गुरुवार, 21 जून 2012

परशुराम की प्रतीक्षा



सुधी जनों  को अनामिका का सादर नमन!  दिनकर जी अपने जीवन वृत्तांत में बताते हैं कि वो कभी भी राजनीति को पसंद नहीं करते थे वरन वह राजनीतिक स्वाधीनता के प्रेमी रहे.....और इसके साथ ही आर्थिक साम्य के उपासक थे. उनका यह साम्य-विषयक भाव उनकी कविताओं में भी व्यक्त हुआ...तो आइये जानते हैं उनकी कविताओं में क्रांति और साम्य की हुंकार को...



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१. देवता हैं नहीं २.  नाचो हे, नाचो, नटवर ३. बालिका से वधू ४. तूफ़ान ५.  अनल - किरीट ६. कवि की मृत्यु ७. दिगम्बरी 8. ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल, बोल ! 9.दिल्ली 10. विपथगा 11. हिमालय 12 .हाहाकार

दिनकरजी जीवन दर्पण भाग - १३  


दिनकर जी  लिखते हैं.....
ना देखे विश्व पर मुझको घृणा से,
मनुज हूँ सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं,
पुजारिन ! धूलि से मुझको उठा ले,
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं.


पराधीन भारत के नौजवान वीरता का जागरण चाहते थे, धर्म की रूढ़ियों से निकलकर जीवन पर विजय पाना चाहते थे और चाहते थे की फ़्रांस और रूस की तरह भारत में भी क्रांति खडग धारिणी  होकर आये और अन्यायियों के अन्याय को चकनाचूर कर कर दे. दिनकरजी जिस क्रांति का आवाहन कर रहे थे वह बहुत कुछ ऐसी ही क्रांति थी - 

असि की नोकों से मुकुट जीत अपने अपने सिर उसे सजाती हूँ,
इश्वर का आंसन छीन, कूद मैं आप खड़ी हो जाती हूँ,
थर थर करते कानून-न्याय इन्गति पर जिन्हें नचाती हूँ.
भयभीत पातकी धर्मो से अपने पग मैं धुलवाती हूँ.
सिर झुका घमंडी सरकारें करती मेरा अर्चन -पूजन.
(विपथगा)

जिन दिनों हुंकार की रचना हुई, दिनकरजी चिन्तक कम, भावना-शील अधिक थे. इसलिए कभी-कभी उन्होंने क्रांति का आवाहन केवल क्रांति के लिए भी किया था. हुंकार में ही एक कविता के भीतर ये पंक्तियाँ आती हैं जिन्हें अंधी क्रांति का स्तवन मात्र समझा जा सकता है

स्वातंत्र्य ! पूजता मैं न तुझे
इसलिए की तू सुख शांति रूप
हाँ, उसे पूजता जो चलता
तेरे आगे नित क्रांति-रूप !
(चाह एक )

किन्तु इसकी भी सार्थकता तो थी ही कि युवक विप्लव मचाने को उतावले हो रहे थे और समझौते के रास्ते स्वराज्य प्राप्त करने की बात वे नही सोच सकते थे. स्वाभाविक रूप से शक्ति ऐसे लोगों के हाथों में दी गयी, जो क्रांतिकारी नहीं थे. अलाय-बलाय हवा के झोंकों से ऊपर पहुँच गयी. किन्तु यह नियति का व्यंग्य है कि देश अंत में दृश्य  मान रूप से संधि से ही, सो भी विभक्त होकर स्वाधीन हुआ. बाद को चीनी आक्रमण की  प्रतिक्रिया में रचित 'परशुराम की प्रतीक्षा' में दिनकर जी ने शुद्ध कविता का घूंघट और अहिंसा की  पायल उतार दी और तब तांडव का ताबड़तोड़ आह्वान किया.

जहाँ तक क्रांति के आर्थिक, सामाजिक पक्षों का सम्बन्ध है, दिनकर काव्य में वे बराबर समता की कल्पना के रूप में उतरते रहे. दिनकरजी केवल राजनीतिक स्वाधीनता के ही प्रेमी नहीं, आर्थिक साम्य के भी उपासक रहे हैं. यहाँ तक कि उनके दार्शनिक काव्य क्षेत्र में भी जिसका राजनीति से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, उनका साम्य-विषयक भाव व्यक्त होने से नही रुका.

