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बुधवार, 23 नवंबर 2011

अंक-10 हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई


अंक-10

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई

आचार्य परशुराम राय

आचार्य वाजपेयी के अनुसार उनके जीवन का तृतीय उन्मेष 1941 से 1950 तक है। यह काल उनके साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश था, क्योंकि इसी अवधि में देश स्वतंत्र हुआ और हिन्दी को राष्ट्रभाषा (राजभाषा) का स्थान मिला था। वे कांग्रेस और हिन्दी साहित्य सम्मेलन की गतिविधियों से भी विरत हो चुके थे। हाँ, स्वतंत्रता के पूर्व वे ब्रजभाषा का व्याकरण लिख चुके थे।

पिछले अंक में अबोहर में हुई हिन्दी साहित्य सम्मेलन की चर्चा की गयी थी। इस सम्मेलन में कश्मीर में हिन्दी के प्रचार हेतु काफी लम्बी धनराशि निर्धारित की गयी थी। आचार्य जी भी हिन्दी के प्रचार के लिए सम्मेलन द्वारा नियुक्त किए गए थे। कश्मीर के बारे में इन्होंने सब पता किया कि कश्मीर सैर आदि के लिए कौन सा समय अच्छा रहता है। लेकिन एकाएक टंडन जी का आदेश जारी हुआ कि कश्मीर से पहले पंजाब में हिन्दी प्रचार का काम किया जाय, फिर कश्मीर में। लोकसेवक-मंडल, लाहौर, के श्री अचिन्त्यराम जी के लिए टंडन जी ने एक पत्र लिखकर आचार्य जी को पंजाब भेजा। पत्र में आचार्य जी को हिन्दी प्रचार के लिए पूर्ण सहयोग देने के लिए कहा गया था। इसके लिए आर्यसमाज, सनातनधर्म सभा और देवसमाज आदि द्वारा संचालित विद्यालयों में हिन्दी के माध्यम से शिक्षा देने की योजना थी।

लाहौर पहुँचकर आचार्य जी लाला लाजपत राय की कोठी में ठहरे, जो एक ऐतिहासिक भवन था और लोकसेवक-मण्डल की स्थापना के बाद लाला जी ने इसे मण्डल को दान कर दिया था। सन् 1920-1924 के आन्दोलन के दौरान और उसके बाद देश में इस प्रकार की संस्थाएँ राष्ट्रीय पद्धति पर शिक्षा देने के लिए स्थापित की गयी थीं। इनमें काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, तिलक विद्यापीठ, नेशनल कालेज आदि उल्लेखनीय हैं। आचार्य जी जब कार्यक्षेत्र में उतरे तो उन्हें लगा कि उनकी वेश-भूषा, रहन-सहन, बोलचाल आदि उन स्कूल-कालेजों के संचालक बड़े-बड़े रायबहादुरों को आकर्षित करने में सक्षम न थे। पं. गणेशदत्त गोस्वामी से बातचीत से कोई बात नहीं बनी तो उन्हें पता चला कि उनकी दाल गलनेवाली नहीं। देवसमाज की ओर से आशा जरूर दिलाई गई, किन्तु उनकी संस्थाएँ अधिक न थीं। इसी दौरान यहाँ से वे दो दिनों के लिए लायलपुर गए। गवर्नमेंट कालेज में वहाँ के प्रोफेसर श्री हंसराज जी ने आचार्य जी का एक व्याखान आयोजित कराया था। इस व्याख्यान का अच्छा प्रभाव पड़ा था। लेकिन जिस काम का रूप आचार्य जी के दिमाग में था उसे प्रभावित करने के लिए यह काफी नहीं था। सामान्यतया सिक्ख लोग उस समय उर्दू से प्रेम करते थे।

पन्द्रह-बीस दिन के अनुभव के आधार पर आचार्य जी को लगा कि यह काम उनके बूते का नहीं है और राष्ट्रीय संस्था सम्मेलन का धन व्यर्थ जा रहा है। अतएव उन्होंने राजर्षि टंडन को एक पत्र लिखकर परिस्थितियों से अवगत कराते हुए लिखा कि यह काम उनसे न हो सकेगा। कश्मीर जाने के लिए भी अपनी अनिच्छा बता दी।

आचार्य जी के इस पत्र का जवाब टंडन जी ने गुस्सा मिश्रित झिड़की देते हुए लिखा था और धैर्य से काम लेने की सलाह दी थी। साथ ही ढाँढ़स बधाया था कि आप बीज बो रहे हैं और एक दिन में बीज पेड़ नहीं बनता। जहाँ तक प्रभाव की बात है तो मेरा ही कहाँ प्रभावशाली व्यक्तित्व है, आदि-आदि। आचार्य जी ने उनके साथ बहस में न पड़कर तमाम दस्तावेजों को लेकर सम्मेलन वापस आ गए। टंडन जी उनसे काफी नाराज हुए और सम्मेलन के अगले अधिवेशन की व्यवस्था में सहायता करने के लिए नामधारी सिक्खों के प्रसिद्ध गुरुद्वारा लुधियाना के भैणी साहब जाने को कहा।

भैणी एक गाँव है जो लुधियाना रेलवे स्टेशन से काफी दूर है। वहाँ गुरु का लंगर चौबीसों घंटे चलता रहता है। आचार्य जी यहाँ आकर अपना काम अभी शुरु भी न कर पाए थे कि 1942 का स्वतंत्रता आन्दोलन शुरु हो गया। अखबारों में गरम-गरम खबरें आने लगीं। आचार्य जी का मन इस आन्दोलन में कूद पड़ने के लिए मचलने लगा। गुरु जी ने (आचार्य जी ने नाम नहीं दिया है) कहा, पहले यह देखा जाय कि आगे क्या होता है, फिर तय किया जाएगा। लेकिन 11 और 12 अगस्त तक पूरे देश से गरम खबरे आने लगी थीं। अतएव तय किया गया कि सम्मेलन को एक पत्र लिखकर अधिवेशन का आयोजन स्थगित करने की सलाह दी जाए। क्योंकि ऐसे समय में अधिवेशन का उद्देश्य पूरा नही होगा। चिट्ठी लिखकर आचार्य जी ने गुरु जी से हस्ताक्षर कराए। उसे पोस्ट करने का दायित्व गुरु जी पर छोड़कर शाम की गाड़ी से हरिद्वार के लिए निकल पड़े।

प्रातःकाल 14 अगस्त को हरिद्वार पहुँचे। दस बजते-बजते हरिद्वार भड़क उठा था। हरिद्वार के अतिरिक्त कनखल और ज्वालापुर की स्थिति भी वैसी ही थी। डाकखाने जला दिए गए थे। आचार्य जी भी गिरफ्तार किए गए। इसका विवरण थोड़ा विस्तार से अगले अंक मे लिखा जाएगा। इस अंक में बस इतना ही।

बुधवार, 16 नवंबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेई


अंक-9

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेई

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के दस्तावेजों के कारण आचार्य किशोरीदास वाजपेयी और नागरी प्रचारिणी सभा काशी के बीच हुई उठा-पटक पर चर्चा हुई थी। इस अंक में हिन्दी और हिन्दुस्तानी भाषाओं की सियासत और एक-दो और बातों पर चर्चा की जाएगी।

आचार्य वाजपेयी जी लिखते हैं कि 1930-34 के राष्ट्रीय आन्दोलन के बाद महात्मा गाँधी हिन्दुस्तानी भाषा के समर्थन में आगे बढ़ने लगे। इसके प्रमुख कर्ताधर्ता काका कालेलकर जी थे। हिन्दुस्तानी का स्वरूप बताते हुए वे लिखते हैं कि यह उर्दू य़ा संस्कृत के प्रभाव से रहित एक तरह की सरल हिन्दी भाषा है, जिसमें फ़ारसी आदि के ऐसे शब्द प्रयोग किए जाते थे, जिन्हें हिन्दी ने ग्रहण नहीं किया था। साथ ही देवनागरी और अरबी दोनों लिपियों को राष्ट्रीय लिपि का स्थान दिया जा रहा था। गाँधी जी के समर्थन के कारण हिन्दुस्तानी भाषा की चर्चा अधिक थी। जैनेन्द्र कुमार जैसे लोग, जिनकी पुस्तकों की भाषा काफी संस्कृतनिष्ठ थी, हिन्दुस्तानी के पक्षधर हो गए थे। कुल मिलाकर यह स्थिति हो गयी थी कि जिन्होंने जीवन भर हिन्दी की सेवा करने का व्रत लिया था, वे भी हिन्दुस्तानी पर जोर देने लग गए थे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन को लोगों ने साम्प्रदायिक की संज्ञा दे दी थी। प्रयाग विश्वविद्यालय के प्रमुख प्राध्यापक डॉ. ताराचन्द प्रतिदिन उर्दू और अंग्रेजी समाचार पत्रों में नियमित रूप से हिन्दुस्तानी के समर्थन में लेख लिख रहे थे।

अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर हिन्दी का जोरदार पक्ष लेनेवालों में राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिमालय की तरह खड़े रहे और डॉ. सम्पूर्णानन्द जी ने तो अपने मंत्री पद की भी चिन्ता न की। श्री कन्हैयालाल माणिक मुंशी जी भी दिल खोलकर हिन्दी के पक्ष में उतर पड़े थे। इधर प्रयाग विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर डॉ. अमरनाथ झा भी हिन्दी के पक्ष में लगातार लेख प्रकाशित करवाने लगे। ये हिन्दुस्तानी के पक्ष में डॉ. ताराचन्द के नहले पर दहला सिद्ध हुए। इससे एक लाभ यह हुआ कि विश्वविद्यालयों की बिगड़ती दशा में सुधार होने लगा।

विद्वानों का एक दल ऐसा भी था, जो बिलकुल मौन रहा। इनमें प्रमुख थे प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, संस्कृत विभागाध्यक्ष और हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के प्रमुख कार्यकर्ता डॉ. बाबूराम सक्सेना आदि। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हिन्दी के पक्षधर होते हुए भी महात्मा गाँधी के प्रभाव के कारण हिन्दुस्तानी का समर्थन कर रहे थे। वैसे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रह चुके थे। लेकिन इस हिन्दुस्तानी के चलते चुनाव में आचार्य वाजपेजी एवं अन्य सदस्यों ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के प्रति सम्मान होते हुए भी उनके विरुद्ध अपना मत देकर डॉ. अमरनाथ झा को विजयी बनाया। आचार्य वाजपेयी जी ने इसे हिन्दुस्तानी पर हिन्दी की विजय की संज्ञा दी है।

इसके बाद अहोबर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन डॉ. अमरनाथ झा के सभापतित्व में बड़े धूमधाम से आयोजित किया गया। इसमें बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भाग लीं। काका कालेलकर जी भी थे। लेकिन खुश नहीं थे। यह हिन्दी की विजय थी। अधिवेशन में उनके भाषण से एक बात तय सी लगी कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन में अभी एक और टक्कर होगी। इन दो के अलावा इस प्रकार की एक और संस्था थी अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू। आचार्य वाजपेयी लिखते हैं कि हिन्दुस्तानी के पक्षधरों को इसके साथ मिलकर काम करना चाहिए था या उन्हें स्वयं एक हिन्दुस्तानी मंच बना लेना चाहिए था। क्योंकि सम्मेलन में यह रोज-रोज की झंझट ठीक नहीं थी।

इसी उधेड़-बुन में आचार्य जी घर लौटे और उनके मन में एक कुराफात सूझी। उन्होंने एक समाचार बनाकर छपवा दिया कि हिन्दुस्तानी-प्रचार सभा की स्थापना, वर्धा की एक चिट्ठी - वर्धा के एक मित्र ने चिट्ठी लिखकर सूचना दी है कि काका कालेलकर आदि राष्ट्रवादी विद्वान हिन्दुस्तानी का प्रचार-प्रसार के लिए शीघ्र ही एक अखिल भारतीय स्तर की हिन्दुस्तानी प्रचार सभा नाम की संस्था बनानेवाले हैं, जो हिन्दी साहित्य सम्मेलन और अंजुमन दोनों को भविष्य में आत्मसात कर लेगी।

इस समाचार को हिन्दुस्तानी के समर्थकों ने पता नहीं पढ़ा या नहीं, या हो सकता है कि उन लोगों के मन में भी इस प्रकार दंद्व चल रहा हो, कुछ दिनों बाद यह समाचार छपा कि वर्धा में हिन्दुस्तानी-प्रचार सभा की स्थापना की जा चुकी है। इस समाचार से आचार्य वाजपेयी जी बड़े प्रसन्न हुए कि कम से कम हिन्दी साहित्य सम्मेलन इस झमेले से बच गया।

आचार्य जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन और कांग्रेस की गुटबन्दी से काफी दुखी रहा करते थे। वे लिखते हैं- सम्मेलन में सदा ही गुटबन्दी रही है और कांग्रेस में तो गुटबन्दी ने घृणित-से-घृणित रूप समय-समय पर प्रकट किया है; परन्तु यह सब गन्दगी नाक दबाए सहता रहा, वहाँ काम करता रहा। राष्ट्रभाषा और राष्ट्र-स्वातंत्र्य के लिए खुल कर सबसे आगे काम करनेवाली संस्थाएं इनके अतिरिक्त और थीं ही नहीं कि चला जाता! परन्तु स्वराज्य मिलते ही कांग्रेस को और हिन्दी राष्ट्रभाषा बनते ही सम्मेलन को नमस्कार कर लिया।

आचार्य वाजपेयी ने अपने जीवन के इस द्वितीय उन्मेष की एक और महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि दिल्ली से निकलनेवाले हिन्दुस्तान समाचार पत्र ने अपने सम्पादकीय में देशद्रोही सुभाष !’ (आचार्य जी ने ऐसा ही लिखा है) शीर्षक से नेताजी सुभास चन्द्र बोस को देशद्रोही करार दिया था। इसे पढ़कर आचार्य जी के तन-मन में आग लग गई और उन्होंने इस पत्र की पाँच प्रतियाँ खरीदकर जला डालीं और पैर से कुचलकर उसपर थूक दिया। यह वह समय था जब नेताजी ने कांग्रेस से अलग होकर फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की थी। इसको लेकर कांग्रेस में उनका काफी अपमान किया गया। आचार्य जी पुनः लिखते हैं कि इसके पहले भी यह संगठन लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय आदि की उपेक्षा और दुर्दशा कर चुका था।

इसके बाद आचार्य जी ने स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति-श्री सुभाष चन्द्र बोस तथा कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास नामक दो पुस्तकें लिखीं। अपने जीवन के द्वितीय उन्मेष को आचार्य जी ने यहीं विराम दिया है।

इस अंक में बस इतना ही।

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बुधवार, 2 नवंबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक-7

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


आचार्य परशुराम राय

इस अंक में कुछ हिन्दी के धुरंधर विद्वानों से आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जी की मुलाकात और उनके विचारों पर चर्चा की जाएगी। हिन्दी के महारथियों की मुलाकात की शृंखला में आचार्य जी ने सर्वप्रथम बाबू श्यामसुन्दर दास जी के नाम का उल्लेख किया है। 1931 में जब वे कांग्रेस के आन्दोलन में सक्रिय थे, एक दिन उनकी मुलाकात बाबू हरिहर नाथ टंडन से हुई और उनसे पता चला कि बाबू श्यामसुन्दर दास जी उनके यहाँ ठहरे हुए हैं। कभी पहले आचार्य जी ने बाबू श्यामसुन्दर दास जी की पुस्तक साहित्यालोचन में वर्णित कलाओं के वर्गीकरण पर तीखा प्रहार किया था। टंडन जी के अनुरोध पर आचार्य जी बाबू जी से मिलने चल तो दिए, पर मानसिक उथल-पुथल के बीच कि कहीं उनके लेख को पढ़कर वे नाराज होंगे, पता नहीं उनका व्यवहार कैसा होगा आदि-आदि। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। टंडन जी बाबू जी से उनका परिचय कराकर उनकी सेवा-सुश्रुषा में लग गए और आचार्य जी एक कुर्सी पर बैठ गए। कुछ देर बैठे रहने के बाद भी जब बाबू जी ने चर्चा के लिए कोई पहल नहीं की, तो आचार्य जी उठे और प्रणाम कर चलते बने, मन में यह सन्तोष लिए कि चलो हिन्दी के एक बड़े विद्वान के दर्शन तो हो गए।

आचार्य जी ने अगले विद्वान की मुलाकाती के रूप में बाबू जगन्नाथ प्रसाद भानु का उल्लेख किया है। ये मध्यप्रदेश सरकार की सेवा में थे और सहायक सेटलमेंट कमिश्नर पद से सेवानिवृत्त हुए। भानु जी हिन्दी में छन्दशास्त्र पर छन्द प्रभाकर और अलंकार शास्त्र पर काव्य प्रभाकर जैसे ग्रंथ लिखकर काफी ठोस काम कर चुके थे। सेठ कन्हैयालाल पोद्दार ने काव्य प्रभाकर की काफी तीखी आलोचना की थी, जो भानु जी को बिलकुल अच्छी नहीं लगी थी। लेकिन छन्द प्रभाकर के विषय में आचार्य जी लिखते हैं इस विषय पर यह अनन्तिम ग्रंथ है। ये राष्ट्रवादी विचार-धारा के पोषक थे। जब लोग हिन्दी की चर्चा करना पसन्द नहीं करते थे, उस समय रायबहादुर पं. श्याम बिहारी मिश्र, रायबहादुर पं. शुकदेव बिहारी मिश्र और रायबहादुर बाबू जगन्नाथ प्रसाद भानु जैसे लोगों ने सरकारी नौकरी में रहते हुए भी हिन्दी की सेवा की और हिन्दी के प्रति लोगों को आकर्षित किया। यह देखकर लगता है कि देश की स्वतंत्रता के लिए जितने बड़े आन्दोलन और संघर्ष किए गए, हिन्दी के उत्थान के लिए भी विद्वानों ने उससे कम संघर्ष नहीं किए। आचार्य जी ने भानु जी की महानता और हिन्दी सेवा की काफी प्रशंसा की है।

