बुधवार, 4 जुलाई 2012

प्रेमचन्द : साहित्यिक योगदान


प्रेमचन्द : साहित्यिक योगदान
मनोज कुमार

धनपत राय की शिक्षा  फ़ारसी से शुरू हुई थी। उर्दू में वे नवाब राय के नाम से अफ़साना-निगारी करते थे। चौदह-पन्द्रह वर्ष की उम्र में उन्होंने खेल-खेल में एक नाटक लिख डाला। उनके नाते के मामू की आशनाई एक दलित जाति की स्त्री से हो गई थी, जिसके चलते उन्हें उसके परिवार वालों से पिटना पड़ा था। उसी घटना को आधार बनाकर उन्होंने नाटक की रचना कर डाली थी। लेकिन कायदे से उनकी पहली उर्दू रचना “ओलिवर क्रॉमवेल” नामक लेख था जो 1903 में प्रकाशित हुआ था। यह लेख धनपत राय के नाम से बनारस से प्रकाशित पत्र “आवाज़-ए-ख़ल्क़” में प्रकाशित हुआ था। इसी पत्र में उनका पहला उर्दू उपन्यास “असरारे मआबिर उर्फ़ देवस्थान रहस्य” धारावाहिक के रूप में 1903-04 में प्रकाशित हुआ था।

कानपुर से प्रकाशित “ज़माना” में वे नवाब राय के नाम से लिखते थे। 1906 में उनका दूसरा उपन्यास “हम खुर्मा व हम शवाब” उर्दू में और 1907 में “प्रेमा अर्थात्‌ दो सखियों का विवाह” नाम से हिन्दी में प्रकाशित हुआ। “किशना” उपन्यास भी 1906 में ही प्रकाशित हुआ था। 1907 में उनकी पहली कहानी “‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन” छपी थी। “ज़माना” में 1908 में “इश्क़े दुनिया और हुब्बे वतन” कहानी प्रकाशित हुई थी। ये देश की आज़ादी के लिए अपने को क़ुरबान करने की कहानियां थीं। इसी वर्ष “ज़माना” में ही उनका उर्दू उपन्यास “रूठी रानी” धारावाहिक रूप में प्रकाशित हो रहा था।

जून 1908 में वतन-परस्ती के ज़ज़्बे से लबरेज़ उनका पहला कहानी संग्रह 'सोज़े-वतनप्रकाशित हुआ। इसमें “दुनिया का सबसे अनमोल रतन”, “शेख़ मख़मूर”, “यही मेरा वतन है”, “सिल-ए-मातम” और “इश्क़े दुनिया और हुब्बे वतन” कहानियां संकलित थीं। ये कहानियां बरतानि हुकूमत को हज़म नहीं हुई। किसी प्रकार सरकार को पता चल गया कि इस संग्रह के लेखक ‘नवाब राय’ वास्तव में धनपत राय हैं। नौकरी तो बच गईं पर उनके लिखने पर पाबंदी लगा दी गई। 'सोज़े-वतन'की हज़ारों प्रतियां क्या जली वतन को प्रेमचन्द मिल गया। नवाब की कलम पर हुकूमत की पाबन्दी हो गयी थी। नवाब भूमिगत हो गए किन्तु कलम चलती रही।  लिपि बदल गयी, जुबान कमोबेश वही रहा। तेवर वही रहे और जज्बे में कोई तबदीली मुमकिन थी क्या ?

