बुधवार, 20 जुलाई 2011

हिंदी नाट्य परंपरा का विकास और पारसी थियेटर

नाटक साहित्य-3

हिंदी नाट्य परंपरा का विकास और पारसी थियेटर

मनोज कुमार

लिंक : हिन्दी नाटक का प्रारंभ-1        हिन्दी नाटक का प्रारंभ-2

जब भारतेंदु नाट्य-साहित्य की रचना कर रहे थे तब तक अंग्रेज़ी राज्य स्थापित हो चुका था। अंग्रेज़ों के कारण रंग-कार्य और नाटक मंचन को फिर से एक नया जीवन मिला। पारसी रंग कंपनियां स्थापित हुईं। वे नाट्य-प्रदर्शन के व्यवसाय में लग गए। उनके प्रदर्शन शैली और भाषा शिष्ट लोगों को अनुकूल नहीं थी। वे तो व्यावसायिक रंगमंच चला रहे थे। इस तरह की कंपनियों की शुरुआत “हिंदू ड्रमैटिक कोर” की स्थापना के साथ हुई। इस कंपनी ने अपना पहला नाटक 1 मार्च 1853 में एक मराठी नाटक खेला।

पारसी थियेट्रिकल कम्पनी को रंगमंचीय नाट्क कंपनी के नाम से भी जाना जाता है। कुछ लोग इस कम्पनी की उत्पत्ति 1853 में ही 1848 में अमानत रचित ‘‘इन्दर सभा” का लखनऊ में हुए मंचन से भी जोड़ते हैं। यह नाटक उर्दू भाषा में था। कहा जाता है कि इस नाटक की रचना के लिए कवि अमानत को वाजिदअली शाह ने प्रोत्साहित किया था और रंगमंच पर ख़ुद वाजिदअली शाह ने इन्द्र का अभिनय किया था।

इस नाटक से इतनी आमदनी हुई कि कुछ उत्साही पारसियों ने थियेट्रिकल कंपनी खोलने का संकल्प लिया। उन्होंने पहले सोहराब और रुस्तम की कहानी को नाटक का रूप देकर रंगमंच पर इसका अभिनय दिखाना शुरु किया। बाद में 1870 में पेस्टनजी फ्रेमजी ने “ओरिजिनल थियेट्रिकल कम्पनी” नाम से एक कम्पनी खोली। इस कम्पनी ने नतीज-ए-अस्मत, ख़ुदा दोस्त, चांद बीवी, तोहफ़-ए-दिलकुशा, बुलबुल-ए-बीमार, तोहफ़-ए-दिलपजीर, शीरी-फ़रहाद, अलीबाबा, लैला-मजनू, तमाशा-ए-अलाउद्दीन, नक्श-ए-सुलेमान, हुस्न अफ़रोज़ आदि नाटक खेली।

1877 में दिल्ली में विक्टोरिया नाटक कम्पनी खुली। इसने विक्रम-विलास, दिलेर दिलशेर, निगाह-ए-गफ़लत, गोपीचन्द आदि नाटक खेली। फिर कावसजी खटाऊ ने अल्फ़्रेड थियेट्रिकल कम्पनी खोली जिसके प्रसिद्ध नाटक थे हैमलेट, गुलनार फ़िरोज़, चन्द्रावली, दिलफ़रोश, बकावली, चलतापुर्जा।

इसी कम्पनी से पं. नारायणप्रसाद ‘बेताब’ नाट्यकार के रूप में जुड़े।

पारसी शैली के नाटक का प्रदर्शन में खूब नाच-गाना भरा होता है। साथ ही तड़क-भड़क युक्त सीन-सीनरियों का प्रयोग किया जाता है। दर्शकों के मनोरंजन के लिए फूहड़ हास्य दृश्यों की बहुलता होती है। ऐसे मंचनों में न तो संस्कृति के प्रति और न ही कला के प्रति कोई प्रतिबद्धता परिलक्षित होती थी। शिक्षित जनता को ऐसे साहित्य से लगाव नहीं था।

उन्नीसवीं सदी के मध्य से बीसवीं सदी के आरंभ तक पारसी कम्पनियां जगह-जगह घूम-घूम कर नाटक खेला करती थीं। इनका मुख्य लक्ष्य था सस्ता मनोरंजन और हास्य प्रदान करना। दर्शक भी ऐसे नाटकों में वे ही लोग होते थे जिन्हें नाच-गाने में मज़ा आता था। पैर पटक कर संवाद बोलना उनमें रोमांच पैदा करता था। बिना मतलब की उछल-कूद, भोंडी शारीरिक क्रियायें और भड़कीली सीन-सीनरी उनको रिझाते थे। ऐसे नाटकों में राष्ट्रीय नवनिर्माण की तो कोई बात ही नहीं होती थी। इस दौर के नाटकों ने आधुनिक पुनर्जागरण में कोई योगदान नहीं दिया। इनकी साहित्य में कोई गणना नहीं होती। इस थियेटर में अश्लीलता पर वाह-वाह करनेवाले प्रेक्षकों को संतुष्ट करने की मनोवृत्ति ने नट्यकला को उन्नत न होने दिया।

