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बुधवार, 4 जनवरी 2012


अंक-16

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
आचार्य परशुराम राय


आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के जीवन के चार उन्मेषों में से तीन पर चर्चा हो चुकी है। उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक और धार्मिक छल-छंदों के सन्दर्भों में अपनी निर्भीकता से उनका किस प्रकार सामना किया, इसका विवरण हम पढ़ चुके हैं। अपने जीवन के आखिरी उन्मेष के विषय में उन्होंने बहुत कम लिखा है। लेकिन संक्षेप में उन्होंने अपनी जिस वेदना को अभिव्यक्त किया है, वह सोचने योग्य है। उनका आखिरी उन्मेष 1951 से प्रारम्भ होता है। वे लिखते हैं कि यह उनके साहित्यिक जीवन का असली और परिपक्व उन्मेष है।


उनकी किताबें छपती थीं और तीन-चार सौ प्रतियाँ तो तुरन्त बिक जाती थीं। फिर उनकी बिक्री पर जैसे ताला लग जाता था। आचार्य जी कहते हैं कि जो प्रतियाँ बिकती थीं, उन्हें खरीदनेवाले हिन्दी के बड़े-बड़े प्रोफेसर हुआ करते थे। वे घर में पढ़कर कक्षाओं में इस प्रकार पढ़ाते थे, मानो वे सब उनके चिन्तन का परिणाम हो। स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के लिए पुस्तकों का निर्धारण ये करते थे और उनकी किताबों से चोरी करके बिना आचार्य जी का नाम लिए स्वयं किताबें लिखकर छपवाते थे तथा अपनी किताबों को विभिन्न पाठ्यक्रमों में लगवा लिया करते थे। ऐसा करनेवाले लोगों में विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुराने प्रोफेसर भी थे। इनमें से कुछ लोग पकड़े गए, तो उन्हें अर्थदण्ड भी देने पड़े और माफी भी माँगनी पड़ी। आचार्य जी ने किसी का नाम नहीं लिया है, लेकिन इतना जरूर लिखा है कि कुछ लोगों के माफीनामे उनके पास अन्त तक रखे हुए थे। उनका तो कहना है कि हिन्दी व्याकरण लिखनेवाला ऐसा कोई डॉक्टर नहीं, जिसने उनकी पुस्तक से कुछ-न-कुछ न लिया हो। परन्तु सबका उन्होंने पीछा नहीं किया और जिसे पकड़ा, उसे छोड़ा नहीं। उन्होंने इसलिए ऐसा किया ताकि आने वाली पीढ़ी उन्हें गाली न दे कि वे इतना सब कुछ कर सकते थे, पर किए नहीं।


आचार्य जी पर खण्डन करने, घमंडी होने आदि के आरोप लगते रहे। ऐसा नहीं था कि वे इन आरोपों पर अपनी प्रतिक्रिया नही व्यक्त करते थे। वे समय-समय पर लोगों को बड़ा ही सटीक जबाब दे दिया करते थे। एक बार डॉ. बाबूराम सक्सेना ने अपने पत्र में झुँझलाकर वाजपेयी जी को लिख दिया था कि आप बड़े-बड़े लोगों की पगड़ियाँ उछालते रहते हैं। सक्सेना जी आर्यसमाजी थे। अतएव आचार्य जी ने पत्र में उन्हें लिखा कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपना मत रखने के लिए भी बड़े-बड़े लोगों की पगड़ियाँ उछालीं। उस पर तो लोगों को गर्व होता है। बिना खण्डन किए साहित्य का अन्धकार नहीं मिटता। व्यास, जैमिनी, शंकर, रामानुज आदि सभी दार्शनिकों ने अपने मत की प्रतीष्ठा करने के लिए पूर्ववर्ती दार्शनिकों के मतों का खण्डन किया है। यही नहीं, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी दूसरे के मतों का खण्डन किया है। इन लोगों का खण्डन करना उचित है और वाजपेयी का खण्डन बुरा है। इसलिए कि वह काशी में या प्रयाग में नहीं रहता या डॉक्टर नहीं है, एम.ए. भी नहीं है।


घमंडी कहनेवालों के लिए आचार्य जी लिखते हैं कि जब तुलसीदास जी जैसा महात्मा भी अपनी वाणी को मीठी कहते हैं-


खल उपहास होंहि हित मोरा। काक कहहिं कल कंठ कठोरा।


यही नहीं संत कबीरदास आदि की भी गर्वोक्तियाँ देखने को मिलती हैं, तो मेरे जैसे गृहस्थ में गर्वोक्तियों का होना इतना हेय क्यों?


आचार्य जी जो कुछ नहीं कर पाए, उसके लिए केवल अपने को ही दोषी नहीं मानते, बल्कि उन्हें भी मानते हैं जिन लोगों ने उनके काम में रोड़े डाले। अपने विषय में लिखने के लिए उन्होंने जो कारण दिए हैं वे बड़े ही मार्मिक हैं-

यह सब बतलाने के लिए ही .यह संस्मरण-पुस्तक है। इसे सार्वजनिक रूप से प्रकट की गई मेरी सफाई या वसीयतनामा भी आप समझ सकते हैं। पिछले एक लम्बे युग में मैंने क्या किया, क्या न कर सका; इन सब बातों का लेखा-जोखा राष्ट्र को देना ही चाहिए। ऐसा न करने से भ्रम रहता। लोग समझ न पाते कि वाजपेयी के ‘असफल’ रहने के क्या कारण हैं। इससे समझ में आ जाएगा कि इस व्यक्ति का झगड़ालूपन ही वैसी असफलता का कारण है। कितने झगड़े! ऐसे व्यक्ति को, इस युग में, कैसे वैसी सफलता मिले! ऐसे मार्ग से बचना चाहिए।


आचार्य जी गर्वीले स्वभाव के उन्हीं को लगते थे जो स्वयं घमंडी थे। अन्यथा वे लिखते हैं कि वे ऐसी कोई चीज नहीं दे सके हैं जिसपर गर्व किया जा सके। लेकिन इतना उन्होंने अवश्य लिखा है कि-


तद् दृष्टं यन्न केनापि, तद् दत्तं यन्न केनचित्।   


अर्थात वह देखा जिसे किसी और ने नहीं, वह दिया जिसे किसी और ने नहीं दिया।


इसके बाद उन्होंने तय किया कि इसके बाद वे अपने लेखन के लिए ऐसे विषय चुनेंगे जो किसी पाठ्यक्रम के मुहताज न हों, जैसे- प्राचीन साहित्यकारों और अर्वाचीन असाधारण प्रतिभाशाली विद्वानों के जीवन संस्मरण, नागरिक जीवन, दाम्पत्य जीवन और पौराणिक कहानियाँ आदि।


इस अंक में बस इतना ही। अगले अकों से इनकी कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों पर चर्चा आरम्भ की जाएगी।