आचार्य जी की पत्नी अपने पिता पं. कन्हैयालाल मिश्र के पास बिलासपुर में थीं और आचार्य जी उन्हें लिवाने गये थे। अचानक उन्हें पता चला कि भानु जी वहीं रहते हैं, तो मिलने का मन बनाया और पता आदि की जानकारी करके मिलने चल दिए। भानु भवन पहुचने पर परिचय आदि की औपचारिकता के बाद काफी उदारता पूर्वक उन्होंने आचार्य जी का स्वागत-सत्कार किया। फिर थोड़ी देर तक उनके ग्रंथ काव्य प्रभाकर और सेठ कन्हैयालाल पोद्दार द्वारा की गयी उसकी आलोचना पर चर्चा हुई। भानु जी ने सेठ जी पर व्यंग्य करते हुए उन्हें ब्राह्मण-सेवी बनकर अपना काम सिद्ध करनेवाला कहा। आचार्य जी ने इसका तात्पर्य समझा कि शायद सेठ जी को इस विषय की जानकारी होगी और विद्वानों की सेवा करके कुछ लिखते-लिखाते होंगे। अतएव उन्होंने तत्कालीन अलंकार ग्रंथों की आलोचना करते हुए एक लम्बा लेख लिखा जिसमें सेठ जी द्वारा लिखी पुस्तक काव्य-कल्पद्रुम भी थी। वैसे आचार्य जी लिखते हैं कि अन्य पुस्तकों पर काव्य-कल्पद्रुम की श्रेष्ठता को स्वीकार करना पड़ा था। यह लेख माधुरी में छपा था, जिसका उत्तर भी सेठ जी ने इसी पत्रिका में प्रकाशित कराया। बाद में सेठ जी से मिलने के बाद आचार्य जी को उनके प्रति बनाई अपनी धारणा पर काफी पश्चाताप हुआ।

काव्य-कल्पद्रुम का जब अगला संस्करण छपने को आया तो उसे दोषरहित बनाने के लिए सेठ जी ने आचार्य जी को सादर आमंत्रित किया। सेठ जी मथुरा में रहते थे। आचार्य जी उनके निमंत्रण को स्वीकार करके उनके अतिथि बने और करीब 15 दिनों तक वहाँ ठहरे। इस बीच काव्य-कल्पद्रुम के विभिन्न स्थलों पर आचार्य जी ने सुझाव दिए। पर सेठ जी उनके सुझावों को इतनी आसानी से स्वीकार नहीं कर लेते थे। उस पर बड़ी ही सूक्ष्मता से तर्क-वितर्क, आलोचना-प्रत्यालोचना, विभिन्न ग्रंथों का अवलोकन-विलोकन करने के बाद पूरी तरह सन्तुष्ट होने पर ही वे मानते थे। तब आचार्य जी को पता चला कि काव्यशास्त्र पर सेठ जी की कितनी गहरी पकड़ थी और उनके पास ग्रंथों का अच्छा संकलन था। काम पूरा होने के बाद सेठ जी ने पूछा कि आप अपने लेख में लिखी बातों से आज भी सहमत हैं। आचार्य जी ने कहा नहीं। पुनः उन्होंने पूछा क्या वे अपने इस नये अनुभव को प्रकाशित करेंगे। आचार्य जी ने हामी भरी। इस यात्रा के वृतांत पर उन्होंने एक लेख लिखा और इसमें अपनी पुरानी भूल को स्वीकार भी किया।

आचार्य जी मथुरा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के गाँव दौलत पुर से गए थे। आचार्य जी लिखते हैं श्रद्धेय द्विवेदी जी ने उन्हें एक चिट्ठी लिखकर उनके कामों की प्रशंसा करते हुए प्रोत्साहित किया था। उनमें नीचे गिरे लोगों को ऊपर उठाने की प्रवृत्ति थी। आचार्य जी उन्हें परम आदरणीय मानते थे। उनके गाँव की कई बार यात्राएँ कीं, उनके साथ रहे और घूमे-फिरे। उनके व्यक्तित्व तथा वात्सल्य से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने आगे चलकर आचार्य द्विवेदी की जीवनी आचार्य द्विवेदी और उनके संगी साथी नाम से लिखी। अपने अंतिम दिनों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपनी समस्त संचित साहित्यिक सामग्री- पुस्तकें, पत्राचार एवं अन्य दस्तावेज तथा संशोधन की हुई पांडुलिपियाँ नागरी प्रचारिणी सभा काशी को पैकेट बनाकर दान कर दी इस निर्देश के साथ कि वे पैकेट उनकी मृत्यु के बाद ही खोले जाएँ। रिसर्च करनेवाले छात्रों के लिए वे दस्तावेज बड़े ही उपयोगी हो सकते हैं।

कुछ समय बाद उन दस्तावेजों का कुछ अता-पता ही साफ हो गया जिन्हें पुनः प्रकाश में लाने के लिए आचार्य जी ने नागरी प्रचारिणी सभा काशी के पदाधिकारियों के नाम लीगल नोटिस तक दे डाली थी। वे लिखते हैं यह उनका गुरु-ऋण था जिसे वे चुकाना चाहते थे और अपने अथक प्रयासों से वे उसमें सफल हुए।

इस अंक में बस इतना ही।

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बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई

अंक-6

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपे

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में हमने देखा कि किस प्रकार आचार्य ने किस प्रकार नागा साधुओं के विरूद्ध आन्दोलन शुरू किया और बाद में किन परिस्थितियों में उन्हें उसे वापस लेना पड़ा। मेला निर्विघ्न समाप्त हो गया।

उन दिनों हरिद्वार म्यूनिसिपलिटी बोर्ड के चेयरमैन सरकारी अधिकारी होते थे। लेकिन तत्कालीन कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया कि इस बोर्ड का चेयरमैन गैर सरकारी हो और हरिद्वार के तीर्थ पुरोहित सरदार पं0 राम रक्खा शर्मा बोर्ड के चेयरमैन निर्वाचित हुए। शर्मा जी ने घूसखोरी आदि बुराइयों को हटाने के लिए पदभार ग्रहण करते ही एक परिपत्र छपवाकर वितरित करवा दिया।

आचार्य जी ने भी देखा कि इन बुराइयों को दूर करने का यह अच्छा अवसर है। अतएव इन्होंने एक छोटे से स्थानीय साप्ताहिक पत्र क्रांति का प्रकाशन शुरू किया। ये स्वयं बोर्ड के हाईस्कूल के अध्यापक थे, अतएव सम्पादक पं0 कल्याणदत्त शर्मा को बनाकर सारा काम स्वयं किया करते थे। क्रांति से घूसखोर अधिकारियों और सदस्यों में तिलमिलाहट शुरू हो गयी। चेयरमैन साहब ने आचार्य जी को बुलाकर समझाया, तब तक बहुत कुछ हो चुका था। इसके परिणामस्वरूप आचार्य जी को अवज्ञा के आरोप में अपनी नौकरी गँवानी पड़ी। अपने निष्कासन के विरुद्ध इन्होंने अपील की, जो नियमानुसार अग्रसारित कर दी गई।

इसी संदर्भ में आचार्य जी स्वायत्तशासन की तत्कालीन मंत्री सुश्री विजयलक्ष्मी पंडित से मिले। दोनों के बीच हुई बातचीत को आचार्य जी की भाषा में उनके ग्रंथ साहित्यिक जीवन के अनुभव और संस्मरण से साभार यहाँ यथावत दिया जा रहा है -

''कहिए, क्या बात है?''

''मैं हरिद्वार म्यूनि. बोर्ड के हाई स्कूल में अध्यापक था। बोर्ड में साधुओं का तथा तीर्थ पुरोहितों का जोर है। मैंने कुछ समाज-सुधार के काम नहीं किए; इससे वे लोग नाराज हो गए और मुझे नौकरी से अलग कर दिया।''

-- ''तो आप समाज-सुधार के काम करते हैं, या बच्चों को पढ़ाते हैं?''

''बच्चों को तो पढ़ाता ही हूँ और इस काम में 99% सफलता परीक्षा-परिणाम बता देते हैं; पर अपने बचे हुए समय का उपयोग टयूशन आदि में न करके कुछ समाज सुधार के कामों में लगाता हूँ।''

''आप समाज-सुधार के काम करते ही क्यों हैं? किस ने कहा है?''

''आप ही लोग वैसा कहते हैं कि अध्यापकों को समाज सुधार के कामों में मदद करनी चाहिए।

'' मैंने कब वैसा कहा है?''

''आप ने तो नहीं, पर पं. जवाहर लाल नेहरू ने तो सैकड़ों बार वैसा कहा है।''

'' तो फिर उन्हीं के पास जाइए।''

'' उनके ही पास पहुँचता, यदि वे प्रान्त के स्वायत्त-शासन-मंत्री होते।''

'' अच्छा, तो कहिए, क्या काम आपने समाज-सुधार के किए?''

