प्रेमचंद युग और उस समय की परिस्थितियां
जब भी हम प्रेमचंद जी के साहित्य का अध्ययन करते हैं तो कुछ बातों को ध्यान में रखना अत्यंतावश्यक हो जाता है ..... साहित्य में प्रेमचंद युग का एक अलग योगदान है जो अतुलनीय है. उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवम धार्मिक परिस्थियाँ कुछ ऐसी थी जिनसे प्रेरित होकर प्रेमचंद जी ने ऐयारी, तिलस्स्मी और जासूसी लेखन से निकल अपने साहित्य सृजन द्वारा तत्कालीन परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण किया. आइये आज चर्चा करते हैं प्रेमचंद जी के समय की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवम धार्मिक और आर्थिक परिस्थियाँ क्या थी और प्रेमचंद जी का उसमे क्या योगदान था.....
प्रेमचंद युग को मोटे तौर पर १८८० से १९३६ तक माना जा सकता है. यह युग भारत की दासता का युग था, जबकि पूरे भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें दृड़तापूर्वक जम गयी थीं. प्रेमचंद का साहित्य जहां एक ओर भारत की अधोगति को चित्रित करता है वहीं दूसरी ओर भारत की भावी उन्नति के पथ को सस्पर्श करता है.
१९०४ में रूस-जापान युद्ध हुआ. इसी समय के आसपास बंग-भग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, जिसका पूर्वाभास १९०४-०५ में ही मिल चुका था. इस आन्दोलन से बंगालियों में तीव्र असंतोष की भावना फैली और यह बंगाल तक ही सीमित ना रह कर उसकी ध्वनि भारत के कोने-कोने में फ़ैल गयी. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविताओं से राष्ट्रीय चेतना उभारने में बहुत सहायता पहुंचायी. यह आन्दोलन प्रेमचंद के जीवन में शक्ति के उद्गम स्रोत के रूप में ही आया और उनमे सामाजिक सोद्देश्यता की एक नयी लहर व्याप्त हो गयी. उन्होंने भी अपने साहित्य में इन्ही भावनाओं को अभिव्यक्ति देकर भारतवासियों को राष्ट्रीय जागरण की ओर उन्मुख किया.
इन कारणों के अतिरिक्त अनेक अन्य कारण भी थे, जिनसे प्रेमचंद युग में राष्ट्रीयता का पोषण हुआ. १९०७ में मिन्टो-योजना सामने आई जिसके द्वारा राष्ट्रीय जीवन को अधिक से अधिक लघु खण्डों में विभाजित करने का प्रयत्न किया गया. इसी समय रूसी राज्य क्रांति का प्रभाव भी भारत पर पड़ा. 'रंगभूमि' और 'प्रेमाश्रम' में यह प्रभाव स्पष्टतया देखा जा सकता है. इस समय जनवादी आन्दोलन की प्रमुख विशेषता थी कि इसमें हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों ने साथ-साथ भाग लिया.
अंग्रेजों ने देश की ग्रामीण व्यवस्था को पूर्णतया नष्ट कर दिया था. उन्होंने जमींदारों को मध्यस्थ बना दिया था. जमींदारों को पूरी छूट थी और उन्होंने अपना मन-माना लगान वसूल करना शुरू कर दिया. इसके अतिरिक्त जमींदारों का जीवन विलासिता का जीवन था. जो खर्चे वे स्वयं पूरा करने में असमर्थ थे, उन्हें वे किसानों से वसूल करने लगे. मालगुजारी वसूल करने के लिए अंग्रेज तरह तरह के कानून बनाते थे, जिससे किसानों को आवश्यकता से अधिक धन देना पड़ता था.
प्रेमचंद ने रंगभूमि में जनसेवक का उल्लेख किया है, जो पांडेपुर में सिगरेट का कारखाना खोलना चाहता था. वह नवीन पूंजीपतियों का चिन्ह था. जनता के सामने जब भी आता था तो स्वदेशी प्रचार की आड़ में तम्बाकू का प्रचार करना चाहता था . इन स्वदेशी पूंजीपतियों के कारण भी देश की आर्थिक स्थिति अत्यंत शोचनीय होती जा रही थी.
जहाँ तक धर्म से सम्बन्ध है, प्रेमचंद के समय में एक आन्दोलन आर्य समाज का था. इस युग में अनेक सुधारवादी आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ और धीरे धीरे धार्मिक रूढ़ियों में लोगो की आस्था कम हो गयी. प्रेमचंद साहित्य में इसका वास्तविक चित्रण मिलता है.
