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गुरुवार, 31 मई 2012

विपथगा


आदरणीय  पाठक वृन्द को   अनामिका का नमस्कार  ! लीजिये जी आ गया ब्रहस्पतिवार  और प्रस्तुत है दिनकरजी के साहित्यिक जीवन सफ़र का एक और नया पृष्ठ  जिसमे दिनकरजी बताते हैं  नौकरी करने की विवशता और अपने द्विमनस्क व्यक्तित्व की व्यथा....

दिनकरजी जीवन दर्पण -10


लीजिये चार पंक्तियाँ दिनकर जी के ही शब्दों में....


कलि की पंखडी पर ओस कण में 
रंगीले स्वप्नों का संसार हूँ मैं,
मुझे क्या आज ही या कल झडू मैं 
सुमन हूँ एक लघु उपहार हूँ मैं.

सन १९३९ से लेकर १९४५ तक दिनकरजी ने जो कुछ भी लिखा, उससे उनकी उग्र राष्ट्रीयता  में कहीं भी कोई कमी  नहीं दिखाई देती. फिर भी सरकार ने उन्हें जहाँ बिठा दिया था वह राष्ट्र विरोधी कामों की जगह थी . इससे  निस्तार उनका तभी हो सकता था यदि वे नौकरी से इस्तीफा दे देते. पर गरीबी से भीत होकर वे उससे चिपके रहे और निंदा, कुत्सा तथा कलंक की बातें सुनकर भी उन्होंने नौकरी नहीं छोड़ी. परिणामतः उनके व्यक्तित्व में वह सुगंध आने से रह गयी जो विद्रोह की वाणी से नहीं, बगावत में व्यवहारिक भग लेने से आती है. चक्रवाल की भूमिका में उन्होंने लिखा है - राजनीति में आने से मैं बचना चाहता था और अंत तक मैं उससे बच भी गया. " बच तो वो गए, किन्तु इसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी, बाद ना होने पर भी बदनामी से ना बचे . युद्ध प्रचार ऐसी ही काजल की कोठरी थी. युद्ध प्रचार विभाग ने चाहा कि प्रचार साहित्य पर दिनकरजी का नाम जाया करें. पर इस मामले में वे बेदाग निकल गए और अपना नाम उन्होंने कहीं भी जाने नहीं दिया.  वे एक कलम से साहित्य और दूसरी कलम से साहित्य लिखते आये थे. तलवार की धार पर यह निरंतर यात्रा उनके व्यक्तित्व की खास चीज़ रही.

फिरंगिया लोकगीत के विख्यात रचयिता और हिंदी के कवि प्रिंसिपल मनोरंजनप्रसाद सिंह ने, जो दिनकर जी के ख़ास मित्रों में से रहे, एक दिन दिनकरजी से कहा - दिनकर तुम्हारी निंदा मुझसे सुनी नहीं जाती, और यहाँ रहने में भी अब कल्याण कहाँ रहा.  लगता है जापान इस देश पर भी कब्ज़ा कर लेगा. तब क्या करोगे ?

दिनकर ने कहा - जापान आया, तो मैं अंत तक उसका विरोध करूँगा. क्या देश ने आन्दोलन इसलिए छेड़ा है कि वह फिर किसीका गुलाम हो जाए ?

पर युद्ध जब समाप्ति के पास आया, उन्होंने उस निन्दित पद से हट जाने के लिए छुट्टियों के बहाने दो-दो बार इस्तीफे दिए, लेकिन इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ. सरकार ने कहा - यदि तुम बीमार हो तो आफिस मत आओ, घर पर ही थोड़ा काम करते रहो.

दिनकरजी घर पर ही रहने लगे और इसी क्रम मे उन्होंने 'कुरुक्षेत्र' काव्य पूरा किया.