'' हरिजन-अभ्युत्थान आदि के काम करता रहता हूँ और सबसे बड़ा काम पिछले हरिद्वार-कुम्भ मेले पर नागा साधुओं के बारे में आन्दोलन किया वे एकदम दिगम्बर होकर निकला करें, कम-से-कम एक लंगोटी तो जरूर लगाए रहा करें।''

'' ऐसा आपने क्या समझ कर किया?''

''यह समझ कर कि हमारी नागरिक व्यवस्था के विपरीत वैसा प्रदर्शन पड़ता है और लोग उसे अच्छा नहीं समझते हैं।''

''आप ने यह कैसे समझा कि नागा साधुओं के उस प्रदर्शन को लोग अच्छा नहीं समझते?''

आचार्य जी लिखते हैं कि पं.नेहरू की बहिन के मुख से इस तरह की बातें सुनकर मैं जल-भुन गया और आँखें नीची कर अत्यन्त गम्भीरता से निवेदन किया -

'' मैंने पुरुष-वर्ग के तो सहस्त्रों व्यक्तियों से चर्चा की, सबने इससे असन्तोष प्रकट किया। टण्डन जी ने तथा नेहरू जी ने भी वैसा ही कहा; परन्तु मैंने स्त्रियों से नहीं पूछा कि वे उसे कैसा समझती हैं! हाँ, मेरी स्त्री तो वैसे प्रदर्शन को ठीक नहीं समझती है।''

यह सुनते ही श्रीमती पण्डित का गौरवपूर्ण बदन क्रोध से एकदम लाल हो गया और बोलीं-

'' आपसे मेरी कतई सहानुभूति नहीं है और आपको हर्गिज बहाल न किया जाएगा।''

इसके बाद आचार्य जी नमस्ते बोलकर चल दिए और सीधे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन के घर पहुँचे, उनसे पूरी बातें बताईँ। टंडन जी उन दिनों अस्वस्थ थे और जलवायु परिवर्तन कर पुरी से लौटे थे। फिर भी उन्होंने अपने सेक्रेटरी से पार्लियामेन्टरी सचिव श्री खेर को तुरन्त फोन लगाने के लिए कहा। फोन पर अन्य बातें करने के बाद उन्होंने पूछा कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कोई केस आया है। उन्होंने आचार्य जी और मंत्री महोदया के बीच हुई सारी बातों का ब्यौरा दिया और बताया कि चेयरमैन, कमिश्नर और गवर्नमेंट सेक्रेटरी ने भी बुरा ही लिखा है। टंडन जी ने उनसे कहा कि हो सकता है विजयलक्ष्मी जी ने यह सब हँसी में कहा हो और वाजपेयी जी संस्कृत के पंडित होने के कारण समझ न सके हों। अतएव इस मामले की विधिवत जाँच की जाए, क्योंकि यह राष्ट्रीयता का सवाल है। इतनी बात करके टंडन जी ने आचार्य वाजपेयी से कहा कि वे इधर-उधर न भटकें और सीधे हरिद्वार चले जाएँ।

आचार्य जी जबतक हरिद्वार पहुँचे तबतक हाई कमान का आदेश आ गया कि आवश्यक काम निपटाकर कांग्रेसी मंत्रिमंडलों को अपने त्यागपत्र सौंप दें। जरूरी कामों में आचार्य जी के केस का भी निपटारा हुआ और निर्णय उनके पक्ष में गया। परिणामस्वरूप उन्होंने फिर अपना कार्यभार सँभाला। साथ ही उन्हे दस महीने का वेतन भी मिला। क्योंकि अपील का निपटारा होते-होते दस महीने लग गये थे।

अब आचार्य जी को काफी धन मिल गया था। अतएव उन्होंने नीलामी में एक छोटा प्रेस खरीदा। इसमें उन्हें डेढ़ सौ रुपये ऋण भी लेने पड़े। प्रेस की मालकिन अपनी पत्नी को बनाया। हालाँकि प्रेस चलाने के अनुभव के अभाव में आचार्य जी उसे बहुत दिनों तक अपने पास न रख सके। प्रेस के कामों की जानकारी का अभाव, कर्मचारियों एवं काम की देखरेख न होने से घाटे तथा अंग्रेजी सरकार से तंग आकर उन्होंने उसे बेच दिया। वे लिखते हैं कि अनुभव न हो तो प्रेस प्रेत बनकर खाने लगता है। इसमें इनके मैनेजर पं. कल्याणदत्त शर्मा ने इन्हें धोखा दिया। इसी बीच आचार्य जी को नौकरी से फिर हाथ धोना पड़ा। प्रेस बेचने से जो कुछ मिला उसी से दाल-रोटी चलती रही।

इस बीच आचार्य जी ने अपने प्रेस में अपनी दो पुस्तकें - द्वापर की क्रांति (नाटक) और लेखन-कला छापीं। वैसे द्वापर की क्रांति गंगा पुस्तक माला से सुदामा नाम से पहले ही छप चुकी थी। जिसके विषय में डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने पुस्तक-साहित्य नामक विवरण में लिखा कि द्वारकावासी कृष्ण को लेकर केवल एक कलात्मक रचना इस काल में मिलती है, वह है पं. किशोरीदास वाजपेयी कृत सुदामालेखन-कला हिन्दी परिष्कार पर लिखी पहली पुस्तक है, जिससे प्रेरित होकर डॉ. रामचन्द्र वर्मा ने अच्छी हिन्दी नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। आचार्य जी ने पुनः अपनी पुस्तक लेखन-कला में संशोधन कर अच्छी हिन्दी का नमूना लिखी।

इस अंक में बस इतना ही।

सभी पाठकों और टीम के सभी सदस्यों को दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

मशीन अनुवाद का विस्तार - 5

मशीन अनुवाद का विस्तार – 5

श्रीमती रेखा श्रीवास्तव

मशीन अनुवाद की दृष्टि से हमारे अनुवाद के क्षेत्र का इतना विस्तृत दायरा है कि उसके अनुरुप इसको सक्षम बनाने  का कार्य सतत ही चलता रहेगा। हमारे दैनिक जीवन में और तमाम विषयों के अनुसार नए नए शब्दों का निर्माण होता रहता है और हम रोजमर्रा के जीवन में उनके लिए कुछ और ही प्रयोग करते हैं। आज हम संज्ञा रूपों के बारे में चर्चा करेंगे। एक संज्ञा और अनेक संज्ञाओं के संयोजन से बने शब्दों का अपना कुछ अलग ही प्रयोग होता है। संज्ञा रूप भी कई तरीके से बन जाते हैं। उनको हम सहज ही प्रयोग करें  तो उनके उस रूप को नहीं पाते हैं जिन्हें हम पत्रकारिता या फिर हिंदी के लिए उचित मानते हैं। अगर हम दो शब्दों के संज्ञा रूप की बात करें तो इनमें एक विशेषण और एक संज्ञा का मेल भी संभव है और कई बार उसकी जरूरत ही नहीं पड़ती कि हम उसको संज्ञा रूप बनायें।

अगर हम अंग्रेजी में "working " को लें तो ये क्रिया का एक रूप है और एक विशेषण भी है। इस विशेषण का प्रयोग अलग अलग संज्ञा के साथ अलग अलग भी हो सकता है।  उस स्थिति में हम या तो मशीन को सारे संयुक्त शब्दों को शब्दकोष में शामिल करके उसके खोजने के कार्य को और अधिक लम्बा कर दें या फिर उसको इस तरह  से प्रस्तुत करें कि मशीन अपने कार्य को कम समय में और सही रूप में प्रस्तुत कर सके।

उदाहरण के लिए:

working women       कामकाजी महिला

working  hours         कार्यकारी घंटे

working condition कार्य की शर्तें / चालू हालत

                प्रथम संज्ञा रूप में हम कामकाजी के सन्दर्भ में बात कर रहे हैं। दूसरे रूप में  इसका अर्थ कार्यकारी घंटे और तीसरे में हम इसको सन्दर्भ के अनुसार ही अर्थ को ले पायेंगे यानि कि अगर हम किसी मशीन के लिए बात कर रहे हैं तो working condition का अर्थ "चालू हालत" होगा और अगर किसी नौकरी या कार्य के बारे में इसको देख रहे हैं तो इसका अर्थ " कार्य की शर्तें "होगा।

कहीं हम संज्ञा समूह के अनुसार ही निर्देश देते हैं की किस श्रेणी के संज्ञा शब्द  के साथ विशेषण का कौन सा अर्थ लेना है। इसके लिए मैं पहले भी बता चुकी हूँ कि संज्ञा शब्दों को हमने विभिन्न श्रेणियों  में बाँट कर मशीन के काम को सहज बनाने का प्रयास किया है. जिससे हमें अनुवाद के बाद कम से कम संपादन के कार्य का सहारा लेना पड़े।

इसके लिए हम मशीन को working के लिए एक विशेषण के रूप में परिचय कराते  हैं और ये निर्देश भी देते हैं कि इसके बाद आने वाली संज्ञा  की श्रेणी के अनुरुप उसको विशेषण का अमुक अर्थ लेना है. और मशीन पूरी समझदारी से वही कार्य करती है. तब हमको इस तरह से शब्दों को शब्द समूह के रूप में नहीं देने होते हैं. साथ ही ये भी निर्देश होता है कि अगर इस शब्द के आगे संज्ञा है तभी इसको विशेषण बनाया जाय अन्यथा इसके क्रिया रूप में प्रयोग किया जाएगा. इसके लिए हम शब्दकोष में  कामकाजी/कार्यकारी/चालू  तीनों ही रूपों में देते हैं जिसे वह अपने निर्देशों के अनुसार ही ग्रहण करके प्रस्तुत करती है.

