आदरणीय गुणी जनों को अनामिका का सादर प्रणाम ! अगस्त माह से मैंने एक नयी शृंखला का आरम्भ किया है जिसमे आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवियों और लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है और विश्वास करती हूँ कि आप सब के लिए यह एक उपयोगी जानकारी के साथ साथ हिंदी राजभाषा के साहित्यिक योगदान में एक अहम् स्थान ग्रहण करेगी.
लीजिये आज चर्चा करते हैं आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जी की ...
आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी
जन्म सं. 1921 ( सन 1864 ई.), मृत्यु सं. 1995 ( सन 1938 ई.)
परिचय
गद्य की विविध विधाओं में भारतेंदु युग के साहित्यकार सृजन करते रहे, किन्तु उनके स्वरुप गठन के लिए उनके पास अवकाश ही नहीं रहा. इस महत्वपूर्ण दायित्व की पूर्ती आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जी ने की. श्री पदुमलाल बख्शी ने आचार्य द्विवेदी के लिए लिखा है -
यदि कोई मुझसे पूछे कि द्विवेदी जी ने क्या किया तो मैं उसे समग्र आधुनिक हिंदी साहित्य दिखलाकर कह सकता हूँ कि यह सब उन्हीं की सेवा का फल है. हिंदी साहित्य गगन में सूर्य, चंद्रमा और तारागणों का आभाव नहीं है. सूरदास, तुलसीदास, पद्माकर आदि कवि साहित्याकाश के देदीप्यमान नक्षत्र हैं. परन्तु मेघ की तरह ज्ञान - राशि देकर साहित्य के उपवन को हरा-भरा करने वालों में द्विवेदी जी की ही गणना होगी.
जीवन वृत्त
आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जी का जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली के दौलत पुर नामक ग्राम में बैशाख शुक्ल 4, सं. 1921 वि. में हुआ. इनके पिता का नाम पं. रामसहाय था. पं. महाबीर प्रसाद द्विवेदी जी की शिक्षा उन्नाव में हुई और हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने पर यह तार का काम सीख कर जी.आर. पी. रेलवे में नौकरी करने लगे. द्विवेदी जी बड़े अध्यवसायी थे और यही कारण है कि बंगला काव्य की शास्त्रीय बातों का ज्ञान इन्हें बचपन में ही हो गया था. इन्हें पुस्तकें पढने की भी बहुत रूचि थी और यही कारण है कि तार का काम करते समय भी इन्होंने अपना पुस्तक-प्रेम नहीं त्यागा. नौकरी के दिनों में इन्होंने अपने कुछ आदर्श निश्चित कर लिए कि यह समय की पाबंदी करेंगे, रिश्वत नहीं लेंगे, अपना कार्य इमानदारी से करेंगे और ज्ञान वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहेंगे.
अपने इन्हीं आदर्शों के कारण यह रेलवे में पदोन्नति करते गए और जहाँ कि यह पचास रूपए प्रतिमाह के लिए नियुक्त हुए थे वहां दस -बारह वर्षों में इनका वेतन दुगना हो गया. इतने पर भी जब इन्हें रेलवे में अपने आत्म-सम्मान को धक्का लगता जान पड़ा तब इन्होने त्याग-पत्र दे दिया. कहा जाता है कि जब इनके ऑफिसर ने इन्हें कर्मचारियों सहित 8 बजे सुबह आने को कहा तो इन्होने स्पष्ट कह दिया कि " मैं आऊंगा पर औरों के आने को लाचार ना करूँगा.” इसी बात पर बात बढ़ जाने से इन्होने सरकारी नौकरी छोड़ दी और केवल तेईस रुपये प्रति माह पर सरस्वती पत्रिका के सम्पादन का भार संभाला. इस प्रकार सरस्वती की सेवा से जो भी मासिक आमदनी इन्हें होती उसी में यह संतुष्ट रहने लगे.
सरस्वती पत्रिका की सहायता से द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य की जो सेवा की है , वह अतुलनीय है . साहित्य क्षेत्र में प्रविष्ट होते ही इन्होने हिंदी भाषा को एक नवीन मोड़ प्रदान किया जिसके फलस्वरूप हिंदी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी युग को प्रसिद्धि मिली. इन्होने भारतेंदु युग की भाषा को नवीन संस्कार प्रदान किये और लेखकों को उनकी त्रुटियों से अवगत कराया. फलस्वरूप भाषा में एक नया निखार आ गया और उसकी शुद्धता पर बल दिया जाने लगा. इस प्रकार हिंदी भाषा को परिष्कृत, परिमार्जित कर इन्होने एक नवीन युग की प्रति-स्थापना की तथा अनेक नवीन लेखकों व् कवियों को प्रोत्साहित कर साहित्य-सृजन के लिए प्रवृत किया.
भाषा शैली -
द्विवेदी जी को हिंदी गद्य का निर्माता कहा जाता है , क्योंकि इन्होने हिंदी गद्य में उस समय लिखना प्रारंभ किया जब हिंदी-भाषा व्याकरण की अराजकता से आक्रान्त थी. व्याकरण - विरोधी शब्दों और अव्यवस्थित वाक्यविन्यास का प्रयोग बेधड़क हो रहा था तथा भाषा की शुद्धता, प्रांजलता व् व्याकरण की मर्यादा का हिंदी लेखकों के सामने कोई आदर्श न था. द्विवेदी जी भाषा की शुद्धता और व्याकरण के नियमों को मर्यादा का आदर्श लेकर साहित्य जगत में अवतीर्ण हुए तथा इन्होने विरामादी चिन्हों के प्रयोग, शब्द विधान, वाक्य गठन में व्याकरण के नियमो का पूर्णतः ध्यान रखा. स्वयं अपने गद्य को प्रांजल, परिष्कृत और साहित्यिक रूप प्रदान कर हिंदी गद्य को भी उसी सांचे में ढाला.
साथ ही भाषा के सम्बन्ध में भी इनका दृष्टिकोण उदार और प्रगतिशील था. यह न तो संस्कृत बहुल भाषा के पक्षपाती थे और न उर्दू फ़ारसी व अप्रचलित शब्दों से बोझिल भाषा के. इन्होने भाव और विषय के अनुकूल ही भाषा लिखी है तथा उनका शब्द विधान प्रसंग की उपयुक्तता के अनुकूल होता था. इनके निबंधों में न तो गूढ़ अर्थों से युक्त वाक्यों की अधिकता है और न एक-एक वाक्य में अनेक विचारों को ही भर दिया गया है. इन्होने तो हमेशा छोटे छोटे वाक्यों द्वारा ही कोई बात कहनी चाही है और ऐसा जान पड़ता है मानो कोई अध्यापक बालकों को समझा-समझा कर पढ़ा रहा हो. अर्थात इनकी भाषा में व्यावहारिकता व सूक्ष्मता आदि गुण भी हैं.
सामान्यतः इनकी भाषा शैली में निम्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं -
1. वर्णात्मक शैली
2. विचारात्मक शैली
3. व्यंग्यात्मक शैली
4. भावात्मक शैली
5. वक्तृतात्मक शैली
गद्य साधना
वस्तुतः द्विवेदी जी अपने युग की समस्त साहित्यिक प्रवृतियों के केंद्र थे, अतः हिंदी के बहुमुखी विकास के लिए इनकी साधना ने साहित्य के सभी उपकारों का उपयोग किया है. यह एक साथ कवि, आलोचक, निबंधकार , पत्रकार, साहित्य-परिष्कार-कर्ता और साहित्य शिक्षक के साथ-साथ कवि लेखक निर्माता भी थे. यों तो समीक्षकों ने द्विवेदी जी की साहित्य साधना का वास्तविक आधार इनकी पत्रकारिता को माना है और इसमें कोई संदेह नहीं कि पत्रकार के रूप में इन्होने हिंदी भाषा के प्रसार और उन्नयन में अभूतपूर्व कार्य किया है. सरस्वती के प्रथम अंक के साथ हिंदी में सच्ची पत्रकारिता का जन्म हुआ और द्विवेदी जी ने उस समय जबकि हिंदी पत्रों की कोई बूझ नहीं थी सरस्वती को जन-समाज के गले का हार बना दिया. इन्होने अनेक नवीन लेखकों को भी प्रकाश में लाया और रामचंद्र शुक्ल, कामताप्रसाद गुरु, विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक', पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, मैथिलीशरण गुप्त तथा गोपालशरण सिंह आदि साहित्यकार सरस्वती के माध्यम से ही प्रसिद्द हुए.
कृतियाँ
आचार्य द्विवेदी जी सम्पादक होने के साथ साथ सुलेखक और कवि भी थे. संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी, अंग्रेजी, बंगला, मराठी आदि भाषाओं के ज्ञाता होने के कारण इन्होने इन भाषाओँ के उपयोगी कृतियों का अनुवाद भी किया है. भामिनी विलास, अमृत लहरी, बेकन विचार रत्नावली शिक्षा, स्वाधीनता, जल चिकित्सा, हिंदी महाभारत, रघुवंश, वेणी-संहार, कुमार संभव, मेघदूत, किरातार्जुनीय प्राचीन पंडित और कवि तथा आख्यायिका सप्तक इनकी अनूदित कृतियाँ हैं. इसके अतिरिक्त इन्होने पचास से भी ऊपर मौलिक रचनाएं हिंदी साहित्य को भेंट में दी हैं, जिनमे से उल्लेखनीय यह हैं - नैषध चरित चर्चा, हिंदी कालिदास की समालोचना, वैज्ञानिक कोष, नाट्य-शास्त्र, विक्र्मांक देव्चारित चर्चा, हिंदी भाषा की उत्पत्ति संपत्ति शास्त्र, कौटिल्य कुठार, कालिदास की निरंकुशता, वनिता-विलास, रसज्ञ -रंजन, कालिदास और उनकी कविता, सुकवि-संकीर्तन, अतीत समृति, साहित्य सन्दर्भ, अलोप, महिला मोड़, साहित्यालाप, कोविद कीर्तन, दृश्य दर्शन, आलोचना जालित चरित-चित्रण, समालोचना समुच्चय, पुरातत्व प्रसंग, साहित्य सीकर, विचार-विमर्श, विज्ञानं वार्ता आदि.
महत्त्व -
द्विवेदी जी को युग निर्माता और युग प्रवर्तक होने का गौरव प्राप्त है. इनका युग हिंदी गद्य के परिष्कार का युग है. इसके लिए जिस निष्ठा, धैर्य एवं रूचि की आवश्यकता थी, हिंदी साहित्य की अराजकतापूर्ण अवस्था में इन्होने सरस्वती के माध्यम से व्यवस्था और संयम की सृष्टि की.
डा. रामचंद्र तिवारी के शब्दों में -
"चाहे यह गंभीर आलोचना न कर सकें हों, चाहे इनके निबंध 'बातों के संग्रह मात्र हों .' चाहे इनकी नीतिकता के रसात्मकता की सहायता को सिकता में बदल दिया हो, किन्तु यह स्वीकार करना होगा कि इन्होने हिंदी गद्य को मर्यादा दी, हिंदी भाषा को परिमार्जित किया और नवीन प्रयोगों को हिंदी साहित्य में संभव बनाया. इस दृष्टि से ये युग प्रवर्तक हैं.
द्विवेदी जी का देहांत सं. 1995 सन 1938 ई. में हो गया.