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शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

इतिहास :: मुग़ल काल में सत्ता का संघर्ष

मुग़ल काल में सत्ता का संघर्ष

IMG_0531मनोज कुमार

मुगल शासन व्‍यवस्‍था में उतराधिकार का कोई नियम नहीं था। फलतः सुलतान के मरते ही शहजादे गद्दी के लिए आपस में संघर्ष किया करते थे। मुगल साम्राज्‍य के इतिहास में गद्दी के दावे के लिए अनेक गृह युद्ध हुए हैं जिन्‍होंने मुगलों की शक्ति और प्रतिष्‍ठा को भारी क्षति पहुंचाई।

बाबर और हुमायूं ने भारत में मुगल राजवंश की स्‍थापना तो कर दी थी परंतु वे इसे स्‍थायित्‍व नहीं दे पाये। अकबर ने इस काम को पूरा किया। उसने राज्‍य के विस्‍तार के अलावा इसके सुदृढ़ीकरण की भी व्‍यवस्‍था की पर उसके जीवनकाल में ही जहांगीर ने गद्दी पर अधिकार करने के लिए विद्रोह कर दिया था, अकबर ने उसे समझा-बुझाकर शांत किया था।

जहांगीर के शासनकाल में शहजादों के विद्रोह ने बड़ा विकृत रूप धारण कर लिया। उसके शासनकाल में पहला विद्रोह शहजादा खुसरो का हुआ था परंतु जहांगीर ने अपनी काबिलियत से उसे दबा दिया। खुसरो की सहायता करने के अपराध में जहांगीर ने सिखों के गुरू अर्जुन देव जी को फांसी की सजा दी। इससे मुगल सिख संबंध अच्‍छे नहीं रहे। खुसरो के विद्रोह से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण खुर्रम का विद्रोह था। नूरजहां अपने दामाद शहरयार को गद्दी दिलवाना चाहती थी। इसलिए शहजादा खुर्रम ने विद्रोह कर दिया। हालांकि उसने बाद में जहांगीर से माफी मांग ली पर उसके इस विद्रोह के कारण मुगलों को कंधार खोना पड़ा।

शाहजहां ने अपने भाइयों व भतीजों का वध करके गद्दी हासिल की थी। बाप के चरण चिह्नों पर चलते हुए औरंगजेब ने भी यही इतिहास दुहराया। खुद औरंगजेब के शासनकाल में शहजादों के विद्रोह ने सम्राट को परेशान किये रखा। ऐसे विनाशकारी संघर्षों में धन-जन की भारी हानि हुई और साम्राज्‍य को गहरा धक्‍का लगा। इन सभी गद्दी के दावों के लिए हुए युद्धों में से जो शाहजहां के बेटों के बीच लड़ा गया, वह कई अर्थों में विशिष्‍ट था। पहली बात तो यह कि शासक के जीवित रहते हुए उत्तराधिकार का जो विद्रोह हुआ, वह शाहजहां के समय में जितने लंबे समय तक चला और जितने विस्‍तृत क्षेत्र में यह संघर्ष हुआ, ऐसा इसके पूर्व कभी नहीं हुआ। इस संघर्ष में एक विद्रोही राजकुमार विजयी होता है और स्‍वयं सत्ता संभाल लेता है। जब मुगलकाल में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष की बात होती है तो हमारा ध्‍यान बरबस यहीं आ टिकता है।

यह लड़ाई 1657-58 ई. के बीच हुई थी। हालांकि औरंगजेब के चार बेटे थे, पर यह लडाई मुख्‍य रूप से शाहजहां के पुत्र दारा और औरंगजेब के बीच लड़ी गई थी। दारा सबसे बड़ा था और हमेशा शाहजहां के साथ रहता था तथा उत्तरी भारत का उत्तराधिकारी भी था। वह उदार और दयालु स्‍वाभाव का था। शाहजहां उससे बहुत प्‍यार करता था। दूसरा बेटा शाह शुजा बंगाल का शासक था लेकिन वह अकर्मण्‍य एवं विलासी था। तीसरा औंरगजेब दक्षिण का शासक था। वह सैनिक गुणों एवं कूटनीतिज्ञता में माहिर था। चौथा मुराद गुजरात एवं मालवा का शासक था। उसमें भी सैनिक एवं प्रशासनिक योग्‍यता का अभाव था।

चूंकि चारों बेटे चार अलग-अलग क्षेत्र के शासक थे तो ऐसा प्रतीत होता है कि शायद शाहजहां अपने बेटों के बीच राज्‍य का बंटवारा करना चाहता था। पर वास्‍तविकता क्‍या थी, कहा नहीं जा सकता। स्थिति ऐसी थी कि उत्‍तराधिकार की समस्‍या पर कभी भी लड़ाई हो सकती थी क्‍योंकि चारों के पास सैनिक थे और चारों गद्दी के लिए लालायित थे। ऐसी स्थिति में 16 सितंबर, 1657 ई. में शाहजहां जब सख्‍त बीमार पड़ा और उसके बचने की उम्‍मीद न के बराबर थी, तब चारों बेटों-दारा, शुजा, औरंगजेब और मुराद के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष शुरू हो गया क्‍योंकि वे अपनी अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते थे। सिंहासन प्राप्‍त करने की महत्‍वकांक्षा वाले उसके सभी पुत्र अपनी अपनी योजनाएं बनाने लगे। इसकी शुरूआत शुजा ने की। उसने बंगाल में स्‍वयं को सम्राट घोषित कर दिल्‍ली की ओर प्रस्‍थान किया। फिर क्‍या था – मुराद भी खुद को शासक घोषित कर दिल्‍ली की ओर चल पड़ा। औरंगजेब ने खुद को शासक तो घोषित नहीं किया, पर दिल्‍ली की ओर इस घोषणा के साथ चल पड़ा कि वह अपने बीमार पिता को देखने जा रहा है।