उन्होंने अपनी तत्कालीन मनोदशा की व्याख्या करते हुए बताया - रूस के आने से युद्ध का रूप बदल गया, इस प्रचार का मुझपर असर तो पड़ा था. यदि मैं स्वयं ही युद्ध का समर्थक नहीं हो गया होता, तो अंग्रेज मेरा तबादला युद्ध प्रचार विभाग में नहीं करते. फिर मैं यह भी समझता था कि यही मौका है जब देश गुलामी का खूंटा तोड़ कर भाग सकता है. रूस का मैं परम प्रशंसक रहा था, जैसे प्रशंसक मेरे अन्य साथी-संगी भी थे. नौकरी में रहने के कारण मैं अपनी माप सरकारी नौकरों को मापने वाले गज से करता था. पर सत्यवादी तो खुली राजनीति में थे. उन्होंने जब आन्दोलन का साथ नहीं दिया, तब इस बात से मुझे चोट लगी. मेरी 'दिल्ली और मास्को'  कविता को समझने की यही कुंजी है.

दिनकरजी की व्यथा द्विमनस्क व्यक्तित्ववाले मनुष्य की व्यथा थी और जो भी बुद्दिमान व्यक्ति सरकारी नौकरी में जाता था, वह इस फटे व्यक्तित्व का शिकार होने से कदाचित ही बच पाता था. दुख है कि दिनकर जी भी इसके अपवाद नहीं हो सके.

और सरकारी नौकरी के कारण यह हाल उस कवि का हुआ जो जनता का हृदयहार था. दिनकरजी ने 'नयी दिल्ली' नामक अपनी विस्फोट भरी  कविता की रचना सन १९३३ में की थी, यद्यपि वह कविता १९३७ में प्रकाशित हुई, जब प्रान्तों में पहले-पहल कांग्रेसी सरकारें कायम हुई थीं. पर इन चार वर्षों के भीतर छिपे-छिपे ही वह कविता हिंदी प्रान्तों में सर्वत्र पहुँच चुकी थी. सन १९३३ के ही अंत में दिनकर जी ने 'हिमालय' और तांडव' दो कवितायें लिखी, जिनमे भूकंप का आह्वान था. और १९३४ की १५ जनवरी को बिहार में सचमुच ही भयानक भूकंप आ गया. यहाँ तक सुना गया कि हो न हो यह भूकंप दिनकरजी की कविताओं से आहूत है. दिनकरजी ने 'विपथगा' अपनी दूसरी क्रन्तिकारी कविता १९३८ में लिखी थी. उसमे एक पंक्ति आती है - अब की अगस्त्य की बारी है, पापों के पारावार ! सजग !

जब क्रांति १९४२ के अगस्त महीने में आ खड़ी हुई, दिनकरजी के एक मित्र जो पुलिस सुपरिटेंडेंट थे उनसे कहने आये - दिनकरजी क्या तुमने सपने में भी भविष्य देखा था ? 'विपथगा' में तात्पर्य अगस्त्य ऋषि से था, किन्तु उसका मेल अगस्त महीने से भी बैठ गया. मध्यकाल में ऐसी ही उक्तियों को लोग शायद कवि की भविष्यवाणी  समझा करते थे.

क्रमशः 

विपथगा  

विपथगा कविता बहुत लम्बी है इसलिए इसका  कुछ अंश ही प्रस्तुत कर पा रही हूँ. -

झन- न न- न- न  झनन- झनन,
झन- न न- न- न  झनन- झनन,

मेरी पायल  झनकार रही तलवारों की झनकारों में 
अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुंकारों में !

मैं अहंकार सी कड़क ठठा हन्ति विद्युत् की धारों में,
बन काल-हुताशन खेल रही पगली मैं फूट पहाड़ों में,
अंगडाई में भूचाल, सांस में लंका के उनचास पवन !
           झन- न न- न- न  झनन- झनन !

मेरे  मस्तक  के आतपत्र  खर काल-सर्पिणी  के  शत फन,
मुझ चिर-कुमारियों के ललाट में नित्य नवीन रुधिर-चन्दन
आँजा  करती  हूँ  चिता-धूम का दृग में अंध तिमिर-अंजन,
संहार-लापत  का  चीर  पहन  नाचा  करती मैं छूम-छनन !
                   झन- न न- न- न  झनन- झनन !

