बाबा नागार्जुन |
जन्म :: ३० जून १९११ को जन्म ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन गाँव सतलखा, मधुबनी, बिहार। मृत्यु :: ५ नवंबर, १९९८, दरभंगा, बिहार स्थान :: तरौनी गांव, दरभंगा, बिहार शिक्षा :: परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा। वाराणसी और कलकत्ता में रहकर उच्च शिक्षा ग्रहण की। वृत्ति :: कवि, लेखक, मसिजीवी। कृतियां :: पुरस्कार/सम्मान :: साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित कवि नागार्जुन को १९६५ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से उनके ऐतिहासिक मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए १९६९ में नवाजा गया था। |
साहित्य जगत में बाबा के नाम से मशहूर बाबा नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। वो अपने निराले अंदाज के लिए भी खासे चर्चित रहे। उस समय के आलोचको की आलोचना एवं वयंग्य को ध्यान में न रखते हुए उन्होंने अपने कर्म-पथ का निर्माण स्वयं किया। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। नागार्जुन व्यवहार और विचार के बीच समंजस्य का कवि थे। वो जैसा लिखते थे वैसा ही जीवन भी जीते थे। अपनी कविताओं में मानवता का परिचय उन्होंने अत्यंत कुशलता से दिया है। लोकोन्मुखी कवि होने के कारण नागार्जुन के काव्य की शिल्प-संरचना में भी लोकप्रियता का तत्व विशेष रूप से समाविष्ट हुआ है। लोगों ने उन्हें आधुनिक कबीर भी कहा जनकवि तो थे ही। घुमक्कड़ी, फक्कड़ी निडरता, बेलौस, अलमस्त जीवन शैली के बाबा हमारे आत्मीय भी हैं। बेतरतीब, बेरखरखाव वाली दाढ़ी और उलझे बाल उनकी पहचान बन गए। खादी का पायजामा, खादी का कुरता, पैर में चप्पल, कृशकाय, कंधे पर गमछा खादी का झोला उनकी पहचान थे। नागार्जुन सांस्कृतिक पहचान को बचानेवाले कवि थे। प्रारंभिक दौर में ‘यात्री’ उपनाम से मैथिली और हिन्दी में कविताएं लिखते थे। समय के प्रवाह के साथ इनके अध्ययन का आयाम विस्तृत होता चला गया। इस साहित्यिक सफ़र में उनकी मुलाक़ात महापंडित राहुल सांकृत्यायन से हुई। उनके सामिप्य से प्रभावित हुए, फलस्वरूप बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की। स्वभाव से जिज्ञासु बाबा नागार्जुन ने लंका जाकर पालि का अध्ययन किया। बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के कारण इन्होंने ‘वैद्यनाथ’ और ‘यात्री’ उपनाम छोड़कर ‘नागार्जुन’ नाम धारण किया। सामाजिक चेतना और जनता के शोषण-उत्पीड़न के कारण इनका झुकाव मार्क्सवादी चिंतन की ओर हुआ। तद्युगीन कृषक नेता स्वामी सहजानन्द के साथ इन्होंने बिहार के अनेक किसान आन्दोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। स्वंत्रता प्राप्ति के पहले और बाद में जे.पी. आन्दोलन के दौरान इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। जीवन पर्यंत नौकरी व्ययवसाय का आश्रय नहीं लिये और खेती के लिए गांव में पर्याप्त जमीन नहीं होने के कारण जीवनभर मसिजीवी ही रहे। खूब घूमते थे, पर उन्हें स्टेशन लेने न कोई जाता, न छोड़ने। वो चिपकू को नापसंद करते थे। जीभ के खूब चटोरे थे। इन्होंने अपनी कविता के माध्यम से संपूर्ण भारत को समग्रता के साथ समाहित किया है। मिथिला जनपद से जुड़े होने के कारण उस अंचल विशेष के दृश्य, खेत, खलिहान एवं सामंती प्रवृत्ति पर भी कलम चलाई। नागार्जुन कथन के कवि हैं। अपनी लयात्मकता और सपाटबयानी के चलते नागार्जुन हिन्दी में सबसे अधिक पठनीय कवि हैं। सीधे सीधे दो टुक बात करना उनकी विशेषता थी। लुकाव-छिपाव नहीं रखते थे। वे जिंदगी के छोटे-छोटे विषय को उठाकर कविता में ले आए। कविता “फेंकनी ” में उन्होंने फेंकनी नामक दूध देने वाली ग्वालिन का उसके पैसे बचाने का वर्णन किया। जा हो आ साथी-संगी की कमी नहीं होगी। टुनटुन जा रही है सपरिवार मैंना फूफी भी जाएगी और वार काका भी जाएंगें क्या ग्वाल गोंढ, क्या तेली-सूरी सबके सब जा रहे हैं गंगा नहाने दशहरा आया....... तू भी हो आ क्या करेगी पैसे