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मंगलवार, 23 अगस्त 2011

प्रसाद जी के नाटकों की मौलिक विशेषताएं


नाटक साहित्य-12
नाटक साहित्य प्रसाद युग-5

प्रसाद जी के नाटकों की मौलिक विशेषताएं

रोमांटिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नाटकों का सृजन कर प्रसाद ने हिंदी नाटक को नई दिशा दी। इनके माध्यम से उन्होंने हिन्दी-नाट्यसाहित्य को विशिष्ट स्तर और गरिमा प्रदान की। उनके लिए नाटक एक साहित्य विधा है। उनका मानना था कि नाटक की रचना रंगमंच को ध्यान में रखकर नहीं की जानी चाहिए। बल्कि नाटक के अनुसार रंगमंच को रूपांतरित किया जाना चाहिए। इससे उनके नाटकों का वैशिष्ट्य निर्मित हुआ।

प्रसाद जी मुख्यतः ऐतिहासिक नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने अपने अधिकांश नाटकों की कथा-वस्तु इतिहास से ली है। ऐतिहासिक नाटक लिखने का एक प्रमुख कारण यह था कि वे नाटकों के माध्यम से आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे जनमानस को प्रेरित करना चाहते थे। वे भारतीय संस्कृति को उजागर करना चाहते थे। परतंत्र देश का लेखक वर्तमान की क्षतिपूर्ति अपने गौरवमय अतीत में करता है। जनता में यह विश्वास व्याप्त था कि जो कुछ अच्छा है, या हो सकता है, वह सब प्राचीन भारत में था। इस विश्वास से चालित होकर साहित्य का सृजन किया जाने लगा। प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों का फलक अति विराट होता है। इसमें पूरे राष्ट्र की समस्याएं अभिव्यक्त होती हैं। वे उन्हें सरल रूप में नहीं वरन्‌ जटिल रूप में रखते हैं। हिंदी नाटकों को इतने विराट परिप्रेक्ष्य में रचने का ऐसा उपक्रम बहुत कम हुआ है।

प्रसाद जी ने अपने नाटकों में पात्रों का चरित्र चित्रण बड़ी सावधानी से गढ़ा है। उन्होंने इतिहास के प्रसिद्ध पात्रों में नया जीवन भर दिया। पात्रों के मन का विश्लेषण बड़ी बुद्धिमत्ता से किया। नारी पात्रों में उनकी कल्पना और भावुकता का अधिक पुट है और उनका व्यक्तित्व अधिक औपन्यासिक और रोमांटिक है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे नाट्य-वस्तु को ऐसे-ऐसे घुमाव देते थे जिससे मानवीय संबंधों की अनेकानेक संवेदनाएं प्रकट होती थीं। जिन जीवन प्रसंगों के प्रति इतिहास मौन था उसे वह अपनी कल्पना से रूप और आकार देते थे। इस कोशिश में उनके नाटकों के कथानक जटिल हो गए। उनके नाटकों में आचार्य शुक्ल के अनुसार, “प्राचीन काल की परिस्थितियों के स्वरूप की मधुर भावना के अतिरिक्त भाषा को रंगनेवाली चित्रमयी कल्पना और भावुकता की अधिकता भी विशेष परिमाण में पाई जाती है। इससे कथोपकथन कई स्थलों पर नाटकीय न होकर वर्तमान गद्यकाव्य के खंड हो गए हैं। बीच बीच में जो गान रखे गए हैं वे न तो प्रकरण के अनुकूल हैं, न प्राचीन काल की भावपद्धति के। वे तो वर्तमान काव्य की एक शाखा के प्रगीत मुक्तक (लिरिक्स) मात्र हैं”