पायल की पहली झमक, सृष्टि में कोलाहल छा जाता है
पड़ते  जिस  ओर  चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है.
लहराती लपट दिशाओं में, खलभल खगोल अकुलाता है,
परकटे विहाग-सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग नरक जल जाता है,
गिरते  दहाड़  कर  शैल-श्रृंग मैं जिधर फेरती हूँ चितवन !
                 झन- न न- न- न  झनन- झनन !

रस्सों से कसे जबान पाप-प्रतिकार न जब कर पाते हैं,
बहनों की लुटती लाज देखकर काँप-कांप रह जाते हैं,
शस्त्रों  के  भय  से जब निरस्त्र आंसू भी नहीं बहाते हैं,
पी अपमानों के गरल-घूँट शासित जब ओठ चबाते हैं,
जिस दिन रह जाता क्रोध मौन, मेरा वह भीषण जन्म लगन 
                 झन- न न- न- न  झनन- झनन!

पौरुष को बेडी डाल पाप का अभय रास जब होता है,
ले जगदीश्वर का नाम-खडग कोई दिल्लीश्वर धोता है,
धन के विलास का बोझ दुखी-दुर्बल दरिद्र जब ढोता है,
दुनियां को भूखों मार भूप जब सुखी महल में सोता है,
सहती कब कुछ मन मार प्रजा,कसमस करता मेरा यौवन 
              झन- न न- न- न  झनन- झनन !

श्वानों  को  मिलते  दूध-वस्त्र,  भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं,
युवती के लज्जा वासन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक  जब  तेल-फुलेलों  पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं,
पापी  महलों  का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण !
              झन- न न- न- न  झनन- झनन !

डरपोक हुकूमत जुल्मों से लोहा जब नहीं बजाती है,
हिम्मतवाले कुछ कहते हैं, तब जीभ तराशी जाती है,
उलटी  चालें  ये  देख  देश  में  हैरत-सी  छा  जाती है,
भट्ठी की ओदी आंच छिपी तब और अधिक धुन्धुआती है,
सहसा  चिंघार  खड़ी  होती दुर्गा मैं करने दस्यु-दलन !
               झन- न न- न- न  झनन- झनन !

चढ़कर जूनून-सी चलती हूँ, मृत्युंजय वीर कुमारों पर,
आतंक  फ़ैल  जाता  कानूनी  पार्लमेंट,  सरकारों पर,
'नीरों'  के  जाते  प्राण  सूख  मेरे  कठोर  हुंकारों पर,
कर  अट्टहास  इठलाती  हूँ  जारों के हाहाकारों पर,
झंझा  सी पकड़ झकोर हिला देती दम्भी के सिंहासन !
               झन- न न- न- न  झनन- झनन !

(हुंकार ) 

गुरुवार, 10 मई 2012

दिगम्बरी


सभी सुधि जनों को अनामिका का सादर नमन ! आज प्रस्तुत है साहित्य सेवा और नौकरी दो नावों में सवार दिनकर जी के जीवन के संघर्ष की दास्तान...


दिनकर जी जीवन दर्पण-भाग-7


दिनकर जी अपना परिचय देते हुए लिखते हैं....

सलिल कण हूँ या पारावार हूँ मैं 
स्वयं छाया, स्वयं आधार  हूँ मैं
बंधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत्त मैं हूँ 
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ  मैं !!

अब आगे ...

यह बड़ी अचरज की बात थी कि हिंदी का यह महान कवि अंग्रेजी सरकार कि नौकरी में फंस गया, जिसके भीतर से भारत की राष्ट्रीयता अपनी सबसे निर्भीक आवाज़ उठाने वाली थी. पर यह स्थिति उतनी अनहोनी नहीं है. 'वन्देमातरम' के कवि और 'आनंदमठ' के लेखक बंकिमचंद्र चटर्जी, राष्ट्रीय उपन्यासकार रमेशचंद्र दत्त, राष्ट्रीय नाटककार डी. एल. राय सभी सरकारी नौकर थे. इनके अलावा आशुतोष मुखर्जी, महादेव गोविन्द रानडे भी सरकारी नौकर थे. दिनकरजी की सरकारी नौकरी की आड़ लेकर उनके निंदकों ने उनकी भीतर-भीतर बुराई की, इसका कारण शायद यह है कि वे अपेक्षाकृत छोटी नौकरी करते थे.