प्रेमचन्द के नाम से दिसम्बर 1910 में ‘ज़माना’ में उनकी पहली कहानी “बड़े घर की बेटी” छपी। 1915 तक वे प्रेमचन्द के नाम से उर्दू में कहानियां लिखते रहे। इस बीच 1912 में उनका “जलवए-ईसार” नामक उर्दू उपन्यास प्रकाशित हुआ। 1915 के आसपास उनका ध्यान हिन्दी में लिखने की तरफ़ गया। उर्दू अख़बारों से आमदनी कोई खास नहीं थी। हिन्दी में लिखी उनकी पहली कहानी “सौत” थी, जो ‘सरस्वती’ के दिसम्बर 1915 के अंक में प्रकाशित हुई। इस तरह उनका उर्दू और हिंदी में साथ-साथ लिखना शुरू हुआ। 1917 में उर्दू में “बज़ारे हुस्न” उपन्यास प्रकाशित हुआ जो बाद में “सेवा सदन” नाम से हिन्दी में छपा। यह प्रेमचन्द का पहला हिंदी उपन्यास कहा जा सकता है। इसी तरह 1918 में उर्दू में छपा “गोशाए आफ़ियत” हिन्दी में “प्रेमाश्रम” नाम से प्रकाशित हुआ। ‘चौगाने हस्ती” (1922) का हिंदी रूपान्तर “रंगभूमि” नाम से 1925 में छपा। उनका पहला हिंदी में लिखा उपन्यास “कायाकल्प” (1926) है। इसके बाद निर्मला (1927), प्रतिज्ञा (1929), गबन (1931), कर्मभूमि (1932), और गोदान (1936) प्रकाशित हुआ। प्रेमचन्द का एक और अधूरा रह गया उपन्यास “मंगलसूत्र” उनकी मृत्यु के बाद 1948 में प्रकाशित हुआ।

1936 में लखनऊ में एक अधिवेशन में भाषण देते हुए प्रेमचंद जी ने कहा था,
साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है – उसका दरज़ा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।”

प्रेमचंद साहित्य को उद्देश्य परक मानते थे। इसीलिए उनके साहित्य में सामान्य मनुष्य कि पृष्ठभूमि में न रखकर केंद्र में रखा गया है और उसकी संवेदना, पीड़ा और संकट को साहित्य में उठाया गया है। प्रेमचंद के पहले हिन्दी उपन्यास साहित्य रोमानी ऐयारी और तिलस्मी प्रभाव में लिखा जा रहा था। उन्होंने उससे इसे मुक्त किया और यथार्थ की ठोस ज़मीन पर उतारा। यथातथ्यवाद की प्रवृत्ति के साथ प्रेमचंद जी हिंदी साहित्य के उपन्यास का पूर्ण और परिष्कृत स्वरूप लेकर आए। आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपने कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने प्रतिबिम्बित किया। इन्होंने अपनी रचनाओं में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन व आदर्शों को भी वर्णित किया है। जब हम उनके उपन्यासों का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि उनके साहित्य में ऐसे पात्र भी हैं जो रूढ़ि जर्ज़र संस्कारों से संघर्ष ही नहीं करते बल्कि उन औपनिवेशिक शक्तियों के ख़िलाफ़ भी खड़े होते हैं, जो उनका शोषण कर रहे हैं। उनके पात्रों में में ऐसी व्यक्तिगत विशेषताएं मिलने लगीं जिन्हें सामने पाकर अधिकांश लोगों को यह भासित होता था कि कुछ इसी तरह की विशेषता वाले व्यक्ति को हमने कहीं देखा है।

प्रेमचंद का जीवन औसत भारतीय जन जैसा है। यह साधारणत्व एवं सहजता प्रेमचंद की विशेषता है। परिवार से उन्हें गहरा लगाव था। उनके प्राण अपने लड़कों में बसते थे। प्रेमचंद दरिद्रता में जनमे, दरिद्रता में पले और दरिद्रता से ही जूझते-जूझते समाप्त हो गए। फिर भी वे भारत के महान साहित्यकार बन गए थे। उन्होंने अपने को सदा मज़दूर समझा। बीमारी की हालत में, मरने के कुछ दिन पहले तक भी अपने कमज़ोर शरीर को लिखने पर मज़बूर करते थे। कहते थे, “मैं मज़दूर हूं! मज़दूरी किए बिना  मुझे भोजन का अधिकार नहीं है।”

उनके हृदय में इतनी वेदनाएं, इतने विद्रोह भाव, इतनी चिन्गारिया थी कि वे उसे संभाल नहीं सकते थे। उनका हृदय अगर उसे प्रकट नहीं कर देता तो वे शायद पहले ही बंधन तोड़ देते। धूर्तता और मक्कारी से अनभिज्ञ, विनम्रता की वे प्रतिमूर्ति थे। लाखों-करोडों भूखे, नंगे, निर्धनों की वे ज़बान थे। धार्मिक ढ़कोसलों को ढ़ोंग मानते थे और मानवता को सबसे बड़ी वस्तु। उनके उपन्यासों में उठाई गई प्रत्येक समस्या के मूल में आर्थिक विषमताओं का हाथ है। उनके उपन्यासों में प्रत्येक घटना इसी विषमता को लेकर आगे बढती है। शायद पहली बार शोषित, दलित एवं ग़रीब वर्ग को नायकत्व प्रदान किया। इनमें मुख्य रूप से किसान, मज़दूर और स्त्रियां हैं।

प्रेमचन्द जिस समय लिख रहे थे, वह समय भारतीय समाज में पूंजीवाद का शुरुआती दौर था। पूंजीवाद ने उन सारे रिश्तों को खोखला बना दिया था, जिस पर हमारी सामाजिक संरचना टिकी थी। उन्होंने जीवन के अनुभव के संदर्भ में पूंजीवाद के अमानवीय पहलू को जहां एक ओर उभारा वहीं दूसरी ओर सामाजिक मान्यताओं, अंधविश्वासों और कुरीतियों की आलोचना भी की। सेवासदन, ग़बन, कर्मभूमि, निर्मला, प्रेमाश्रम और गोदान इन सबमें मूल रूप में वही आर्थिक और नैतिक समस्याएं हैं। ‘निर्मला’ में दहेज-प्रथा ने अनमेल विवाह की स्थिति पैदा की। धनाभाव के कारण मुंशी तोताराम के परिवार में संघर्ष चलते हैं। ‘ग़बन’ का नायक रामनाथ ‘गोदान’ के होरी को भी आर्थिक समस्या से जूझना पड़ता है। प्रेमचंद ने जो अभिशाप देखा था, अपने जीवन में भोगा था, उसी को उन्होंने अपने साहित्य में प्रमुख स्थान दिया। डॉ. नगेन्द्र कहते हैं,
“गत युग के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में आर्थिक विषमताओं के जितने भी रूप संभव थे, प्रेमचंद की दृष्टि उन सभी पर पड़ी और उन्होंने अपने ढंग से उन सभी का समाधान प्रस्तुत किया है, परन्तु उन्होंने अर्थवैषम्य को सामाजिक जीवन का ग्रंथि नहीं बनने दिया। .. उनके पात्र आर्थिक विषमताओं से पीड़ित हैं परंतु वे बहिर्मुखी संघर्ष द्वारा उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, मानसिक कुंठाओं का शिकार बनकर नहीं रह जाते।”

आज की चर्चा को एक साहित्यकार की टिप्पणियों से विराम देना चाहूंगा,
“प्रेमचन्द कोई फ़रिश्ता नहीं थे, पर शैतान भी नहीं थे; दाने-दाने को मुहताज न थे, पर अमीर भी न थे; बहुत से मामलों में दकियानूस भी थे, पर एक औसत आदमी से ज़्यादा प्रगतिशील और जागरूक थे; अंतर्विरोध उनके चरित्र में था, पर मनोवैज्ञानिक कुंठाओं से ग्रस्त नहीं थे; दुनिया के दस महान साहित्यकारों में उनकी गिनती न हो, पर हज़ारों साहित्यकारों से ऊपर उनका स्थान अवश्य है। प्रेमचन्द एक साधारण इंसान, पर बड़े लेखक हैं। भारतीय कथा साहित्य में उनका स्थान प्रथम पंक्ति में सुरक्षित है। हिंदी कथा साहित्य के सम्राट वे अपने समय में भी थे और आज भी हैं।”
***

