शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

दोहावली ..... भाग 19 .... / संत कबीर

जन्म  --- 1398

निधन ---  1518



कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय 181



गाँठि थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह 182


खेत छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह 183


चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार
वाके अंग लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार 184


घी के तो दर्शन भले, खाना भला तेल
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल 185


गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच 186


चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय
दुइ पाटन के बीच में, साबित बचा कोय 187


जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि 188


जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव 189


जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल 190



13 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक प्रयास ....!!
    आभार संगीता दी.

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  2. चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
    दुइ पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय ॥ bahut accha lga ....bahut accha prayas...

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  3. जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
    तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥
    आज के समाज लिए इन कबीरदास जी की वाणी का महत्व काफ़ी बढ़ गया है।

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  4. जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
    तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥

    आभार आपका !

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  5. चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
    दुइ पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय
    कभी पुरानी नहीं पड़तीं ये सीख...

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  6. जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
    तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल !!

    kash log in bhaavnaao se poshit ho payen. sunder prayas.

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  7. घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
    दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥

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  8. विछोह की छटपटाहट फिर भी आस है ,मंजिल अब पास रे ,
    चलते ही रहना तू राही होना मत उदास रे ...
    भाव बोध को बांधे आगे बढती है रचना .
    मुझसे मिलना फिर आपका मिलना ,आप किसको नसीब होतें हैं .
    घी के तो दर्शन भी भले हैं ,तेल का क्या खाना (भाई आजकल तो सब तेल ही खाते हैं परिष्कृत ).,दानिश मंद आदमी तो दुश्मन भी ,मूर्ख की मित्रता किस काम की .

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  9. घी के तो दर्शन भी भले हैं ,तेल का क्या खाना (भाई आजकल तो सब तेल ही खाते हैं परिष्कृत ).,दानिश मंद आदमी तो दुश्मन भी ,मूर्ख की मित्रता किस काम की .

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  10. घी के तो दर्शन भी भले हैं ,तेल का क्या खाना (भाई आजकल तो सब तेल ही खाते हैं परिष्कृत ).,दानिश मंद आदमी तो दुश्मन भीअच्छा ,मूर्ख की मित्रता किस काम की .अच्छा संकलन है कबीर का .लोक अनुभव का नाम ही तो कबीर है .

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