नौकरी के दिन अमन-चैन से नहीं बीते. स्वयं दिनकरजी से खोद-खोद कर पूछने पर जिन बातों का पता लगा, वे काफी दिलचस्प हैं. स्कूल की मास्टरी छोड़कर जब दिनकर जी सब-रजिस्ट्रारी में जाने लगे, तब उनके परम मित्र रामवृक्ष बेनीपुरी ने उनके इस इरादे का विरोध किया था. पर जब वे नौकरी में चले गए, राष्ट्रपति राजेन्द्रबाबू ने बनारसीदास जी चतुर्वेदी से कहा था - दिनकरजी को दो में से एक को त्यागना पड़ेगा, या तो कविता को या नौकरी को.

किन्तु दिनकरजी ने साहित्य और नौकरी दो नावों पर पैर रखे, जैसा  बंकिमचंद्र, रमेशचंद्र दत्त, और  डी. एल. राय रख सके. प्रेमचंद  जी को एक नाव छोडनी पड़ी. इससे स्पष्ट है कि परिस्थितियों से वे केवल जूझना ही नहीं, समझौता करना भी जानते थे. दिनकरजी में समझौते की  प्रवृति थी और इसी प्रवृति से विविध संघर्ष झेलकर वे इतनी दूर तक आ सके और ऐसा कहना शायद संभव नहीं कि बचा सकते तो वह अजूबा ही होता. वह स्वयं नहीं, उनकी सारी अक्षौहिणियां राष्ट्रीयता के पक्ष में रहीं, यदि एकाध सैनिक भटक कर दुर्योधन के शिविर में पहुँच गया तो उससे दिनकर की राष्ट्रीयता का महाभारत अशुद्ध नहीं हो जाता.

1935 में दिनकरजी ने बिहार प्रादेशिक साहित्य सम्मेलन के साथ होनेवाले छपरा कवि सम्मेलन का सभापतित्व किया था. उस सम्मेलन में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध कई कवितायें  पढ़ी गयी थी . एक कविता श्री ललित कुमार सिंह नटवर ने भी पढ़ी थी, जो ब्रिटिश सरकार द्वारा गोलमेज सम्मेलन के अवसर पर प्रकाशित श्वेतपत्र के बारे में थी. सम्मेलन के बाद सरकार ने दिनकरजी से कैफियत तलब की, कि -

१. उस सम्मेलन में सम्मिलित होने के पूर्व तुमने सरकार से अनुमति क्यूँ नहीं मांगी और 
२. सभापति की हैसियत से तुमने कवियों को सरकार के विरुद्ध कवितायेँ पढने से क्यूँ नहीं रोका ?

दिनकर जी ने जवाब दिया, सांस्कृतिक सभाओं में जाने के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता मैंने नहीं समझी और कवियों को यदि मैं कवितायें पढने से रोकता, तो जनता उनकी ओर और भी आकृष्ट होती. सरकार ने कदाचित अंतिम तर्क को गौरव प्रदान किया और शायद इसीके फलस्वरूप इनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गयी.

1935 में ही जब  'रेणुका'  पहले पहल निकली, तो हिंदी संसार ने तुरंत उसे सर आँखों पर उठा लिया. 'माधुरी' में प्रकाशित एक लेख में ' रेणुका' की गड़ना हिंदी की सर्वश्रेष्ठ सौ पुस्तकों में की गयी और बिहार के हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं के पत्रों ने उसका स्वागत बड़े ही उत्साह से किया.