विभिन्न सन्दर्भ में हम कुछ संज्ञा रूपों  को एक पूरे पूरे शब्दों के समूह के रूप में भी देते हैं. और उनके अर्थ विशिष्ट भी होते हैं.

जैसे  कि : Commonwealth   Games अगर हम इसको विशिष्ट संज्ञा समूह का रूप नहीं देंगे तो इसका अर्थ मशीन अपने अनुसार या फिर हमारे शब्दकोष के अनुसार "सामान्य संपत्ति खेल " ले लेगी और इसी लिए इसके लिए हमें "राष्ट्र मंडल खेल" अर्थ देकर संचित करना होता है.

                    इसका एक और पक्ष अंग्रेजी में हम सभी के लिए अगर वह एकवचन है तो "इस" ही प्रयोग करते हैं और उसका अर्थ भी "है" ही होता है.

President is coming next week .  इसका सामान्य अनुवाद "राष्ट्रपति अगले सप्ताह आ रहा है." ही होगा क्योंकि अंग्रेजी में एकवचन के लिए "is " का ही प्रयोग होता है और उसका अनुवाद "है" ही होता है. लेकिन हमारी मशीन इस तरह के जो संज्ञा या संबोधन सम्माननीय  रूप में लिए जाते हैं  उनके लिए उनके अनुरुप ही शब्दों का चयन करती है क्योंकि  उसके लिए हम आम भाषा में "है" नहीं बल्कि "हैं" का प्रयोग करते हैं. यही बात यहाँ राष्ट्रपति पर भी लागू होती है. अंग्रेजी में "हैं" के लिए "are " का प्रयोग  होता है और इसके लिए उस संज्ञा का बहुवचन होना चाहिए. हमारा मशीन अनुवाद इस बात को अच्छी तरह से वाकिफ होता है कि हमें किन स्थितियों में "is " होने के बाद भी " हैं" का प्रयोग करना है और संज्ञा की श्रेणी के अनुसार ही उचित अनुवाद प्राप्त करना है. इसके अंतर्गत सभी सम्माननीय  शब्दों को लिया गया है जैसे कि माता-पिता, शिक्षक , प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री आदि आदि जिनके साथ हम सम्माननीय  के भाव से "हैं" का प्रयोग करते हैं.

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

मशीन अनुवाद का विस्तार

मशीन अनुवाद का विस्तार

श्रीमती रेखा श्रीवास्तव

             मशीन अनुवाद की प्रक्रिया जटिल ज़रूर है लेकिन उपयोग करने वाले के लिए बहुत ही सहज है. अगर हम आलोचना करने पर उतार आयें तो फिर हर चीज़ कि आलोचना की जा सकती है क्योंकि पूर्ण तो एक मनुष्य भी नहीं होता है फिर मशीन कि क्या बात करें? ये  मनुष्य  ही है जो अपने कार्य को त्वरित करने के लिए मशीन को इनता अधिक सक्षम बना रहा है. आज मैं इसके द्वारा किये जाने वाले और भी पक्ष को प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही हूँ.

                       साधारण क्रिया को भी अगर हम लें तो हमें एक अंग्रेजी क्रिया के लिए हिंदी में कई क्रियाएं मिल  जाती  हैं   और फिर मशीन के लिए यह आवश्यक   हो  जाता  है कि  उसको  कैसे  अनुवाद करे ?

इसके लिए हम "boil " क्रिया को ले  सकते  हैं . अंग्रेजी की इस  क्रिया का  हिंदी में " उबल  " और "उबाल " दोनों  ही अर्थ  होते  हैं . जिसमें  से " उबल"  अकर्मक  क्रिया है और "उबाल"  सकर्मक . आम  अनुमान  के हिसाब  से  तो मशीन को इसके लिए कोई  भी अंतर  नहीं करना  चाहिए  क्योंकि वह  इस  बात को समझ  ही नहीं सकती  है और अगर हम उसको  अनुवाद के लिए निम्न  वाक्य  देते  हैं  --

*milk is boiling.                    दूध उबल  रहा है.

*Ram is boiling the water.     राम पानी उबाल रहा है.

                      तब  उनका  अनुवाद सही  ही आएगा  क्योंकि मशीन इस  बात  से  वाकिफ है कि उसको  किस  के लिए क्या अनुवाद लाना  है?

इसको और अधिक स्पष्ट   करने के उद्देश्य  से  हम क्रिया रूप  को भी ले  सकते   हैं  जिसके  दो  और उससे  भी अधिक अर्थ  हो  सकते  हैं  और वे  आपस  में किसी  भी तरह  से  मिलते  भी नहीं हैं .

"put on " इस क्रिया रूप  के कई अर्थ  हिंदी में होते  हैं  .

1. रखना.                Put this book on the table.    यह  किताब  मेज  पर  रखिये .

2 पहनना He put on the blue shirt.  वह  नीली  शर्ट  पहनता  है / उसने  नीली  शर्ट  पहनी .

3. लगाना.   She put the cream on her face. वह  चेहरे  पर  क्रीम  लगाती  है / उसने  चेहरे  पर  क्रीम  लगाईं .

4. चालू करना         Put on the TV.                 टीवी  चालू  करिए .

5. जलाना              Put on the tubelight.         ट्यूबलाईट  जलाइए .

इसमें हम विभिन्न वाक्यों के अनुवाद को अगर देखते हैं तो एक ही क्रिया  रूप उसको किस तरह से विभिन्न अर्थों को लेकर अनुवाद दे रहा है. अगर हम इसके लिए एक वाक्य देते हैं और उसके दो अनुवाद हमें मिल रहे हैं जैसे कि वाक्य संख्या २ एवं ३ में. इसके लिए कहना  है कि इस अंग्रेजी क्रिया के रूप काल के अनुसार बदलते नहीं है बल्कि एक ही रहते हैं तो इसके दोनों ही अनुवाद आवश्यक हैं. मशीन को किन वाक्यों में कौन सा अर्थ लेना है -- इसके लिए क्रिया में प्रयोग हो रहे संज्ञा को भी श्रेणीबद्ध करके रखा जाता है कि उसको किस क्रिया के साथ कौन सी श्रेणी कि संज्ञा मिलती है तो उसको उससे सम्बंधित अर्थ उठा कर ही अनुवाद प्रस्तुत करना है. अगर TV या रेडियो है तो उसको वह चालू करना ही लाएगा और अगर ये बल्ब या ट्यूब लाईट  है तो उसको जलाना ही लाएगा. ये मशीन अनुवाद की बारीकियां समझाने के लिए उसके आतंरिक क्रिया कलाप को समझना भी अत्यंत आवश्यक है. इस पर हम चर्चा अगले अंकों में करेंगे।

सोमवार, 2 अगस्त 2010

काव्यशास्त्र-26 :: आचार्य कवि कर्णपूर (आचार्य परमानन्द दास), आचार्य कविचन्द्र और आचार्य अप्पय्यदीक्षित

 

 

काव्यशास्त्र-26 :: आचार्य कवि कर्णपूर (आचार्य परमानन्द दास), आचार्य कविचन्द्र और आचार्य अप्पय्यदीक्षित

आचार्य परशुराम राय

आचार्य कवि कर्णपूर

आचार्य कवि कर्णपूर का जन्म 1524 ई0 में बंगाल के नदिया जनपद में हुआ था। इनके पिता शिवानन्द चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। वास्तव में आचार्य कवि कर्णपूर का नाम परमानन्ददास था, लेकिन काव्य जगत में उनकी प्रसिद्धि कवि कर्णपूर के नाम से है। चैतन्य महाप्रभु के जीवन पर इन्होंने 'चैतन्यचन्द्रोदय' नामक एक नाटक का प्रणयन किया है। इनका दूसरा ग्रंथ 'अलंकारकौस्तुभ' काव्यशास्त्रपरक रचना है।

'अलंकारकौस्तुभ' दस किरणों (अध्यायों) में विभक्त है और इसके प्रतिपाद्य विषय काव्य लक्षण, शब्दशक्ति, ध्वनि, गुणीभूत-व्यंग्य, रस, भाव, गुण, अलंकार, रीति, दोष आदि हैं।

आचार्य कविचन्द्र

आचार्य कविचन्द्र आचार्य परमानन्ददास के पुत्र थे। इन दोनों ही आचार्यों के जीवनवृत के विषय में बहुत ही कम सामग्री उपलब्ध है। इनका काल सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी है।

आचार्य कविचन्द्र के कुल तीन ग्रंथ हैं:- काव्यचन्द्रिका, सारलहरी और धातु चन्द्रिका। इनमें काव्यशास्त्र प्रतिपादक ग्रंथ 'काव्यचन्द्रिका' है, जो सोलह प्रकाशों में विभक्त है।

