आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के जीवन के चार उन्मेषों में से तीन पर चर्चा हो चुकी है। उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक और धार्मिक छल-छंदों के सन्दर्भों में अपनी निर्भीकता से उनका किस प्रकार सामना किया, इसका विवरण हम पढ़ चुके हैं। अपने जीवन के आखिरी उन्मेष के विषय में उन्होंने बहुत कम लिखा है। लेकिन संक्षेप में उन्होंने अपनी जिस वेदना को अभिव्यक्त किया है, वह सोचने योग्य है। उनका आखिरी उन्मेष 1951 से प्रारम्भ होता है। वे लिखते हैं कि यह उनके साहित्यिक जीवन का असली और परिपक्व उन्मेष है।
उनकी किताबें छपती थीं और तीन-चार सौ प्रतियाँ तो तुरन्त बिक जाती थीं। फिर उनकी बिक्री पर जैसे ताला लग जाता था। आचार्य जी कहते हैं कि जो प्रतियाँ बिकती थीं, उन्हें खरीदनेवाले हिन्दी के बड़े-बड़े प्रोफेसर हुआ करते थे। वे घर में पढ़कर कक्षाओं में इस प्रकार पढ़ाते थे, मानो वे सब उनके चिन्तन का परिणाम हो। स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के लिए पुस्तकों का निर्धारण ये करते थे और उनकी किताबों से चोरी करके बिना आचार्य जी का नाम लिए स्वयं किताबें लिखकर छपवाते थे तथा अपनी किताबों को विभिन्न पाठ्यक्रमों में लगवा लिया करते थे। ऐसा करनेवाले लोगों में विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुराने प्रोफेसर भी थे। इनमें से कुछ लोग पकड़े गए, तो उन्हें अर्थदण्ड भी देने पड़े और माफी भी माँगनी पड़ी। आचार्य जी ने किसी का नाम नहीं लिया है, लेकिन इतना जरूर लिखा है कि कुछ लोगों के माफीनामे उनके पास अन्त तक रखे हुए थे। उनका तो कहना है कि हिन्दी व्याकरण लिखनेवाला ऐसा कोई डॉक्टर नहीं, जिसने उनकी पुस्तक से कुछ-न-कुछ न लिया हो। परन्तु सबका उन्होंने पीछा नहीं किया और जिसे पकड़ा, उसे छोड़ा नहीं। उन्होंने इसलिए ऐसा किया ताकि आने वाली पीढ़ी उन्हें गाली न दे कि वे इतना सब कुछ कर सकते थे, पर किए नहीं।
आचार्य जी पर खण्डन करने, घमंडी होने आदि के आरोप लगते रहे। ऐसा नहीं था कि वे इन आरोपों पर अपनी प्रतिक्रिया नही व्यक्त करते थे। वे समय-समय पर लोगों को बड़ा ही सटीक जबाब दे दिया करते थे। एक बार डॉ. बाबूराम सक्सेना ने अपने पत्र में झुँझलाकर वाजपेयी जी को लिख दिया था कि आप बड़े-बड़े लोगों की पगड़ियाँ उछालते रहते हैं। सक्सेना जी आर्यसमाजी थे। अतएव आचार्य जी ने पत्र में उन्हें लिखा कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपना मत रखने के लिए भी बड़े-बड़े लोगों की पगड़ियाँ उछालीं। उस पर तो लोगों को गर्व होता है। बिना खण्डन किए साहित्य का अन्धकार नहीं मिटता। व्यास, जैमिनी, शंकर, रामानुज आदि सभी दार्शनिकों ने अपने मत की प्रतीष्ठा करने के लिए पूर्ववर्ती दार्शनिकों के मतों का खण्डन किया है। यही नहीं, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी दूसरे के मतों का खण्डन किया है। इन लोगों का खण्डन करना उचित है और वाजपेयी का खण्डन बुरा है। इसलिए कि वह काशी में या प्रयाग में नहीं रहता या डॉक्टर नहीं है, एम.ए. भी नहीं है।
घमंडी कहनेवालों के लिए आचार्य जी लिखते हैं कि जब तुलसीदास जी जैसा महात्मा भी अपनी वाणी को मीठी कहते हैं-
खल उपहास होंहि हित मोरा। काक कहहिं कल कंठ कठोरा।
यही नहीं संत कबीरदास आदि की भी गर्वोक्तियाँ देखने को मिलती हैं, तो मेरे जैसे गृहस्थ में गर्वोक्तियों का होना इतना हेय क्यों?
आचार्य जी जो कुछ नहीं कर पाए, उसके लिए केवल अपने को ही दोषी नहीं मानते, बल्कि उन्हें भी मानते हैं जिन लोगों ने उनके काम में रोड़े डाले। अपने विषय में लिखने के लिए उन्होंने जो कारण दिए हैं वे बड़े ही मार्मिक हैं-
आचार्य जी गर्वीले स्वभाव के उन्हीं को लगते थे जो स्वयं घमंडी थे। अन्यथा वे लिखते हैं कि वे ऐसी कोई चीज नहीं दे सके हैं जिसपर गर्व किया जा सके। लेकिन इतना उन्होंने अवश्य लिखा है कि-
तद् दृष्टं यन्न केनापि, तद् दत्तं यन्न केनचित्।
अर्थात वह देखा जिसे किसी और ने नहीं, वह दिया जिसे किसी और ने नहीं दिया।
इसके बाद उन्होंने तय किया कि इसके बाद वे अपने लेखन के लिए ऐसे विषय चुनेंगे जो किसी पाठ्यक्रम के मुहताज न हों, जैसे- प्राचीन साहित्यकारों और अर्वाचीन असाधारण प्रतिभाशाली विद्वानों के जीवन संस्मरण, नागरिक जीवन, दाम्पत्य जीवन और पौराणिक कहानियाँ आदि।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अकों से इनकी कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों पर चर्चा आरम्भ की जाएगी।