इससे सरकार के कान  खड़े हो गए. फिर क्या था, सेक्क्रीटेरीएट में इसका अंग्रेजी अनुवाद तैयार किया गया और दिनकरजी को फिर चेतावनी दी गयी. यह चेतावनी मुजफ्फरपुर के जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर बौस्टेड के द्वारा दिलाई गयी थी.  बौस्टेड ने पूछा - क्या आप 'रेणुका' के लेखक हैं ?

दिनकरजी ने हामी भरी.  बौस्टेड बोले - आपने सरकार विरोधी कवितायेँ क्यों लिखी ? पुस्तक प्रकाशित करने के पूर्व सरकार से अनुमति क्यों नहीं मांगी ?

दिनकरजी ने कहा - मेरा भविष्य साहित्य में है. अनुमति मांगकर किताबें छपवाने से मेरा भविष्य बिगड़ जायेगा. और मेरे कहना यह है कि रेणुका की कवितायें सरकार विरोधी नहीं, मात्र देशभक्ति पूर्ण हैं. यदि देशभक्ति अपराध हो, तो मैं वह बात जान लेना चाहता हूँ.

 बौस्टेड ने कहा - देशभक्ति अपराध नहीं है और अपराध वह  कभी नहीं होगी, पर आप संभल कर चलें.

दिनकरजी के विरुद्ध एक बार फिर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

इसके बाद जब  'हुंकार' प्रकाशित हुआ, सरकार के कान फिर खड़े हो गए. इस बार चेतावनी मुंगेर के जिला मैजिस्ट्रेट द्वारा दिलवाई गयी. उस समय मुंगेर के जिला मजिस्ट्रेट रायबहादुर विष्णुदेव नारायणसिंह थे, जो बाद में रांची विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे. ब्रिटिश सरकार के आधीन कुछ ऐसे भी भारतीय अफसर थे जो भीतर ही भीतर राष्ट्रीयता के भक्त थे. विष्णुदेव नारायणसिंह ने दिनकर से कहा - यह रोज रोज का टंटा क्यों किए चलते हैं ? सरकारी अफसरों के लिए यह अच्छा नहीं है कि उनके पीछे ख़ुफ़िया लगे फिरें. अनुमति लेकर किताबें प्रकाशित करवाइए और नौकरी को निरापद रखिये.

दिनकरजी ने कहा - मेरे सिर पर गरीब परिवार का भारी बोझ है. मैं नौकरी छोड़ने की  स्थिति में नहीं हूँ. और अनुमति मांगूंगा तो फिर कविता लिखने से क्या लाभ ? कहिये तो कविता लिखना छोड़ दूँ.

इस पर जिला मजिस्ट्रेट बोले - अरे, कविता न लिखने से तो देश का ही नुक्सान होगा. मुझे जो कुछ कहना था, मैंने कह दिया.

क्रमशः

इसी प्रकार के दमघोंटू वातावरण में दिनकर जी को जनता का प्यार मिलता रहा और  लेखनी विस्तार पाती रही .....लीजिये हुंकार से ही ली गयी दिनकर जी की 'दिगम्बरी' कविता.