इधर शाहजहां की बीमारी के समय दारा उसके साथ दिल्‍ली में ही था। उसने शाहजहां की बीमारी की खबर को रोकने के प्रयास किए। साथ ही पिता को लेकर दिल्‍ली से आगरा आ गया। पर परिणाम उलटा हुआ। लोगों में यह अफवाह फैल गई कि शाहजहां वास्‍तव में मर गया है और दारा इस खबर को छिपाकर खुद को बादशाह घोषित करना चाहता है। इस बीच दारा की सेवा-सुश्रुषा में शाहजहां थोड़ा ठीक हुआ। उसे जब उत्तराधिकारी के संघर्ष की जानकारी लगी, तो उसने अपने बेटों को पत्र लिखा कि अपने-अपने क्षेत्र वापस लौट जाएं। वे स्‍वस्‍थ हैं। इस पर किसी ने भी ध्‍यान नहीं दिया। बल्कि औरंगजेब ने कहा कि यह पत्र जाली है। इधर शाहजहां ने संघर्ष टालने के इरादे से दारा को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया। पर इसका प्रभाव दारा के अन्‍य भाइयों पर विपरीत ही पड़ा और वे गद्दी पर अधिकार प्राप्‍त करने के लिए व्‍याकुल हो उठे।

इतिहास भी तो अपने आप को दुहराता है। मुगलों के बीच उत्तराधिकार का मामला, अधिकांशतः तलवारों के द्वारा ही निर्धारित हुआ था। शाहजहां ने भी तो खुद इस रास्‍ते गद्दी पाई थी। फिर उसके बेटे कहां चूकने वाले थे। युद्ध एवं रक्‍तपात अवश्‍यंभावी था। पर इस बार इसमें एक विशेषता थी। पहले के उत्तराधिकार का संघर्ष सम्राट की मृत्‍यु के पश्‍चात हुआ था। इस बार यह तब होने जा रहा था जबकि शाहजहां अभी जीवित था। इस युद्ध में न सिर्फ उसके चार बेटे ही लड़े बल्कि उसकी बेटियां ने भी परोक्ष रूप से हिस्‍सा लिया। जहांआरा ने दारा शिकोह की सहायता की तो रोशन आरा ने औरंगजेब की मदद की तथा गौहन आरा ने मुराद बख्‍श का पक्ष लिया।

औरंगजेब ने मुराद को अपने पक्ष में मिलाकर आपस में राज्‍य का बंटवारा कर लेने का समझौता किया तथा दोनों की मिलीजुली सेना आगरा की तरफ़ कूच कर कई। उधर शाह शुजा भी बनारस तक आ पहुंचा था। तब शाहजहां एवं दारा के पास उनको युद्ध में पराजित करने के अलावा कोई चारा नहीं था। उन्‍होंने अपनी सेना भेजने का निश्‍चय किया।

दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह के नेतृत्‍व में एक सेना शाह सुजा को पराजित करने के लिए भेजी गई और दूसरी सेना राजा जसवंतसिंह के नेतृत्‍व में मालवा की तरफ़ औरंगजे‍ब एवं मुराद के खिलाफ युद्ध के लिए भेजी गई। सुलेमान शिकोह की सेना के हाथों शाह शुजा की पराजय हुई और वह बंगाल भाग गया परंतु अप्रैल, 1658 में राजा जसवंत सिंह के नेतृत्ववाली शाही सेना को औरंगजेब एवं मुराद के विरूद्ध धरमत के युद्ध में मुंह की खानी पड़ी। वास्‍तव में जसवंतसिंह को यह जानकारी नहीं थी कि उसे औरंगजेब एवं मुराद की मिलीजुली सेना का सामना करना पड़ेगा। वह तो सिर्फ मुराद की सेना की उम्मीद कर रहा था। फलतः उचित संसाधनों के अभाव में उन दोनों के संगठित सैन्‍य बल का मुकाबला वह नहीं कर पाया। यह विजय मुराद एवं औरंगजेब की हौसला अफजाई के लिए काफी थी । अब वे आगरा की तरफ बढ़ेब।

परिस्थिति की गंभीरता को भांपकर दारा ने भी मैदान ए जंग में कूदने का निर्णय लिया। उसने एक विशाल सेना इकट्ठी की एवं अपने बागी भाइयों का सामना करने चल दिया। जून, 1658 में दोनों पक्षों की सामूगढ़ में भिड़ंत हुई। औरंगजेब एवं मुराद की सेना एवं उनकी युद्ध-कुशलता के आगे दारा टिक न सका। उसकी बुरी तरह से हार हुई। निराश-हताश दारा शाहजहां से भी मिलने का साहस न जुटा सका और अपने परिवार के साथ दिल्‍ली की तरफ भाग गया और वहां से लाहौर चला गया। इस प्रकार औरंगजेब और मुराद की स्थिति काफी मजबूत हो गई। सामूगढ़ की लड़ाई ने दारा का भविष्‍य निर्धारित कर दिया। औरंगजेब ने आगरे के किले पर अधिपत्‍य जमाया तथा अपने पिता शाहजहां को बंदी बनाकर कैदखाने में डाल दिया, जहां शाहजहां अपनी मृत्‍यु पर्यन्‍त जनवरी 31,1666 ई. तक कैद में ही रहा। बाप बेटे के बीच पत्रों का आदान-प्रदान तो होता था पर दोनों में कभी आमना-सामना नहीं हुआ।

औरंगजेब काफी महत्त्वाकांक्षी था। उसने अपनी और गद्दी के बीच आनेवाली हर बाधा को दूर करने का निश्‍चय किया। आगरा के किले पर फतह के बाद औरंगजेब ने दारा पर खास ध्‍यान केंद्रित नहीं किया। अब उसके सामने मुख्‍य बाधा थी – मुराद एवं उसका सैन्‍य बल। मुराद स्‍वतंत्र रूप से रहने लगा था। अतः औरंगजेब को उसकी तरफ़ से खतरे का एहसास था। उसी तरह मुराद भी उसकी तरफ शंका की दृष्ष्टिकोण रखता थे। औरंगजेब ने अपने रास्‍ते से मुराद को हटाने का निर्णय लिया। उसने मुराद को कई बार दावत पर बुलाया, पर हर बार मुराद नकार जाता था। एक बार शिकार से लौटते हुए मथुरा के निकट एक रात की दावत के औरंगजेब के नयौते को उसने अपने एक अधिकारी की सलाह पर स्‍वीकार कर लिया। उस अधिकारी को औरंगजेब ने धन देकर अपनी तरफ मिला लिया था। मुराद को खासी तगड़ी दावत खाने को मिली। तत्पश्‍चात एक सुंदर दासी को मुराद की मालिश करने को भेजा गयास। काफी चालाकी से उसने मुराद को गहरी नींद सुला दिया एवं उसके सभी शस्‍त्र उसके पास से हटा दिए। इस प्रकार निहत्‍था मुराद आसानी से बंदी बना लिया गया।

