गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

नाचो हे, नाचो, नटवर !

अनामिकाआप सब को अनामिका का सादर प्रणाम!

पिछले सप्ताह आप सब ने रामधारी सिंह दिनकर जी के जीवन दर्पण का प्रथम अंक पढ़ा और मेरी इस कोशिश को पसंद किया इसके लिए आप सब की आभारी हूँ. आज दिनकर जी के जीवन सफ़र के कुछ और पहलू आपके बीच लायी हूँ .....

 

दिनकर जी को आवेश में आते देर नहीं लगती थी.

कोई आश्चर्य नहीं कि जीवन के उषःकाल में ही दिनकर जी जमीदारी प्रथा के विरूद्ध हो गए. जमींदारी प्रथा और जनतंत्र के खिलाफ इनकी कविताओं में जो कटुता व्यक्त हुई, उसके मूल में बहुत कुछ वैयक्तिक अनुभव ही हैं.

सन १९३३ ई. में इन्होने तांडव कविता लिखी, यह कविता इन्होने ख़ास तौर से वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर, शंकर महादेव को सुनाई थी. परन्तु १९४९ में जब ये बाल-बच्चों को लेकर मंदिर में पहुंचे तो देखा कि वहां मिथिला की बहुत सी ग्रामीण स्त्रियाँ जल चढाने की प्रतीक्षा में खड़ी जाड़े से थर थर कांप रही थीं और पंडा उन्हें जल चढाने से रोके हुए था. पंडा अपने किसी सेठ यजमान की पूजा करवा रहा था और कहता था कि जब तक वह यजमान पूजा समाप्त नहीं कर लेता, मैं किसी को भी जल चढाने नहीं दूंगा. धर्म की छाती पर पूँजी का यह नंगा नाच था.

फ़ौरन दिनकर जी से उसकी कहा-सुनी हो गयी. फिर भी जब वह किसी भी तरह राजी न हुआ, दिनकर बोले - हे महादेव ! लोग मुझे क्रांति कारी कवि कहते हैं और आप पंडा के गुलाम हो गए. इसलिए अगर मैं जल चढाऊँ, तो इसमें  मेरे  प्रशंसकों  का अपमान  है.

इतना कहकर गंगाजल भरी सुराही उन्होंने शंकर के माथे पर दे मारी और क्रोध में मंदिर से बाहर निकलकर मार -पीट  की तैयारी करने लगे.

विनय भी उनका स्वभावसिद्ध गुण था.

राष्ट्रपति ने उन्हें जब पद्मभूषण से अलंकृत किया, दिल्ली में उनके सम्मान में एक पार्टी का आयोजन किया. इस आयोजन में राष्ट्रकवि श्री मैथिलि शरण जी गुप्त ने एक बात यह भी कही - दिनकर जी को लोग कभी कभी अभिमानी भी समझ लेते हैं, किन्तु अभिमानी वे हैं नहीं.

दिनकर जी जब उत्तर देने को खड़े हुए तो उन्होंने कहा - आप सबके चरणों की धूल मिल जाए तो उसे अपने मस्तक पर लगाकर मैं अपने अभिमान को दूर कर दूं.

दिनकरजी को अपनी महिमा का ध्यान तब होता था, जब उन्हें कोई उसकी याद दिला देता था.

१९३४ ई. में दिनकरजी ने बिहार सरकार के अधीन सब-रजिस्ट्रारी स्वीकार की. १९४३ में इनका तबादला युद्ध प्रचार विभाग में हुआ. १९४७ में बिहार सरकार में प्रचार-विभाग के उपनिदेशक और १९५० में मुजफ्फरपुर कालेज में हिंदी विभागाध्यक्ष हुए. यह काम  १९५२ के मार्च तक चलता रहा.

इसके साथ साथ १९३७ का किस्सा भी सुनाती चलू.. सन १९३७ में जब पहले पहल कांग्रेस ने प्रांतीय सरकारें बनायीं, बिहार के नेताओं  ने चाहा कि दिनकर जी हिंदी में ऍम.ए. कर लें तो उन्हें सब-रजिस्ट्रारी से मुक्त करके किसी कालेज में डाल दिया जाए. दिनकरजी ने यूनिवर्सिटी की फीस जमा कर दी, किताबें भी खरीद लीं और वे मनोयोगपूर्वक परीक्षा की तैयारी में लग गए. यह बात जब श्री जयप्रकाश नारायण को मालूम हुई तो उन्होंने दिनकरजी को बुलाकर कहा - लड़कों की तरह परीक्षा में बैठने जा रहे हो ? आप अपनी इज्जत नहीं कर सकते तो उनकी तो कीजिये जो आपको कवि मानते हैं.

दिनकरजी ने उसी दिन से परीक्षा की तैयारी छोड़ दी और ऍम.ए. करने की बात उनके मन में फिर कभी नहीं उठी. पीछे १९५० में जब बिहार सरकार ने उन्हें प्रोफेस्सर नियुक्त किया, जयप्रकाशजी ने उन्हें एक पुस्तक भेंट की और कहा - देखा न, मैंने जो आपको ऍम.ए.करने से रोक दिया था, उससे आपकी कोई नुकसानी नही हुई.

दिनकरजी में जुआरी की सी हिम्मत थी, पर वह सतर्क जुआरी थे.