दिगम्बरी 

उदय-गिरी  पर  पिनाकी  का  कहीं  टंकार  बोला,
दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला.
                      (१)
तिमिर के भाल पर चढ़ कर विभा के बाणवाले,
खड़े  हैं  मुन्तजिर कब से  नए अभियानवाले !
प्रतीक्षा है,  सुने  कब व्यालिनी  !  फुंकर तेरा ?
विदारित  कब  करेगा  व्योम को हुंकार तेरा  ?
दिशा  के  बंध  से  झंझा  विकल  है छूटने को ;
धरा  के  वक्ष  से  आकुल  हलाहल फूटने  को !
कलेजों  से लगी बत्ती कहीं  कुछ  जल  रही है ;
हवा की सांस  पर बेताब सी कुछ चल रही है !
धराधर को  हिला  गूंजा  धरणी से  राग कोई,
तलातल  से  उभरती  आ  रही  है आग कोई !
क्षितिज के भाल  पर  नव सूर्य के सप्ताष्व बोले 
चतुर्दिक  भूमि   के  उत्ताल  पारावार   बोला !
नये  युग की भवानी, आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी! बोल,अम्बर में किरण का तार बोला !
                         (२)
थकी  बेडी कफस की हाथ  में सौ बार बोली,
ह्रदय पर झनझनाती टूट कर तलवार बोली,
कलेजा मौत ने जब-जब टटोला इम्तिहाँ में,
जमाने को तरुण की टोलियाँ ललकार बोलीं!
पुरातन  और  नूतन  वज्र  का  संघर्ष  बोला,
विभा सा कौंध कर भू का नया आदर्श बोला,
नवागम-रोर  से जागी बुझी -ठंडी चिता भी,
नयी  श्रृंगी  उठाकर  वृद्ध  भारतवर्ष  बोला !
दरारें  हो   गयीं  प्राचीर  में  बंदी  भवन  के
हिमालय की दरी का सिंह भीमाकार बोला !
नये युग की भवानी, आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी! बोल,अम्बर में किरण का तार बोला.
                       (३)
लगी  है धुल  को परवाज़, उडती जा रही है,
कड़कती दामिनी  झंझा कहीं से आ रही है !
घटा  सी दीखती जो, वह  उमड़ती आह मेरी,
कड़ी जो विश्व का पथ रोक, है वह चाह मेरी !
सजी  चिंगारियां,  निर्भय प्रभंजन मग्न आया,
क़यामत की घडी आई, प्रलय का लग्न आया !
दिशा गूंजी, बिखरता व्योम  में उल्लास आया,
नए  युगदेव  का नूतन  कटक लो पास आया !
पहन  द्रोही  कवच  रण  में  युगों के मौन बोले,
ध्वजा  पर चढ़ अनागत धर्म का हुंकार बोला !
नए  युग  की  भवानी,  आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण  का तार बोला !
                     (४)
ह्रदय  का  लाल  रस  हम  वेदिका  में दे  चुके हैं,
विहंस कर विश्व का अभिशाप सिर पर ले चुके हैं !
परीक्षा  में  रुचे,  वह  कौन हम  उपहार  लायें ?
बता,  इस  बोलने  का मोल  हम  कैसे चुकाएं ?
युगों  से   हम  अनय  का  भार  ढोते  आ रहे हैं,
न  बोली तू,  मगर, हम  रोज मिटते जा रहे हैं !
पिलाने   को   कहाँ  से  रक्त  लायें  दानवों  को ?
नहीं क्या स्वत्व है प्रतिकार का हम मानवों को ?
जरा   तू  बोल  तो,  सारी  धरा  हम  फूंक  देंगे,
पड़ा  जो  पंथ  में  गिरी,  कर  उसे  दो टूक देंगे !
कहीं  कुछ  पूछने  बूढा  विधाता  आज  आया,
कहेंगे  हाँ,  तुम्हारी  सृष्टि  को हमने मिटाया !
जिला फिर  पाप को टूटी  धरा यदि  जोड़ देंगे,
बनेगा जिस तरह उस सृष्टि को हम फोड़ देंगे !
ह्रदय  की  वेदना  बोली  लहू  बन  लोचनों में,
उठाने  मृत्यु  का  घूघट  हमारा  प्यार बोला !
नए  युग  की भवानी, आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला !

(हुंकार) 

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

कुरुक्षेत्र ... पंचम सर्ग .... भाग–2 --और --3 / रामधारी सिंह 'दिनकर'


प्रस्तुत भाग में युद्ध समाप्त होने पर जब युधिष्ठिर विजयी हो कर लौटते हैं और द्रौपदी उनकीअगवानी करने के लिए खड़ी हैं ... उस समय की उनकी मनोदशा को कवि ने अपने शब्दों में वर्णित किया है ...