आचार्य अप्पय्यदीक्षित

आचार्य अप्पय्यदीक्षित दक्षिण भारत के रहने वाले थे। अपने ग्रंथ 'कुवलयानन्द' में उन्होंने लिखा है:-

अमुं कुवलयानन्दमकरोद्दप्प दीक्षित:।

नियोगाद्वेङ्कटनृपतेर्निरुपाधिकृपानिधे:॥

इसके अनुसार 'कुवलयानन्द' की रचना महाराज वेंकटपति के अनुरोध पर अप्पय्यदीक्षित ने की। दक्षिण भारत में वेंकटपति नाम से दो राजाओं का उल्लेख मिलता है। एक वेंकटपति 1535 ई0 के आसपास विजय नगर राज्य के राजा थे और दूसरे लगभग 1586 से 1613 ई0 के लगभग पेन्नकोण्ड राज्य के राजा थे। कुछ विद्वानों के अनुसार आचार्य अप्पय्यदीक्षित के आश्रयदाता पहले वेंकटपति थे और कुछ के अनुसार दूसरे। इन्हें सर्वतन्त्र स्वतन्त्र विद्वान कहा जाता है। वैसे ये मुख्य रूप से दार्शनिक थे। सुना जाता है कि इन्होंने 104 ग्रंथों की रचना की थी।

आचार्य अप्पय्यदीक्षित की रचनाओं को देखकर बरवस आचार्य अभिनव गुप्त की याद आ जाती है। दोनों ही उच्च कोटि के विद्वान व प्रतिभाशाली, दार्शनिक और शास्त्र प्रणेता थे। दोनों में मुख्य अन्तर जो देखने को मिलता है वह यह कि आचार्य अभिनव गुप्त शैव दर्शन के अनुयायी थे तो आचार्य अप्पय्यदीक्षित वैष्णव दर्शन के। आचार्य अभिनवगुप्त ध्वनिवादी थे, जबकि आचार्य अप्पय्यदीक्षित अलंकारवादी।

आचार्य अप्पय्यदीक्षित के मुख्य ग्रंथों को विषयों की विविधता की दृष्टि से निम्नलिखित श्रेणियों में बाँट सकते हैं:-

(क) अद्वैतवेदान्त सम्बन्धी ग्रंथ

(ख) भक्तिपरक ग्रंथ

(ग) रामानुजमतावलम्बी ग्रंथ

(घ) मध्वसिद्धान्त सम्बन्धी ग्रंथ

(ड.) पूर्वमीमांसा पर आधारित ग्रंथ

(च) काव्यशास्त्र से सम्बन्धित ग्रंथ

काव्यशास्त्र पर इनके तीन ग्रंथ हैं:- वृत्तिवार्तिक, चित्रमीमांसा और कुवलयानन्द। वृत्तिवार्तिक में शब्द शक्तियों का विवेचन किया है। चित्रमीमांसा एक अधूरा ग्रंथ है जिसमें अलंकारों का उल्लेख किया गया है। इसमें अतिश्योक्ति अलंकार तक का वर्णन मिलता है। लगता है कि जानबूझ कर आचार्य द्वारा इसे अधूरा छोड़ दिया गया। क्योंकि वे इसके विषय में स्वयं ही लिखते हैं:-

अप्यर्धचित्रमीमांसा न मुदे कस्य मांसला।

अनूरुरिव द्यर्मोशोरर्धेन्दुरिव धूर्जटे:॥

'कुवलयानन्द' काव्यशास्त्र का इनका मुख्य ग्रंथ है जिसकी रचना आचार्य जयदेव कृत 'चन्द्रलोक' की शैली में की गई है। अर्थात्, आधे श्लोक में अलंकार की परिभाषा और आधे में उदाहरण। वैसे अन्य काव्यों से भी इन्होंने काफी उदाहरण दिए हैं। अन्त में इन्होंने 24 ऐसे अलंकारों का उल्लेख किया है जो चन्द्रलोक में नहीं मिलते।

आचार्य अप्पय्यदीक्षित संस्कृत वाङ्मय के मूर्धन्य विद्वान हैं। दार्शनिक होते हुए भी इन्होंने दर्शनेतर विषयों पर अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है।

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सोमवार, 26 जुलाई 2010

काव्यशास्त्र – 25 :: आचार्य रूपगोस्वामी और आचार्य केशव मिश्र

काव्यशास्त्र – 25

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आचार्य रूपगोस्वामी

और

आचार्य केशव मिश्र

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आचार्य परशुराम राय

आचार्य रूपगोस्वामी

आचार्य रूपगोस्वामी का काल पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्त और सोलहवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य रूपगोस्वामी के एक और भाई थे जिनक नाम सनातन गोस्वामी था। दोनों भाई चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। चैतन्य महाप्रभु की इच्छा के अनुसार दोनों भाई बंगाल छोड़कर वृन्दावन आकर बस गए। आचार्य जीव गोस्वामी, जो उक्त दोनों आचार्यों के भतीजे थे, वे भी इनके साथ हो लिए। ये तीनों उद्भट विद्वान और वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिधद्ध आचार्य थे।

आचार्य जीवगोस्वामी के एक ग्रंथ 'लघुतोषिणी' (आचार्य सनातनगोस्वामी द्वारा भागवत महापुराण पर विरचित टीका का संक्षिप्त रूप) में आचार्य रूपगोस्वामी द्वारा विरचित सत्रह ग्रंथों के नाम दिए गए हैं। इनमें आठ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं हंसदूत, उद्धवसन्देश, विदग्धमाधव, ललितमाधव, दानकेलिकौमुदी, भक्तिरसामृतसिन्धु, उज्जवलनीलमणि और नाटक चन्द्रिका। इनमें से प्रथम दो काव्य हैं, बाद के दो नाटक, पाँचवा भाणिका और अन्तिम तीन काव्यशास्त्र से सम्बन्धित ग्रंथ हैं। जिसके कारण आचार्य रूपगोस्वामी भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में हमेशा याद किए जाएँगें।

'भक्तिरसामृतसिन्धु' और 'उज्जवलनीलमणि' दोनों में रसों का निरूपण किया गया है। भक्तिरसामृतसिन्धु में चार विभाग हैं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। प्रत्येक विभाग लहरियों में विभक्त है। इसमें भक्ति रस को रसराज कहा गया है। 'पूर्व' विद्या में भक्ति का स्वरूप, लक्षण (परिभाषा) आदि का निरूपण है। 'दक्षिण' विभाग में भक्ति रस के विभाव अनुभाव, व्यभिचारीभाव तथा स्थायीभावों का विवेचन है। 'पश्चिम' विभाग में भक्ति रस के विभिन्न भेदों का प्रतिपादन किया गया हैं। 'उत्तर' विभाग में अन्य रसों का निरूपण पाया जाता है। दूसरा ग्रंथ 'उज्जवलनीलमणि' 'भक्तिरसामृतसिन्धु' का पूरक है और इसमें मधुर शृंगार का प्रतिपादन है। 'नाटकचन्द्रिका' आचार्य भरतकृत 'नाटयशास्त्र'और आचार्य शिंगभूपालकृत 'रसार्णवसुधाकर' के आधार पर लिखा गया नाटयशास्त्र का ग्रंथ है।

'भक्तिरसामृतसिन्धु' और 'उज्जवलनीलमणि' पर इनके भतीजे आचार्य जीवगोस्वामी द्वारा क्रमश: 'दुर्गमसंगिनी' और 'लोचनरोचनी' नामक टीकाएँ लिखी गयीं हैं।

आचार्य केशव मिश्र

आचार्य केशव मिश्र का काल भी सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है और ये दिल्ली के निवासी थे। इन्होंने कांगड़ा नरेश माणिक्यचन्द्र के अनुरोध पर 'अलंकारशेखर' नामक ग्रंथ की रचना की। राजा माणिक्यचन्द्र महाराज धर्मचन्द्र के पुत्र थे और 1563 ई0 में काँगड़ा की गद्दी पर बैठे। इनका शासन-काल दस वर्षों तक ही रहा।

'अलंकारशेखर' में कारिकाएँ हैं और उन पर वृत्ति भी स्वयं आचार्य केशव मिश्र ने लिखी है। यह आठ रत्नों में विभक्त है। प्रथम रत्न में काव्य का लक्षण, द्वितीय में रीति, तृतीय में शब्द शक्ति, चतुर्थ में पद दोष, पंचम में वाक्य दोष, षष्ठ में अर्थदोष, सप्तम में शब्दगुण, अर्थगुण, दोषों का गुणभाव और अष्टम रत्न में अलंकार तथा रूपक (नाटक) आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है।

आचार्य ने लिखा है कि इन्होंने 'अलंकारशेखर' ग्रंथ की रचना भगवान शौद्धोदनि द्वारा विरचित किसी काव्यशास्त्र विषयक ग्रंथ के आधार पर की है। लेकिन अब तक भगवान शौद्धोदनि और उनके द्वारा विरचित किसी ग्रंथ का पता नहीं चल पाया है।