औरंगजेब मथुरा से दिल्‍ली आ गया। बिना किसी प्रतिरोध के उसने दिल्‍ली पर अधिपत्‍य जमाया और राज्‍यभिषेक कर खुद को सम्राट घोषित कर दिया। दारा सामूगढ़ की हार के बाद भटकता रहा था। बाद में उसे भी पकड़ कर बंदी बना लिया गया तथा मृत्‍यु दंड दे दिया गया। शुजा भी बनारस की लड़ाई के बाद बंगाल लौटा। वहां भी औरंगजेब के द्वारा तंग किए जाने पर आसाम से होते हुए बर्मा गया और वहीं उसकी मृत्‍यु हो गई।

सन 1658 तक औरंगजेब के सभी विरोधी खत्‍म हो गये। गद्दी के सभी दावेदार समाप्‍त हो गए। उसकी स्थिति काफी मजबूत हो गई। उसने शाहजहां को बंदी बना लिया था और स्वयं को शासक घोषित कर चुका था।

गद्दी के उत्तराधिकार के इस संघर्ष का परिणाम बहुत बुरा रहा। ढेर सारे लोग मारे गए। इसके कारण साम्राज्‍य को आर्थिक एवं सैनिक, दोनों की भारी क्षति पहुंची। एक वर्ष तक मुगल साम्राज्‍य इसमें उलझा रहा। इससे साम्राज्‍य विरोधियों का मनोबल काफी बढ़ा। मराठा अपनी शक्ति को बढ़ाने लगे। उत्तर पश्चिमी सीमा पर अफगानियों ने विद्रोह किया। इस बीच दक्षिण भारत से भी मुगल साम्राज्‍य का ध्‍यान हटा रहा।

दूसरी ओर उत्तराधिकार के इस संघर्ष में इसकी सफलता अभूतपूर्व थी। इसकी सफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि भविष्‍य में सत्ता पर अधिकार करने के लिए उत्तराधिकार का फैसला तलवार द्वारा ही संभव है।

इस तरह उत्तराधिकार का यह संघर्ष, मुगल साम्राज्‍य के लिए तात्‍कालिक और दूरगामी, दोनों ही तरह से, हानिकारक सिद्ध हुआ । औरंगजेब का 50 वर्ष का शासनकाल शांति और सुव्‍यवस्‍था की जगह समस्‍याओं का काल रहा। औरंगजेब के अंत तक साम्राज्‍य की एकाग्रता एवं संगठन समाप्‍त हो चुका था और महान मुगल साम्राज्‍य का पतन शुरू हो गया था। और उस पतन के बीज उत्तराधिकार के संघर्ष में ही छिपे थे। यह संघर्ष धीरे धीरे साम्राज्‍य को खोखला करता गया और एक दिन वह बीज विशाल वृक्ष बन कर उसके पतन की राह प्रशस्‍त कर गया।

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

पक्षियों का प्रवास-2

पक्षियों का प्रवास-2

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मनोज कुमार

पक्षियों का प्रवास-1 का लिंक यहां है।

पक्षियों में कुछ प्रवास ऋतुओं पर आधारित होता है। ब्रिटेन में बतासी (स्विफ्ट्स), अबाबील (स्वैलो), बुलबुल (नाइटिंजेल), पपीहा (कक्कू) गृष्म काल में पहुंचते हैं। दक्षिण की दिशा से यहां आकर वे प्रजनन करते हैं एवं शरत्काल तक यहां व्यतीत करते हैं। इसी तरह जाड़े के मौसम में आने वाले पक्षी हैं पथरचिरटा (बंटिंग)। सर्दियों में बर्फ की चादर बिछते ही विदेशी पक्षी मूलतः पूर्वी यूरोप साईबेरिया अथवा मध्य एशिया से हजारों मील की दूरी का सफर तय करके भारत के कई भागों और पंक्षी उद्यान में पहुंचते हैं।

इन विदेशी मेहमानों का सफरनामा भी कम रोचक नहीं है। आखिर कैसे ये निरीह अपना कार्यक्रम, देश व दिशा तय करते हैं? बत्तख (डक्स), सामुद्रिक (गल्स) एवं समुद्र तटीय पक्षी रात या दिन किसी भी समय अपनी यात्रा करते हैं। पर कुछ पक्षी जैसे कौए, अबाबील, रोबिन, बाज, नीलकंठ, क्रेन, मुर्गाबी (लून्स), जलसिंह (पेलिकन्स), आदि केवल दिन में ही उड़ान भरते हैं। अपनी लम्बी उड़ान के दौरान ये कुछ देर के लिए उचित जगह पर चारे की खोज में रुकते हैं। किन्तु अबाबील और बतासी तो अपने आहार कीट-पतंगों को उड़ते-उड़ते ही पकड़ लेते हैं। दिन में उड़ने वाले पक्षी झुंड में चलते हैं। बत्तख, हंस एवं बगुले में झुंड काफी संगठित होता है। इन्हें टोली का नाम दिया जा सकता है। जबकि अबाबील का झुंड काफी बिखरा-बिखरा होता है।

अधिकांश पक्षी रात में ही लंबी यात्रा करना पसंद करते हैं। इस श्रेणी में बाम्कार (थ्रशेज), एवं गोरैया (स्पैरो) जैसे छोटे-छोटे पक्षी आते हैं। ये अंधेरे में अपने शत्रुओं से बचते हुए यात्रा करते हैं। इसके अलावा एक और बात महत्त्वपूर्ण है, यदि ये पक्षी दिन में यात्रा करें तो रात होते-होते काफी थक जाएंगे। अतः अगली सुबह ऊर्जाहीन इन पक्षियों को अपने आहार प्राप्त करने में काफी दिक़्क़त होगी। यह उनके लिए प्राणघातक भी साबित हो सकता है। जबकि रात को चलते हुए सवेरा होते-होते ये उचित जगह पर थोड़ा विश्राम भी कर लेते हैं, फिर भोजनादि की तलाश में जुट जाते हैं। रात होते ही आगे की यात्रा पर पुनः निकल पड़ते हैं।