साम्य कि वह रश्मि स्निग्ध, उदार,
कब खिलेगी, कब खिलेगी विश्व में भगवान् ?
कब सुकोमल, ज्योति से अभिषिक्त
हो सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण !
(कुरुक्षेत्र ) 

तात्पर्य ? जब तक समता नहीं आती, धरती पर हरियाली भी नहीं आएगी.
किन्तु कुरुक्षेत्र से पूर्व की कविताओं में तो कवि के साम्य-विषयक विचार और भी उन्मुक्त रूप से प्रकट हुए हैं -

अचरज नहीं, खींच ईंटें यह सुरपुर को बर्बाद करे,
अचरज नहीं, लूट जन्नत वीरानों को आबाद करे.
(अनल किरीट) 

ऊपर ऊपर सब स्वांग, कहीं कुछ नहीं सार,
केवल भाषण की  लड़ी, तिरंगे का तोरण !
कुछ से कुछ होने को तो आजादी न मिली
वह मिली गुलामी की  ही नकल बढ़ाने को !
(नीम के पत्ते)

जिस भ्रष्टाचार की और लाभ की  प्रधानता से देश आज इतना परेशान है उसका संकेत भी दिनकरजी ने १९४८ में दिया था -

टोपी कहती है मैं थैली बन सकती हूँ,
कुरता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो,
ईमान बचाकर कहता है आँखे सबकी,
बिकने को हूँ तैयार, ख़ुशी हो जो, दे दो.

दिनकरजी ने नौकरी १९५२ में छोड़ी और उसी समय वे संसद के सदस्य हुए. संसद  सदस्य के रूप में दिल्ली आने से पूर्व वे दिल्ली पर दो कवितायें लिख चुके थे, 'नयी दिल्ली'  १९३३ में, तथा 'दिल्ली और मास्को'  १९४५ में. सदस्य होकर दिल्ली आने के बाद उन्होंने दिल्ली पर दो कवितायें और लिखी 'हक़ की  पुकार'  १९५२ में और 'भारत का यह रेशमी नगर' १९५४ में. इन चार कविताओं का संकलन 'दिल्ली' नाम से अलग प्रकाशित हुआ. इनसे स्पष्ट विदित होता है कि दिल्ली से कवि कभी सुलह नहीं कर सके थे, पर साथ ही यह भी सत्य है कि दिल्ली का स्वाद पा गए, उसे वह छोड़ नहीं सके. संसद सदस्य नहीं रहे तो गृह मंत्रालय में हिंदी की नौकरी लेकर आये. ऐसा क्यों किया ? परिवार से दूर रहने के लिए या परिवार की बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए ?

ओ बुझी हुई ज्वालाओं की राखों के ढेर ! सुने जाओ,
सोने से चंगुल मढ़े हुए गद्दी के शेर सुने जाओ,
दिल्ली की सारी चमक-दमक, यह लोच-लचक सब झूठी है !
रेशम  पर  पड़ती  हुई रेशमी की लक -डाक सब झूठी है !
झूठा है यह सारा बानव, झूठे महल अटारी हैं !
तुम यहाँ फूकते हो वंशी, गाँवों में नाले जारी  हैं.
(हक़ की पुकार )

चल रहे ग्राम कुंजों में पछिया के झकोरे,
दिल्ली, लेकिन ले रही लहर पुरवाई में,
है विकल देश सारा अभाव के तावों से,
दिल्ली सुख से सोयी है नरम रजाई में.
(भारत का यह रेशमी नगर)

'रेणुका' में संकलित अपनी विख्यात कविता 'कस्मै देवाय' में जब उन्होंने लेनिन का नाम लिया था, तब भी उसके पीछे आर्थिक समत्व की प्रेरणा काम कर रही थी.

उठ भूषण की भाव रंगीनी 
लेनिन के दिल की चिंगारी
युग मर्दित यौवन की ज्वाला,
जाग,जाग, ओ क्रांति कुमारी
लाखों क्रौंच कराह रहे हैं,
जाग आदिकवि की कल्याणी
फूट फूट तू मूक कंठ से 
बन व्यापक निज युग की वाणी. 