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अंक-15 हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक-15
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस प्रकार हरिद्वार नगर में शरणार्थियों के बस जाने से नगरवासियों के मन में अनेकानेक शंकाएं उपजने लगीं थी और प्रतिक्रिया होने की आशंका नजर आने लगी थी। इसे निर्मूल करने के लिए कांग्रेसियों द्वारा ‘अमन सभा’ का गठन किया गया। वहाँ, मतभिन्नता के कारण आचार्य जी को ‘अमन सभा’ छोड़नी पड़ी। प्रत्युत्तर में उन्होंने अगले दिन ही ‘नगर शान्ति सभा’ का गठन किया, स्वयं मंत्री बने तथा जगह-जगह सभाएं कर ‘अमन सभा’ की कलई खोलनी शुरू कर दी। इस प्रकार कांग्रेसी लोग उनसे बुरी तरह नाराज हो गए।
आचार्य जी ने ज्वालापुर से दूर कनखल में अपना निवास बनाया। ज्वालापुर में आधी आबादी मुस्लिम थी। वहाँ कसाईखानों में गो-हत्या होती थी, किन्तु कोई विरोध नहीं करता था। हरिद्वार देवभूमि है, अतः वहाँ यह सब होना आचार्य जी को खलने लग। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से एक प्रार्थना छपवाई कि कसाईखानों में गोहत्या बन्द कर दी जानी चाहिए, क्योंकि हरिद्वार कस्बा एक तीर्थस्थल है और इससे लोगों की भावना आहत होती है। यह प्रार्थना उन्होंने स्वयं ही बाँटी। उनके इस कृत्य से कांग्रेसी भी नाराज हो गए और मुसलमान भी। उनपर हिन्दूवादी होने का आरोप लगाया जाने लगा तथा विस्थापितों को भड़काकर दंगा कराने की शिकायत जिला मजिस्ट्रेट से की गई। कुछ दिन पश्चात दंगा हो गया जिसमें सैकड़ों जाने गईं तथापि आचार्य जी पर आरोप सिद्ध न हो सका और वे बच गए।
जनवरी 1948 में जब महात्मा गाँधी की हत्या हुई तो हिन्दू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग पकड़-पकड़कर जेल में डाले जाने लगे। तब कांग्रेसियों ने षडयंत्र करके उन पर ‘संघ का कार्यकर्ता’ होने का आरोप लगवाकर उन्हें पकड़वा दिया: जेल से छूटने के पश्चात आचार्य जी ने स्वाभाविक-आत्मरक्षार्थ ‘संघ’ तथा ‘सभा’ से अपना लगाव प्रकट किया क्योंकि यह उस समय जरूरी हो गया था। आचार्य जी को इन संगठनों के कुछ विचार पसंद तो आते थे, किन्तु उन्होंने कभी इनकी सदस्यता नहीं ली।
सहारनपुर जेल में नजरबन्दी के जब चार-साढ़े चार माह हो गए तो उन्हें न्याय की आशा क्षीण हो गई। तब उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम एक लम्बा पत्र लिखा। यह पत्र जिला मजिस्ट्रेट श्री रामेश्वर दयाल जी के मार्फत भेजा। पत्र में उन्होंने लिखा कि उन्होंने वही किया है जो आप भी करते आए हैं और जिसके लिए महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे उनके नेताओं ने निर्देश दिए हैं - जनता को अब अपने पैरों पर खड़े हो जाना चाहिए, केन्द्र सरकार इस समय पंगु है। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डाली, गुण्डों से मुकाबला किया। अब साम्प्रदायिक कहकर उन्हें जेल में डाल दिया गया। उन्होंने निश्चय किया कि वे अब इन नेताओं के कहने में न आएँगे और यदि उन्हें पन्द्रह दिन में न छोड़ा गया तो वे सोलहवें दिन से अनशन प्रारम्भ कर देंगे।
मजिस्ट्रेट ने यह पत्र आगे पहुँचाया या नहीं, उन्हें नहीं पता, लेकिन बाद में जेलर ने उनसे जमानत-मुचलके भरकर छोड़ने के लिए कहा। वे ठहरे पुराने कांग्रेसी, जमानत पर छूटना उन्हें स्वीकार नहीं था। तब जेलर ने उन्हें एक सप्ताह बाद जमानत-मुचलका भर देने की शर्त पर पहले छोड़ देने के लिए कहा तो वह सहमत हो गए, क्योंकि इससे उनकी बात भी रह जानी थी। छूटने के बाद वह सीधे घर गए, आवश्यक व्यवस्थाओं से जब निवृत्त हुए तब शब्द-शास्त्र पर कलम चलाने पर विचार करने लगे।
तबतक एक सप्ताह बीत चुका था और एक दिन जिला मजिस्ट्रेट की चेतावनी लेकर एक पुलिस का आदमी उनके घर आ धमका। जिस पर लिखा था ‘एक सप्ताह का समय समाप्त हो गया है। यदि तीन दिन के भीतर जमानत-मुचलके न दिए, तो कानूनी कार्रवाई की जाएगी।’ जमानत भरना तो दूर आचार्य जी ने उस कागज के उलटी तरफ लिख कर वापस कर दिया कि वह जमानत देने को तैयार नहीं हैं, घर पर व्यवस्थाएं कर दीं हैं, अतः अब वह जेल में और छह माह रह सकते हैं। कैदी को पहले छोड़ने और बाद में जमानत की माँग करने पर हाईकोर्ट में उनको (मजिस्ट्रेट को) इसका सामना करना आसान नहीं होगा। अतः यह उनके हित में ही होगा कि अब जमानत-मुचलके की बात न उठाएँ। इस प्रकार जब मजिस्ट्रेट साहब फँस गए तो कागज दाखिल-दफ्तर हो गया और मामला बन्द। कांग्रेसियों के एक बार फिर चिढ़ने की बारी आ गई थी।
उसके पश्चात, आचार्य जी के मस्तिष्क में जिन-जिन विषयों पर मंथन चल रहा था उन्होंने अपना सम्पूर्ण ध्यान साहित्य सृजन पर केन्द्रित कर दिया।
इस अंक में बस इतना ही।

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

अंक-13 हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक-13
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में आपने पढ़ा कि आचार्य जी अर्थाभाव से निपटने के लिए काम की तलाश में प्रयाग गए। आचार्य जी हिन्दी का व्याकरण, रसअलंकार विषय पर पुस्तक लिखना चाहते थे लेकिन अपने मत पर दृढ़ रहने के कारण सम्मेलन में बात नहीं बनी। अन्ततः कटरा में रामनारायणलाल जी से ब्रजभाषा का व्याकरण लिखने पर सहमति बनी और यह ग्रंथ प्रकाशित भी हुआ। अपने इस ग्रंथ में उन्होंने भूमिका में पं. कामता प्रसाद गुरु के हिन्दी का व्याकरण की आलोचना की थी, इससे साहित्य जगत में तूफान  गया था।

आचार्य जी का जीवन जितना सरल एवं सादगी से परिपूर्ण था, वहीं उनका व्यक्तित्व अत्यंत दृढ़, मुखर एवं निर्भय। भाषा के प्रति निष्ठा उनके रक्त में रची-बसी थी। भाषाविद् का असम्मान उनके लिए असहनीय था। बात यदि सम्मान की आ जाए तो वह नफा-नुकसान का आकलन किए बिना किसी भी स्तर का विरोध करने में तनिक भी हिचकते न थे, भले ही सामने कितनी भी बड़ी शख्सियत क्यों न हो। यह घटना उनके व्यक्तित्व के इस पहलू को स्पष्ट चित्रित करती है।

कुछ समय पूर्व काशी में श्री मैथिलीशरण गुप्त का सम्मान करने और उन्हें अभिनन्दन-पत्र भेंट करने का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। मुख्य अतिथि देश के एक सर्वमान्य नेता थे। साहित्यिक के प्रति क्षुद्र भाव से प्रेरित अपने आशीर्वचन में उन्होंने शब्द कहे - ऐसे समारोह तो मृत्यु के बाद ही अच्छे लगते हैंये शब्द असम्मान के सूचक थे और किसी को भी ठेस लगने के लिए पर्याप्त थे। आचार्य जी हालॉकि कार्यक्रम में वहाँ उपस्थित नहीं थे और यह उन्हें समाचार-पत्रों से पता चला था, लेकिन एक साहित्यिक के सम्मान समारोह में ही उसके असम्मान से वे बहुत व्यथित हुए। यह घटना उनके मस्तिष्क में छाई रही। उन्होंने निश्चय किया कि जब कोई राजनेता ऐसे कार्यक्रम में पधारेंगे तो वह वहाँ न जाएँगे।

ब्रज साहित्य मण्डल के तत्वावधान में सेठ कन्हैया लाल पोद्दार का अभिनन्दन मथुरा में होना था। कार्यक्रम की अध्यक्षता कोई राजनेता नहीं बल्कि पं. कृष्ण दत्त पालीवाल करने वाले थे। एक साहित्यिक के रूप में पं. पालीवाल जी के प्रति आचार्य जी के मन में श्रद्धा भाव था इसलिए वह उसमें सम्मिलित होने से इनकार न कर सके। फिर भी उसमें घटी एक घटना ने उन्हें उत्तेजित कर दिया।

हुआ यह था कि कुछ गणमान्य लोग जो कार्यक्रम में पहुँच नहीं सके थे, उन्होंने बधाई संदेश भेजे थे, जिन्हें संयोजक महोदय ने प्रारम्भ में पढ़ा। उनमें एक बधाई संदेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पंत जी का भी था, जो उनकी ओर से उनके प्राइवेट सेक्रेटरी ने हस्ताक्षर कर तार द्वारा भेजा था। हालॉकि वह पंत जी की कार्यशैली से परिचित थे, पंत जी भी उनका आदर करते थे और कुछ अवसरों पर उन्होंने आचार्य जी की निजी तौर पर मदद भी की थी तथापि पोद्दार जी जैसे व्यक्ति के लिए भी उन्होंने हस्ताक्षर करने का भी समय न निकालकर मात्र औपचारिकता का निर्वाह करवा दिया था। इससे आचार्य जी को गुस्सा आ गया। अपने भाषण में उन्होंने आधे घण्टे तक इसी विषय पर बोला। मण्डलवालों को कांग्रेस से आर्थिक सदद की आशा थी, सो उन्हें यह पसंद नहीं आया। पालीवाल जी से नाराजगी भी हुई। पालीवाल जी का कहना था कि उनकी बात तो सही है लेकिन उन्हें मंच से यह नहीं कहना चाहिए था जबकि आचार्य जी का कहना था कि यह अपमान पूरे साहित्य जगत का है, पोद्दार जी तो निमित्त मात्र हैं और जब यह सार्वजनिक रूप से किया जा सकता है तो उनका प्रत्युत्तर भी यहीं उपयुक्त था। मण्डल वालों को यह रास नहीं आया। इस प्रकार आचार्य जी ने अपने दृढ़ और मुखर स्वभाव के चलते विरोधी ही अधिक बनाए।  
  
   इस अंक में बस इतना ही।

   

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

अंक-12 हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक-12

हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में आपने पढ़ा कि सम्मेलन का वह हरिद्वार अधिवेशन आचार्य जी के साहस, बुद्धि, धैर्य, चतुराई व सहिष्णुता से किस प्रकार सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन के पश्चात आचार्य जी काम की तलाश में प्रयाग रवाना हो गए क्योंकि सारी जमा पूँजी समाप्त हो चुकी थी। यहाँ तक कि पत्नी के गहने तक बिक चुके थे और कर्ज भी हो गया था। रोजी-रोटी की जुगत तो करनी ही थी।