ये एक साथ आकाश में सैनिकों की भाँति अनुशासनात्मक पंक्तिबद्ध उडान भरते हैं। कुछ पक्षी जैसे बाज, बतासी, कौड़िल्ला (किंगफिशर), आदि अलग-अलग अपनी ही प्रजाति की टोली में चलते हैं। जबकि अबाबील, पीरू (टर्की), गिद्ध एवं नीलकंठ कई प्रजातियों की टोली में चलते हैं। इसका कारण उनके आकार-प्रकार का एक ही तरह का होना या फिर आहार की प्रकृति एवं पकड़ने के तरीक़े का समान होना हो सकता है। कुछ प्रजातियों में नर और मादा की टोली अलग-अलग चलती है। नर गंतव्य पर पहले पहुंच कर घोंसलों का निर्माण करता है। जबकि मादा अपने साथ नन्हें शिशु पक्षी को लिए पीछे से आती है।

अपनी प्रवासीय यात्रा के दौरान ये पक्षी कितनी दूरी तय करते हैं यह उनकी स्थानीय परिस्थिति एवं प्रजाति के ऊपर निर्भर करता है। इनके द्वारा तय की गई यात्रा की दूरी मापने के लिए पक्षी विज्ञानी इन्हें बैंड लगा देते हैं या फिर इनके ऊपर रिंग लगा देते हैं। फिर जहां वे पहुंचते हैं, उसका उन्हें अंदाज़ा हो जाता है। और तब दूरी माप ली जाती है। आर्कटिक क्षेत्र के कुररी (टर्न) पक्षी को सबसे ज़्यादा दूरी तय करने वाला पक्षी माना जाता है। लेबराडोर की तटों से ये ग्यारह हज़ार मील की दूरी तय कर अन्टार्कटिका में जाड़े के मौसम में पहुंचते हैं। इतनी ही दूरी तय कर गर्मी में ये वापस लौट जाते हैं। इसी तरह की मराथन उड़ान भरने वाली अन्य प्रजातियां हैं सुनहरी बटान, टिटिहरी (सैंड पाइपर) एवं अबाबील। ये आर्कटिक क्षेत्र से अर्जेन्टिना तक की छह से नौ हज़ार मील की दूरी तय करते हैं। यूरोप के गबर (व्हाइट स्टौर्क) जाड़ों में आठ हज़ार माल की दूरी तय कर दक्षिण अफ्रीका पहुंच जाते हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि प्रवासी पक्षियों में ज़बरदस्त दमखम होता हागा, नहीं तो इतनी दूरी तय करना कोई आसान बात नहीं है। इस जगत में इनसे ज़्यादा अथलीट शायद ही कोई जीव होगा। प्रवासी यात्रा आरंभ करने के पहले ये पक्षी अपने अंदर काफी वसा एकत्र कर लेते हैं जो उनकी उड़ान वाली यात्रा के दौरान इंधन का काम करते हैं।

दूरी के साथ-साथ अपनी उड़ान में जो ऊंचाई ये छूते हैं वह भी कम रोचक नहीं है। कुछ तो जमीन के काफी साथ-साथ ही चलते हैं, जबकि सामान्य रूप से ये तीन हज़ार फीट की ऊंचाई पर उड़ान भरते हैं। उंचाई पर उड्डयन में कठिनाई यह होती है कि ज्यों-ज्यों उड़ान की ऊंचाई अधिक होती जाती है त्यों-त्यों संतुलन एवं गति बनाए रखना काफी मुश्किल हो जाता है। क्योंकि ऊपर में हवा का घनत्व काफी कम होता है और हवा की उत्प्लावकता (बुआएंसी) काफी कम हो जाती है। रडार के द्वारा पता लगा है कि कुछ छोटे-मोटे पक्षी पांच हज़ार से पंद्रह हज़ार फीट तक की ऊंचाई पर भी उड़ान भरते हैं। यहां तक कि हिमालय या एंडेस की पहाड़ियों को पार करते समय ये पक्षी बीस हज़ार फीट या उससे भी अधिक की ऊंचाई प्राप्त कर लेते हैं।

ऐसे प्रमाण मिले हैं जिससे यह पता लगता है कि पक्षी अपनी प्रवासीय यात्रा के दौरान सामान्य से अधिक गति से यात्रा करते हैं। छोटे-छोटे पक्षियों की यात्रा में औसत गति तीस मील प्रति घंटा होती है। जबकि अबाबील और अधिक गति से उड़ते हैं। बाज की गति तीस से चालीस मील प्रति घंटा होती है। तटीय पक्षी की गति चालीस से पचास मील प्रति घंटा होती है। जबकि बत्तख की गति पचास से साठ मील प्रति घंटा होती है। भारत में सबसे अधिक गति ब्रितानी पक्षी बतासी(स्वीफ्ट) का रिकार्ड किया गया है जो 171 से 200 मील प्रति घंटा होती है। प्रवासी पक्षी एक दिन या एक रात में क़रीब 500 मील की दूरी तय कर लेते हैं। पक्षी साधारणतया पांच से छह घटों की एक उड़ान भरते हैं। बीच में वे विश्राम या भोजन के लिये रुकते हैं। उनकी गति पर मौसम का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे वर्षा, ओलों का गिरना या फिर तेज हवा के झोंकों से इनकी गति बाधित होती है।        

कई पक्षियों की प्रवासी यात्रा में कफी नियमितता पाई जाती है। साल-दर-साल के गहन अध्ययन से यह पता लगा कि ये नियमित रूप से मौसम की प्रतिकूलता की मार सहकर भी अपनी लंबी यात्रा बिल्कुल नियत समय पर नियत स्थल पर पहुंच कर पूरी करते हैं। शायद ही कभी एकाध दिन की देरी हो जाए। अबाबील और पिटपिटी फुदकी (हाउस रेन) ठीक 12 अप्रैल को वाशिंगटन पहुंच जाती हैं। भारत के प्रख्यात पक्षीशास्त्री सालीम अली ने खंजन (ग्रे वैगटेल) को अलमुनियम का छल्ला पहना दिया। मुम्बई के उनके आवास पर यह पक्षी प्रति वर्ष नियत समय पर पहुंच जाया करता था। पक्षी अपने धुन के बड़े पक्के होते हैं।

जान पर खेलकर पहुंचे ये पक्षी जिस तरह से अपना आशियां बनाते हैं, उसकी प्रक्रिया देखकर समझा जा सकता है कि नीड़ का निर्माण कितनी जटिल प्रक्रिया है और उसे कितनी सरलता से पक्षियों द्वारा पूरा किया जाता है। इनकी बस्ती में प्रकृति और पक्षियों का परस्पर सामञ्जस्य विलक्षण सौंदर्य की अनुभूति है। कौए जैसा काला स्याह आरमोरेन्ट, इग्रीट और स्पूनबिल जैसे झक्क सफेद पक्षी बिना किसी रंगभेद के एक ही वृक्ष की भिन्न-भिन्न शाखाओं पर अपने-अपने घोंसले बनाते हैं, प्रजनन व पालन करते हैं। अपने प्रवास के दौरान ये पक्षी मात्र प्रजनन क्रिया ही संपन्न नहीं करते। वे इस दौरान यहां अपने पुराने पंखों का परित्याग भी करते हैं। फिर धीरे-धीरे दो से तीन माह के दौरान ये अपने नये पंखों को हासिल भी कर लेते हैं। हां, इस दौरान ये उड़ नहीं पाते। इस कारण इनके शिकारियों के जाल में फंसने का खतरा बना रहता है।

प्रवासी पक्षी एक निश्चित पथ पर ही अपनी यात्रा तय करते हैं। हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय कर आने वाले ये पक्षी पुन: उसी रास्ते वापस लौट जाते हैं। ये अपना रास्ता नहीं भूलते। प्राणी विशेषज्ञों का कहना है कि ये एकाधिक समुद्र पार कर आते हैं। प्रजनन की क्रिया संपन्न कर ठीक उसी रास्ते वापस चले जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि इंसान से भी अधिक इनकी स्मरण शक्ति होती है। हां इस पथ में परिवर्तन कुछ खास कारणों से हो सकता है। साधारणतया भौगोलिक आकृतियां जैसे नदी, घाटी, पहाड़, समुद्री तट, आदि इनका मार्ग दर्शन करते हैं। कुछ पक्षी तो अपनी पिछली यात्रा के अनुभव के आधार पर अपने दूसरे साथियों का पथ प्रदर्शन एवं मार्ग दर्शन करते हैं। पर उनका अनुभव शायद ही बड़े काम का होता होगा। क्योंकि पक्षियों की अधिकांश प्रजातियां तो टोली में यात्रा करने से कतराते हैं। वे तो अलग-अलग ही चलते हैं। हां आकाशीय पिंड उनकी इस मराथन यात्रा में उनका पथ-प्रदर्शक होते हैं। पक्षियों के अंदर एक आंतरिक घड़ी भी होती है जो उनके गंतव्य तक पहुंचाने में सहायता प्रदान करती है।

अब पहले की तरह प्रवासी पक्षी नहीं आते। इनकी तादाद लगातार घटती जा रही है। जानकारों का मानना है कि इसके पीछे प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग है मौसम मे परिवर्तन प्रवासी पक्षियों को रास नहीं आता इस कारण वे अब भारत से मुंह मोड़ने लगे हैं जलवायु परिवर्तन से पक्षियों का प्रवास बहुत प्रभावित हुआ है। पहले पूर्वी साइबेरिया क्षेत्र के दुर्लभ पक्षी मुख्यतः साइबेरियन सारस भारत में आते थे। जलस्त्रोतों के सूखने से उनके प्रवास की क्रिया समाप्त प्राय हो गई है। ये सुदूर प्रदेशों से अपना जीवन बचाने और फलने फूलने के लिए आते रहे हैं। पर हाल के वर्षों में इनके जाल में फांस कर शिकार की संख्या बढ़ी है। कई बार तो शिकारी तालाब या झील में ज़हर डाल कर इनकी हत्या करते हैं। माना जाता हा कि उनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है तथा उच्च वर्ग में इसका काफा मांग हाती है। अब वे चीन की तरफ जा रहे हैं। हम एक अमूल्य धरोहर खो रहे हैं। पक्षियों के प्रति लोगों में पर्यावरण जागरूकता को बढ़ावा देना चाहिए। पक्षी विहार से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। इसके अलावा काफी बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षियों को दखने पर्यटक आते हैं।

इस प्रवासीय यात्रा की शुरुआत क्यों हुई यह भी रोचक है। एक साधारण सी कहावत है कि “बाप जैसा करता है, वैसा ही करो” – शायद इसी रास्ते पर इसकी शुरुआत मानी जा सकती है। पर यह कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कही जी सकती। हां इतना तो माना जा सकता है कि बदलते वातावरण के कारण कुछ विपरीत परिस्थितियां पैदा हो गई होंगी, जिसके कारण पक्षियों के गृह स्थल पर भोजन एवं प्रजनन की सुविधाओं का अभाव हो गया होगा। इस सुविधा की प्राप्ति के लिए पक्षी अपने स्थान बदलने को विवश हो गए होंगे। समय बीतने के साथ यह साहसिक अभियान उनकी आदत में शुमार हो गया होगा। पक्षियों के जीवन यापन, शत्रुओं से सुरक्षा, भोजन एवं प्रजनन की सुविधा में यह प्रवास निश्चित रूप से उनके लिए लाभकारी साबित हुआ।

प्रवासी पक्षी अपने वतन लौटने की तैयारी लगभग दो सप्ताह पूर्व ही आरंभ कर देते हैं। सप्ताह पूर्व से अपना वजन घटाने हेतु सजग हो जाते हैं। यहाँ आए, ठहरे, प्रजनन में व्यस्त रहे, मौसम का लाभ लिया, शिशु के पंख खुलने लगे, उडने योग्य हुए और आबोदाना उठना शुरू। पक्षीविद् के अनुसार शुक्ल पक्ष की दूधिया चाँदनी में उडान के समय रोशनी में वे अपना निश्चित मार्ग सुगमता से देख सकते हैं। दिन में दिशाभ्रम, तेज धूप, असहनीय गर्मी तथा शत्रु भय के कारण शुक्ल पक्ष उनकी वापसी उडान का शुभ मुहूर्त होता है। इसलिये भी कि यात्रा के प्रत्येक चरण में रोशनी मिलती रहे। अपने वतन तक पहुँचने में अंतिम पडाव तक अथक निरन्तर सक्रिय व गतिशील बने रहें, इस उद्देश्य से विदाई पूर्व वजन घटाते हैं।

अपने वतन लौट चलने की तैयारी में जुटे प्रवासी जोरदार विशेष ध्वनि में अपने सभी सहयोगी मित्रों से ऊँची आवाज में लौट चलने हेतु आमंत्रित करती है। इनके जाने के बाद तिनकों से सजे वीरान आशियाने तथा प्रजनन के वक्त के बचे अण्डों की खोलें इनके गुजरे वक्त के चश्मदीद गवाह होते हैं। जाते-जाते ये बेजुबान मेहमान हमें ढेरों संदेश दे जाते हैं।

 

पिंजड़े   में   बंद  पंछी,   क्या   जाने   आकाश  को,

खुले गगन में, खुले चमन में, उड़ने के अहसास को!

--- बस!---

(चित्र आभार गूगल सर्च)

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

पक्षियों का प्रवास-१

पक्षियों का प्रवास-१

IMG_0130मनोज कुमार

image पक्षियों की दुनियाँ वड़ी विचित्र है। पक्षी प्रकृति पदत्त सबसे सुन्दर जीवों की श्रेणी में आते हैं। इनसे मानव के साथ रिश्तों की जानकारी के उल्लेख प्राचीनतम ग्रंथों में भी मिलते हैं। किस्सा तोता मैना का तो आपने सुना ही होगा। इन किस्सों में आपने पाया होगा कि राजा के प्राण किसी तोते में बसते थे। फिर राम कथा के जटायु प्रसंग को कौन भुला सकता है। कबूतर द्वारा संदेशवाहक का काम भी लिया जाता रहा है। कहा जाता है कि मंडन मिश्र का तोता-मैना भी सस्वर वेदाच्चार करते थे। कई देवी देवताओं की सवारी पक्षी हुआ करते थे। सारांश यह कि पक्षियों का जीवन विविधताओं भरा अत्यंत ही रोचक होता है। पक्षियों के जीवन की सर्वाधिक आश्चर्यजनक घटना है उनका प्रवास। अंग्रेज़ी में इसे माइग्रेशन कहते हैं। शताब्दियों तक मनुष्य उनके इस रहष्य पर से पर्दा उठाने के लिए उलझा रहा। उत्सुकता एवं आश्चर्य से आंखें फाड़े आकाश में प्रवासी पक्षियों के समूह को बादलों की भांति उड़ते हुए देखता रहा। अनेको अनेक जीवों में प्रवास की घटना देखने को मिलती है, पर पक्षियों जैसी नहीं, जो इतनी दूर से एक देश से दूसरे देश में प्रवास कर जाते हैं। इस रहस्यमय यात्रा में पक्षी कहां जाते हैं इस कौतूहल को दूर करने के लिए मनुष्यों ने दूरबीन, रडार, टेलिस्कोप, वायुयान आदि का प्रयोग कर जानकारी एकत्र करना शुरु कर दिया। यहां तक कि जाल में उन्हें पकड़ कर, उनके ऊपर बैंड या रंग लगा कर अध्ययन किया गया। तब जाकर इस रहस्यमय घटना के बारे में पर्याप्त जानकारी मिली।

साधारणतया तो पक्षियों के किसी खास अंतराल पर एक जगह से दूसरी जगह जाने की घटना को पक्षियों का प्रवास कहा जाता है। पर इस घटना को वातावरण में किसी खास परिवर्तन एवं पक्षियों के जीवनवृत्त के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है। पक्षियों का प्रवास एक दो तरफा यात्रा है और यह एक वार्षिक उत्सव की तरह होता है, जो किसी खास ऋतु के आगमन के साथ आरंभ होता है और ऋतु के समाप्त होते ही समाप्त हो जाता है। यह यात्रा उनके गृष्मकालीन और शिशिरकालीन प्रवास, या फिर प्रजनन और आश्रय स्थल से भोजन एवं विश्राम स्थल के बीच होती है। मातृत्व का सुखद व सुरक्षित होना अनिवार्य है। ऐसा मात्र इंसानों के लिए हो ऐसी बात नहीं है। सुखद व सुरक्षित मातृत्व पशु-पक्षी भी चाहते हैं। इस बात का अंदाज़ा साइबेरिया से हज़ारों किलोमीटर दूर का कठिन रास्ता तय कर हुगली, पश्चिम बंगाल पहुंचे साइबेरियन बर्ड को देख कर लगाया जा सकता है। प्राणी विशेज्ञों की राय है कि ये पक्षी मात्र जाड़े से सुरक्षित व सुखद मातृत्व के लिए यह दूरी तय कर यहां पहुंचते हैं।

प्रवासी यात्रा में पक्षियों की सभी प्रजातियां भाग नहीं लेतीं। कुछ पक्षी तो साल भर एक ही जगह रहना चाहते हैं। और कई हज़ारों मील की यात्रा कर संसार के अन्यत्र भाग में चले जाते हैं। प्रकृति की अनुपम देन पंखों की सहायता से वे संसार के दो भागों की यात्रा सुगमता पूर्वक कर लेते हैं। इनकी सबसे प्रसिद्ध यात्रा उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिण की तरफ की है। गृष्म काल में तो उत्तरी गोलार्द्ध का तापमान ठीक-ठीक रहता है, पर जाड़ों में ये पूरा क्षेत्र बर्फ से ढ़ंक जाता है। अतः इस क्षेत्र में पक्षियों के लिए खाने-पीने और रहने की सुविधाओं का अभाव हो जाता है। फलतः वे आश्रय की तलाश में भूमध्य रेखा पार कर दक्षिण अमेरिका या अफ्रीका के गर्म हिस्सों में प्रवास कर जाते हैं। अमेरिकी बटान (गोल्डेन प्लोवर) आठ हज़ार मील की दूरी तय कर अर्जेन्टीना के पम्पास क्षेत्र में नौ महीने गृष्म काल का व्यतीत करते हैं। इस प्रकार वे प्रवास कर साल भर गृष्म ऋतु का ही आनंद उठाते हैं। उन्हें जाड़े का पता ही नहीं होता। इसी प्रकार साइबेरिया के कुछ पक्षी भारत के हिमालय के मैदानी भागों में प्रवास कर जाते हैं। हुगली के हरिपाल जैसे अनजान व शांत इलाके में ये पक्षी आकर तीन से चार माह का प्रवास करते हैं। इस दौरान वे प्रजनन की क्रिया संपन्न करते हैं। बच्चों को जन्म देने के बाद वे पुन: वापस लौट जाते हैं। उत्तर प्रदेश के भी कई वन्य विहार, नदियों, झीलों आदि में ये अपना बसेरा बना लेते हैं। हंस (हेडेड गोज), कुररी (ब्लैक टर्न), चैती, छेटी बतख (कामन टील), नीलपक्षी (गार्गेनी), सराल (इवसलिंग), सिंकपर (पिनटेल) आदि पक्षी न सिर्फ दिखने में खूबसूरत होते हैं बल्कि अपनी दिलकश अदाओं के लिए भी जाने जाते हैं।

