शनिवार, 13 नवंबर 2010

पुस्तक चर्चा :: अन्धेर नगरी

अन्धेर नगरी

एक लोककथा तो आपने सुनी ही होगी। ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’। प्रस्तुत पुस्तक इसी लोककथा पर आधारित है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इस पुस्तक के रचयिता हैं। उनका यह नाटक कालजयी रचना है। जब इसकी रचना हुई थी तबसे आज तक परिस्थितियां तो काफ़ी बदली हैं, पर समय के बदलने के साथ इसका अर्थ नये रूप में हमारे सामने आता है। अंधेर नगरी तो हर काल में मौज़ूद रहा है। हर स्थान पर। १८८१ में रचित इस नाटक में भारतेन्दु ने व्यंग्यात्मक शैली अपनाया है। इस प्रहसन में देश की बदलती परिस्थिति, चरित्र, मूल्यहीनता और व्यवस्था के खोखलेपन को बड़े रोचक ढ़ंग से उभारा गया है।

पहले दृश्य का अंत इस संदेश के साथ होता है,

लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान।

लोभ कभी नहिं कीजिए, या मैं नरक निदान॥

इस नाटक में बाज़ार का दृश्य है। यह बाज़ार क्या पूरा विश्व को रचनाकार ने अपने चुटीले लेखन से हमारे सामने साकार कर दिया है। यहां हर चीज़ टके सेर बिक रही है। और बेचने वाला कह रहा है

चूरन पुलिस वाले खाते।

सब कानून हजम कर जाते॥

एक और दृश्य है जहां राज भवन की स्थिति को दर्शाया गया है। यहां पर मदिरापान, चमचागिरी, दरबारियों के मूर्खता भरे प्रश्न और राजा का अटपटा व्यवहार इस दृष्य की विशेषता है। अंतिम दृश्य में फांसी पर चढने की होड़ को बखूबी दर्शाया गया है। इस दृश्य का अंत एक संदेश के साथ होता है,

जहां न धर्म न बुद्धि नहिं नीति न सुजन समाज।

ते ऐसहिं आपुहिं नसैं, जैसे चौपट राज॥

तीखा व्यंग्य इस नाटक की विशेषता है। सता की विवेकहीनता पर कटाक्ष किया गया है। भ्रष्टाचार, सत्ता की जड़ता, उसकी निरंकुशता, अन्याय पर आधारित मूल्यहीन व्यवस्था को बहुत ही कुशलता से उभारा गया है। साथ ही यह संदेश भी दिया गया है कि अविवेकी सत्ताधारी की परिणति अच्छी नहीं होती।

बाज़ार के दृश्य के द्वारा अमानवीयता, संवेदनहीनता को बहुत ही रोचकता से प्रस्तुत किया गया है। सब्ज़ी बेचने वाली जब यह कहती है कि “ले हिन्दुस्तान का मेवा – फूट और बेर”, तो तो इसका व्यंग्यात्मक अर्थ समाज में व्याप्त आपसी फूट और वैर भाव को व्यपकता के साथ प्रस्तुत करता है। चूरन बेचने वाले के शब्द देखिए,

चूरन साहब लोग जो खाता।

सारा हिन्द हजम कर जाता।

शायद उन दिनों के ब्रिटिश शासक के लिए लिखा गया हो। पर क्या आज के संदर्भ में यह सही नहीं है? इस नाटक के काव्य इसके व्यंग्य को तीखापन प्रदान करते हैं। नटक में गति है, हास्य भरे वक्तव्य हैं, और साथ ही शिक्षा भी।

पुस्‍तक का नाम - अन्धेर नगरी

लेखक - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

राजकमल पेपर बैक्स में

पहला संस्‍करण : 1986

आवृति : 2009

राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.

1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग

नई दिल्‍ली-110 002

द्वारा प्रकाशित

मूल्‍य : 25 रु.

12 टिप्‍पणियां:

  1. भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी जगत के एक ऐसे रचनाकार हैं , जिनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती ..और उनकी कृति 'अंधेर नगरी'..तत्कालीन शासन व्यवस्था पर तीखे व्यंग्य करती है , अंधेर नगरी शब्द हमारे नीति नियंताओं की पोल खोलने के लिए काफी है .. इस कालजयी कृति के माध्यम से हरिश्चंद्र तीखा व्यंग्य शासन व्यवथा पर करते हैं ....शुभकामनायें

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  2. दिलचस्प प्रस्तुति. महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र जी को उनकी इस प्रसिद्ध रचना के माध्यम से आपने याद किया और ब्लॉग-जगत को भी उनकी याद दिलायी . बहुत-बहुत आभार .

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  3. बहुत अच्छी रही यह पुस्तक चर्चा ....आभार

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  4. @ वन्दना जी,
    प्रोत्साहन के लिए आभार।

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  5. @ संगीता जी,
    आपका धन्यवाद जो आपने हमारी पुस्तक चर्चा को पसंद किया।

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  6. @ स्वराज्य करुण जी,
    आपको यह प्रस्तुति भाई, यह हमारे मन्प्बल को बढाता है। साथ ही हमें प्रेरित करता है इस तरह के आलेख प्रस्तुत करने को। आभार आपका।

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  7. @ उदय जी,
    प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद।

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  8. @ केवल राम जी,
    आभार आपका। आपने बहुत सही तरह से भारतेन्दु जी के ऊपर प्रकाश डाला है।इससे हमारा मनोबल बढता है।

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. चौपटों की अँधेरगर्दी जारी है। पहले वो राजा था,अब ए.राजा है।

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