जब संस्कृत रुचि रखने वाले विद्वानों ने ऐसे नाटकों की समालोचना की, तो कम्पनी वालों का ध्यान इसके सुधार की ओर गया। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में पारसी थियेटर का अंदाज़ कुछ-कुछ बदलने लगा। तब के इस थियेटर से जुड़े नाटककार मुंशी नारायण प्रसाद ‘बेताब’, मुंशी मुहम्मदशाह आगा ‘हश्र’ और राधेश्याम कथावाचक ने भारतीय संस्कार और नैतिक मूल्यबोध के नाटकों की रचना की और पारसी रंगमंच की एक नई धारा का सूत्रपात किया। हालाकि नाटक तो पारसी शैली में लिखे गए थे, लेकिन नवयुग की चेतना के अनुरूप देश-प्रेम और सांस्कृतिक भावना को नाटकों द्वारा व्यक्त किया गया। कुछ विद्वान इन्हें हिन्दी साहित्य का अंग मानने लगे हैं। ‘बेताब’, ने नाटक में गानों को स्थान दिया। आगा ‘हश्र’ ने रोमांचकारी घटनाओं के आधार पर नाटक रचे। इनके कथानक सनसनी फैलाने वाले होते थे। पं. राधेश्याम कथावचक के नाटकों में अश्लीलता को कहीं भी स्थान नहीं मिलता। इनके अधिकांश कथानक पौराणिक हैं।

आधुनिक युग में जब बोलती फ़िल्मों का दौर चला तो पारसी थियेट्रिकल कम्पनियों का व्यवसाय मन्द पड़ने लगा। बम्बई (मुम्बई) में एक नई कम्पनी खुली – पृथ्वी थियेटर। इसमें भारत-विभाजन के समय की स्थिति के नाटक खेले जाते थे। दीवार, गद्दार, पठान, आहुति इसके प्रसिद्ध नाटक हैं। नाटक की भाषा जनसाधारण की भाषा होते हुए भी परिस्कृत है। पृथ्वीराज के अभिनय की स्वाभाविकता के कारण इसके नाटकों की ख्याति पूरे देश में फैल गई।

मुंशी मुहम्मदशाह आगा ‘हश्र’ के नाटक

शहीद-ए-नाज़, मुरीद-ए-शक़, मीठी छुरी, ठंडी आग, तस्वीर-ए-वफ़ा, सफ़ेद ख़ून, ख़ूबसूरत बला, शम-ए-जवानी, तुर्की हूर, आंख का नशा, वन देवी, माधो मुरली, श्रवण कुमार, गंगावतरण, भीष्म प्रतिज्ञा, दिल की प्यास, बिल्वमंगल उर्फ़ सूरदास, रुस्तम सोहराब।

मुंशी नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के नाटक

क़त्ल-ए-नज़ीर, ज़हरी सांप, फ़रेब-ए-मुहब्बत, गोरखधंधा, पत्नी-प्रताप, महाभारत, रामायण, कृष्ण-सुदामा, समाज, शकुन्तला, सीता वनवास।

राधेश्याम कथावाचक के नाटक

मशरिकी हूर, ईश्वर-भक्ति, वीर अभिमन्यु, श्रवण कुमार, परमभक्त प्रहलाद, परिवर्तन, श्रीकृष्ण अवतार, रुक्मिणी मंगल, सती पार्वती, देवार्षि नारद।

पारसी कम्पनियों की व्यावसायिकता के कारण कलात्मक नाट्य-लेखन की धारा आगे नहीं बढ़ सकी। चलचित्र के उदय के साथ क्रमशः पारसी रंगमंच का विघटन होता गया। पारसी रंगमंच ने किसी उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण नाटक-रचना की प्रेरणा नहीं दी। हां, एकमात्र रंगमंच होने के कारण पचास वर्ष से अधिक तक हिन्दी के नाटककारों की रंगचेतना को प्रभावित करता रहा। इन नाटकों को हिंदी नाटक की धारा में मान्यता मिली हुई है। लेकिन ये नाटक अगर हिन्दी नाट्य साहित्य के अंग माने जाएं तो हमें मध्य युग में ब्रजभाषा और अन्य भारतीय भाषा में लिखे और खेले जाते रहे नाटकों को भी उतना ही महत्व देना चाहिए। एक तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि 12 वीं शताब्दी में असम के भावना घराने में प्रदर्शित होने वाला ‘‘अंकिया नाट” और पारंपरिक रासलीला और रामलीला भी सदियों से चली आ रही थी। लेकिन यह लोक-परंपरा की ही परंपरा थी, साहित्यिक नाटक की नहीं।

***

संदर्भ ग्रंथ

१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड ९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्यम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद

17 टिप्‍पणियां:

  1. एक बेशकीमती आलेख.. पारसी थियेटर ने फिल्मों को जितने कलाकार दिए या उस समय के कलाकार फिल्मों में भी थियेट्रिकल अंदाज़ में बोलते थे.. सोहराब मोदी को कौन भूल सकता है.. शायद पारसी थियेटर का प्रभाव ही रहा है कि आज भी फ़िल्मी कलाकारों में गुजराती कलाकारों की बहुलता रही है!!
    मनोज जी आभार!