दक्षिणी गोलार्द्ध के कुछ पक्षी उत्तर की ओर वर्षा ऋतु में प्रवास कर जाते हैं। पुनः सूखा मौसम आते ही वापस अपने क्षेत्र में लौट आते हैं। कुछ पक्षियों में पूर्व से पश्चिम या इसके विपरीत प्रवास होता है। तेलियर (स्टर्लिंग) जाड़े से बचने के लिए पूर्वी एशिया के अपने प्रजनन क्षेत्र से अटलांटिक तटों की ओर चले जाते हैं।

बड़े और ऊंचे पहाड़ों के उपर रहने वाले पक्षी ऋतुओं में परिवर्तन के साथ ही ऊपर से नीचे, और नीचे से ऊपर अपना प्रवास बदलते रहते हैं। गर्मी में तो ये पहाड़ों पर रहते हैं, पर जाड़े में नीचे चले आते हैं। प्रायः यह यात्रा छोटी दूरी की होती है। इस तरह की यात्रा अर्जेन्टीना के एडिस पहाड़ों पर पनडुब्बी (ग्रेब्स) एवं टिकरी (कूट्स) तथा ग्रेट ब्रिटेन के बैगनी अबाबीलों (स्वैलोज) पक्षियों में पाई जाती है। मौसम का असर इन पक्षियों पर इतना अधिक होता है कि इनकी भूरे रंग की पक्षति (प्लुमेज) सफेद हो जाती है और इनका आहार भी बदल जाता है। जाड़े में ये कीट-पतंगों की जगह टहनी पत्तों के खाकर अपना गुजारा करते हैं।

कुछ पक्षियों में आंशिक प्रवास देखने को मिलता है। इनका प्रवास बहुत कम समय के लिए होता है। ये दूसरे भाग के पक्षियों से मिलने-जुलने के लिए जाते हैं। भेंट-मुलाक़ात कर ये अपने घर वापस आ जाते हैं। कुछ प्रवास काफी अनियमित होते हैं। जैसे बगुलों (हेरोन्स) में प्रजनन के बाद व्यस्क एवं शिशु पक्षी भोजन की तलाश एवं शत्रुओं से रक्षा के लिए सभी दिशाओं में अपने गृहस्थल को छोड़ निकल पड़ते हैं। यह यात्रा सैकड़ों मीलों की हो सकती है।

अभी ज़ारी है…..

(चित्र आभार गूगल सर्च)

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल

काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल

द्विवेदी युग

इस युग में रीतिवाद विरोधी अभियान चला। मकसद था हिन्दी कविता को दरबारी काव्य की रूढियों से मुक्त करना! आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से इस आंदोलन को गति प्रदान की। उनका मानना था कि साहित्य की महत्ता लोकजागरण की चेतना से सम्बद्ध है। साहित्य में जो शक्ति है वह तो, तलवार और बम में भी नहीं है। उनके अनुसार लोकजागरण के लिए साहित्य से बढकर कोई दूसरा  समर्थ माध्यम नहीं है।

मैथिलीशरण गुप्त ने भी इस आंदोलन को आगे बढाया। उन्होंने कविता के प्रयोजन को बताते हुए कहा
(१)
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए
(२)
है जिस कविता का काम लोकहित करना
सद्भावों से मन मनुज मात्र का भरना
पहले तो कांता सदृश हृदय का हरना
फिर प्रकटित करना विमल ज्ञान का झरना

(३)
अर्पित हो मेरा मनुज काय
बहुजन हिताय बहुजन हिताय
(४)
संदेश नहीं मैं स्वर्गलोक का लाया
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया
इस तरह से इनके साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल भावना को हम पाते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रस की लोकमंगलवादी व्याख्या की। उन्होंने कलावाद-रूपवाद का विरोध किया, साथ ही विरुद्धों के सामंजस्य सिद्धांत का समर्थन किया। उन्होंने तुलसीदास और उनके ‘रामचरितमानस’ को लोकमंगल की साधनावस्था का प्रतिमान माना तथा विद्यापति और बिहारीलाल को सिद्धावस्था का कवि कहा।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य का प्रयोजन “लोकचिंता” को मानते थे। उनके प्रिय कवि हैं कबीर। इनका मानना था कि लोकचिंताओं से जुड़कर ही रचनाकार को लोक को दिशा-दृष्टि देनी चाहिए।

छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का काम किया। सुमित्रानंदन पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा कि मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का प्रयोजन है।

जयशंकर प्रसाद का कहना था आनंद और लोकमंगल दोनों का सामंजस्य ही सृजन-धर्म है - “श्रेयमयी प्रेम ज्ञानधारा”।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने नवजागरण परंपरा का विस्तार किया और रूढिवाद का विरोध।

महादेवी वर्मा के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है मानव करुणा का विस्तार।

प्रगतिवाद ने रूढिवादिता का विरोध किया और मार्क्सवादी समाज-चिंतन को अपनाया।
प्रेमचंद के अनुसार रचनाकार समाज में आगे चलने वाली मशाल होता है। अतः साहित्य का उद्देश्य जनता की चेतना को जाग्रत करना तथा परिष्कृत करना होता है।
प्रगतिवाद एक निश्चित तत्ववाद को सूचित करता है। ऐसे साहित्य में विषय-वस्तु या अंतर्वस्तु को अधिक महत्व दिया जाता है। रूप को, कला-विन्यास को कम। इनके मतावलंबियों के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है प्रतिक्रियावादी शक्तियों के लोक-विरोधी, जन-विरोधी चरित्र का भंडाफोर और मनुष्य का, मनुष्यता का विकास-परिष्कार-प्रसार। अर्था‍त्‌ उपयोगितावाद-यर्थार्थवाद की महत्वप्रतिष्ठा।
डॉ. रामविलास शर्मा ने लोकमंगलवादी चिंतन-दृष्टि का विकास ही साहित्य का प्रयोजन माना।

गजानन माधव मुक्तिबोध ने साहित्य को जनता के लिए जनजागरण का अस्त्र माना और उन्होंने अपनी रचनाओं, “चांद का मुंह टेढा है” और “भूरी-भूरी खाक धूल” द्वारा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी चिंतन का विरोध किया।