इस काल – गर्भ में किन्तु , एक नर ज्ञानी
है खड़ा कहीं पर भरे दृगों में पानी ,
रक्ताक्त दर्प को पैरों तले दबाये ,
मन में करुणा का स्निग्ध प्रदीप जलाए ।
 
सामने प्रतीक्षा – निरत जयश्री बाला
सहमी सकुची है खड़ी लिए वरमाला ।
पर , धर्मराज कुछ जान नहीं पाते हैं ,
इस रूपसी को पहचान नहीं पाते हैं ।
 
कौंतेय भूमि पर खड़े मात्र हैं तन से ,
हैं चढ़े हुये अपरूप लोक में मन से ।
वह लोक , जहां विद्वेष पिघल जाता है
कर्कश , कठोर कालायस गल जाता है ;
 
नर जहां राग से होकर रहित विचरता ,
मानव , मानव से नहीं परस्पर डरता ;
विश्वास – शांति का निर्भय राज्य जहां है ,
भावना स्वार्थ की कलुषित त्याज्य जहां है ।
 
जन – जन के मन पर करुणा का शासन है
अंकुश सनेह का , नय का अनुशासन है ।
है जहां रुधिर से श्रेष्ठ अश्रु निज पीना ,
साम्राज्य  छोड़ कर भीख मांगते जीना ।
 
वह लोक जहां शोणित का ताप नहीं है ,
नर के सिर पर रण का अभिशाप नहीं है ।
जीवन समता की छांह – तले पलटा है ,
घर – घर पीयूष – प्रदीप जहां जलता है ।
 
अयि विजय ! रुधिर से क्लिन्न वासन है तेरा ,
यम दृष्टा से क्या भिन्न दशन है तेरा ?
लपटों की झालर झलक रही अंचल में ,
है धुआं ध्वंस का भरा कृष्ण कुंतल में ।
 
ओ कुरुक्षेत्र की सर्व-ग्रासिनी व्याली ,
मुख पर से तो ले पोंछ रुधिर की लाली ।
तू जिसे वरण करने के हेतु विकल है ,
वह खोज रहा कुछ और सुधामय फल है ।
 
वह देख वहाँ , ऊपर अनंत अंबर में ,
जा रहा दूर उड़ता वह किसी लहर में
लाने धरणी के लिए सुधा की सरिता ,
समता प्रवाहिनी , शुभ्र स्नेह – जल – भरिता ।
 
सच्छान्ति जागेगी इसी स्वप्न के क्रम से ,
होगा जग कभी विमुक्त इसी विध यम से ।
परिताप दीप्त होगा विजयी के मन में ,
उमड़ेंगे जब करुणा के मेघ नयन में ;
 
जिस दिन वधको वध समझ जयी रोएगा
आँसू से तन का रुधिर – पंक धोएगा ;
होगा पथ उस दिन मुक्त मनुज की जय का
आरम्भ भीत धरणी के भाग्योदय का ।
 
संहार सुते ! मदमत्त जयश्री वाले !
है खड़ी पास तू किसके वरमाला ले ?
हो चुका विदा तलवार उठाने वाला ,
यह है कोई साम्राज्य लुटाने वाला ।
 
रक्ताक्त देह से इसको पा न सकेगी
योगी को मद – शर मार जगा न सकेगी ।
होगा न अभी इसके कर में कर तेरा ,
यह तपोभूमि , पीछे छूटा घर तेरा ।
 
लौटेगा जब तक यह आकाश – प्रवासी ,
आएगा तज निर्वेद –भूमि सन्यासी ,
मद – जनित रंग तेरे न ठहर पाएंगे
तब तक माला के फूल सूख जाएँगे ।
 
क्रमश:
 


 भाग ----3 

प्रस्तुत भाग में  जब पितामह भीष्म युद्ध समाप्ति के बाद युधिष्ठिर को समझाते हैं कि यह युद्धआवश्यक था तो युद्ध के पश्चात के वीभत्स दृश्यों को देख युधिष्ठिर के मन के भावों का कवि ने सटीक वर्णन किया है ...