१९५२ के १० मार्च को इन्होने संसद की सदस्यता के लिए प्रोफेस्सरी पर लात मार दी. प्रथम श्रेणी की प्रोफेस्सरी बड़ी ही नायाब चीज होती है. इससे रूपये भी मिलते हैं और इज्जत भी तथा आराम भी. सारी जिन्दगी दिनकर जी छोटी-छोटी नौकरियों की कीच में सड़ते आये थे. बस यही नौकरी थी जो सब तरह से दिनकरजी के अनुकूल पड़ती थी. लेकिन इसे भी छोड़कर दिनकरजी संसद के सदस्य हो गए. और वह भी उस समय जब इनके सिर पर परिवार का पहले से भी कहीं अधिक बोझ था.

लेकिन दिनकरजी जुए के खतरे से डरते भी थे.

संसद सदस्य होकर जब इन्होने देखा कि परिवार को आर्थिक कठिनाइयाँ होने लगी हैं तो इन्होने अपनी पुस्तकें प्रकाशकों से लीं और अपने लड़के रामसेवक सिंह को (जो हिंदी  के प्राध्यापक थे) को नौकरी से निकाल  कर प्रकाशन में लगा दिया. लेकिन इस प्रकाशन से इन्हें मानसिक अशांति हाथ लगी और इसी बीच १९६४ में राज्यसभा से इस्तीफा देकर भागलपुर विश्व-विद्यालय के वाइस-चांसलर बने, इसमें भी मन नहीं लगा. यहाँ से भी इस्तीफा दे दिया और फिर ये भारत सरकार स्व-राष्ट्र मंत्रालय में हिंदी सलाहकार के रूप में नियुक्त हुए. अब इनका मन इससे भी ऊब चुका था, इससे भी छुट्टी लेकर विश्राम की बात सोच ही रहे थे कि इनके ज्येष्ठ पुत्र बहुत बीमार हो गए और उनका निधन हो गया.

क्रमशः 

तांडव

नाचो हे, नाचो, नटवर !

चंद्रचूड ! त्रिनयन ! गंगाधर ! आदि-प्रलय ! अवढर ! शंकर !

                            नाचो हे, नाचो, नटवर !

आदि लास, अविगत, अनादी स्वान,

अमर  नृत्य-गति,  ताल चिरंतन,

अंगभंगी, हुंकृति-झंकृति कर थिरक - थिरक हे विश्वंभर !

                        नाचो हे, नाचो, नटवर !

सुन  श्रृंगी-निर्घोष  पुरातन,

उठे सृष्टि-हृत में नव स्पंदन,

विस्फारित लाख काल-नेत्र फिर

कांपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन !

स्वर-खरभर संसार, ध्वनित हो नगपति का कैलास-शिखर !

                         नाचो हे, नाचो, नटवर !

नचे तीव्रगति भूमि कील पर,

अट्टहास  कर उठे  धराधर

उपटे अनल, फटे ज्वालामुख,

गरजे उथल-पुथल कर सागर !

गिरे दुर्ग जड़ता का, ऐसा प्रलय बुला दो प्रलयंकर !

                   नाचो हे, नाचो, नटवर !

घहरें प्रलय-पयोद गगन में,

अंध-धूम हो व्याप्त भुवन में,

बरसे आग, बहे  झंझानिल,

मचे त्राहि जग के आँगन में,

फटे अटल पाताल धंसे जग, उछल-उछल कूदें भूधर !

                     नाचो हे, नाचो, नटवर !

प्रभु ! तब पावन नील गगन-ताल,

विदलित अमित निरीह-निबल-दल,

मिटे राष्ट्र,  उजड़े  दरिद्र-जन,

आह ! सभ्यता आज कर रही

असहायों का शोणित -शोषण !

पूछो, साक्ष्य भरेंगे निश्चय नभ के गृह-नक्षत्र-निकर !

                    नाचो हे, नाचो, नटवर !

नाचो, अग्निखंड भर स्वर में,

फूंक-फूंक  ज्वाला अम्बर  में,

अनिल-कोष, द्रुम-दल, जल-थल में,

अभय  विश्व  के उर-अंतर में,

गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो,

लगे आग इस आडम्बर में,

वैभव  के  उच्चाभिमान में,

अहंकार के उच्च शिखर में,

स्वामिन,अंधड़-आग बुला दो,

जले पाप जग का क्षण भर में,

डिम-डिम डमरू बजा निज कर में,

नाचो, नयन तृतीय तरेरे !

ओर-छोर तक सृष्टि भस्म हो,

अर्चिपुन्ज अम्बुज को घेरे !

रच दो फिर से इसे विधाता, तुम शिव, सत्य और सुन्दर !

                         नाचो हे, नाचो, नटवर !

10 टिप्‍पणियां:

  1. नाचो हे, नाचो, नटवर !...बहुत सुन्दर काव्य-पंक्तियाँ!..दिनकर जी के बारे में बहुत बढ़िया जानकारी आपने उपलब्ध कराई है...धन्यवाद!

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  2. शुक्रिया अनामिका जी.....

    महान लेखन और उनके कृतियों से मिलवाने के लिए आपका आभार.
    अनु

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  3. वाह वाह …………दिनकर जी की कविता सच मे क्रांतिकारी है और उनके व्यक्तित्व के बारे मे जानकर अच्छा लगा ………आभार

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  4. दिनकर जी के विषय में पढ़ना अच्छा लगा .धन्यवाद, अनामिका जी !

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