उस समय सम्मेलन के प्रधानमंत्री डॉ. राम प्रसाद त्रिपाठी थे जो बाद में सागर विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी हुए। जब आचार्य जी उनसे मिले (पं. भगीरथ प्रसाद दीक्षित के साथ) तो उन्होंने आचार्य जी से सम्मेलन के लिए कुछ पुस्तकें लिखने का अनुरोध किया। आचार्य जी ने रस, अलंकार तथा व्याकरण पर विषयों पर मौलिक पुस्तकें लिखना स्वीकार किया क्योंकि उनके अनुसार उस समय इन विषयों की बड़ी दुर्गति थी और ठोस कार्य का अभाव था। त्रिपाठी जी ने इससे सहमत होकर सम्मेलन के साहित्य-मंत्री श्री राम चन्द्र टण्डन के नाम एक चिट्ठी लिख दी। आचार्य जी टण्डन जी से मिले और उनके यह पूछने पर कि वह प्रारम्भ कहाँ से करेंगे, आचार्य जी ने पहले व्याकरण पर कार्य करने इच्छा प्रकट की। उस समय व्याकरण पर पं. कामता प्रसाद गुरु का ग्रंथ आ चुका था, सो टण्डन जी ने मौलिक कार्य किए जाने पर संशय प्रकट किया। आचार्य जी ने विश्वास के साथ कहा -

मैं उन व्याकरणों को जानता हूँ, तभी तो कहता हूँ कि हिन्दी में एक व्याकरण-ग्रंथ की जरूरत है। गुरु जी का वह व्याकरण तो एकदम गलत आधार पर बना है और उसी के आधार पर बने ये शतशः - सहस्त्रशः व्याकरण जो देश भर में चल रहे हैं, एकदम कूड़ा करकट हैं ! अज्ञान फैला रहे हैं। जी हाँ, हिन्दी के सभी प्रचलित व्याकरण गलत हैं। वस्तुतः हिन्दी का व्याकरण अभी तक बना ही नहीं है।

टण्डन जी को उनकी यह उक्ति बड़ी विचित्र लगी, फिर भी उन्होंने उनकी बात धैर्य से सुनी। रस और अलंकार पर तो वे आचार्य जी के अधिकार से सहमत थे पर व्याकरण विषय पर वे कोई चूक नहीं होने देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. बाबू राम वर्मा सरीखे विद्वानों से परामर्श करने की सलाह दी। आचार्य जी का कथन था कि उनके विचार पूर्णतया मौलिक हैं, अतः केवल इस आधार पर कि वे बड़े नाम हैं, उनके सामने दबकर उनसे कोई परामर्श नहीं लेंगे। यह भी सम्भव हो सकता है कि परामर्श से वे लोग उनकी कुछ मौलिक चीजें ले लें और उनकी पुस्तक आने के पहले ही लेख आदि के रूप में कहीं प्रकाशित करा दें। यह न भी हो तो वह (टण्डन जी) पुस्तक की भूमिका में उन परामर्शदाता विद्वानों का नाम अवश्य देंगे और उनकी (आचार्य जी की) हैसियत एक क्लर्क से अधिक नहीं बचेगी। यह आचार्य जी को स्वीकार नहीं था, अतः बात नहीं बनी। यद्यपि आचार्य जी का कहना था कि उनके ग्रंथ से पहले वाले ग्रंथों की भ्रांतियों का निराकरण भी हो सकता है।

इस तरह, बात न बनने से आचार्य जी को कुछ चिन्ता हुई, लेकिन फिर विचार कर वे और दीक्षित जी पुस्तक लेखन का प्रस्ताव लेकर रामनारायणलाल जी के यहाँ कटरा पहुँचे। ब्रजभाषा का व्याकरण लिखने पर सहमति बनी और पाँच सौ रुपए नकद भी मिल गए। उन्होंने दो सौ रुपए खर्च के लिए घर भेज दिए। पचास रुपए अपने लिए रखे और ढाई सौ रुपए कागज आदि खरीदने के लिए हिन्दी प्रेस के मालिक को दे दिए। लेखन और प्रकाशन कार्य एक साथ प्रारम्भ हो गया। तब तक आचार्य जी को यह पता नहीं था कि ब्रजभाषा का व्याकरण पर डॉ. धीरेन्द्र वर्मा कार्य कर चुके हैं। जब उनका ग्रंथ पूर्ण हुआ तब लखनऊ में रहने वाले उनके एक रिश्तेदार पं. गिरिजा प्रसाद द्विवेदी से यह ज्ञात हुआ। वे थोड़ा घबराए कि कहीं पिष्ट-पेषण तो नहीं हो गया। पता होता तो वह क्यों नाहक श्रम करते। उन्होंने डॉ. वर्मा का ग्रंथ मँगवाया। उनकी दृष्टि में वह भी कूड़े का ढेर ही था। उन्होंने अपने ग्रंथ के परिशिष्ट में उसका परिचय दिया। साथ ही भूमिका में पं. कामता प्रसाद गुरु के हिन्दी का व्याकरण की जमकर आलोचना की। इससे साहित्य जगत में भूचाल सा आ गया। उनके अनुसार इसके पश्चात हिन्दी के नए व्याकरण की माँग उठने लगी तथापि ब्रजभाषा का व्याकरण साहित्य जगत में युग परिवर्तनकारी ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

इस अंक में बस इतना ही।

बुधवार, 30 नवंबर 2011

अंक-11 हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेयी

अंक-11

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेयी

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में चर्चा की गयी थी कि 1942 का आन्दोलन छिड़ने के कारण आचार्य जी भैणी (पंजाब) में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन स्थगित करने का हिन्दी साहित्य सम्मेलन को एक पत्र लिखकर 13 अगस्त को हरिद्वार के लिए रवाना हो गए। जब 14 अगस्त को सवेरे हरिद्वार पहुँचे, तो पूरी तरह आन्दोलन की आग भड़क चुकी थी। गोलियां चलीं, जिसमें ऋषिकुल आयुर्वेदिक कालेज का एक छात्र मारा गया। आचार्य जी लिखते हैं कि दो दिनों तक हरिद्वार, कलखल और ज्वालापुर में स्वराज का अर्थ अंग्रेजी राज की समाप्ति हो गया था। डाकखाने जला दिए गये थे। चारों ओर सन्नाटा फैल चुका था। पर फौज बुला ली गयी, शासन का भय पैदा किया गया, अनेक गिरफ्तारियाँ हुई। आचार्य जी भी गिरफ्तार हुए।

प्रशासन आचार्य जी को अहिंसावादी कांग्रेसी नहीं मानता था। इन्हें तिलक तथा सुभाष चन्द्र बोस का समर्थक माना जाता था। अतएव इनकी गिरफ्तारी के लिए पुलिस भी उसी प्रकार की तैयारी के साथ पहुँची थी। अतएव तलाशी हुई, पर कुछ मिला नहीं। लेकिन इनकी पत्नी, पुत्र मधुसूदन और बेटी सावित्री, तीनों काफी घबरा गए थे, यह सोचकर कि पता नहीं क्या हो। सँभालने के लिए इनके पास कुछ था नहीं, अतएव पत्नी से इन्होंने कहा कि मायके चली जाना। आचार्य जी आश्वस्त थे कि उनका कुछ नहीं होगा। क्योंकि 14 अगस्त को उनकी उपस्थिति हरिद्वार में सिद्ध करना कठिन था। चौदह को उनके भैणी में होने के प्रमाण थे, क्योंकि जो चिट्ठी सम्मेलन को भेजी गयी थी, 13 अगस्त को डाकखाना बन्द होने के कारण उस पर 14 अगस्त डाल दी गयी थी। हाँ, उसे पोस्ट 14 अगस्त को दूसरे द्वारा किया गया था।

आचार्य जी को को गिरफ्तार कर सीधे जेल भेज दिया गया। इन्होंने समझा कि हवालात में बन्द नहीं किया, मतलब कि केस नहीं चलेगा। पर ऐसा हुआ नहीं । चूँकि ये बाहर उपद्रव करने वाली भीड़ के साथ गिरफ्तार नहीं हुए थे, इनका मुकदमा अलग तरह से बना। किन्तु पुलिस कुछ सिद्ध न कर सकी। इनके ऊपर एक ही आरोप था कि ये कांग्रेस के डिक्टेटर थे, जिसे इन्होंने स्वीकार कर लिया। क्योंकि उसका लिखित प्रमाण था। अब आचार्य जी अपने छूटने की आशा छोड़ चुके थे। लेकिन उक्त अपराध के लिए मजिस्ट्रेट की दृष्टि में अर्थदण्ड ही पर्याप्त था। अब जुर्माने की धनराशि तय होनी थी। पुलिस इन्स्पेक्टर ने इनकी जो भी हैसियत बताई हो। उसने कहा कि इनके सामान बेचकर पचास रुपये तक वसूल हो जाएगा।