प्रेमचंद जिस युग में अपने साहित्य का निर्माण कर रहे थे, परंपरागत धर्म को उस रूप में ही न स्वीकार कर ज्यों का त्यों स्वीकार किया. प्रेमचंद ने अपने युग में इस विचारधारा का सूत्रपात किया वह था कि पापाचार का जीवन से पूर्णतया निराकरण हो क्योंकि वह जीवन को कलुषित करता है और उनसे कोई उपलब्धि नहीं हो सकती. उन्होंने अपने अनेक उपन्यासों में धर्म की पोल को कलंकित रूप में बताकर उससे विमुख रहने को कहा है. प्रेमचंद मानते हैं कि मन चंगा तो कठोती में गंगा.
प्रेमचंद ने माना कि ईश्वर मंदिर-मस्जिद में नहीं है, निर्धनों की झोपड़ियों में है. प्रेमचंद ने मनुष्य सेवा को ही परम धर्म स्वीकार किया है. उन्होंने इश्वर सेवा की दलील कहीं नहीं दी है. इस प्रकार प्रेमचंद युग में धर्म को एक मानववादी आधार दिया गया और बाह्याडम्बरों को पर्याप्त सीमा तक दूर किया गया.
इस युग में पराधीन देश में कर्म का उपदेश देने के लिए गीता का प्रसार हुआ और गांधी जी, एनी बेसेंट तथा बालगंगाधर तिलक आदि ने अपने अपने दृष्टिकोण से उसकी टीकाएँ लिखीं. प्रेमचंद ने रंगभूमि में गीता का सन्देश दिया.
प्रेमचंद युग एक ओर उस युग का चित्र प्रस्तुत करता है, जो परम्परागत रूढ़ियों में जकड़ा था और उससे देश का जीवन जीर्ण- शीर्ण हो गया था. प्रेमचंद के इस युग पर बाह्याडम्बर और सामंतवाद का रंग चढ़ा था, किन्तु धीरे धीरे अंग्रेजी राज्य के आधीन होते हुए भी देश में पुनरुत्थान की भावना जाग्रत होने लगी थी. यही वह युग था, जिसमे कथाकार प्रेमचंद का उदय हुआ था. उन्होंने एक सजग, ईमानदार और प्रगतिशील कथाकार होने के नाते इन परिस्थितियों को अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया, वरन पूर्ण कलात्मकता से उन्हें अपने उपन्यासों में चित्रित करने का प्रयत्न किया. इस प्रकार उनके उपन्यासों में ये सभी राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवम आर्थिक परिस्थियाँ यथार्थ रूप में उल्लेखनीय हैं.
वास्तव में प्रेमचंद उन कथाकारों में से थे, जो यह विश्वास करते थे कि व्यक्ति एक सामाजिक इकाई है. वह समाज की सीमाओं के भीतर ही बनता बिगड़ता है. समाज की सत्ता सर्वोपरि होती है. इसलिए प्रेमचंद जी ने समाज की ज्वलंत समस्याओं की कभी उपेक्षा नहीं की, और न कभी उन्हें अविश्वसनीय ढंग से ही चित्रित किया. अपने काल की सभी परिस्थियों का प्रेमचंद जी ने अपनी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि से अध्ययन किया, मूल तत्वों का अन्वेषण किया और प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना करते हुए सामयिक सामाजिक सत्यों का चित्रण किया. यही वो बाते हैं जो हमें प्रेमचंद जी के साहित्य अध्ययन करते समय याद रखनी चाहियें.
अब तक के पोस्ट : प्रस्तुतकर्ता
1. प्रेमचन्द : संघर्षमय जीवन – मनोज कुमार
2. प्रेमचन्द : साहित्यिक योगदान – मनोज कुमार
3. प्रारब्ध / कहानी / मुंशी प्रेमचंद – संगीता स्वरूप
4. हिंदी के अमर कथाकार,उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद ... – मनोज भारती
प्रेमचंद ही एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन्हें शायद हर बच्चे ने पढ़ा होगा और समझा होगा...
जवाब देंहटाएंपूरे माह उनके विषय में पढ़ना सुखकर होगा.
आभार
अनु
बहुत उपयोगी जानकारी .....
जवाब देंहटाएंमुंशी प्रेम चंद के साहित्य को उस समय की परिस्थितियों के अनुरूप जानना अच्छा लगा ॥
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद जी का साहित्य जिन परिस्थितियों कों रेखांकित करता है अपना समाज आज भी उनसे ज्यादा बाहर नहीं है ... बहुत अच्छा लिखा है आपने ..