    जवाब देंहटाएं
  2. Nice post.

    आप आएंगे तो आपको हम अपने नए कार्यक्रम ‘ब्लॉगर्स मीट वीकली‘ में शामिल करेंगे।
    ब्लॉगर्स मीट वीकली हरेक सोमवार को हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल पर आयोजित होने वाला एक समारोह है। शुरूआत आगामी सोमवार से।

    जवाब देंहटाएं
  3. वस्तुतः भारत में आधुनिक नाट्य चेतना लाने.. नई तकनीक लाने का श्रेय पारसी थियेटर को ही जाता है... फिल्मो पर इसका प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है... जिन भूले बिसरे नाटककारों का नाम आपने दिलाया है वह उल्लेखनीय है...

    जवाब देंहटाएं
  4. आपका हर लेख बहुत शोधपूर्ण होता है ... बहुत सी जानकारियों को समेटे अच्छा लेख ..

    जवाब देंहटाएं
  5. ज्ञानवर्धक एवं संग्रहणीय लेख है।

    जवाब देंहटाएं
  6. शोध परक , साहित्यिक ज्ञान बढ़ानेवाला , बहुत ही अनमोल लेख.....

    जवाब देंहटाएं
  7. हिन्दी नाट्य-परम्परा का विकास और पारसी थिएटर पर काफी रोचक और सूचनाप्रद रचना। साधुवाद।

    जवाब देंहटाएं
  8. आपके द्वारा प्रस्तुत ' हिंदी नाट्य परंपरा का विकास और पारसी थियेटर' पढ़ा। मेरी मान्यता है कि इस विधा के सांगोपांग अद्यययन के लिए किसी किताब की जरूरत नही होगी गर ए सिलसिला यूँ ही चलता रहा। धन्यवाद,सर।

    जवाब देंहटाएं
  9. आप सभी पाठको से अनुरोध है कि इस लेख की सामग्री का कहीं भी उल्लेख ना करें. भयानक बचकानी भूलों से भरा पड़ा है यह. इससे अच्छा तो स्नातक के विद्यार्थी लिखते हैं. अब तीन लेख के बाद भी कोई सुधार नहीं है. और इसे उम्दा और जानकारीपूर्ण पता नहीं क्या क्या कहने वालो पे मुझे तरस आता है. अब मुझे चुंकि पता लग गया है कि यहां पे टिप्पणी करना उर्जा को गलत जगह पर खर्च करना है. मैं यह अंतिम टिप्प्णी कर रहा हूं.

    जवाब देंहटाएं
  10. भाई अमितेश,
    आपके प्रोफ़ाइल में लिखा है
    “सलाह अच्छी देता हुं,”

    तो ज़रा मुझे भी दीजिए ना कि क्या ग़लत है और बचकाना है, ठीक कर लूं, कुछ सुधार कर इस आलेख में, अपने आप में भी।

    एक सलाह मेरी भी है, इस ‘हुं’ को ‘हूं’ कर लें।

    जवाब देंहटाएं
  11. मनोज जी लेख अच्छा है..अमिताभ भाई को क्या ग़लत लगा मुझे पता नहीं...में तो खुद पारसी नाटक थियेटर के विद्यार्थियों को पढाने के लिए आपका लेख काम में लेने वाला हूँ.........इजाजत देंगे??????

    कुलदीप शर्मा
    जयपुर राजस्थान से..

    जवाब देंहटाएं
  12. मनोज जी लेख अच्छा है..अमिताभ भाई को क्या ग़लत लगा मुझे पता नहीं...में तो खुद पारसी नाटक थियेटर के विद्यार्थियों को पढाने के लिए आपका लेख काम में लेने वाला हूँ.........इजाजत देंगे??????

    कुलदीप शर्मा
    जयपुर राजस्थान से..

    जवाब देंहटाएं
  13. मनोज जी लेख अच्छा है..अमिताभ भाई को क्या ग़लत लगा मुझे पता नहीं...में तो खुद पारसी नाटक थियेटर के विद्यार्थियों को पढाने के लिए आपका लेख काम में लेने वाला हूँ.........इजाजत देंगे??????

    कुलदीप शर्मा
    जयपुर राजस्थान से..

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें