इतिहास मध्यकालीन भारतधार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-४) |
मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-१) मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२)मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-3) |
रसखान का कृष्णपंथ में बहुत ही सक्रिय योगदान रहा है। अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के भी कई दोहे श्रीकृष्ण को समर्पित हैं। संत चैतन्य ने न सिर्फ़ भक्ति आंदोलन में सुधार किया बल्कि बंगाल की सामाजिक व्यवस्था में भी सुधार के प्रयास किए।
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अगले अंक में उपसंहार और समापन (चित्र आभार गूगल सर्च) |
शनिवार, 16 अक्टूबर 2010
मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-४)
मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010
मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-3)
मध्यकालीन भारतधार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-3)मनोज कुमार |
मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-१)मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२) |
इन समान विचारों के बावज़ूद दोनों महापुरुषों में मूलभूत अंतर था। संत कबीर एक आलोचक थे। उनका विश्वास था कि समाज की रूढ़िवादिता की निन्दा करके ही इसे समाप्त किया जा सकता है। जबकि गुरु नानक देवजी एक रचनात्मक प्रतिभा वाले व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी शक्ति केवल निन्दा में ही नहीं लगाई। उन्होंने समाज सुधार का एक रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। उन्होंने लंगर का एक प्रस्ताव रखा जिसमें विभिन्न जाति के लोग साथ-साथ भोजन कर सकें। उन दिनों उठाया जाने वाला यह क़दम निश्चित तौर से क्रान्तिकारी था। उनका विचार था कि एक नई धारणा का प्रचार किया जाए तो निश्चित रूप से हिन्दू एवं इस्लाम दोनों पंथों के लोग अंतत: एक प्लेटफॉर्म पर आ जाएंगे।
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ज़ारी …संत वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभू, संत नामदेव, संत तुकाराम, संत ज्ञनेश्वर, संत दादू दयाल, गोस्वामी तुलसीदास, संत सूरदास एवं मीराबाई। अगले अंक में… |
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
इतिहास-मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल(१)
इतिहासमध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल-भाग-१मनोज कुमार |
चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी में आस्था एवं भक्ति के मध्य से व्यापक आंदोलन की एक ऐसी बलवती धारा फूटी जिसने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज, कट्टरता और रूढ़िवादिता पर आधारित धर्मान्धता को चुनौती दी। हमारे देश में हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही वेदों पर आधारित परंपरा मान्य रही है। मध्यकाल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। जातियों में विभाजित समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। सामाज में तरह-तरह के भेद-भाव विद्यमान थे। मनुष्यता स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच एवं धर्मों के आधार पर बंटी हुई थी। छुआछूत के कठोर नियम थे। ईश्वर की उपासना एवं मोक्ष प्राप्ति में भी भेद-भाव था। वैदिक कर्मकांड तथा रूढ़िवादिता से स्थिति बड़ी जटिल थी। समय-समय पर इस तरह की व्यवस्था के प्रति प्रतिक्रियाएं जन्म लेती रहीं। ये प्रतिक्रियाएं रूढ़िवादी समाज में परिवर्तन के लिए अल्प प्रयास ही साबित हुईं। किन्तु चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी में आस्था एवं भक्ति के मध्य से व्यापक आंदोलन की एक ऐसी बलवती धारा फूटी जिसने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज, कट्टरता और रूढ़िवादिता पर आधारित धर्मान्धता को चुनौती दी। यह सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध और क्रमिक रूप से चलने वाला आंदोलन नहीं था, बल्कि समय-समय पर संत, विचारक और समाज सुधारक भक्ति-मार्गी विचारधारा के द्वारा सुधारों का प्रयास करते रहे और यह एक आंदोलन का रूप लेता गया। इस आंदोलन से संतों का एक नया वर्ग आगे आया। जातिप्रथा, अस्पृश्यता और धार्मिक कर्मकांड का विरोध कर सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में सुधार उनका लक्ष्य था। इनमें से अधिकांश संत समाज की छोटी जातियों से आए थे। इस आंदोलन के संतों ने अनेक जातियों एवं सम्प्रदायों में विभक्त समाज, अनेक कुसंस्कारों से पीड़ित देश, सैंकड़ों देवताओं और आडंबरों एवं कट्टरता में उलझे धर्म, के भेद-भाव की दीवार ढ़हाने का एक सार्थक प्रयास किया। संतों ने समाज में लोगों के बीच वर्तमान आपसी वैमनस्य को मिटाने और सामाजिक वर्ग विभेद को समाप्त कर सबको समान स्तर पर लाने का प्रयास किया।
मध्यकाल में धार्मिक सुधार की भावना का विचारधारा के रूप में एक आंदोलन का रूप लेना कोई नई बात नहीं थी। एक धारणा के रूप में भक्ति मार्ग काफी पहले से प्रचलित था। संतों ने किसी नये धर्म की स्थापना के बजाए समाज में प्रचलित धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया साथ ही इन आंदोलनकारी संतों ने अन्य पंथों या धर्मों के प्रति आदर का भाव रखते हुए विश्व-प्रेम और विश्व-बंधुत्व का संदेश दिया। इन संतों ने दोहा, गीत आदि छांदसिक कविताओं के माध्यम से सरल और स्थानीय भाषाओं में अपने-अपने मतों का प्रचार किया। फलत: भक्ति आंदोलन का काफी स्वागत हुआ। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद भारत में हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच मतों, धारणाओं एवं आस्थाओं का आदान-प्रदान हुआ। परिणामस्वरूप कुछ ऐसे पंथ और अनेक ऐसे संत आए जो हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच के भेद-भाव को मिटाना चाहते थे।
इस विचारधारा के साथ कठिनाई यह थी कि यह सामान्य लोगों की समझ से बाहर थी। इसके अलावा जातिप्रथा एवं रूढ़िवादिता के कारण पढ़ाई-लिखाई एवं अक्षरों का ज्ञान उस समय में समाज के ऊंचे तबके के लोगों तक ही सीमित था। अत: जनसाधरण इस दार्शनिक मार्ग को न तो अधिक समझ ही पाया और न ही यह आम जनता का लोकप्रिय समर्थन ही पा सका। |
ज़ारी … अगला अंक गुरुवार ७ सितंबर २०१० को। |