16 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमन ।

    प्रभावी प्रस्तुती ।

    बधाईयाँ ।।


    नवाब राय से प्रेम चन्द, वो ही धनपत राय |
    ओलिवर क्रेम्वेल मूलत:, पहली प्रस्तुति आय |

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  2. sampoorn aanand le rahe hain aapke prayas se. mujhe hairani hoti hai agar unki das mahaan sahitykaron me unki ginti nahi hoti.

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  3. प्रेम चंद का साहित्य आज भी प्रासंगिक है ...उनको मेरा नमन

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  4. प्रेमचंद जी के साहित्यक योगदान के बारे में जानकारी देती सुन्दर पोस्ट अभिव्यक्ति....आभार

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  5. सहेज रही हूँ यह श्रृंखला तो.

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  6. प्रेमचंद के बाद हिंदी को दूसरे कथाकार की आज भी तलाश है... उनका साहित्य समय और सीमओं से परे है... आज भी उनकी कहानिया प्रासंगिक हैं.... नवीन सी लगती हैं.. जीवन उनका संघर्ष का पर्याय तो है ही....

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  7. उनके हृदय में इतनी वेदनाएं, इतने विद्रोह भाव, इतनी चिन्गारिया थी कि वे उसे संभाल नहीं सकते थे। उनका हृदय अगर उसे प्रकट नहीं कर देता तो वे शायद पहले ही बंधन तोड़ देते। धूर्तता और मक्कारी से अनभिज्ञ, विनम्रता की वे प्रतिमूर्ति थे। लाखों-करोडों भूखे, नंगे, निर्धनों की वे ज़बान थे। धार्मिक ढ़कोसलों को ढ़ोंग मानते थे और मानवता को सबसे बड़ी वस्तु। उनके उपन्यासों में उठाई गई प्रत्येक समस्या के मूल में आर्थिक विषमताओं का हाथ है। उनके उपन्यासों में प्रत्येक घटना इसी विषमता को लेकर आगे बढती है। शायद पहली बार शोषित, दलित एवं ग़रीब वर्ग को नायकत्व प्रदान किया। इनमें मुख्य रूप से किसान, मज़दूर और स्त्रियां हैं।
    टिप्पणियों के मोहताज़ नहीं हैं प्रेम चंद उनपर जितना समीक्षात्मक साहित्य लिखा जा चुका है वह बहुतों को नसीब नहीं है .

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  8. जानकारी परक पोस्ट.... उन्हें सादर नमन

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  9. हिंदी कथा साहित्य के सम्राट वे अपने समय में भी थे और आज भी हैं।” उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति के लिए आभार

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  10. वाकई हिंदी साहित्य में प्रेमचंद का स्थान कोई नहीं ले सकता. दुःख होता है जब कोई किसी लेखक की तुलना प्रेमचंद से करता है.

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  11. premchand hindi ke swanaamdhany rachanaakaar hain......na bhooto na bhavishyati

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  12. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है,
    स्वरों में कोमल निशाद
    और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम
    इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी
    किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.

    ..

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.

    .. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
    ..
    My web site ... खरगोश

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  13. हम सभी को पता है कि प्रेमचंद जी का योगदान अतुलनीय है।
    उनकी तुलना करना या उनको कोई क्रमांक देना उचित नही होगा।
    इस पोस्ट के लिए आपको धन्यवाद।

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  14. हम सभी को पता है कि प्रेमचंद जी का योगदान अतुलनीय है।
    उनकी तुलना करना या उनको कोई क्रमांक देना उचित नही होगा।
    इस पोस्ट के लिए आपको धन्यवाद।

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