सोमवार, 30 जुलाई 2012

कुरुक्षेत्र ....सप्तम सर्ग ....भाग --- 11 / रामधारी सिंह दिनकर



प्रस्तुत संदर्भ  जब विजय के पश्चात युधिष्ठिर सभी बंधु- बंधवों की मृत्यु से  विचलित हो कहते हैं कि यह राजकाज  छोड़ वो वन चले जाएंगे उस समय पितामह भीष्म उन्हें समझाते  हैं ---

सोचेगा वह सदा , निखिल 
अवनीतल ही नश्वर है , 
मिथ्या यह श्रम - भार , कुसुम ही 
होता कहाँ अमर है ? 

जग  को छोड़ खोजता फिरता 
अपनी एक अमरता , 
किन्तु , उसे भी अभी लील 
जाती अजेय नश्वरता । 

पर, निर्विघ्न सरणि  जग की 
तब भी चलती रहती है 
एक शिखा ले भार अपर का 
जलती ही रहती है । 

झर जाते हैं कुसुम जीर्ण दल 
नए फूल खिलते हैं 
रुक  जाते कुछ , दल में फिर 
कुछ नए पथिक मिलते हैं । 

अकर्मण्य  पंडित हो जाता 
अमर नहीं रोने से 
आयु न होती क्षीण किसी की 
कर्म भार ढ़ोने  से । 

इतना भेद अवश्य  युधिष्ठिर ! 
दोनों में  होता है , 
हँसता  एक मृत्ति पर , 
नभ में एक खड़ा रोता है । 

एक सजाता है धरती का 
अंचल फुल्ल कुसुम  से , 
भरता  भूतल में समृद्धि - सुषमा 
अपने भुज बल से । 

पंक झेलता हुआ भूमि का 
त्रिविध ताप को सहता 
कभी खेलता हुआ ज्योति से 
कभी तिमिर में बहता । 

गम अतल को फोड़ बहाता 
धार मृत्ति के पय  की 
रस पीता, दुंदुभि  बजाता 
मानवता की जय की । 

होता विदा जगत से , जग को 
कुछ रमणीय  बना कर , 
साथ हुआ था जहां , वहाँ से 
कुछ आगे पहुंचा कर । 

और दूसरा  कर्महीन चिंतन 
का लिए सहारा 
अंबुधि में निर्यान  खोजता 
फिरता विफल किनारा । 

कर्मनिष्ठ  नर की भिक्षा पर 
सदा पालते तन को 
अपने को निर्लिप्त , अधम 
बतलाते निखिल भुवन  को । 

कहता फिरता  सदा , जहां तक 
दृश्य  वहाँ तक छल  है 
जो अदृश्य , जो अलभ , अगोचर 
सत्य  वही केवल है । 

मानों सचमुच ही मिथ्या हो 
कर्मक्षेत्र  यह काया 
मानों ,  पुण्य - प्रताप मनुज के 
सचमुच ही हों  माया । 

मानों , कर्म छोड़ सचमुच ही 
मनुज सुधर  सकता  हो , 
मानों , वह अम्बर पर तज कर 
भूमि ठहर सकता हो । 

कलुष निहित , मानों सच ही हो 
जन्म - लाभ लेने में 
भुज से दुख  का विषम भार 
ईषल्लघु  कर देने में । 

गंध , रूप , रस , शब्द , स्पर्श 
मानों , सचमुच फाटक हों 
रसना , त्वचा , घ्राण , दृग, श्रुति 
ज्यों मित्र नहीं घातक हों । 

मुक्ति - पंथ  खुलता हो ,मानों ,
सचमुच , आत्महनन से 
मानों , सचमुच ही , जीवन हो 
सुलभ नहीं जीवन से । 


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