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सोमवार, 19 जुलाई 2010

काव्यशास्त्र – 24 :: आचार्य शारदातनय,आचार्य शिंगभूपाल और आचार्य भानुदत्त

काव्यशास्त्र – 24 :: आचार्य शारदातनय,आचार्य शिंगभूपाल और आचार्य भानुदत्त

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आचार्य परशुराम राय

imageआचार्य शारदातनय का काल 13वीं शताब्दी माना जाता है। इनके वास्तविक नाम का पता नहीं है। हो सकता है कि इनकी माँ का नाम शारदा रहा हो और उसी के आधार पर ये अपने को शारदातनय के रूप में कहने और लिखने लगे हों तथा यही नाम प्रसिद्ध हो गया हो। सन् 1320ई0 के लगभग आचार्य शिङ्गभूपाल हुए हैं जिनके विषय में आगे लिखा जाएगा। इन्होंने अपने ग्रंथ 'रसार्णवसुधाकर'में आचार्य शारदातनय के मतों का उल्लेख किया है। अतएव इनका काल उसके पहले निश्चित होता है।

आचार्य शारदातनय, नाट्यशास्त्र के आचार्य हैं और इन्होंने 'भावप्रकाशन' नामक ग्रंथ लिखा है जिसमें कुल दस अधिकार (अध्याय) हैं। इनमें क्रमश: भाव, रसस्वरूप, रसभेद, नायक-नायिका निरूपण, नायिकाभेद, शब्दार्थसम्बन्ध, नाटयेतिहास, दशरूपक, नृत्यभेद एवं नाट्य-प्रयोगों का प्रतिपादन किया हैं इस ग्रंथ में आचार्य भोज के 'शृंगारप्रकाश' तथा आचार्य मम्मट द्वारा विरचित'काव्यप्रकाश' से अनेक उद्धरण मिलते हैं।

image आचार्य शिंगभूपाल भी नाट्यशास्त्र के आचार्य हैं। अपने ग्रंथ 'रसार्णवसुधाकर' नामक ग्रंथ के अंत में पुष्पिका में अपना परिचय देते हुए लिखते हैं:-

'श्रीमदान्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगण्डभैरवश्रीअन्नप्रोतनरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्रीशिङ्गभूपालविरचिते रसार्णवसुधाकरनाम्नि नाट्यलङ्कारे रञ्जकोल्लासो नाम प्रथमो विलास:।

उक्त कथन से लगता है कि ये आंध्र के राजा अन्नप्रोत की संतान और आंध्र मण्डल के अधीश्वर थे। ये अपने को शूद्र लिखते हैं। 'रसार्णवसुधाकर' के आरम्भ में अपने वंश आदि का उल्लेख करते हुए इन्होंने जो विवरण दिया है उससे पता चलता है कि ये 'रेचल्ला' वंश में उत्पन्न हुए। इनके छ: पुत्र थे तथा इनका शासन विन्ध्याचल से लेकर श्रीबोल पर्वत के मध्य भाग तक फैला हुआ था। इनकी राजधानी 'राजाचल' थी।

'रसार्णवसुधाकर' में कुल तीन उल्लास हैं - रञ्जकोल्लास, रसिकोल्लास और भावोल्लास। प्रथम उल्लास में नायक-नायिका विवेचन, दूसरे में इसका निरूपण तथा तीसरे में रूपकों (नाटकों) के वस्तुविन्यास का विस्तार से प्रतिपादन मिलता है। आचार्य शिंगभूपाल की भाषा सरल और सुबोध है। इसके अतिरिक्त संगीतनाट्य के आचार्य शार्गदेव द्वारा विरचित 'संगीतरत्नाकर' पर इन्होंने'संगीतसुधाकर' नामक टीका भी लिखी है।

image14वीं शताब्दी में ही आचार्य भानुदत्त का काल आता है और ये मिथिला के निवासी थे। इनके पिता का नाम गणेश्वर था, जो मंत्री थे। धर्मशास्त्र एक ग्रंथ 'विवादरत्नाकर' मिलता है जिसके प्रणेता आचार्य चण्डेश्वर हैं। इन्होंने भी अपने पिता का नाम गणेश्वर बताया है। अतएव लगता है कि आचार्य भानुदत्त और आचार्य चण्डेश्वर दोनों भाई-भाई थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आचार्य चण्डेश्वर 1315ई0 में अपना तुलादान करवाया था। 1428ई0 में आचार्य गोपाल ने आचार्य भानुदत्त की पुस्तक 'रसमञ्जरी' पर 'विकास' नामक टीका लिखी। अतएव निर्विवाद रूप से आचार्य भानुदत्त का काल 14वीं शताब्दी माना जा सकता है। 'रसमञ्जरी' के अन्तिम श्लोक में अपना परिचय देते हुए इन्होंने इस प्रकार लिखा है:-

तातो यस्य गणेश्वर: कविकुलालङ्कारचूडामणि:।

देशो यस्य विदेहभू: सुरसरित्कल्लोलकिमीरिता॥

आचार्य भानुदत्त के तीन ग्रंथ मिलते हैं - रसमञ्जरी, रसतरङ्गिणी और गीतगौरीपति'रसमञ्जरी'काव्यशास्त्र की पुस्तक है। 'रसतरङ्गिणी' रसमञ्जरी का ही संक्षिप्त रूप में लिखा गया ग्रंथ है और'गीतगौरीपति' आचार्य जयदेवकृत 'गीतगोविन्द' की भाँति गीतिकाव्य है।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

काव्यशास्त्र-२२ :: आचार्य विद्याधर, आचार्य विद्यानाथ और आचार्य विश्वनाथ कविराज

काव्यशास्त्र-२२

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आचार्य विद्याधर,

आचार्य विद्यानाथ

और

आचार्य विश्वनाथ कविराज


मेरा फोटो- आचार्य परशुराम राय

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आचार्य विद्याधर का काल तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और चौदहवीं शताब्दी का प्रारम्भ माना जाता है। इनके आश्रयदाता उत्कल नरेश नरसिंह देव ( 1280 - 1314) थे।

काव्य शास्त्र के श्रेत्र में इनका एक ग्रंथ मिलता है जिसका नाम 'एकावली' है। इसमें कुल आठ उन्मेष हैं। प्रथम उन्मेष में काव्य-स्वरूप, द्वितीय में वृति विचार, तृतीय में ध्वनिभेद, चतुर्थ में गुणीभूतव्यड्.ग्य, पंचम में गुण और रीति, षष्ठ में दोष, सप्तम में शब्दालंकार और अष्टम में अर्थालंकारों का निरूपण किया गया है।

इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें दिए सभी उदाहरण आचार्य विद्याधर के स्वयं के रचे श्लोक है। इसकी रचना 'काव्यप्रकाश' और 'अलंकारसर्वस्व' के आधार पर की गई है। 14वीं शताब्दी के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य मल्लिनाथ ने एकावली' पर 'तरला' नाम की टीका लिखी है जो अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है।

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आचार्य विद्यानाथ आचार्य विद्याधर के समकालीन थे। आंध्रप्रदेश के राजा प्रतापरुद्र के राज्य में इन्हें आश्रय प्राप्त था। इन्हीं के नाम पर काव्यशास्त्र का ग्रंथ 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' नामक ग्रंथ इन्होंने लिखा। इस ग्रंथ की रचना 'एकावली' की शैली में की गई है, अर्थात् इसमें भी उदाहरण के रूप में महाराज प्रतापरुद्र की प्रशंसा में लिखे गये श्लोकों को आचार्य विद्यानाथ द्वारा दिया गया है।

महाराज प्रतापरुद्र का काल 1298 से 1317 ई0 तक रहा है और इनकी राजधानी एकशिला थी जिसे आजकल बारंगल के नाम से जाना जाता है।

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<div style="width: 200px;margin: 10px;color:red; font-size:16pt;
text-align:center; line-height:100%;  border-top:5px #7FACDE solid;
border-bottom:5px #7FACDE
solid;padding-top:5px;padding-bottom:5px;float:left;">आचार्य विश्वनाथ ने नायक-नायिका भेद तथा नाट्यशास्त्र के तत्वों का भी इस ग्रंथ में समावेश किया है, जबकि काव्यप्रकाशकार ने इन्हें छोड़ दिया है। काव्य की इनके द्वारा की गई परिभाषा 'वाक्यं रासत्मकं काव्यम्' अन्यन्त प्रसिद्ध है और आज भी विद्वानों को इसे उद्धृत करते हुए देखा जाता है। </div>

आचार्य विश्वाथ का काल चौदहवीं शताब्दी है। इनके पिता का नाम चन्द्रशेखर और पितामह का नाम नारायणदास था। इनके द्वारा किए गए उल्लेखों से पता चलता है कि ये 18 भाषाओं के ज्ञाता थे और किसी राज्य के सान्धिविग्रहिक (विदेशमंत्री)।