प्रसाद जी के नाटकों में संवादों की भाषा की भी काफ़ी आलोचना की जाती रही है। संस्कृतनिष्ठ, तत्सम शब्दावली और काव्यात्मक विशेषताओं से युक्त भाषा को नाटकों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं माना जाता। प्रसाद के नाटकों का भाषिक मूल्यांकन का यह तरीक़ा सही प्रतीत नहीं होता। प्रसाद पारसी नाटकों की उर्दू-मिश्रित हिंदी से नाटकों की भाषा को छुटकारा दिलाना चाहते थे। वह नाटकों की भाषा को साहित्यिक और रचनात्मक बनाना चाहते थे। छायावाद के प्रमुख स्तंभ होने के कारण उसका प्रभाव उनके नाटकों की भाषा पर भी था।

उनके नाटकों की कथावस्तु में पर्याप्त नाटकीय तत्व मिलते हैं। प्रसाद के नाटकों में एक दोष यह भी माना जाता है कि उनमें पात्रों की बहुलता होती है। नाटक में ज़्यादा पात्र होने पर उनके निजस्व को चित्रित करना नाटककार के लिए मुश्किल हो जाता है। हालाकि प्रसाद जी के नाटकों में पात्रों की संख्या अधिक ज़रूर है, लेकिन कथा के केन्द्र में एक-दो पात्र ही होते हैं। फिर भी उनकी सफलता इस बात में है कि चरित्र छोटा हो या बड़ा उसकी विशिष्टता और महत्व को पूरी तरह से चित्रित करने में वे सफल होते हैं।


प्रसाद अपने नाटकों का इतिहास और कल्पना का बेजोड़ समन्वय उनके नाटकों को बहुआयामी चित्र प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने इतने विविध प्रकार के पात्रों की सृष्टि की है कि उनके माध्यम से पूरा युग ही सजीव होकर सामने उपस्थित हो गया है। उन्होंने इतिहास की प्राचीन घटनाओं के माध्यम से व्यंग्य रूप में वर्तमान की सम्स्याओं का चित्रण और समाधान प्रस्तुत किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं, “उनके ऐतिहासिक नाटक पीछे लौटने की सलाह लेकर नहीं आए, आगे बढ़ने की प्रेरणा लेकर आए थे।” प्रसाद के नाटकों का सही मूल्यांकन इस बात से नहीं होगा कि उनका मंचन कितनी सफलता के साथ किया जा सकता है बल्कि एक रचनात्मक कृति के तौर पर वह कितना प्रभावशाली है। यह प्रसाद के नाटकों की शक्ति भी है और सीमा भी।

रविवार, 21 अगस्त 2011

प्रसाद जी की नाट्य संबंधी सोच


नाटक साहित्य-11

नाटक साहित्य – प्रसाद युग-4

प्रसाद जी की नाट्य संबंधी सोच

प्रसाद जी ने ‘हिंदी नाटक का स्थान’, ‘नाटकों में रस का प्रयोग’, ‘नाटकों का आरंभ’ और ‘रंगमंच’ नामक अपने लेखों में नाटक और रंगमंच पर विचार किया है। जब उन्होंने नाटक लिखना शुरु किया था तब हिंदी में नाटकों की समृद्ध परंपरा नहीं थी। भारतेन्दु युग के नाटक उनके सामने थे। इसके साथ ही संस्कृत और पश्चिम के नाटकों की समृद्ध परंपरा भी मौज़ूद थी। उन्होंने संस्कृत के नाटकों और नाट्य संबंधी अवधारणाओं का गहरा अध्ययन किया। पश्चिम के नाट्य चिंतन और परंपराओं से भी वे वाकिफ़ थे। उस समय के रंगमंच पर खेले जाने वाले नाटकों पर पश्चिम के नाटकों का गहरा प्रभाव था। उस समय एक तो शिक्षित समाज के लिए अभिजात्य नाटक खेले जाते थे वहीं दूसरी तरफ़ जनसाधारण के पारसी रंगमंच के नाटक थे। प्रसाद हिंदी पर पारसी रंगमंच के प्रभाव को अच्छा नहीं मानते थे। वे अपनी नाट्य परंपरा के अनुरूप हिंदी नाटक और रंगमंच के विकास के समर्थक थे।