जवाब देंहटाएंसाहित्य हमारे समाज का आइना होता है ..इस बात को प्रेमचंद की रचनाओं में सार्थक रूप से पाया जाता है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट.
प्रेमचंद जी भी अपने वक़्त में जीते थे उनकी हर रचना में हर कहानी वो परिवेश स्पष्ट झलकता है प्रेम चाँद जी की कहानियां आज भी वैसे ही याद है प्रेम चंद जी को नमन आपको बहुत आभार
जवाब देंहटाएंsangrahneey shrinkhla
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद मेरे बहुत ही प्रिय कथाकार हैं ! उनकी हर रचना मन पर अक्षुण्ण प्रभाव छोडती है और आत्म चिंतन के लिए विवश करती है ! उनके साहित्य को जिन सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थतियों ने गहराई से प्रभावित किया उन पर आपने बहुत अच्छा प्रकाश डाला है ! प्रेमचंद पर और प्रस्तुतियों की प्रतीक्षा रहेगी ! आभार आपका !
जवाब देंहटाएंलेखक का लिखा आमजन समझ ही न सके तो इसका क्या औचित्य ?
जवाब देंहटाएंअपनी कहानियों में प्रेमचंद ने सामाजिक समस्याओं को शामिल किया था ..
वे जन जन के लेखक थे ..
उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता !!
बहुत सारगर्भित आलेख...
जवाब देंहटाएंप्रेम चंद जी के लेखन में सबसे अच्छी बात यह है कि आप खुद को उनको पात्रों से जुड़ा हुआ पाते हैं. यही बात दिलको छू जाती है. बहुत सुंदर आलेख पठनीय और संग्रहणीय.
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद युगीन परिस्थितियों को जानना अच्छा लगा। साहित्य समाज का दर्पण है। यह बात मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों पर शब्दश: लागू होती है।
जवाब देंहटाएंअनामिका जी,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो आभार आपका कि आप हमारे आयोजन में शामिल हुईं और इस बेहतरीन रचना को “राजभाषा हिंदी” ब्लॉग के पाठक के सामने लाईं। मुझे आशा है कि ३१ जुलाई तक आप पुनः प्रेमचन्द जी के किसी और पक्ष को लेकर आएंगी।
इस आलेख के संबंध में इतना ही कहना है कि प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में युग प्रवर्तक रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। वे युगदृष्टा हैं। वे अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अस्थिरता से भलीभाँति परिचित थे। उनके समय स्वतंत्रता संग्राम के कारण देश की राजनीति में सत्ता व जनता के मध्य टकराव जारी था तो समाज में सामंती-महाजनी सभ्यता अपने चरम पर थी। शोषण और शोषित के बीच खाई बढ़ती जा रही थी। गरीब त्रासदपूर्ण जीवन जीने के लिए विवश था। प्रेमचन्द ने मध्य और निर्बल वर्ग की नब्ज पर हाथ रखा और उनकी समस्याओं, जैसे विधवा विवाह, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, आर्थिक विषमता, पूँजीवादी शोषण, महाजनी, किसानों की समस्या तथा मद्यपान आदि को अपनी कहानी का कथानक बनाया। तत्कालीन परिस्थितियों में शायद ही कोई ऐसा विषय छूटा हो जिसे प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में जीवंत न किया हो।
मनोज जी अगली कड़ी में इन्ही सब बातों का उल्लेख रहेगा....बस थोड़ा इंतजार कीजिये.
हटाएंधन्यवाद.
प्रेमचंद के जीवन की परिस्थितियाँ उनसे लिखवाती रहीं ,और वे आपनी आँखों-देखी ईमानदारी से अंकित करते रहे समाज के प्रति अपना दायित्व उन्होंने पूरी तरह निभाया . साहित्य को वायवी वस्तु नमान कर ठोस धरती की आधारभूमि पर प्रतिष्ठित किया .ग्रामीण जीवन का ऐसा महाकाव्य इससे पहले हिन्दी जगत के लिये अलभ्य था .
जवाब देंहटाएंहमारा साहित्य उनका सदा ऋणी रहेगा !
अनामिका जी ,आज के पाठकों को उनसे मिलवाने के लिये आभार !
आप सब ने इस शृंखला में इतनी रूचि ली और यहाँ आये. आपकी आभारी हूँ.
हटाएंखरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है
जवाब देंहटाएंजो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का
प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता
है...
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने
दिया है... वेद जी को अपने संगीत
कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती
है...
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