गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

उपकोषा की बुद्धिमत्ता

उपकोषा की बुद्धिमत्ता

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nआदरणीय पाठक वृन्द को अनामिका का सादर प्रणाम ! पिछले तीन अंकों में हमने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा और पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा पढ़ी.

कथासरित्सागर की  पिछली कड़ियों को जोड़ते हुए....प्रथम अंक में पार्वती जी शिव के गण पुष्पदंत द्वारा योगशक्ति से कथा सुन लेने पर श्राप देती हैं और वह  धरती पर जाकर पाटलिपुत्र के राजा नन्द का मंत्री वररूचि  बन गया है, जहाँ उसे शाप-मुक्ति उपाय हेतु सुप्रतीक नामक यक्ष, जो कि काणभूति के नाम से जाना जाता है, को कहानी सुनानी है. कहानी सुन काणभूति शाप से मुक्त हो वररुचि की प्रशंसा करते हुए उससे उसकी आत्मकथा सुनाने का आग्रह करता है..द्वित्तीय अंक में वररुचि अपने जन्म और गुरु वर्ष से ज्ञान प्राप्ति का वृतांत बताते हुए तृतीय अंक में पाटलिपुत्र नगर की कथा कहते हैं.अब आगे..

विंध्य के उस वन में वररुचि काणभूति को अपने गुरु उपाध्याय वर्ष के मुख से सुनी हुई पाटलिपुत्र नगर के निर्माण की यह कथा सुना कर फिर अपनी आपबीती सुनाने लगा, जो इस प्रकार थी :

अपने दोनों गुरुभाइयों - व्याड़ी तथा इन्द्रदत्त के साथ पाटलिपुत्र में रहते हुए मेरा बचपन बीत गया. एक बार हम तीनों नगर में इन्द्रोत्त्सव देखने के लिए घूम रहे थे, तो मैंने एक कन्या देखी, जो काम के धनुष जैसी लगती थी. इन्द्रदत्त ने पता करके मुझे बताया कि वह हमारे गुरु वर्ष के भाई उपवर्ष की  पुत्री उपकोषा है. मैं उपकोषा के आकर्षण में इस तरह बंध गया कि मुझे रात भर नींद नहीं आई. सवेरा होने पर मैं उपकोषा के घर के निकट आम के एक बगीचे में जा कर बैठ गया. उपकोषा की  एक सखी वहां आई तो उसके द्वारा मैंने उपकोषा की माता तक अपने मन की बात पहुंचाई. उपकोषा की माँ ने अपने पति उपवर्ष से चर्चा की और मेरा विवाह तय हो गया. उपाध्याय वर्ष की आज्ञा ले कर व्याड़ी कौशाम्बी चला गया और मेरी माता को ले कर आ गया. मेरा उपकोषा के साथ विवाह हो गया और मैं अपनी पत्नी, माता के साथ सुख से पाटलिपुत्र रहने लगा.

इधर उपाध्याय वर्ष के पांडित्य की ख्याति सारे राष्ट्र में फ़ैल गयी थी और उनके शिष्यों की संख्या लगातार बढती जा रही थी. इन्हीं में से एक शिष्य था पाणिनि . वह अत्यंत मंदबुद्धि था. गुरुपत्नी ने उसे हिमालय पर जा कर शिव की उपासना करने को कहा. वह हिमालय चला गया.

हिमालय से जब पाणिनि लौटा, तो उसे शिव की कृपा से नया व्याकरण प्राप्त हो चुका था. उसने मुझी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा. हम दोनों का शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ और सात दिन तक चलता रहा. आठवें दिन मैंने पाणिनि को हरा ही दिया, पर ठीक इसी समय भगवान् शिव ने आकाश से भयंकर  हुंकार किया  और उसके प्रभाव से हमारा पढ़ा हुआ सारा का सारा ऐन्द्र व्याकरण नष्ट हो गया. हम लोग फिर से मूर्ख हो गए.

पाणिनि से मिली पराजय के कारण मेरे जी में वैराग्य उत्पन्न हो गया. मैंने घर का खर्च चलाने  के लिए कुछ धन हिरण्यगुप्त नामक वणिक के पास रख दिया जिससे उपकोषा आवश्यकता पड़ने पर उससे पैसा मंगवा सके और मैं भगवान् शिव की अराधना के लिए हिमालय की ओर चल दिया.

उपकोषा भी मेरी सफलता के लिए व्रत उपवास करती हुई प्रतिदिन प्रातः नियमित रूप से गंगा-स्नान के लिए जाती रही. वह मेरे विरह में पीली पड़ गयी थी, और प्रतिप्रदा के चंद्रमा के समान लगती थी. वसंत का समय था. उपकोषा को प्रतिदिन गंगास्नान के लिए आते-जाते राजपुरोहित, नगरपाल और युवराज का मंत्री - ये तीनों लोग देखते थे और उसके रूप - लावण्य पर मोहित हो गए थे.

