बुधवार, 27 जुलाई 2011

मोह


सुमित्रानन्दन पन्त
मोह

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले ! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन ?
                      भूल अभी से इस जग को !
तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष  के  रंगों  को,
                तेरे भ्रूभंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन ?
                       भूल अभी से इस जग को !
कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह, तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ सजनि ! श्रवण ?
                          भूल अभी से इस जग को !
ऊषा सस्मित किसलय दल,
सुधारश्मि  से  उतरा  जल,
      ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन ?
                         भूल अभी से इस जग को !
***
{‘पल्लव’ से ... }

8 टिप्‍पणियां:

  1. कैसे बहला दूँ जीवन ?

    पन्त के नैसर्गिक -प्रकृति प्रेम के आगे वर्ड्सवर्थ की लूसी की क्या औकात ?

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  2. पंत जी की अनुपम कृति हमसे साझा करने के लिए आभार मनीज़ जी

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  3. पन्त जी की सुन्दर रचना पढवाने का शुक्रिया

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  4. प्रकृति के कवि के चरणों में प्रणाम!!

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