बुद्धि बिलखते उर का चाहे जितना करे प्रबोध ,
सहज नहीं छोड़ती प्रकृति लेना अपना प्रतिशोध ।

चुप हो जाए भले मनुज का हृदय युक्ति से हार ,
रुक सकता पर , नहीं वेदना का निर्मम व्यापार ।

सम्मुख जो कुछ बिछा हुआ है ,निर्जन, ध्वस्त ,विषण्ण ,
युक्ति करेगी उसे कहाँ तक आँखों से प्रच्छ्न्न ?

चलती रही पितामह- मुख से कथा अजस्र ,अमेय ,
सुनते ही सुनते , आँसू में फूट पड़े कौंतेय ।

हाँ , सब हो चुका पितामह , रहा नहीं कुछ शेष ,
शेष एक आँखों के आगे है यह मृत्यु - प्रदेश -

जहां भयंकर भीमकाय शव - सा निस्पंद , प्रशांत ,
शिथिल श्रांत हो लेट गया है स्वयं काल विक्रांत ।

रुधिर - सिक्त - अंचल में नर के खंडित लिए शरीर ,
मृतवत्सला विषण्ण  पड़ी है धरा मौन , गंभीर ।

सड़ती हुई विषाक्त गंध से दम घुटता सा जान ,
दबा नासिका निकाल भागता है द्रुतगति पवमान ।

सीत - सूर्य अवसन्न डालता सहम - सहम कर ताप ,
जाता है मुंह छिपा घनों में चाँद चला चुपचाप ।

वायस , गृद्ध , शृगाल, स्वान , दल के दल  वन - मार्जार ,
यम के अतिथि विचरते सुख से देख विपुल  आहार ।

मनु का पुत्र बने पशु - भोजन ! मानव का यह अंत !
भरत - भूमि के नर वीरों की यह दुर्गति , हा , हंत !

तन के दोनों ओर झूलते थे जो शुंड विशाल ,
कभी प्रिया का कंठहार बन , कभी शत्रु का काल -

गरुड - देव के पुष्ट पक्ष - निभ दुर्दमनीय, महान ,
अभय नोचते आज उन्हीं को वन के जम्बुक , श्वान ।

जिस मस्तक को चंचु मार कर वायस रहे विदार ,
उन्नति - कोश जगत का था वह , स्यात ,स्वप्न -भांडार ।

नोच नोच खा रहा गृद्ध जो वक्ष किसी का चीर ,
किसी सुकवि का , स्यात , हृदय था स्नेह सिक्त गंभीर ।

केवल गणना ही नर की कर गया न कम विध्वंस ,
लूट ले गया है वह कितने ही अलभ्य  अवतंस ।

नर वरेण्य , निर्भीक , शूरता के ज्वलंत आगार ,
कला , ज्ञान , विज्ञान , धर्म के मूर्तिमान  आधार -

रण की भेंट चढ़े सब ; हृतरत्ना  वसुंधरा दीन ,
कुरुक्षेत्र से निकली है होकर अतीव श्रीहीन  ।

विभव , तेज , सौंदर्य , गए सब दुर्योधन के साथ ,
एक शुष्क कंकाल लगा    है मुझ पापी के हाथ ।

एक शुष्क कंकाल , मृतों के स्मृति - दंशन का शाप ,
एक शुष्क कंकाल , जीवितों के मन का संताप ।

एक शुष्क कंकाल , युधिष्ठिर की जय की पहचान ,
एक शुष्क कंकाल , महाभारत का अनुपम दान ।

  धरती वह , जिस पर कराहता है घायाल संसार ,
वह आकाश , भरा है जिसमें करुणा की चीत्कार।

महादेश वह  जहां सिद्धि की शेष बची है धूल ,
जलकर जिसके क्षार हो गए हैं समृद्धि के फूल ।

यह उच्छिष्ट प्रलय का , अहि - दंशित मुमूर्ष यह देश ,
मेरे हित श्री के गृह में , वरदान यही  था  शेष ।
 
क्रमश:

प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग –२ 
द्वितीय  सर्ग  --भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /ाग -२
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 /भाग –7 /भाग – 8 /भाग – 9
पंचम सर्ग ----भाग - 1