उनकी बातें अंग्रेजी में हो रही थीं। आचार्य जी की अंग्रेजी अच्छी न थी। वे लिखते है कि उनकी अंग्रेजी का स्तर कुलियों और तांगेवालों जैसा था। उन्होंने समझा कि वे लोग वेतन की बात कर रहे हैं। इसलिए इन्होंने कह दिया कि फिफ्टी नहीं सिक्सटी। क्योंकि 50 रुपये तक वेतन पाने वालों को जेल में ‘सी’ क्लास मिलता था और उससे ऊपर पाने वालों को ‘बी’ क्लास मिलता था। इनको लगा कि शायद वेतन कम करके इन्हें ‘सी’ क्लास की जेल में डालने का षडयन्त्र किया जा रहा है। इनकी बात सुनकर सभी उपस्थिति अधिकारी भौचक्के हो गए कि यह पहला व्यक्ति है जो अपने जुर्माने की धनराशि बढ़वाना चाहता है। जब आचार्य जी को समझाया गया, तो बोले तब तो ठीक है, एक पैसे भी वसूल न हो सकेगा।

जहाँ अदालत लगी थी, आचार्य जी की लड़का मधुसूदन भी वहीं था। आचार्य जी ने उससे कहा कि वह जाकर गाँधी आश्रम से एक तिरंगा लेकर अपने मकान पर फहरा दो। क्योंकि पहले वाला पुलिस उठा ले गयी थी। आचार्य जी ने लिखा है कि उस समय कनखल, हरिद्वार और ज्वालापुर में केवल एक ही झंडा उस समय लहराता था, जिसे लोग बड़े कौतूहल, भय और उत्साह से देखा करते थे।

इससे मुक्त होकर आचार्य जी फिर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन पर विचार करने लगे, जो भैणी में न हो सका। जनता में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं कोई इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था। अतएव सम्मेलन की कार्य-समिति ने यह अधिवेशन प्रयाग में करने का निश्चय किया। केवल स्थायी-समिति की सहमति शेष थी। इसके लिए प्रयाग में स्थायी-समिति की बैठक बुलाई गई थी, जिसमें आचार्य जी भी भाग लेने प्रयाग पहुँचे थे। वहाँ वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक और गाँधी जी के परम भक्त पं. दयाशंकर दुबे के घर पर ठहरे। वे सम्मेलन के परीक्षा-मंत्री भी थे। वहीं पं. भगीरथ प्रसाद दीक्षित से मुलाकात हुई, जो आचार्य जी के रिस्तेदार भी थे और पुराने मित्र भी। उन्हीं के यहाँ श्री भगवान दास केला भी रहते थे।

भोजन के समय बातचीत में सम्मेलन के अधिवेशन पर चर्चा होने लगी, तो आचार्य जी ने कहा कि यह अच्छा नहीं लग रहा है कि सम्मेलन के अधिवेशन के लिए कोई पूछनेवाला नहीं है और इसे स्वयं इसका प्रबन्ध करना पड़ रहा है। प्रयाग में गरमी भी बहुत है। लोगों को परेशानी होगी। दीक्षित जी ने भी हामी भरी। तब दुबे जी ने कहा फिर अधिवेशन हरिद्वार में करो। दीक्षित जी ने भी पीठ ठोक दी। आचार्य जी भी मजाक-मजाक में सहमत हो गए। स्थाई समिति की बैठक में प्रस्ताव आया और हरिद्वार के पक्ष में एक मत अधिक पड़ा, जिससे हरिद्वार में अधिवेशन का होना तय हो गया।

आचार्य जी के मन में थोड़ी दुविधा थी कि हरिद्वार के अपने लोगों से पहले से इस विषय में बातचीत नहीं किया था। ऐसे समय में कोई साथ दे या न दे। पर इतना उनको विश्वास था कि झोली लेकर निकलेंगे, तो कनखल, हरिद्वार और ज्वालापुर में ऐसा कोई न था, जो दस-पाँच रुपये दान न दे। क्योंकि इनके ईमानदारी और सामाजिक कार्यों से लोग इतने प्रभावित थे कि लकड़ी बेचनेवाला गरीब मजदूर भी एक अठन्नी तो दे ही देता। लेकिन इसकी जरूरत न पड़ी। उनके एक विद्या-शिष्य महन्त शान्तानन्द ने अकेले सारा खर्च उठा लिया और हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन बड़े धूमधाम से हरिद्वार में सम्पन्न हुआ। आचार्य जी ने लिखा है कि इस यज्ञ में अपने साहस, धैर्य, बुद्धि और सहिष्णुता का प्रयोग जितना उन्होंने किया, उतना जीवन में कभी नहीं किया।

इस अंक में बस इतना ही।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

अंक-10 हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई


अंक-10

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई

आचार्य परशुराम राय

आचार्य वाजपेयी के अनुसार उनके जीवन का तृतीय उन्मेष 1941 से 1950 तक है। यह काल उनके साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश था, क्योंकि इसी अवधि में देश स्वतंत्र हुआ और हिन्दी को राष्ट्रभाषा (राजभाषा) का स्थान मिला था। वे कांग्रेस और हिन्दी साहित्य सम्मेलन की गतिविधियों से भी विरत हो चुके थे। हाँ, स्वतंत्रता के पूर्व वे ब्रजभाषा का व्याकरण लिख चुके थे।

पिछले अंक में अबोहर में हुई हिन्दी साहित्य सम्मेलन की चर्चा की गयी थी। इस सम्मेलन में कश्मीर में हिन्दी के प्रचार हेतु काफी लम्बी धनराशि निर्धारित की गयी थी। आचार्य जी भी हिन्दी के प्रचार के लिए सम्मेलन द्वारा नियुक्त किए गए थे। कश्मीर के बारे में इन्होंने सब पता किया कि कश्मीर सैर आदि के लिए कौन सा समय अच्छा रहता है। लेकिन एकाएक टंडन जी का आदेश जारी हुआ कि कश्मीर से पहले पंजाब में हिन्दी प्रचार का काम किया जाय, फिर कश्मीर में। लोकसेवक-मंडल, लाहौर, के श्री अचिन्त्यराम जी के लिए टंडन जी ने एक पत्र लिखकर आचार्य जी को पंजाब भेजा। पत्र में आचार्य जी को हिन्दी प्रचार के लिए पूर्ण सहयोग देने के लिए कहा गया था। इसके लिए आर्यसमाज, सनातनधर्म सभा और देवसमाज आदि द्वारा संचालित विद्यालयों में हिन्दी के माध्यम से शिक्षा देने की योजना थी।

लाहौर पहुँचकर आचार्य जी लाला लाजपत राय की कोठी में ठहरे, जो एक ऐतिहासिक भवन था और लोकसेवक-मण्डल की स्थापना के बाद लाला जी ने इसे मण्डल को दान कर दिया था। सन् 1920-1924 के आन्दोलन के दौरान और उसके बाद देश में इस प्रकार की संस्थाएँ राष्ट्रीय पद्धति पर शिक्षा देने के लिए स्थापित की गयी थीं। इनमें काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, तिलक विद्यापीठ, नेशनल कालेज आदि उल्लेखनीय हैं। आचार्य जी जब कार्यक्षेत्र में उतरे तो उन्हें लगा कि उनकी वेश-भूषा, रहन-सहन, बोलचाल आदि उन स्कूल-कालेजों के संचालक बड़े-बड़े रायबहादुरों को आकर्षित करने में सक्षम न थे। पं. गणेशदत्त गोस्वामी से बातचीत से कोई बात नहीं बनी तो उन्हें पता चला कि उनकी दाल गलनेवाली नहीं। देवसमाज की ओर से आशा जरूर दिलाई गई, किन्तु उनकी संस्थाएँ अधिक न थीं। इसी दौरान यहाँ से वे दो दिनों के लिए लायलपुर गए। गवर्नमेंट कालेज में वहाँ के प्रोफेसर श्री हंसराज जी ने आचार्य जी का एक व्याखान आयोजित कराया था। इस व्याख्यान का अच्छा प्रभाव पड़ा था। लेकिन जिस काम का रूप आचार्य जी के दिमाग में था उसे प्रभावित करने के लिए यह काफी नहीं था। सामान्यतया सिक्ख लोग उस समय उर्दू से प्रेम करते थे।

पन्द्रह-बीस दिन के अनुभव के आधार पर आचार्य जी को लगा कि यह काम उनके बूते का नहीं है और राष्ट्रीय संस्था सम्मेलन का धन व्यर्थ जा रहा है। अतएव उन्होंने राजर्षि टंडन को एक पत्र लिखकर परिस्थितियों से अवगत कराते हुए लिखा कि यह काम उनसे न हो सकेगा। कश्मीर जाने के लिए भी अपनी अनिच्छा बता दी।

आचार्य जी के इस पत्र का जवाब टंडन जी ने गुस्सा मिश्रित झिड़की देते हुए लिखा था और धैर्य से काम लेने की सलाह दी थी। साथ ही ढाँढ़स बधाया था कि आप बीज बो रहे हैं और एक दिन में बीज पेड़ नहीं बनता। जहाँ तक प्रभाव की बात है तो मेरा ही कहाँ प्रभावशाली व्यक्तित्व है, आदि-आदि। आचार्य जी ने उनके साथ बहस में न पड़कर तमाम दस्तावेजों को लेकर सम्मेलन वापस आ गए। टंडन जी उनसे काफी नाराज हुए और सम्मेलन के अगले अधिवेशन की व्यवस्था में सहायता करने के लिए नामधारी सिक्खों के प्रसिद्ध गुरुद्वारा लुधियाना के भैणी साहब जाने को कहा।

