतिरिक्त इस पद्धति के उपन्यासकारों में सचिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन अज्ञेय का भी प्रमुख स्थान है। अज्ञेय ने उपन्यास कला को एक नया शिल्प दिया। इनसे पहले अंग्रेज़ी उपन्यासों के जिस गद्य को लोग आदर्श मानते थे, उसे ‘अज्ञेय’ जी ने आत्मसात्‌ कर अपनी रचनाओं में मूर्तरूप दिया। इनकी कहानियों में जीवन की सच्चाई, व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक और विचारों की ताज़गी थी। फ़्रायड के मनोविश्लेषण शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान अज्ञेय जी ने मनोविश्लेषण शास्त्र के प्रतीकों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है।

‘शेखर एक जीवनी’ (1941-1944) (अज्ञेय जी के बारे में यहां और यहां पढ़ें) के प्रकाशन के साथ हिन्दी उपन्यास की दिशा में एक नया मोड़ आया। यह उपन्यास हिन्दी के उपन्यास जगत में एक बिल्कुल नए अध्याय का श्रीगणेश करता है। यह उपन्यास मानव के मनोविकास का वैज्ञानिक चित्र उपस्थित करता है। इसमें मूलतः व्यक्ति-स्वातंत्र्य की समस्या उठाई गई है। कथ्य, शिल्प और भाषा की दृष्टि से यह परंपरा हट कर एक नया प्रयोग था। आधुनिकता का सर्वप्रथम समावेश इसी उपन्यास में दिखाई देता है। इसका मूल मंतव्य है – स्वतंत्रता की खोज। यह खोज सबसे काट कर नहीं की गई है, बल्कि मनवीय परिस्थितियों के बीच की गयी है। स्वतंत्रता की तलाश में शेखर अनेक प्रकार के आंतरिक संघर्षों से जूझता है, किंतु अपने निषेधात्मक रोमांटिक विद्रोह को लेकर वह बहिर्मुखी नहीं हो पाता। फलतः सारा संघर्ष मौखिक रह जाता है, क्रिया में नहीं बदलता। फिर भी शेखर के विद्रोह के पीछे आज की पीढ़ी का विद्रोही स्वर है। दूसरे भाग में उसका बिखरा व्यक्तित्व संघटित होकर रचनात्मक बनता है। शेखर एक विद्रोही है। समाज के निर्मित प्रतिमान उसे सह्य नहीं है। अपनी अनुभूतियों को वह अभिव्यक्ति देता है। यह एक प्रयोगधर्मी उपन्यास है। एक रात में देखे गए विजन को शब्दबद्ध किया गया है। इसमें अनुभूति के टुकड़ों को जहां-तहां से उठा लिया गया है। चेतना प्रवाह, प्रतीकात्मकता और भाषा की अंतरिकता के कारण यह उपन्यास अप्रतिम है।

अज्ञेय का दूसरा उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ (1951) में व्यक्तिवादी जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है। उन्होंने मध्यम वर्गीय कुंठित जीवन के प्रतीक के रूप में नदी के द्वीप की कल्पना की है। नदी का द्वीप धारा से कटा हुआ है। मध्यवर्गीय जीवन भी शेष-जन-प्रवाह से विछिन्न है। अज्ञेय का अपनी-विद्रोह भावना, वरण की स्वतंत्रता और व्यक्तित्व की अद्द्वितीयता के कारण विशिष्ट स्थान है। उन्हें भाषा एवं मनोविश्लेषण की दृष्टि से ‘नदी के द्वीप’ में अपूर्व सफलता मिली।

‘अपने-अपने अजनबी’ (1961) अज्ञेय का तीसरा उपन्यास है। इसमें एक प्रकार की धार्मिक दृष्टिसंपन्नता दिखाई पड़ती है। इसमें मुख्य समस्या स्वंत्रता के वरण की है। संत्रास, अकेलेपन, बेग़ानगी, मृत्युबोध, अजनबीपन आदि से स्वंत्रता संयुक्त हो गई है। स्वतंत्रता को अहंकार से जोड़कर अज्ञेय जी ने इसमें अस्तित्ववादी स्वतंत्रता मे मूल अर्थ को ही बदल दिया है।

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‘नर – नारी’ और ‘हमारा मन’ नाम की दो अनूठी पत्रिकाओं का सम्पादन - प्रकाशन करने वाले द्वारिका प्रसाद के उपन्यास ‘मम्मी बिगड़ेगी’ और ‘घेरे के बाहर’  भी इसी कोटि के अन्तर्गत आते हैं। ये एक विवादास्पद उपन्यास थे।  हिन्दी में सेक्स और मनोविज्ञान के ऊपर लेखन में यह  पहला गंभीर प्रयास था जिसे पाठकों ने पढ़ा और सराहा।  इन उपन्यासों में कथा के विकास पर ज्यादा जोर न देकर इस सम्बन्ध को जायज ठहराने की कोशिश अधिक की गयी है। इन उपन्यासों के चर्चित होने का मुख्य कारण इसका विषय था। उपन्यास कला की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास नहीं कहा जा सकता, किन्तु हिन्दी में यह एक अनूठा और साहसपूर्ण उपन्यास है।

डॉ. देवराज के ‘पथ की खोज’, ‘अजय की डायरी’ और ‘मैं, वे और आप’ भी इसी श्रेणी के उपन्यास हैं।

मनोहर श्याम जोशी का ‘हमजाद’ भी इसी श्रेणी के तहत आता है।

संदर्भ -

1. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 2. हिंदी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र 3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – श्यामचन्द्र कपूर 4. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी 5. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली खंड-7 6. साहित्यिक निबंध आधुनिक दृष्टिकोण – बच्चन सिंह 7. झूठा सच – यशपाल 8. त्यागपत्र – जैनेन्द्र कुमार