ये लाखों क्रौंच भारत की अपार जनता के प्रतीक हैं, जो अभावों से त्रस्त है और यह मूक कंठ भी उसी जनता का है जिसे गांधीजी 'पद-दलित और निर्वाक' कहते थे.

दिनकरजी की साम्योपासक यह भावना कुरुक्षेत्र में आकर दर्शन के धरातल पर पहुँच गयी और कवि ने बड़े ही विश्वास के साथ कहा -

शांति कहाँ कब तक जब तक सुख भाग न नर का सम हो ?
नहीं किसी को बहुत अधिक हो नही किसी को कम हो .

क्रमशः :

लीजिये प्रस्तुत है दिनकर जी की चीनी आक्रमण की  प्रतिक्रिया में रचित 'परशुराम की प्रतीक्षा'  जिसमे  दिनकर जी ने शुद्ध कविता का घूंघट और अहिंसा की  पायल उतार दी और तब तांडव का ताबड़तोड़ आह्वान किया - 

परशुराम की प्रतीक्षा 


नेता निमग्न दिन-रात शांति-चिंतन में
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में.
यज्ञाग्नि हिंद में समिध नहीं पाती है !
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है.

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो !
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो !
वह अघि, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है !

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते हैं,
है जब खडग, सब पुन्य वहीँ बसते हैं !
वीरता जहाँ पर नहीं, पुन्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है !

तलवार पुन्य की सखि, धर्म पालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है !
असी छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचंडतम वहीँ प्रकट होता है !

तलवारें सोती जहाँ बंद म्यानों में,
किस्मतें वहां  सडती हैं तहखानों में !
बलिदेवी पर बालियाँ-नाथेन चढ़ती हैं,
सोने की ईंटे, मगर नहीं कढती हैं !

17 टिप्‍पणियां:

  1. दिनकर का आह्वान !
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति !

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  2. दिनकर ने सदा ही प्रभावित किया है...

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  3. परिश्रम से तैयार की गई पोस्ट!
    शेअर करने के लिए आभार!

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  4. बहुत सुन्दर अनामिका जी....
    वाकई बड़ी मेहनत से तैयार की गयी है पोस्ट....

    आपका और मनोज जी का बहुत बहुत शुक्रिया.


    अनु

    जवाब देंहटाएं
  5. असि की नोकों से मुकुट जीत अपने अपने सिर उसे सजाती हूँ,
    इश्वर का आंसन छीन, कूद मैं आप खड़ी हो जाती हूँ,
    थर थर करते कानून-न्याय इन्गति पर जिन्हें नचाती हूँ.
    भयभीत पातकी धर्मो से अपने पग मैं धुलवाती हूँ.
    सिर झुका घमंडी सरकारें करती मेरा अर्चन -पूजन.
    *
    - आज देश को यह क्रान्ति का राग चाहिये !

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  6. प्रेरित करती बहुत ही सुन्दर रचना... आभार इसे प्रस्तुत करने के लिए..!

    कुँवर जी,

    जवाब देंहटाएं
  7. कवी दिनकर की रचनाएं पढ़ के ही मन हिलोरें लेने लगता है ...
    जैसे उतिष्ठ का आह्वान कर रही हों ... उनकी जीवन गाथा भी लेखनी की तरह ओज़स्वी है ...

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  8. दिनकर जी के कृतित्व के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराती बहुत सुन्दर प्रस्तुति....आभार

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  9. दिनकर जी की कविताओं में जितना ओज होता है उतना ही उनकी जीवनी में भी है।

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  10. बहुत श्रम साध्य काम कर रही हैं आप अनामिका जी ! इस श्रंखला को पढ़ना और दिनकर जी की हर अनुपम रचना को आत्मसात करना हम सभी के लिए एक विलक्षण उपलब्धि है ! बहुत-बहुत आभार आपका !

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  11. दिनकर जी के जीवन और रचनाओं पर आधारित सार्थक पोस्ट...बहुत बहुत आभार !

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