प्रसाद जी नाटक को ‘कला का विकसित रूप’ मानते थे। वे नाटक को ‘सब ललित सुकुमार कलाओं का समन्वय’ कहते थे। नाटक में दृश्य और श्रव्य दोनों कलाओं की अनुभूति होती है। इसलिए वे यह नहीं चाहते थे कि लोग नाटक को देखते वक़्त खुद को भूल जाएं और तल्लीन हो जाएं। प्रसाद जी नाटकीयता और सोद्देश्यता दोनों को नाटक के लिए ज़रूरी मानते थे। वे कहते थे, “जो नाटक मनोभाव का विश्लेषण करके चमत्कार के बल से मोहता हुआ, अंतःकरण में आदर्श सत्य को स्वयंमेव विकसित कर देता है, उसे ... सभी सभ्य जातियों के साहित्य में सम्मान मिलता है।”

प्रसाद जी के अनुसार पश्चिम में कला को अनुकरण माना जाता है जबकि हमारे यहां कला में दार्शनिक सत्य की प्रतिष्ठा की जाती है। आत्मा का अभिनय भाव है। भाव ही आत्म-चैतन्य में विश्रान्ति पा जाने पर रस होते हैं। जैसे विश्व के भीतर से विश्वात्मा की अभिव्यक्ति होती है, उसी तरह नाटकों से रस की। भरत के अनुसार नाटक देखते हुए जो हृदय स्थित भाव है, वही परिपक्व होकर रस रूप में परिणत हो जाता है। जब अभिनेता अपने आत्म चैतन्य में तल्लीन हो जाता है तो उसका भाव रस रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार पश्चिम में नाटक के केन्द्र में अनुकरण होता है जबकि भारत में रस। इसलिए प्रायः भारत में नाटकों का अंत सुख या आनंद में होता है जबकि पश्चिम में दुखांत।

पश्चिम के नाटकों में त्रासदी का ज़ोर रहा तो इसीलिए कि उनकी परिस्थिति ने उन्हें लगातार दुख और संघर्ष की ओर अग्रसर किया। उपनिवेशों की खोज में दुर्गम भूभागों में उन्हें भटकना पड़ा। विपरीत परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करते हुए जीवन जीना पड़ा। इसीलिए उन्होंने जीवन को दुखमय (ट्रेजेडी) समझ लिया। चूंकि उन्होंने भावना की बजाए बुद्धि पर अधिक भरोसा किया इसलिए उन्होंने इस दुख को ही जीवन का सत्य समझ लिया।

बुद्धिवाद और दुख को (ट्रेजेडी) प्रधानता देने के कारण ही पश्चिमी सिद्धांत मनुष्य के चरित्र-निर्माण का पक्षपाती है। नाटक देखकर या कविता पढ़कर यदि मनुष्य अपने को बुराई की तरफ़ जाने से रोकता है और अपने चरित्र में संशोधन करता है तो साहित्य का लक्ष्य पूरा हो जाता है। मौज़ूदा साहित्य की दो प्रमुख विशेषताओं – व्यक्ति-वैचित्र्य और यथार्थवाद को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। प्रसाद पाश्चात्य के व्यक्ति-वैचित्र्य को साधन मानते हैं, साध्य नहीं। किन्तु उन्होंने आदर्शवाद को भी अंतिम नहीं माना है। उनके शब्दों में, “चरित्र-चित्रण आदर्श के लिए हो, यह अति उत्तम सिद्धांत नहीं है, क्योंकि चरित्र-चित्रण का लक्ष्य आदर्श तो अवश्य है, किन्तु प्रत्येक चरित्र आदर्श हो तो वही उपर्युक्त दोषापत्ति हो जाती है।” प्रसाद ने पात्र के ‘नैतिक विकास’ अर्थात्‌ व्यक्तित्व के सहज विकास को मुख्यता दी है।