उपकोषा इन तीनों की विकृत दृष्टि को समझ चुकी थी और किसी तरह अपना शील बचाए हुए अपना धर्म पाल रही थी. एक दिन गंगास्नान से लौटते हुए उसे कुमार सचिव (युवराज के मंत्री) ने रोक ही लिया. उपकोषा से उसे समझाया, और जब वह न माना तो कहा - इस तरह मिलने का प्रयास करना तुम्हारे लिए भी ठीक नहीं है, न मेरे लिए. इसीलिए  तुम वसंतोत्सव के दिन, जब सारे नागरिक उत्सव की धूमधाम में लगे हुए हों, रात के पहले पहर में मेरे घर आ जाओ.

उससे पीछा छुड़ा कर उपकोषा आगे बड़ी, तभी उसे राजपुरोहित ने घेर लिया. उपकोषा ने और कोई चारा न देख उसी प्रकार वसंतोत्सव के दिन रात के तीसरे प्रहर में उसे घर आने का संकेत दे दिया. पुरोहित से बच कर घबरायी हुई वह कुछ आगे बढ़ी थी कि दंडाधिप (नगरपाल) ने उसे पकड़ लिया. उपकोषा ने उसे उसी दिन रात के दूसरे पहर में घर आने को कहा.

भय से कांपती वह घर आई. दासियों को बुला कर उनके साथ परामर्श किया और सारी  रात मेरा स्मरण करते हुए निराहार रह कर बितायी. अगले दिन ब्राह्मणों के भोजन तथा दान के लिए धन की आवश्यकता होने से दासी को हिरण्यगुप्त के यहाँ मेरे द्वारा रखी धरोहर में से धन लाने के लिए भेजा.

हिरण्यगुप्त वणिक उलटे उसी के पास चला आया और एकांत में उससे बोला - तुम मेरी सेवा करो, तो मैं तुम्हारे पति का धन तुम्हें दे दूंगा. उपकोषा ने उसे वसंतोत्सव की रात के चौथे पहर में घर आने को कहा.

अब उपकोषा ने दासियों के द्वारा तेल में सना हुआ बहुत सारा काजल तैयार कराया और उसमे कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्य मिलवाये. फिर उसने चार चिथड़े उस काजल में अच्छी तरह सनवा लिए. इसके बाद उसने एक बहुत बड़ा संदूक तैयार करवाया, जिसमे बाहर से बंद करने के लिए साकंल लगी थी.

वसंतोत्सव का दिन आ पहुंचा. रात के पहले पहर में कुमार सचिव उपकोषा से मिलने आ धमका. उपकोषा ने कहा - मैं किसी पुरुष को तभी छूती हूँ, जब वह मेरे पास स्नान करके आये. तो आप पहले स्नान कर लीजिये. वह मूर्ख तुरंत स्नान के लिए तैयार हो गया. दासियाँ उसे घर के भीतरी भाग में ले गयी जहाँ अँधेरा था और काजल में सना कपडा उसके बदन पर अच्छी तरह पोतती रहीं और काजल उसके तन पर लगाती रहीं. वह समझता रहा कि उसे सुगन्धित उबटन लगाया जा रहा है. यही करते करते रात का दूसरा पहर हो गया और पुरोहित आ पहुंचा. दासियों ने कुमारसचिव से कहा - यह हमारे स्वामी वररुचि का मित्र पुरोहित आ गया, तुम यहाँ छिप कर चुपचाप बैठ जाओ - यह कह कर उन्होंने उसे संदूक में उतार कर संदूक बंद कर दिया. यही गति पुरोहित और दंडाधिप की भी हुई - तीनों उस संदूक में बंद हो गए. उनकी देह एक दूसरे को छू रही थी, पर वे भय से चुप थे.

रात के चौथे पहर में हिरण्यगुप्त वणिक आ गया. दिया जला कर स्नानागार तक ला कर उपकोषा ने उससे कहा - पहले मेरे पति का दिया हुआ धन मुझे लौटा दो.

हिरण्यगुप्त ने देखा कि वहां एकदम एकांत है, तो वह बोला - मैंने कह तो दिया मेरी सेवा करो तो तुम्हारे पति की धरोहर में से मैं तुम्हें धन देता रहूँगा.

