सोमवार, 12 दिसंबर 2011

कुरुक्षेत्र - द्वितीय सर्ग ( भाग -३ )

युद्ध के उपरांत जब युधिष्ठिर व्यग्र हो पितामह भीष्म (जो शरशैया पर हैं ) के पास जाते हैं और युद्ध की विभीषिका को देख कहते हैं कि काश यह युद्ध न किया होता ... उस समय भीष्म जो कुछ युधिष्ठिर से कहते हैं उसका वर्णन कवि ने अपनी कल्पना में कहा है ...




यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी
एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से,
तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का,
और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी
क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से।
भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी
युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता
राजनैतिक उलझनों के ब्याज से
या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले।

किन्तु, सबके मूल में रहता हलाहल है वही,
फैलता है जो घृणा से, स्वार्थमय  विद्वेष से।

युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,
जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है!
सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए!

किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में

पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे;
युद्ध में मारे हुओं के सामने
पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे!


और भी थे भाव उनके हृदय में,
स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के;
खींच कर जिसने उन्हें आगे किया,
हेतु उस आवेश का था और भी।

युद्ध का उन्माद संक्रमशील है,

एक चिनगारी कहीं जागी अगर,
तुरत बह उठते पवन उनचास हैं,
दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।


और तब रहता कहाँ अवकाश है
तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का?
युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं
प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को।

युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से

दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;
चाहता नस तोड़कर बहना लहू,
आ स्वयं तलवार जाती हाथ में।


रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या?
शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।

है मृषा तेरे हृदय की जल्पना,

युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;
क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं,
जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।


सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,
'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,
मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में
भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।'

औ' समर तो और भी अपवाद है,

चाहता कोई नहीं इसको मगर,
जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब
आ गया हो द्वार पर ललकारता।


है बहुत देखा-सुना मैंने मगर,
भेद खुल पाया न धर्माधर्म का,
आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर
बाँट दूँ मैं पुण्य औ' पाप को।

जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए

चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर।


छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप के काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।

बद्ध, विदलित और साधनहीन को

है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?


युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ
भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,
युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।

और जो अनिवार्य है, उसके लिए

खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है।
तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह
फूटती निश्चय किसी भी व्याज से।


पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी
रुक न सकता था सहज विस्फोट यह
ध्वंस से सिर मारने को थे तुले
ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के।

धर्म का है एक और रहस्य भी,

अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे?
दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर
हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से।


व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को। 

जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में,

कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही।
किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं,
पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था?
हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये,
पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को,
जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था।


और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में
क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारी  का,
(द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही
उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था)
और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया;
सो बता क्या पुण्य था? या  पुण्यमय था क्रोध वह,
जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के?

कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक

है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही;
जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती,
जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर।


त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर,
त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं;
याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं;
या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का,
जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर
ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं

त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर,

व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर,
हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,
काम आता है बलिष्ठ शरीर ही।


और तू कहता मनोबल है जिसे,
शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का;
क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है,
नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से।

कौन केवल आत्मबल से जूझ कर

जीत सकता देह का संग्राम है?
पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं।


जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,
व्यक्ति का ही मन उसे है मानता;
योगियों की शक्ति से संसार में,
हारता लेकिन, नहीं समुदाय है।

कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का
दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;
"मातिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक
शस्त्र ही है?" पूछा था कोमलमना वाम ने।
नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप,
त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने,
"तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव
पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।" 

प्रथम सर्ग - भाग -1/  भाग -2द्वितीय सर्ग -- भाग -1 /भाग -2


13 टिप्‍पणियां:

  1. भीषण युद्ध कि समाप्ति के पश्चात शाम के समय युधिष्ठिर अपने बंधु - बांधवों के साथ शर शैय्या पर उत्तरायण की प्रतीक्षा कर कर रहे कौरव-कुल-शिरोमणि भीष्मपितामह का कुशलक्षेम पूछने के लिए उनके पास जाते हैं I वहां पहुँचने पर प्रणाम कर युधिष्ठिर पितामह के चरणों के पास खड़े हो जाते हैं एवं प्रश्न करते हैं-----
    युधिष्ठिर :- पितामह ऐसा क्यों होता है , कि शुभ और पुण्य कर्म करने वालों को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है , जबकि पाप कर्मों में लिप्त और जीवन भर भोग - विलासमय जीवन व्यतीत करने वाले कभी भी समस्याओं के भंवर में फंसते हुए नहीं देखे जाते ।
    पितामह :- मैं जानता हूँ , कि तुमने आज मुझसे यह प्रश्न कौरवों और पांडवों के सम्बन्ध में पूछा है I मेरी बात गौर से सुनो कि मनुष्य को अपने जीवन- काल में केवल अपने कर्मों का फल ही नहीं भोगना पड़ता अपितु स्वयं के साथ -साथ उसे अपने पूर्वजों के कर्मों के फलों का लेखा जोखा भी संभालना पड़ता है I इसलिए कई बार व्यक्तियों को जीवन भर धर्मं के मार्ग पर अडिग रहते हुए भी सुख का एक भी क्षण प्राप्त नहीं होता है और कई व्यक्ति ऐसे होते है ,जो जीवन भर अधर्म में लिप्त रहते हुए भी सुख भोग करते हैं I दोनों लोगों का संवाद आज भी उतना ही प्रासांगिक है जितना उन दिनों में था । पूरी जिंदगी "महाभारत" एवं "रामचरित मानस" पढ़ने के बावजूद भी आज हम अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में कितने बौने नजर आते हैं । काश! हम सब इन संवादों के आशय को अपने जीवन में थोड़ी सी जगह दे पाते । इस शिक्षाप्रद पोस्ट के लिए आपका आभार ।

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  2. प्रेमसरोवर जी ,

    आपके द्वारा की गयी व्याख्या से इस पोस्ट को समझने में काफी सहयोग मिलेगा ... सार्थक टिप्पणी के लिए आभार

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  3. मृत्यु के समय आदमी कितनी ज्ञान की बातें करने लगता है!

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  4. अति प्रभावशाली व सार्थक पोस्ट!

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  5. प्रभावशाली पोस्ट आभार ...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/12/blog-post_12.html

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  6. यह काव्य ही नहीं यथार्थ है.बेहद प्राभावशाली.

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  7. pichhli monday ka ank padhna rah gaya tha...jo is bar padha aur aaj ka ye ank bhi. Is kaavy ka har ank pure manoyog se padh rahi hun...aur har somvar ki prateeksha karti hun.

    aapka bahut bahut dhanywad jo aapki mehnat ka fal hame mil raha hai.

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  8. बहुत प्रभावशाली रचना.बधाई......
    मेरी नई पोस्ट में.......

    सब कुछ जनता जान गई ,इनके कर्म उजागर है
    चुल्लु भर जनता के हिस्से,इनके हिस्से सागर है,
    छल का सूरज डूब रहा है, नई रौशनी आयेगी
    अंधियारे बाटें थे तुमने, जनता सबक सिखायेगी,

    आपका इंतजार है
    ________________

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