बचाकर..... ऐसा आत्मीय संबंध कहीं और नहीं दिखता। उनकी कविता पढ़ते हुए लगता है कि गांव के चौपाल में बैठे हैं। उन्होंने बरसात में पर निकाल कर मरने को आतुर चींटे पर कविता लिखी पर निकले तो चींटा बोली आसमान की ऐसी-तैसी उतना खुला नहीं है यह मुझको उड़ान भरनी है जैसी शीशम की निचली टहनी की नर्म छाल से पंख लड़ गए उड़ने की कोशिश करने में बेवकूफ के पंख झड़ गए कमजोर को हमदर्दी और प्यार बांटते थे लेकिन ताकतवर का उपहास करना, विद्रुप बनाना उनकी आदत थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कवि का सर्वाधिक महत्व इनकी राजनीतिक कविताओं के माध्यम से उजागर हुआ है। आज़ाद भारत के शासक या घटना उनकी कलम के घेरे में आते रहे। नेहरू जी पर तो अपना क्रोध विशेष रूप से निकालते रहते थे – विकृत क्रोध। वक्रोक्ति, कटुक्ति, ताने सब इनकी कविता में आया। जनकवि नागार्जुन का कई बार पूछना था, “साहित्य क्या राजनीति के आगे फटी जूती भी नहीं है ?” उन्होंने साहित्यकार के व्यक्तित्व को साहित्यकार के नाते पूर्ण मान्यता दिलवाने का संघर्ष किया। ऐसा नहीं है कि बाबा किसी से नहीं डरते। डरते थे – अपने हिंदी बोलने वाली आम जनता से। अपने बारे में कहते थे- हम तो भाई निहायत मामूली किस्म के अदना से आदमी ठहरे, पड़ती है उलझन सुलझा भी लेते हैं, कैसी भी गांठ हो, खुल ही जाती है, मोटी अकल है अटपटे बोल हैं शऊर है न कुछ भी। आम भारतीय किसान की तरह रहे। वे उसी जीवन के मुहावरे में जीते बोलते सोते थे। साधारण जन-जीवन के सुख-दुख पर लिखते हुए उन्होंने सहज सरल बोलचाल के मुहावरे की शब्दावली का ही अधिक प्रयोग किया। इनके काव्य की विशेषता यह रही है कि इन्होंने साहित्य जगत के विशिष्ट व्यक्तियों पर भी कविताएं लिखी हैं। जिसमें कालिदास, रवि ठाकुर, भारतेंदु, त्रिलोचन आदि शामिल हैं। निराला से प्रेरणा ग्रहण करते दिखाई देते थे। ‘एक व्यक्तिः एक युग’ में उन्होंने निराला के बारे में अपने विचार लिखा है। वे साफ साफ बोलने वाले थे। आम जनता के मन की बात को बूझने, उनके जीवन की कविता रचने वाले कवि है। देश के युवाओं में अगाध विश्वास था उनका। वे उलझा कर नहीं कहते। “जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतला दूँ जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ” “ पगलेट बाबा ” की तरह साफ-साफ कहते हैं, मैं तुम्हारी जूतियां चमकाऊंगा दिल बहलाऊंगा तुम्हारा कुछ भी करूंगा तुम्हारे लिए बाबा कहलाना पसंद करते थे। नई पीढ़ी को प्यार करते थे। गांव जाने में उनकी खासी दिलचस्पी थी। वे नित्य कवि थे। और मनमौजी। मूडी। पालि, संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला, मराठी सब पढ़ा हुआ था। नागार्जुन हिंदी के अकेले कवि हैं जिन्हें जनकवि का सम्मान मिला। जेपी के आंदोलन से भी जुड़े। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वगत में मुक्त बातचीत की शैली है। ‘स्वागत शोक में बीज निहित हैं विश्व व्यथा के।’ कवि नागार्जुन भारतीयता का सच्चा प्रतीक थे। नागार्जुन के काव्य में पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका रचना संसार अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ा़व तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं। बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। हमें नागार्जुन जैसी जीवट जीवन शैली और प्रतिबद्धता अपनानी चाहिए। |
आभार :: ये चित्र भाई रंजित ने मेल के ज़रिए भेजा था। ---------- Forwarded message ---------- Ranjit मेरा उनसे कोई परिचय नहीं था। पर एक दिन इसे मेल में पाकर धन्य हो गया। और उसी दिन सोचा कि बाबा पर कुछ लिखूंगा। आभार रंजीत जी। सादर, मनोज कुमार |
शनिवार, 25 सितंबर 2010
साहित्यकार-३ :: बाबा नागार्जुन
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
इस प्रस्तुति के लिये आभार और धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंbahut sundar aur sangrahaniya post hetu dhanyavad!