इनका ग्रंथ 'साहित्यदर्पण' काव्यशास्त्र का बड़ा ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ है। यह आचार्य मम्मट के 'काव्यप्रकाश' की भाँति ही दस परिच्देछों में विभक्त है (काव्यप्रकाश में दस उल्लास हैं)। 'साहित्यदर्पण' 'काव्यप्रकाश' की तुलना में काफी सरल और सुबोध है। दोनों के वर्णित विषय लगभग एक से हैं। आचार्य विश्वनाथ ने नायक-नायिका भेद तथा नाट्यशास्त्र के तत्वों का भी इस ग्रंथ में समावेश किया है, जबकि काव्यप्रकाशकार ने इन्हें छोड़ दिया है। काव्य की इनके द्वारा की गई परिभाषा 'वाक्यं रासत्मकं काव्यम्' अन्यन्त प्रसिद्ध है और आज भी विद्वानों को इसे उद्धृत करते हुए देखा जाता है।

'साहित्यदर्पण' के प्रथम परिच्छेद में काव्य के लक्षण, प्रयोजन आदि, द्वितीय में वाक्य और पद के लक्षण (परिभाषा) के साथ-साथ शब्द-शक्तियों का विस्तृत विवेचन, तृतीय में रसनिष्पति, चतुर्थ में काव्य के भेद, पंचम में ध्वनिविरोधी मतों का सशक्त खण्डन और ध्वनि सिद्धांत का समर्थन, षष्ठ में नाट्यशास्त्र का विषय विवेचन, सप्तम में दोष, अष्टम में गुण, नवम में रीति तथा दशम अनुच्छेद में अलंकारों का निरूपण किया गया है।

'काव्यप्रकाश' पर इन्होंने 'काव्यप्रकाशदर्पण' नाम की टीका भी लिखी है। 'राघवविलास' महाकाव्य है। 'कुवलयाश्वचरित' प्राकृतभाषा में लिखा गया काव्य है। 'नरसिंहविजय' संस्कृत में लिखा गया काव्य है। इसके अतिरिक्त 'प्रभावतीपरिणय' और 'चन्द्रकला' दो नाटिकाएँ हैं। 'प्रशस्तिरत्नावली' सोलह भाषाओं में लिखा गया करम्भक (करम्भक का अर्थ 16 भाषाओं में लिखा गया ग्रंथ) है।

आचार्य विश्वनाथ ने उपर्युक्त सभी ग्रंथों का उल्लेख 'साहित्यदर्पण' और 'काव्यप्रकाश' की टीका में किया है।

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सोमवार, 28 जून 2010

काव्यशास्त्र-२०

काव्यशास्त्र-२० ::

आचार्य अरिसिंह

और आचार्य अमरचन्द्र


- आचार्य परशुराम राय

 

J0148757 आचार्य राम चन्द्र गुणचन्द्र की भाँति आचार्य युगल अरिसिंह - अमरचन्द्र का नाम प्रमुख है। ये दोनों एक ही गुरु आचार्य जिनदन्त सूरि के शिष्य हैं और जैन आचार्यों की परम्परा में आते हैं।

काव्यशास्त्र के क्षेत्र में इन दोनों आचार्यों ने मिलकर 'काव्यकल्पलतावृत्ति' नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ की रचना पूर्ववर्ती परम्परा से हटकर की गई है। इसका प्रतिपाद्य विषय कविशिक्षा है अर्थात् इसमें काव्य के गुण, दोष, अलंकार आदि का निरूपण न करके, काव्य रचना के नियमों का विवेचन किया गया है। यह ग्रंथ चार प्रतानों में विभक्त है और इनमें छन्दसिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेषसिद्धि और अर्थसिद्धि के उपायों का निरूपण मिलता है।

इसके अला वा दोनों आचार्यों के स्वतंत्र रूप से लिखे ग्रंथ भी मिलते हैं।

आचार्य अरिसिंह ने अपने मित्र वस्तुपाल जैन, जो गुजरात के ढोलकर राज्य के मंत्री थे, की प्रशंसा में 'सुहत्सकीर्तन' नामक एक काव्य लिखा।

आचार्य अमरचन्द्र ने 'काव्यकल्पलतावृत्ति' में अपने तीन ग्रंथों का उल्लेख किया हैं - छनदोरलावली, 'काव्यकल्पलतावृत्ति' और अलंकारप्रबोध।

अन्तिम दोनों ग्रंथों का सम्बन्ध भी काव्यशास्त्र से है। इनका एक 'जिनेन्दचरितम्' नामक ग्रंथ भी मिलता है। यह 'पद्यानन्द' के नाम से भी जाना जाता है।

आचार्य देवेश्वर

चौदहवीं शताब्दी में आचार्य युगल अरिसिंह अमरचन्द्र के बाद जैन विद्वान आचार्य देवेश्वर का नाम आता है। इनके द्वारा 'कविकल्पलता' नामक ग्रंथ की रचना की गई, जिसमें मामूली से शैली भेद के साथ आचार्य युगल अरिसिंह - अमरचन्द्र द्वारा विरचित 'काव्यकल्पलतावृत्ति' का अनुकरण मात्र है। यही कारण है कि यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के क्षेत्र में अपना कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाया।

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मंगलवार, 22 जून 2010

काव्यशास्त्र-19

काव्यशास्त्र-19

आचार्य  वाग्भट्ट

आचार्य  परशुराम राय

 

कुछ काल तक गुजरात का अनहिलपट्टन राच्य जैन विद्वनों का केन्द्र था। आचार्य हेमचन्द्र, रामचन्द्र, गुणचन्द्र आदि काव्यशास्त्र के अनेक आचार्यों ने शास्त्रों एवं साहित्य का प्रणयन किया। इसी परम्परा में आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र के बाद आचार्य वाग्भट का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इनका काल अनहिलपट्टन के चालुक्यवंशी राजा जयसिंह का शासन काल माना जाता है। अपने ग्रंथ “वाग्भटालंकार”में उदाहरण के रूप में राजा जयसिंह की स्तुति देखने को मिलती है। इसके अनुसार वे राजा जयसिंह के मंत्री (महामात्य) भी थे।

_a_art_028 आचार्य  वाग्भट को अनेक ग्रंथों का रचयिता माना जाता है, जिनमें वाग्भटालङ्कार, काव्यानुशासन, नेमिनिर्वाणमहाकाव्य, ऋषभदेवचरित, छन्दोनुशासन और अष्टाङ्गहृदयसंहिता मुख्य हैं। कुछ लोगों का मानना है कि दो वाग्भट हुए हैं और उन्हें वाग्भट प्रथम और वाग्भट द्वितीय के नाम से अभिहित करते हैं। इस मान्यता के अनुसार वाग्भट प्रथम ने केवल वाग्भटालंकार की रचना की थी और काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन एवं ऋषभदेवचरित की रचना वाग्भट द्वितीय ने। नेमिनिर्वाणहाकाव्य और आयुर्वेद पर लिखी अष्टांगहृदयसंहिता किस वाग्भट की रचनाएँ हैं, स्पष्ट नहीं है। लेकिन कुछ विद्वान दो वाग्भट न मानकर उक्त सारी रचनाएँ एक ही वाग्भट की मानते हैं। क्योंकि वाग्भटालङ्कार की टीका में एक पंक्ति इस प्रकार मिलती है-

‘इदानीं ग्रंथकार इदमलङ्कारकर्तृत्वख्यापनाय वाग्भटाभिधस्य महाकवेर्महायात्यस्य तन्नाम गाथया एकया निदर्शयति।’

उपर्युक्त पंक्ति में आचार्यवाग्भट को महाकवि, अलङ्कारकर्ता और महामात्य कहा गया है।  इससे लगता है कि उक्त ग्रंथों  के रचयिता एक ही वाग्भट हैं।

_a_back_prof1 आचार्य वाग्भट के जीवन वृत्त के विषय में  बहुत अधिक नहीं मिलता। लेकिन उपर्युक्त सारी उपलब्धियों के होते हुए भी इनके जीवन में बड़ी ही दुखद घटना हुई। इनकी एक अत्यन्त सुन्दरी, गुणवती, विदुषी एवं कवयित्री कन्या जब विवाह के योग्य हुई, तो उसे हठात् राजप्रासाद की शोभा बढ़ाने के लिए इनसे छीन लिया गया। न चाहते हुए भी कठोर राजाज्ञा के सामने दोनों को झुकना पड़ा। राजभवन प्रस्थान करते समय पिता को सान्त्वना देते हुए उसने कहा-

    तात वाग्भट! मा रोदीः कर्मणां गतिरिदृशी।

    दुष्  धातोरिवास्माकं गुणो दोषाय केवलम्।।

उक्त  घटना का उल्लेख करते हुए अत्यन्त  कष्ट का अनुभव हो रहा है।  आज भी इक्कीसवीं शताब्दी में सारे विकास के होते हुए भी हम लोगों को ऐसी घटनाएँ आए दिन देखने-सुनने को मिलती हैं, यह उससे भी दुखद है।

इन  सबके बावजूद काव्य जगत  आचार्य वाग्भट को याद रखेगा। काव्यशास्त्र के क्षेत्र  में इनके दो ग्रंथ ‘वाग्भटालङ्कार’ और ‘काव्यानुशासन’ बड़े ही महत्त्वपूर्ण है।

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