सोमवार, 19 दिसंबर 2011

कुरुक्षेत्र ..तृतीय सर्ग ( भाग – 1) रामधारी सिंह दिनकर




समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?

सुख-समृद्धि क विपुल कोष
संचित कर कल, बल, छल से,
किसी क्षुधित क ग्रास छीन,
धन लूट किसी निर्बल से।
सब समेट, प्रहरी बिठला कर
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।

हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,
जियो और जीने दो।
सच है, सत्ता सिमट-सिमट
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई?

सुख का सम्यक्-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
को सत्ताधारी,
जहाँ सुत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;

नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहनेवालों के
सीस उतारे जायें;
जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;

सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;
अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
ऊपर शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिनगारी;

आगामी विस्फोट काल के
मुख पर दमक रहा हो;
इंगित में अंगार विवश
भावों के चमक रहा हो;
पढ कर भी संकेत सजग हों
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;

कभी नये शोषण से, कभी
उपेक्षा, कभी दमन से,
अपमानों से कभी, कभी
शर-वेधक व्यंग्य-वचन से।
दबे हुए आवेग वहाँ यदि
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें;

कहो, कौन दायी होगा
उस दारुण जगद्दहन का
अहंकार य घृणा? कौन
दोषी होगा उस रण का? 
तुम विषण्ण हो समझ
हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की
बरसी थी अम्बर से?

अथवा अकस्मात् मिट्टी से
फूटी थी यह ज्वाला?
या मंत्रों के बल जनमी
थी यह शिखा कराला?
कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या
समर लगा था चलने?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने?

शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
जब वर्जन करती है,
तभी जान लो, किसी समर का
वह सर्जन करती है।

क्रमश: .....

प्रथम   सर्ग - 1  /  2 ... 

द्वितीय  सर्ग - 1  / 2 /  3 .

9 टिप्‍पणियां:

  1. कभी नये शोषण से, कभी
    उपेक्षा, कभी दमन से,
    अपमानों से कभी, कभी
    शर-वेधक व्यंग्य-वचन से।
    दबे हुए आवेग वहाँ यदि
    उबल किसी दिन फूटें,
    संयम छोड़, काल बन मानव
    अन्यायी पर टूटें;

    सम्‍पूर्ण कविता ही प्रेरणास्‍पद है। शायद यह कविता प्रत्‍येक युग में गुनगनायी जाएगी। आपका आभार।

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  2. ओज़स्वी ... आहूत ही प्रेरणा दायक रचना है ...

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  3. कहो, कौन दायी होगा
    उस दारुण जगद्दहन का
    अहंकार य घृणा? कौन
    दोषी होगा उस रण का?
    तुम विषण्ण हो समझ
    हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
    सोचो तो, क्या अग्नि समर की
    बरसी थी अम्बर से?
    सुन्दरतम..

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  4. रोचकता से आगे बढ रही है श्रृंखला।

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  5. वाह ....प्रभावशाली और बेहतरीन

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  6. शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
    जब वर्जन करती है,
    तभी जान लो, किसी समर का
    वह सर्जन करती है।

    Sach kaha ....likhte rahiye ! badhai..

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