पश्चिम के विपरीत भारतीय परंपरा रस पर आधारित है। इसका कारण यह है कि पश्चिम की तरह आर्यों को घरबार छोड़कर इधर-उधर भटकना न पड़ा। भारतीय आर्य निराशावादी नहीं थे। उन्होंने प्रत्येक भावना में अभेद निर्विकार, अनंद लेने में अधिक सुख माना। रस में लोकमंगल की भावना प्रच्छन्न रूप में विद्यमान रहती है। भारतीय परंपरा में लोकमंगल स्थूल सामाजिक रूप में नहीं बल्कि दार्शनिक सूक्ष्मता के आधार पर मौज़ूद रहता है। जबकि पश्चिम में वासना का आधार रहता है। वासना से ही क्रिया संपन्न होती है। क्रिया के संकलन से व्यक्ति का चरित्र बनता है। चरित्र में महत्ता का आरोप हो जाने पर, व्यक्तिवाद का वैचित्र्य उस महती लीलाओं से विद्रोह करता है। इस प्रकार पश्चिम का साहित्य व्यक्ति और समाज की वासनात्मक क्रियाओं से ही संचालित और प्रेरित होता है। यही कारण है कि उसमें किसी दार्शनिक श्रेष्ठता के दर्शन नहीं होते।

आत्माभिव्यक्ति की गीतात्मकता को प्रसाद ने रसानुभूति माना है। रसवाद को अपनाने के कारण मनुष्य की वासनात्मक मनोवृत्तियां साधारणीकरण के द्वारा आनंदमय बना दी जाती हैं। इससे मनुष्य की वासना का संशोधन हो जाता है। इससे मनुष्य की विशिष्टता और विभिन्नता समाप्त हो जाती है। मनुष्य की भावनाओं को मानवीय आधार मिल जाता है। इस आधार हम पाते हैं कि प्रसाद जी नाट्य रचना के लिए पश्चिम के अनुकरण सिद्धांत, बुद्धिवाद और दुख व निराशा को स्वीकार नहीं करते। वे नाटक में लोकमंगल को स्वीकार करते हुए भी रस को ही उसका लक्ष्य मानते हैं। प्रसाद द्वारा विवेचित ‘रसानुभूति’ ही ‘रंगानुभूति’ और ‘जीवनानुभूति’ है, क्योंकि उन्होंने रस का विवेचन ‘नाट्य’ और जीवन-संदर्भों के साथ जोड़ते हुए किया है। एक तरह से वे रस पर विचार करते हुए यथार्थवाद की अपनी परंपरा को तलाशते हैं।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि प्रसाद ने अनेक भारतीय रंग-परंपराओं की युक्तियों, रूढ़ियों और व्यवहारों का रचनात्मक उपयोग किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने आंशिक रूप से इन्हें नए संदर्भों में स्वीकारा, और कहीं-कहीं नकारा भी है। उनकी यह स्वीकृति न तो विवशता थी और न ही अस्वीकृति महज़ फैशन। वे अपनी विषय-वस्तु के अनुकूल रंग-तत्वों की तलाश करते रहे, जो विशुद्ध मनोरंजन से हटकर नए जीवन-बोध को अनेक आयामों के साथ व्यंजित कर सकें। इस पुनर्रचना के तहत उन्होंने न तो संस्कृत नाटकों के शास्त्रीय नियमों का पूर्ण रूप से पालन किया है, न पारसी नाटकों की अतिनाटकीयता को पूर्णतया स्वीकार किया है, न इब्सन की तरह नाटकों को तर्कमूलक बनाया है और न ही शेक्सपियर के त्रासदी नाटकों से आतंकित हुए हैं।

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संदर्भ ग्रंथ

१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड ९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्यम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा  ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन  ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर १०. जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद ११. अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के स र्जनात्मक बिन्दु – गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय १२. रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र – देवेन्द्र राज अंकुर १३. दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज - देवेन्द्र राज अंकुर