उपकोषा ने वहां रखी हुई संदूक की ओर मुह करके ऊँचे स्वर में कहा - सुनो देवताओं, इस हिरण्यगुप्त वाणिक का वचन सुनो यह कह कर उसने दीपक बुझा दिया और दासियों से वणिक को स्नान कराने के लिए कहा. दासियों ने वणिक को उसी तरह काजल में लिपटा, चिथड़ा पहनाया और उबटन के बहाने अच्छी तरह काजल उसके तन पर लपेट दिया.

यह करते करते सवेरा हो गया और दासियों ने उससे कहा - अब प्रातः काल हो गया, तुम जाओ. वणिक आनाकानी करने लगा, तो दासियों ने उसे धक्का दे कर घर से बाहर कर दिया. काजल में सना, फटा चिथड़ा लपेटे और काजल से पुते देह वाला वणिक पाटलिपुत्र के राजमार्ग पर प्रातः निकला. कुत्ते भौंकते हुए उसे काटने को दौड़ रहे थे. किसी तरह वह घर पहुंचा और अपने सेवकों से देह में पुता काजल धुलवाने लगा. लाज के कारण वह उन सेवकों के आगे आँख नहीं उठा पा रहा था.

इधर उपकोषा ने एक दासी को साथ लिया और राजा नन्द के महल में गुहार करने जा पहुंची. उसने राजा से कहा कि हिरण्यगुप्त नामक बनिया मेरे पति के निक्षेप का धन हड़पना चाहता है. राजा ने तुरंत वणिक को बुलाया. उसने राजा से कहा - महाराज, मेरे पास वररुचि  कोई धरोहर रख के नहीं गया.

उपकोषा ने कहा - महाराज, मेरे गृहदेव, जो एक संदूक में बंद हैं, इस बात के साक्षी हैं. आप अपने सेवकों को भेज कर मेरे घर से संदूक उठवा लीजिये, देव गवाही देंगे.

राजा को बड़ा कौतुक हुआ. उसने संदूक मंगवाया. उपकोषा ने संदूक के सामने ऊँचे स्वर में कहा - हे देवो, बताओ इस बनिए के पास मेरे पति की धरोहर का धन है या नहीं, यदि तुम नहीं बताओगे तो इस भरी सभा में संदूक खोल कर मैं तुम्हारे दर्शन राजा को करा दूंगी. संदूक में बंद तीनों लोग डर के मरे एक साथ बोले - 'उपकोषा सच कहती है, हिरण्यगुप्त वणिक के पास  वररुचि धन रख कर गया है.

संदूक के भीतर से आते स्वर से राजा नन्द बड़ा चकित हुआ और उसने अर्गला तुडवा कर संदूक खुलवाया. अँधेरे के पिंडों की तरह तीन पुरुष उसमे से बाहर निकले. बड़ी कठिनाई से वे तीनों उस भरी राजसभा में पहचाने गए और उनकी जगहंसाई हुई.

राजा के पूछने पर उपकोषा ने सारा वृतांत सुनाया. राजा ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और कहा कि आज से तुम मेरी बहिन हो. इसके साथ ही कुमारसचिव, दंडाधिप तथा पुरोहित की  संपत्ति जब्त करके राजा ने तीनों को देश निकाला दे दिया.

इसके बाद इन सारी घटनाओं का पता हमारे गुरु वर्ष और मेरे ससुर उपवर्ष को चला, तो उन्होंने उपकोषा की बुद्धिमत्ता को बहुत सराहा. सारे नगर में उपकोषा की जयजयकार होने लगी.


पाठक गण ये कथा यहीं समाप्त होती है. नमस्कार !

12 टिप्‍पणियां:

  1. आपका यह प्रयास अच्छा लगा । इस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए धन्यवाद । मेरी ओर से नव वर्ष- 2012 की हार्दिक एवं अशेष सुभकामनाएं ।

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  2. बहुत रुचिकर प्रसंग चल रहे हैं।

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  3. उपकोषा की बुद्धिमता के तो हम भी कायल हो गये ! आपने बड़ी रुचिकर श्रंखला आरम्भ की है ! आनंद आ रहा है !

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  4. अच्छा प्रयास राजभाषा हिंदी के लिए...

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  5. उपकोषा ने अपनी बुद्धिमत्ता का लोहा मनवा लिया...बहुत बहुत शुभकामनायें नव वर्ष के लिये!

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  6. बहुत ही सुन्दर और रोचक प्रसंग ..

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  7. उन लोगों के लिये अच्छा सबक जो पराई स्त्री पर डोरे डालना चाहते हैं .सामान्यतः स्त्रियाँ मूर्ख नहीं होतीं .
    कथा का प्रस्तुतीकरण अच्छा है .

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  8. Maza aa gaya...shukr hai ki mera net chal pada aaur aapko padh payee!
    Naye saal kee anek shubh kamnayen!

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  9. बुद्धि का इस्तेमाल तो किया उपकोषा ने।

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