भैणी एक गाँव है जो लुधियाना रेलवे स्टेशन से काफी दूर है। वहाँ गुरु का लंगर चौबीसों घंटे चलता रहता है। आचार्य जी यहाँ आकर अपना काम अभी शुरु भी न कर पाए थे कि 1942 का स्वतंत्रता आन्दोलन शुरु हो गया। अखबारों में गरम-गरम खबरें आने लगीं। आचार्य जी का मन इस आन्दोलन में कूद पड़ने के लिए मचलने लगा। गुरु जी ने (आचार्य जी ने नाम नहीं दिया है) कहा, पहले यह देखा जाय कि आगे क्या होता है, फिर तय किया जाएगा। लेकिन 11 और 12 अगस्त तक पूरे देश से गरम खबरे आने लगी थीं। अतएव तय किया गया कि सम्मेलन को एक पत्र लिखकर अधिवेशन का आयोजन स्थगित करने की सलाह दी जाए। क्योंकि ऐसे समय में अधिवेशन का उद्देश्य पूरा नही होगा। चिट्ठी लिखकर आचार्य जी ने गुरु जी से हस्ताक्षर कराए। उसे पोस्ट करने का दायित्व गुरु जी पर छोड़कर शाम की गाड़ी से हरिद्वार के लिए निकल पड़े।

प्रातःकाल 14 अगस्त को हरिद्वार पहुँचे। दस बजते-बजते हरिद्वार भड़क उठा था। हरिद्वार के अतिरिक्त कनखल और ज्वालापुर की स्थिति भी वैसी ही थी। डाकखाने जला दिए गए थे। आचार्य जी भी गिरफ्तार किए गए। इसका विवरण थोड़ा विस्तार से अगले अंक मे लिखा जाएगा। इस अंक में बस इतना ही।

बुधवार, 16 नवंबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेई


अंक-9

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेई

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के दस्तावेजों के कारण आचार्य किशोरीदास वाजपेयी और नागरी प्रचारिणी सभा काशी के बीच हुई उठा-पटक पर चर्चा हुई थी। इस अंक में हिन्दी और हिन्दुस्तानी भाषाओं की सियासत और एक-दो और बातों पर चर्चा की जाएगी।

आचार्य वाजपेयी जी लिखते हैं कि 1930-34 के राष्ट्रीय आन्दोलन के बाद महात्मा गाँधी हिन्दुस्तानी भाषा के समर्थन में आगे बढ़ने लगे। इसके प्रमुख कर्ताधर्ता काका कालेलकर जी थे। हिन्दुस्तानी का स्वरूप बताते हुए वे लिखते हैं कि यह उर्दू य़ा संस्कृत के प्रभाव से रहित एक तरह की सरल हिन्दी भाषा है, जिसमें फ़ारसी आदि के ऐसे शब्द प्रयोग किए जाते थे, जिन्हें हिन्दी ने ग्रहण नहीं किया था। साथ ही देवनागरी और अरबी दोनों लिपियों को राष्ट्रीय लिपि का स्थान दिया जा रहा था। गाँधी जी के समर्थन के कारण हिन्दुस्तानी भाषा की चर्चा अधिक थी। जैनेन्द्र कुमार जैसे लोग, जिनकी पुस्तकों की भाषा काफी संस्कृतनिष्ठ थी, हिन्दुस्तानी के पक्षधर हो गए थे। कुल मिलाकर यह स्थिति हो गयी थी कि जिन्होंने जीवन भर हिन्दी की सेवा करने का व्रत लिया था, वे भी हिन्दुस्तानी पर जोर देने लग गए थे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन को लोगों ने साम्प्रदायिक की संज्ञा दे दी थी। प्रयाग विश्वविद्यालय के प्रमुख प्राध्यापक डॉ. ताराचन्द प्रतिदिन उर्दू और अंग्रेजी समाचार पत्रों में नियमित रूप से हिन्दुस्तानी के समर्थन में लेख लिख रहे थे।

अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर हिन्दी का जोरदार पक्ष लेनेवालों में राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिमालय की तरह खड़े रहे और डॉ. सम्पूर्णानन्द जी ने तो अपने मंत्री पद की भी चिन्ता न की। श्री कन्हैयालाल माणिक मुंशी जी भी दिल खोलकर हिन्दी के पक्ष में उतर पड़े थे। इधर प्रयाग विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर डॉ. अमरनाथ झा भी हिन्दी के पक्ष में लगातार लेख प्रकाशित करवाने लगे। ये हिन्दुस्तानी के पक्ष में डॉ. ताराचन्द के नहले पर दहला सिद्ध हुए। इससे एक लाभ यह हुआ कि विश्वविद्यालयों की बिगड़ती दशा में सुधार होने लगा।

विद्वानों का एक दल ऐसा भी था, जो बिलकुल मौन रहा। इनमें प्रमुख थे प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, संस्कृत विभागाध्यक्ष और हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के प्रमुख कार्यकर्ता डॉ. बाबूराम सक्सेना आदि। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हिन्दी के पक्षधर होते हुए भी महात्मा गाँधी के प्रभाव के कारण हिन्दुस्तानी का समर्थन कर रहे थे। वैसे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रह चुके थे। लेकिन इस हिन्दुस्तानी के चलते चुनाव में आचार्य वाजपेजी एवं अन्य सदस्यों ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के प्रति सम्मान होते हुए भी उनके विरुद्ध अपना मत देकर डॉ. अमरनाथ झा को विजयी बनाया। आचार्य वाजपेयी जी ने इसे हिन्दुस्तानी पर हिन्दी की विजय की संज्ञा दी है।

इसके बाद अहोबर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन डॉ. अमरनाथ झा के सभापतित्व में बड़े धूमधाम से आयोजित किया गया। इसमें बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भाग लीं। काका कालेलकर जी भी थे। लेकिन खुश नहीं थे। यह हिन्दी की विजय थी। अधिवेशन में उनके भाषण से एक बात तय सी लगी कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन में अभी एक और टक्कर होगी। इन दो के अलावा इस प्रकार की एक और संस्था थी अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू। आचार्य वाजपेयी लिखते हैं कि हिन्दुस्तानी के पक्षधरों को इसके साथ मिलकर काम करना चाहिए था या उन्हें स्वयं एक हिन्दुस्तानी मंच बना लेना चाहिए था। क्योंकि सम्मेलन में यह रोज-रोज की झंझट ठीक नहीं थी।

इसी उधेड़-बुन में आचार्य जी घर लौटे और उनके मन में एक कुराफात सूझी। उन्होंने एक समाचार बनाकर छपवा दिया कि हिन्दुस्तानी-प्रचार सभा की स्थापना, वर्धा की एक चिट्ठी - वर्धा के एक मित्र ने चिट्ठी लिखकर सूचना दी है कि काका कालेलकर आदि राष्ट्रवादी विद्वान हिन्दुस्तानी का प्रचार-प्रसार के लिए शीघ्र ही एक अखिल भारतीय स्तर की हिन्दुस्तानी प्रचार सभा नाम की संस्था बनानेवाले हैं, जो हिन्दी साहित्य सम्मेलन और अंजुमन दोनों को भविष्य में आत्मसात कर लेगी।

इस समाचार को हिन्दुस्तानी के समर्थकों ने पता नहीं पढ़ा या नहीं, या हो सकता है कि उन लोगों के मन में भी इस प्रकार दंद्व चल रहा हो, कुछ दिनों बाद यह समाचार छपा कि वर्धा में हिन्दुस्तानी-प्रचार सभा की स्थापना की जा चुकी है। इस समाचार से आचार्य वाजपेयी जी बड़े प्रसन्न हुए कि कम से कम हिन्दी साहित्य सम्मेलन इस झमेले से बच गया।

आचार्य जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन और कांग्रेस की गुटबन्दी से काफी दुखी रहा करते थे। वे लिखते हैं- सम्मेलन में सदा ही गुटबन्दी रही है और कांग्रेस में तो गुटबन्दी ने घृणित-से-घृणित रूप समय-समय पर प्रकट किया है; परन्तु यह सब गन्दगी नाक दबाए सहता रहा, वहाँ काम करता रहा। राष्ट्रभाषा और राष्ट्र-स्वातंत्र्य के लिए खुल कर सबसे आगे काम करनेवाली संस्थाएं इनके अतिरिक्त और थीं ही नहीं कि चला जाता! परन्तु स्वराज्य मिलते ही कांग्रेस को और हिन्दी राष्ट्रभाषा बनते ही सम्मेलन को नमस्कार कर लिया।

आचार्य वाजपेयी ने अपने जीवन के इस द्वितीय उन्मेष की एक और महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि दिल्ली से निकलनेवाले हिन्दुस्तान समाचार पत्र ने अपने सम्पादकीय में देशद्रोही सुभाष !’ (आचार्य जी ने ऐसा ही लिखा है) शीर्षक से नेताजी सुभास चन्द्र बोस को देशद्रोही करार दिया था। इसे पढ़कर आचार्य जी के तन-मन में आग लग गई और उन्होंने इस पत्र की पाँच प्रतियाँ खरीदकर जला डालीं और पैर से कुचलकर उसपर थूक दिया। यह वह समय था जब नेताजी ने कांग्रेस से अलग होकर फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की थी। इसको लेकर कांग्रेस में उनका काफी अपमान किया गया। आचार्य जी पुनः लिखते हैं कि इसके पहले भी यह संगठन लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय आदि की उपेक्षा और दुर्दशा कर चुका था।

इसके बाद आचार्य जी ने स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति-श्री सुभाष चन्द्र बोस तथा कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास नामक दो पुस्तकें लिखीं। अपने जीवन के द्वितीय उन्मेष को आचार्य जी ने यहीं विराम दिया है।

इस अंक में बस इतना ही।

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बुधवार, 9 नवंबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई-8

अंक-8

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा अपनी साहित्यिक विरासत नागरी प्रचारिणी सभा काशी को सील बन्द बंडलों में इस निर्देश के साथ दी गयी थी कि वब उनकी मृत्यु के बाद खोली जाए।

इसके बाद 1939 में साहित्य-सम्मेलन का अधिवेशन नागरी प्रचारिणी सभा काशी के परिसर में आयोजित किया गया। जिसमें पं. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी अध्यक्ष थे। इस अधिवेशन में बाबू श्यामसुन्दर दास आदि महानुभाव भी उपस्थित थे। स्वयं आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी अधिवेशन में भाग लेने के लिए वाराणसी पहुँचे थे। इसी अधिवेशन के दौरान आचार्य जी ने नागरी प्रचारिणी सभा के अधिकारियों/पदाधिकारियों से उन बंडलों के विषय में पूछताछ की, पर सभी ने उससे अपनी अनभिज्ञता ही व्यक्त की। अन्त में आचार्य वाजपेयी ने एक प्रस्ताव तैयार कर साहित्य-सम्मेलन के लोगों के सामने रखा कि आचार्य द्विवेदी जी के साहित्यिक दस्तावेजों को सबके सामने खोले जाएँ, ताकि सभी लोग उसे देखें। लेकिन यह प्रस्ताव सम्मेलन के लोगों को ठीक नहीं लगा, क्योंकि साहित्य-सम्मेलन और नागरी प्रचारिणी सभा दोनों अलग-अलग संस्थाएँ हैं और एक दूसरे के काम में दखल देना ठीक नहीं। पर आचार्य वाजपेयी जी को उनकी बातें अच्छी नहीं लगीं। लेकिन राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की बात वे न टाल सके और अपना प्रस्ताव फाड़कर फेंक दिए।

अपना प्रस्ताव फाड़ने के बाद वे वहाँ से उठकर सीधे एक प्रेस गए और एक पर्चा छपवाए। पर्चे में छपा था कि आचार्य द्विवेदी ने जो कागजात प्रचारिणी सभा को सौंपे थे, उन्हें इस अवसर पर खोला जाए। अधिवेशन में पर्चों को आचार्य जी ने तुरन्त वितरित कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप अधिवेशन में कानाफूसी शुरु हो गयी। पर कोई परिणाम सामने नहीं आया।

इसके बाद काशी से लौटने के बाद उन्होंने अपनी माँग विभिन्न पत्रों में भी प्रकाशित करा दी। प्रत्युत्तर में नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से भी पत्रों में प्रकाशित करवाया गया कि आचार्य द्विवेदी जी ने एक बंडल में कुछ रुपये अभिवादन महोत्सव पर दिए थे और वे उनके आदेशानुसार खर्च कर दिए गए। उनके दिए और कोई बंडल सभा के पास नहीं है। इस लिफाफा आन्दोलन पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लोग आचार्य वाजपेयी की बातों को निरर्थक सिद्ध करने के लिए अपनी-अपनी बातें प्रकाशित करवाने लगे। यहाँ तक कि बाबू गुलाब राय जी ने भी आगरा से निकलनेवाले साहित्य-संदेश के सम्पादकीय में नागरी प्रचारिणी सभा के पक्ष का काफी जोरदार ढंग से समर्थन किया था। इससे आचार्य वाजपेयी की स्थिति बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गयी थी।

इसी बीच आगरा से प्रकाशित होने वाले साहित्यिक पत्र मराल के संचालक महोदय ने कनखल में आचार्य जी से मिलकर इसके प्रधान सम्पादक के रूप में काम करने का आग्रह किया। आचार्य जी को भी इस समय एक पत्रिका के सहारे की आवश्यकता थी। अतएव बात इस पर तय हो गयी कि आचार्य जी कनखल से ही सम्पादकीय लिखकर भेज दिया करेंगे और सम्पादन का शेष कार्य डॉ. श्यामसुन्दर दीक्षित देखेंगे। इसके बदले जो भी उन्हें मिलेगा, स्वीकार्य होगा।

आचार्य वाजपेयी जी इस पत्र में आचार्य द्विवेदी जी द्वारा सभा को दिए गए बडलों और उनके गायब होने के लिए नागरी प्रचारिणी सभा के विरुद्ध आरोपात्मक बातें लगातार लिखते लगे। जिसका विरोध प्रयाग से प्रकाशित होनेवाले इंडियन प्रेस के देशदूत नामक पत्र में किया गया था। जिसपर आचार्य जी ने मराल में लिखा कि देशदूत इंडियन प्रेस का पत्र है और सभा का प्रकाशन कार्य करता है। अतएव दबाव देकर मालिकों के इशारे पर यह सबकुछ प्रकाशित करवाया गया होगा। इसमें बेचारे सम्पादक क्या करें। परिणाम स्वरूप देशदूत के सम्पादकों ने आचार्य जी को अदालती नोटिस भेजा कि उनकी टिप्पणी से इंडियन प्रेस के मालिकों का अपमान हुआ है, अतएव वे उनसे क्षमा माँगें, नहीं तो अदालत में मानहानि का दावा किया जायगा।

आचार्य जी ने भी उसका जबाब देते हुए चुनौती दे डाली कि ठीक है, अब सब अदालत में ही देखा जाएगा। पर वह केवल बन्दर-घुड़की ही सिद्ध हुई। कोई कहीं नहीं गया। हाँ, मराल का प्रकाशन अवश्य बन्द करवा दिया गया।

इस कार्य के कारण अचार्य वाजपेयी जी की काफी फजीहत हुई। कोई भी पत्र इस सम्बन्ध में उनकी कोई चीज प्रकाशित करने को तैयार नहीं था। लेकिन वे अपने उद्देश्य से विचलित नहीं हुए। वे इस कार्य को गुरु ऋण की तरह मानते थे। उनके हृदय में आचार्य द्विवेदी जी के प्रति असीम श्रद्धा थी। उन दिनों लाहौर से विश्वबन्धु नामक साप्ताहिक पत्र निकलता था। अतएव उन्होंने इस विषय में कुछ न कुछ लिखकर वहाँ से प्रकाशित कराना शुरु कर दिया। जब नागरी प्रचारिणी सभा ने उसपर अपनी आपत्ति की, तो इस पत्र के सम्पादक ने सभा को लिखा कि वाजपेयी जी की बातें तर्क-संगत हैं और सभा को कुछ कहना हो, तो वह लिखकर दे। वे उसे भी प्रकाशित करेंगे। लेकिन एक ही बात को घुमाफिरा कर कितना लिखा जा सकता था, अतएव यहाँ इस मामले को उन्हें विराम देना पड़ा।

इसके बाद तभी आचार्य जी को सभा के प्रधानमंत्री श्री रामबहोरी लाल शुक्ल का एक पत्र मिला, जिसमें लिखा गया था कि सभा के रिकार्ड के अनुसार द्विवेदी जी के कागज-पत्रों का कुछ पता नहीं है और न ही यहाँ के पुराने अधिकारी कुछ बता रहे हैं। लेकिन सभा के दूसरे प्रधानमंत्री उन दस्तावेजों की खिल्ली उड़ा रहे थे। आचार्य जी की आर्थिक स्थिति भी काफी खराब थी। किसी तरह बाल-बच्चों के लिए रूखी-सूखी रोटी जुटा पा रहे थे। वे लिखते हैं कि उनका काफी धन इस ऋषि-श्राद्ध में लग चुका था। इसके बाद भी कोई रास्ता न निकल पाया था और न ही कोई रास्ता सूझ रहा था।

एक दिन इसी ऊहापोह में अपनी आलमारी में पड़ी सरस्वती का द्विवेदी स्मृति अंक उन्होंने निकाला और कई दिन तक वे उसी को उलटते-पुलटते रहे। अन्त में उन्हें उसमें एक लेख पढ़ने को मिला, जिसमें लेखक ने लिखा था कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के भेंट किए कागज-पत्रों के बंडल उनकी मृत्यु के बाद उनके (लेखक के) और उनके मित्र की उपस्थिति में खोले गए थे और वे बड़े ही काम के हैं। लेखक ने हिन्दी जगत से इस बहुमूल्य सामग्री का सदुपयोग करने के लिए अपील की थी।

अब तो मानो आचार्य वाजपेयी जी के हाथों ब्रह्मास्त्र लग गया था। आचार्य जी ने तुरन्त उस लेख को आधार बनाकर नागरी प्रचारिणी सभा को एक अदालती नोटिस दे डाली। नोटिस पंजीकृत डाक से नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमन्त्री के नाम से भेजी गयी। इस नोटिस का असर जादू की तरहा हुआ। एक सप्ताह में ही आचार्य जी को उसका जबाब आ गया, जिसमें लिखा था कि द्विवेदी जी के सभी कागज-पत्र सभा में सुरक्षित हैं और कोई भी सभा में आकर उन्हें देख सकता है। आचार्य जी लिखते हैं कि इस प्रकार यह यज्ञ पूर्णरूपेण सफल हुआ। आचार्य जी ने काशी जाकर उन दस्तावेजों को देखा भी।

