रविवार, 19 सितंबर 2010

कहानी ऐसे बनीं-४ :: जग जीत लियो रे मोरी कानी ! …

कहानी ऐसे बनीं– 4

जग जीत लियो रे मोरी कानी ! ….

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समतीपुरी।
(1) 'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!' 
(2) 'न राधा को नौ मन घी होगा... !' 
(3) "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!
हमारे मिथिलांचल में एक कहावत है, 'जग जीत लियो रे मोरी कानी !' हालांकि कहावत का आधा हिस्सा अभी बांकी है लेकिन वो मैं आपको देसिल बयना के इस कड़ी के अंत में कहूँगा। आईये पहले देखें कैसे बनी कहानी...
कमला घाट के एक गाँव में एक लड़की थी। कुलीन। सुशील। किंतु भगवान की माया.... एक दोष था बेचारी में। वो क्या था कि वो कानी थी। तरुनाई पार कर के जैसे ही यौवन की देहरी पर पैर रखी, उसके माता-पिता को उसके विवाह की चिंता सालने लगी।
बेटी का ब्याह तो यूँ ही अश्वमेघ यज्ञ के बराबर। युवतियों के सर्वगुण संपन्न होने के बावजूद माँ-बाप को पता नही कितने पापर बेलने पड़ते हैं। नाकों चने चबाने पड़ते हैं। यह तो कानी ही थी। एक दूसरी कहावत भी है, "कानी की शादी मे इकहत्तर वाधा !"
बेचारी की डोली कैसे उठे। माँ-बाप रिश्तेदार सभी लगभग निराश हो चुके थे। लेकिन पंडित घरजोरे ने दूर तराई के गाँव में एक लड़का ढूंढ ही निकला। सगुण टीका हुआ। फिर निभरोस माँ बाप के द्वार पर बारात भी आई। लड़की के भाइयों ने पालकी से उतार कर दुल्हे को काँधे पर बिठा कर मंडप मे लाया। मंत्राचार, विधि-व्यवहार के बीच सिन्दूर-दान हुआ फिर बारी आई फेरों की। तभी पंडिताइन ने गीत की तान छेड़ी, "जग जीत लियो रे मोरी कानी...." लोग हक्का बक्का लेकिन बारात में आए चतुरी हजाम को बात भाँपते देर न लगी। उसने तुरत पंडिताइन के सुर में सुर मिलाया। पंडिताइन आलाप रही थी, "जग जीत लियो रे मोरी कानी !" गली पंक्ति चतुरी हजाम ने जोड़ी, "वर ठाढ़ होए तो जानी !" अर्थात कन्या कानी है तो पंगु वर जब खड़ा होगा तब सच्चाई पता लगेगी न !!
क्या खूब जोरी मिलाई पंडित घरजोरे ने। कन्या कानी तो वर लंगड़ा। तभी से कहाबत बनी,"जग जीत लियो रे मोरी कानी ! वर ठाढ़ होए तो जानी !!"
ये कहावत उन लोगों पे लागू होती है जो हमेशा अपना ही पलड़ा भारी समझते हैं। लेकिन जब उनके नहले पर दहला पड़ता है तब बरबस याद आ जाता है, "जग जीत लियो रे मोरी कानी! वर ठाढ़ होए तो जानी !!"

7 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा तो ये बात है। बहुत अच्छी कथा सुनाई इस कहावत के संदर्भ मे। धन्यवाद।

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  2. कहावतों पर आधारित कहानी बढ़िया लगी. .... आभार

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  3. चलो आज एक नयी कहावत का मतलब पता चला...धीरे धीरे ज्ञान वृद्धि हो रही है.

    आभारी हूँ.

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