जवाब देंहटाएंtreasurable!!!!
regards,
बहुत बढ़िया प्रस्तुति .आभार
जवाब देंहटाएंबाबा के बारे में लिखने के लिए आभार। अच्छी जानकारियां दी हैं आपने। बाबा के चटोरेपन के बारे में अशोक चक्रधर लिखते हैं कि यह तब तक ही दिखता था, जब तक पकवान स्टोव पर होता। वह खुद थोड़ा सा ही खाते और सबकी चिंता भी रखते।
जवाब देंहटाएंhttp://sudhirraghav.blogspot.com/
बाबा के बारे में लिखने के लिए आभार। अच्छी जानकारियां दी हैं आपने। बाबा के चटोरेपन के बारे में अशोक चक्रधर लिखते हैं कि यह तब तक ही दिखता था, जब तक पकवान स्टोव पर होता। वह खुद थोड़ा सा ही खाते और सबकी चिंता भी रखते।
जवाब देंहटाएंhttp://sudhirraghav.blogspot.com/
बाबा नागार्जुन के बारे में विस्तृत जानकारी मिली ...बहुत करीने से लिखा लेख अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंबाबा नागार्जुन के बारे में इतना कुछ जानकर अच्छा लगा..सार्थक पोस्ट.
जवाब देंहटाएं______________
'शब्द-शिखर'- 21 वीं सदी की बेटी.
आपका भी आभार मनोज जी। एक विशिष्ट व्यक्तित्व से मिलने का अवसर मिला। अच्छा लगा पढ़कर।
जवाब देंहटाएंबाबा नागार्जुन की तो बहुत सारी स्मृति
जवाब देंहटाएंहम अपने हृदय में संजोए हुए हैं!
--
बाबा की याद दिलाने के लिए
आपका बहुत बहुत आभार
सचमुच बाबा नागार्जुन आधुनिक कबीर थे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंनागार्जुन के एक साथ इतने चित्र देखे। अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंसंतुलित परिचय आलेख।
शुक्रिया।
अफसोस,कि आखिरी दिनों में उन्हें व्यवस्था से वह सहयोग नहीं मिला जो अपेक्षित था। सत्ता को गरियाने वाले अधिकतर साहित्यकारों को यही दिन देखना पड़ा है।
जवाब देंहटाएंघूम-घूम कर जीवन के विविध रंगों से परिचित होने और फिर उससे अन्य पाठकों को भी अवगत कराने की परम्परा को जारी रखने की ज़रूरत है।
जवाब देंहटाएंसाहित्य के इस संत का सत्संग इस द्वार पर ही सम्भव है..बाबा नागार्जुन के जिवन के अनछुए पहलू हमारे सम्क्ष उद्घाटित करने का ध्नयवाद! नमन हे महामुने!
जवाब देंहटाएंबाबा तो बड़े निराले हैं...
जवाब देंहटाएं_________________________
'पाखी की दुनिया' में- डाटर्स- डे पर इक ड्राइंग !
मनोज जी, आपने बाबा के अंदाज में ही बाबा के व्यक्तित्व और कृतित्व को परोस दिया । कहने का यह अंदाज- बहुत भाता है(मुझे)। मैं इसे अभिव्यक्ति की इमानदार शैली कहता हूं। बाबा जन्म शताब्दि पर आपका यह आलेख बहुत महत्वपूर्ण है।
जवाब देंहटाएंबहरहाल, मैं आज तक बाबा का कोई आकार नहीं बना सका। मुझे लगता है कि यह संभव ही नहीं है। ठेठ भी विद्वान भी। फक्कड़ भी और अक्खड़ भी। कवि कहूं, तो किसान भी कहना पड़ेगा। जनकवि तो वे थे ही, लेकिन कबीर ही नहीं थे- वे निराला, मुक्तिबोध और यहां तक की अज्ञेय के कोलॉज जैसे कुछ थे। वे वंचना के कवि (चरण गहो श्रीमानों का)हैं, आक्रोश (कौवा करे गंग स्नान) के कवि हैं, भाव के कवि (कालीदास सच-सच बतलाना), स्वप्न (बादल को घिरते देखा है) के भी कवि हैं। और हर बात में निराले हैं। दरअसल, बाबा जन्मना विद्रोही थे और उन्होंने ताजिंदगी कलम को हथियार बनाकर व्यवस्था के गिरोहबाजों से मोरचा लिया। आपने बहुत सही कहा है कि अपनी लयात्मकता और सपाटबयानी के चलते नागार्जुन हिन्दी में सबसे अधिक पठनीय कवि हैं। शायद यह गुण उन्हें मिथिला की मिट्टी से मिली होगी, जिसका उन्होंने भरपूर इस्तेमाल किया।
इस महत्वपूर्ण रचना के लिए आपको बधाई।
आपका
रंजीत
भारत की भाषा के गर्व के बारे मे जानकारी पहुँचाने के लिए बधाई
जवाब देंहटाएं