पहले तो इस विषय को संक्षेप में लिखना चाहता था। लेकिन बाद में लगा कि जो कार्य आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जी के लिए ऋषि-श्राद्ध, गुरु-ऋण और यज्ञ के तुल्य था, तो क्यों न इसके लिए उनके द्वारा किए गए भगीरथ प्रयास को थोड़ा विस्तार से लिखा जाय। इसलिए इसे एक अंक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

अगले अंक में फिर कुछ और।

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बुधवार, 2 नवंबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक-7

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


आचार्य परशुराम राय

इस अंक में कुछ हिन्दी के धुरंधर विद्वानों से आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जी की मुलाकात और उनके विचारों पर चर्चा की जाएगी। हिन्दी के महारथियों की मुलाकात की शृंखला में आचार्य जी ने सर्वप्रथम बाबू श्यामसुन्दर दास जी के नाम का उल्लेख किया है। 1931 में जब वे कांग्रेस के आन्दोलन में सक्रिय थे, एक दिन उनकी मुलाकात बाबू हरिहर नाथ टंडन से हुई और उनसे पता चला कि बाबू श्यामसुन्दर दास जी उनके यहाँ ठहरे हुए हैं। कभी पहले आचार्य जी ने बाबू श्यामसुन्दर दास जी की पुस्तक साहित्यालोचन में वर्णित कलाओं के वर्गीकरण पर तीखा प्रहार किया था। टंडन जी के अनुरोध पर आचार्य जी बाबू जी से मिलने चल तो दिए, पर मानसिक उथल-पुथल के बीच कि कहीं उनके लेख को पढ़कर वे नाराज होंगे, पता नहीं उनका व्यवहार कैसा होगा आदि-आदि। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। टंडन जी बाबू जी से उनका परिचय कराकर उनकी सेवा-सुश्रुषा में लग गए और आचार्य जी एक कुर्सी पर बैठ गए। कुछ देर बैठे रहने के बाद भी जब बाबू जी ने चर्चा के लिए कोई पहल नहीं की, तो आचार्य जी उठे और प्रणाम कर चलते बने, मन में यह सन्तोष लिए कि चलो हिन्दी के एक बड़े विद्वान के दर्शन तो हो गए।

आचार्य जी ने अगले विद्वान की मुलाकाती के रूप में बाबू जगन्नाथ प्रसाद भानु का उल्लेख किया है। ये मध्यप्रदेश सरकार की सेवा में थे और सहायक सेटलमेंट कमिश्नर पद से सेवानिवृत्त हुए। भानु जी हिन्दी में छन्दशास्त्र पर छन्द प्रभाकर और अलंकार शास्त्र पर काव्य प्रभाकर जैसे ग्रंथ लिखकर काफी ठोस काम कर चुके थे। सेठ कन्हैयालाल पोद्दार ने काव्य प्रभाकर की काफी तीखी आलोचना की थी, जो भानु जी को बिलकुल अच्छी नहीं लगी थी। लेकिन छन्द प्रभाकर के विषय में आचार्य जी लिखते हैं इस विषय पर यह अनन्तिम ग्रंथ है। ये राष्ट्रवादी विचार-धारा के पोषक थे। जब लोग हिन्दी की चर्चा करना पसन्द नहीं करते थे, उस समय रायबहादुर पं. श्याम बिहारी मिश्र, रायबहादुर पं. शुकदेव बिहारी मिश्र और रायबहादुर बाबू जगन्नाथ प्रसाद भानु जैसे लोगों ने सरकारी नौकरी में रहते हुए भी हिन्दी की सेवा की और हिन्दी के प्रति लोगों को आकर्षित किया। यह देखकर लगता है कि देश की स्वतंत्रता के लिए जितने बड़े आन्दोलन और संघर्ष किए गए, हिन्दी के उत्थान के लिए भी विद्वानों ने उससे कम संघर्ष नहीं किए। आचार्य जी ने भानु जी की महानता और हिन्दी सेवा की काफी प्रशंसा की है।

आचार्य जी की पत्नी अपने पिता पं. कन्हैयालाल मिश्र के पास बिलासपुर में थीं और आचार्य जी उन्हें लिवाने गये थे। अचानक उन्हें पता चला कि भानु जी वहीं रहते हैं, तो मिलने का मन बनाया और पता आदि की जानकारी करके मिलने चल दिए। भानु भवन पहुचने पर परिचय आदि की औपचारिकता के बाद काफी उदारता पूर्वक उन्होंने आचार्य जी का स्वागत-सत्कार किया। फिर थोड़ी देर तक उनके ग्रंथ काव्य प्रभाकर और सेठ कन्हैयालाल पोद्दार द्वारा की गयी उसकी आलोचना पर चर्चा हुई। भानु जी ने सेठ जी पर व्यंग्य करते हुए उन्हें ब्राह्मण-सेवी बनकर अपना काम सिद्ध करनेवाला कहा। आचार्य जी ने इसका तात्पर्य समझा कि शायद सेठ जी को इस विषय की जानकारी होगी और विद्वानों की सेवा करके कुछ लिखते-लिखाते होंगे। अतएव उन्होंने तत्कालीन अलंकार ग्रंथों की आलोचना करते हुए एक लम्बा लेख लिखा जिसमें सेठ जी द्वारा लिखी पुस्तक काव्य-कल्पद्रुम भी थी। वैसे आचार्य जी लिखते हैं कि अन्य पुस्तकों पर काव्य-कल्पद्रुम की श्रेष्ठता को स्वीकार करना पड़ा था। यह लेख माधुरी में छपा था, जिसका उत्तर भी सेठ जी ने इसी पत्रिका में प्रकाशित कराया। बाद में सेठ जी से मिलने के बाद आचार्य जी को उनके प्रति बनाई अपनी धारणा पर काफी पश्चाताप हुआ।

काव्य-कल्पद्रुम का जब अगला संस्करण छपने को आया तो उसे दोषरहित बनाने के लिए सेठ जी ने आचार्य जी को सादर आमंत्रित किया। सेठ जी मथुरा में रहते थे। आचार्य जी उनके निमंत्रण को स्वीकार करके उनके अतिथि बने और करीब 15 दिनों तक वहाँ ठहरे। इस बीच काव्य-कल्पद्रुम के विभिन्न स्थलों पर आचार्य जी ने सुझाव दिए। पर सेठ जी उनके सुझावों को इतनी आसानी से स्वीकार नहीं कर लेते थे। उस पर बड़ी ही सूक्ष्मता से तर्क-वितर्क, आलोचना-प्रत्यालोचना, विभिन्न ग्रंथों का अवलोकन-विलोकन करने के बाद पूरी तरह सन्तुष्ट होने पर ही वे मानते थे। तब आचार्य जी को पता चला कि काव्यशास्त्र पर सेठ जी की कितनी गहरी पकड़ थी और उनके पास ग्रंथों का अच्छा संकलन था। काम पूरा होने के बाद सेठ जी ने पूछा कि आप अपने लेख में लिखी बातों से आज भी सहमत हैं। आचार्य जी ने कहा नहीं। पुनः उन्होंने पूछा क्या वे अपने इस नये अनुभव को प्रकाशित करेंगे। आचार्य जी ने हामी भरी। इस यात्रा के वृतांत पर उन्होंने एक लेख लिखा और इसमें अपनी पुरानी भूल को स्वीकार भी किया।

आचार्य जी मथुरा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के गाँव दौलत पुर से गए थे। आचार्य जी लिखते हैं श्रद्धेय द्विवेदी जी ने उन्हें एक चिट्ठी लिखकर उनके कामों की प्रशंसा करते हुए प्रोत्साहित किया था। उनमें नीचे गिरे लोगों को ऊपर उठाने की प्रवृत्ति थी। आचार्य जी उन्हें परम आदरणीय मानते थे। उनके गाँव की कई बार यात्राएँ कीं, उनके साथ रहे और घूमे-फिरे। उनके व्यक्तित्व तथा वात्सल्य से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने आगे चलकर आचार्य द्विवेदी की जीवनी आचार्य द्विवेदी और उनके संगी साथी नाम से लिखी। अपने अंतिम दिनों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपनी समस्त संचित साहित्यिक सामग्री- पुस्तकें, पत्राचार एवं अन्य दस्तावेज तथा संशोधन की हुई पांडुलिपियाँ नागरी प्रचारिणी सभा काशी को पैकेट बनाकर दान कर दी इस निर्देश के साथ कि वे पैकेट उनकी मृत्यु के बाद ही खोले जाएँ। रिसर्च करनेवाले छात्रों के लिए वे दस्तावेज बड़े ही उपयोगी हो सकते हैं।

कुछ समय बाद उन दस्तावेजों का कुछ अता-पता ही साफ हो गया जिन्हें पुनः प्रकाश में लाने के लिए आचार्य जी ने नागरी प्रचारिणी सभा काशी के पदाधिकारियों के नाम लीगल नोटिस तक दे डाली थी। वे लिखते हैं यह उनका गुरु-ऋण था जिसे वे चुकाना चाहते थे और अपने अथक प्रयासों से वे उसमें सफल हुए।

इस अंक में बस इतना ही।

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बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई

अंक-6

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपे

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में हमने देखा कि किस प्रकार आचार्य ने किस प्रकार नागा साधुओं के विरूद्ध आन्दोलन शुरू किया और बाद में किन परिस्थितियों में उन्हें उसे वापस लेना पड़ा। मेला निर्विघ्न समाप्त हो गया।

उन दिनों हरिद्वार म्यूनिसिपलिटी बोर्ड के चेयरमैन सरकारी अधिकारी होते थे। लेकिन तत्कालीन कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया कि इस बोर्ड का चेयरमैन गैर सरकारी हो और हरिद्वार के तीर्थ पुरोहित सरदार पं0 राम रक्खा शर्मा बोर्ड के चेयरमैन निर्वाचित हुए। शर्मा जी ने घूसखोरी आदि बुराइयों को हटाने के लिए पदभार ग्रहण करते ही एक परिपत्र छपवाकर वितरित करवा दिया।

आचार्य जी ने भी देखा कि इन बुराइयों को दूर करने का यह अच्छा अवसर है। अतएव इन्होंने एक छोटे से स्थानीय साप्ताहिक पत्र क्रांति का प्रकाशन शुरू किया। ये स्वयं बोर्ड के हाईस्कूल के अध्यापक थे, अतएव सम्पादक पं0 कल्याणदत्त शर्मा को बनाकर सारा काम स्वयं किया करते थे। क्रांति से घूसखोर अधिकारियों और सदस्यों में तिलमिलाहट शुरू हो गयी। चेयरमैन साहब ने आचार्य जी को बुलाकर समझाया, तब तक बहुत कुछ हो चुका था। इसके परिणामस्वरूप आचार्य जी को अवज्ञा के आरोप में अपनी नौकरी गँवानी पड़ी। अपने निष्कासन के विरुद्ध इन्होंने अपील की, जो नियमानुसार अग्रसारित कर दी गई।

इसी संदर्भ में आचार्य जी स्वायत्तशासन की तत्कालीन मंत्री सुश्री विजयलक्ष्मी पंडित से मिले। दोनों के बीच हुई बातचीत को आचार्य जी की भाषा में उनके ग्रंथ साहित्यिक जीवन के अनुभव और संस्मरण से साभार यहाँ यथावत दिया जा रहा है -

''कहिए, क्या बात है?''

''मैं हरिद्वार म्यूनि. बोर्ड के हाई स्कूल में अध्यापक था। बोर्ड में साधुओं का तथा तीर्थ पुरोहितों का जोर है। मैंने कुछ समाज-सुधार के काम नहीं किए; इससे वे लोग नाराज हो गए और मुझे नौकरी से अलग कर दिया।''

-- ''तो आप समाज-सुधार के काम करते हैं, या बच्चों को पढ़ाते हैं?''

''बच्चों को तो पढ़ाता ही हूँ और इस काम में 99% सफलता परीक्षा-परिणाम बता देते हैं; पर अपने बचे हुए समय का उपयोग टयूशन आदि में न करके कुछ समाज सुधार के कामों में लगाता हूँ।''

''आप समाज-सुधार के काम करते ही क्यों हैं? किस ने कहा है?''

''आप ही लोग वैसा कहते हैं कि अध्यापकों को समाज सुधार के कामों में मदद करनी चाहिए।

'' मैंने कब वैसा कहा है?''

''आप ने तो नहीं, पर पं. जवाहर लाल नेहरू ने तो सैकड़ों बार वैसा कहा है।''

'' तो फिर उन्हीं के पास जाइए।''

'' उनके ही पास पहुँचता, यदि वे प्रान्त के स्वायत्त-शासन-मंत्री होते।''

'' अच्छा, तो कहिए, क्या काम आपने समाज-सुधार के किए?''

'' हरिजन-अभ्युत्थान आदि के काम करता रहता हूँ और सबसे बड़ा काम पिछले हरिद्वार-कुम्भ मेले पर नागा साधुओं के बारे में आन्दोलन किया वे एकदम दिगम्बर होकर निकला करें, कम-से-कम एक लंगोटी तो जरूर लगाए रहा करें।''

'' ऐसा आपने क्या समझ कर किया?''

''यह समझ कर कि हमारी नागरिक व्यवस्था के विपरीत वैसा प्रदर्शन पड़ता है और लोग उसे अच्छा नहीं समझते हैं।''

''आप ने यह कैसे समझा कि नागा साधुओं के उस प्रदर्शन को लोग अच्छा नहीं समझते?''

आचार्य जी लिखते हैं कि पं.नेहरू की बहिन के मुख से इस तरह की बातें सुनकर मैं जल-भुन गया और आँखें नीची कर अत्यन्त गम्भीरता से निवेदन किया -

'' मैंने पुरुष-वर्ग के तो सहस्त्रों व्यक्तियों से चर्चा की, सबने इससे असन्तोष प्रकट किया। टण्डन जी ने तथा नेहरू जी ने भी वैसा ही कहा; परन्तु मैंने स्त्रियों से नहीं पूछा कि वे उसे कैसा समझती हैं! हाँ, मेरी स्त्री तो वैसे प्रदर्शन को ठीक नहीं समझती है।''

यह सुनते ही श्रीमती पण्डित का गौरवपूर्ण बदन क्रोध से एकदम लाल हो गया और बोलीं-

'' आपसे मेरी कतई सहानुभूति नहीं है और आपको हर्गिज बहाल न किया जाएगा।''

इसके बाद आचार्य जी नमस्ते बोलकर चल दिए और सीधे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन के घर पहुँचे, उनसे पूरी बातें बताईँ। टंडन जी उन दिनों अस्वस्थ थे और जलवायु परिवर्तन कर पुरी से लौटे थे। फिर भी उन्होंने अपने सेक्रेटरी से पार्लियामेन्टरी सचिव श्री खेर को तुरन्त फोन लगाने के लिए कहा। फोन पर अन्य बातें करने के बाद उन्होंने पूछा कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कोई केस आया है। उन्होंने आचार्य जी और मंत्री महोदया के बीच हुई सारी बातों का ब्यौरा दिया और बताया कि चेयरमैन, कमिश्नर और गवर्नमेंट सेक्रेटरी ने भी बुरा ही लिखा है। टंडन जी ने उनसे कहा कि हो सकता है विजयलक्ष्मी जी ने यह सब हँसी में कहा हो और वाजपेयी जी संस्कृत के पंडित होने के कारण समझ न सके हों। अतएव इस मामले की विधिवत जाँच की जाए, क्योंकि यह राष्ट्रीयता का सवाल है। इतनी बात करके टंडन जी ने आचार्य वाजपेयी से कहा कि वे इधर-उधर न भटकें और सीधे हरिद्वार चले जाएँ।

आचार्य जी जबतक हरिद्वार पहुँचे तबतक हाई कमान का आदेश आ गया कि आवश्यक काम निपटाकर कांग्रेसी मंत्रिमंडलों को अपने त्यागपत्र सौंप दें। जरूरी कामों में आचार्य जी के केस का भी निपटारा हुआ और निर्णय उनके पक्ष में गया। परिणामस्वरूप उन्होंने फिर अपना कार्यभार सँभाला। साथ ही उन्हे दस महीने का वेतन भी मिला। क्योंकि अपील का निपटारा होते-होते दस महीने लग गये थे।

अब आचार्य जी को काफी धन मिल गया था। अतएव उन्होंने नीलामी में एक छोटा प्रेस खरीदा। इसमें उन्हें डेढ़ सौ रुपये ऋण भी लेने पड़े। प्रेस की मालकिन अपनी पत्नी को बनाया। हालाँकि प्रेस चलाने के अनुभव के अभाव में आचार्य जी उसे बहुत दिनों तक अपने पास न रख सके। प्रेस के कामों की जानकारी का अभाव, कर्मचारियों एवं काम की देखरेख न होने से घाटे तथा अंग्रेजी सरकार से तंग आकर उन्होंने उसे बेच दिया। वे लिखते हैं कि अनुभव न हो तो प्रेस प्रेत बनकर खाने लगता है। इसमें इनके मैनेजर पं. कल्याणदत्त शर्मा ने इन्हें धोखा दिया। इसी बीच आचार्य जी को नौकरी से फिर हाथ धोना पड़ा। प्रेस बेचने से जो कुछ मिला उसी से दाल-रोटी चलती रही।

इस बीच आचार्य जी ने अपने प्रेस में अपनी दो पुस्तकें - द्वापर की क्रांति (नाटक) और लेखन-कला छापीं। वैसे द्वापर की क्रांति गंगा पुस्तक माला से सुदामा नाम से पहले ही छप चुकी थी। जिसके विषय में डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने पुस्तक-साहित्य नामक विवरण में लिखा कि द्वारकावासी कृष्ण को लेकर केवल एक कलात्मक रचना इस काल में मिलती है, वह है पं. किशोरीदास वाजपेयी कृत सुदामालेखन-कला हिन्दी परिष्कार पर लिखी पहली पुस्तक है, जिससे प्रेरित होकर डॉ. रामचन्द्र वर्मा ने अच्छी हिन्दी नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। आचार्य जी ने पुनः अपनी पुस्तक लेखन-कला में संशोधन कर अच्छी हिन्दी का नमूना लिखी।

इस अंक में बस इतना ही।

सभी पाठकों और टीम के सभी सदस्यों को दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।