नयीकविता युग तथा समकालीन युग के विद्वानों, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा आदि, कवियों के मतानुसार साहित्य का प्रयोजन मानव-व्यक्तित्व का समग्र विकास, मानव-स्वाधीनता की रक्षा, मुक्त-चिंतन का विकास है।

उपसंहार
इस प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दी चिंतन परंपरा में लोकमंगलवादी मानव सत्यों से साक्षात्कारवादी दृष्टि ही साहित्य का प्रयोजन रही है। रचनाकार का मानवतावाद रचना की अर्थ-व्यंजना में निहित रहता है।
हिन्दुस्तान में संस्कृति का आधारभूत तत्व है - “सुरसरि सम सबका हित होई।” अर्थात्‌ गंगा की तरह सभी को अपने में मिलाना और गंगा बना देना। लोक-कल्याण और आनंद दो अलग नाम हैं परन्तु तत्त्वतः दोनों एक हैं, दोनों का मूल प्रयोजन है – लोक के साथ जीना, लोक-चिंता के साथ जीना।
अपने हृदय को लोक के हृदय में मिला देना ही “रस दशा” है। इसका अर्थ है हृदय की मुक्तावस्था, भावयोग दशा, साधारणीकरण या समष्टिभावना का आनंद। हिन्दी काव्यशास्त्र का प्रयोजन इसी हिन्दुस्तानी लय से ओत-प्रोत है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि काव्य का प्रयोजन है लोकमंगल भावना अर्थात्‌ मनुष्यता का विकास। जिसमें मानव के प्रति गहरे सामाजिक सरोकार हों। रचनाकार मानवता के प्रति करुणा और सहानुभूति की चेतना का विस्तार कर अपने-पराए की भेद-बुद्धि को मिटाता है और मानवतावाद की दृष्टि का प्रचार करता है। लोकजागरण और लोक-कल्याण ही जीवन का सत्य  है, शिव है, सुन्दर है। और यही है साहित्य का प्रयोजन!

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-४)

इतिहास मध्यकालीन भारत

धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-४)

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मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-१)

मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२)    
मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-3)

Shri mahaprabhuji.jpgपश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृष्ण पंथ के अगुआ थे संत वल्लभाचार्य (1479-1531) और पूर्वी भारत में संत चैतन्य महाप्रभू (1485-1533)। दोनों का भक्ति मार्ग में विश्‍वास था। दोनों ने ही श्रीकृष्ण एवं राधा के बीच प्रेम को ईश्‍वर के प्रति निष्ठा के मॉडल के रूप में अपनाया। संत वल्लभाचार्य का जन्म 1479 ई. में दक्षिण भारत के एक तेलुगु परिवार में कांकरवाडग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी इलम्मागारूके गर्भ से काशी के समीप हुआ था। उन्हें वैश्वानरावतार [अग्नि का अवतार] कहा गया है। इनके पिता काशी में आकर बस गए थे। उनका मानना था कि ब्रह्म और आत्मा में कोई भेद नहीं है। आत्मा भक्ति के माध्यम से अपने बंधनों से छुटकारा पा सकती है। भक्त को वसुदेव के चरणों में स्वयं को अर्पित कर देना चाहिए, क्योंकि वही मनुष्य को पापों से छुटकारा दिला सकता है। उन्होंने कृष्ण को अपना आराध्य देव बनाया। वे नृत्य-गान और भक्ति के द्वारा भगवान को रिझाने का प्रयास करने लगे। उन्होंने विशेष रूप से भगवान की प्रतिमा पूजा पर बल दिया। वे विजयनगर सम्राट कृष्णदेव राय की सभा में राज पंडित के रूप में रहते थे। उनकी प्रसिद्ध पुस्कें हैं “सुबोधिनी” एवं “सिद्धान्त रहस्य”। संत वल्लभचार्य की मृत्यु के पश्‍चात् दुर्भाग्यवश उनके पंथ में कुछ अवांछनीय प्रथा का प्रवेश हो गया।

Chaitanya mahaprabhu.jpgदूसरी ओर संत चैतन्य महाप्रभू के सम्प्रदाय ने दृढ़ अनुशासन के द्वारा नैतिकता का स्तर बनाए रखा। वे सरल, आडम्बर रहित भक्ति में विश्‍वास रखते थे। उनका यह भी मानना था कि ईश्‍वर के प्रति प्रेम, भक्ति, भजन और नृत्य द्वारा परम आनंद की एक एंसी स्थिति उत्पन्न होगी जिसमें ईश्‍वर का साक्षात्कार होगा। उनका कहना था कि भगवान श्रीकृष्ण की उपासना एवं गुरु की सेवा से कोई भी व्यक्ति ईश्‍वर से एकीकृत हो सकता है। आध्यात्मिक उत्साह के कारण इस सम्प्रदाय में संकीर्तन का विकास हुआ। संत चैतन्य ने भी ब्राह्मण धर्म के कर्मकाण्डी स्वरूप तथा जाति प्रथा की निन्दा की एवं अपने पंथ में निम्न वर्ग यहां तक कि मुसलमानों को भी सम्मिलित किया।

रसखान का कृष्णपंथ में बहुत ही सक्रिय योगदान रहा है। अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के भी कई दोहे श्रीकृष्ण को समर्पित हैं। संत चैतन्य ने न सिर्फ़ भक्ति आंदोलन में सुधार किया बल्कि बंगाल की सामाजिक व्यवस्था में भी सुधार के प्रयास किए।

चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच अन्य संत व धर्मोपदेशक जैसे संत नामदेव, व संत तुकाराम ने महाराष्ट्र में, संत ज्ञनेश्‍वर व संत दादू दयाल ने गुजरात में तथा बाद में गोस्वामी तुलसीदास, संत सूरदास एवं मीराबाई ने भक्ति आंदोलन को आगे बढ़ाया। गोस्वामी तुलसी दास ने रामपंथ को बढ़ावा दिया। संत सूरदास संत वल्लभाचार्य के शिष्य थे। उन्होंने ब्रजभाषा में “सूरसागर” लिखा। उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार किया। रास्थान की मीराबाई एक संत ही नहीं कवयित्री भी थीं। हालाकि उनके बड़े अनुयायी नहीं हुए फिर भी उनके भक्ति-गीत बहुत ही महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय हैं।

महाराज छत्रपति शिवाजी के समकालीन संत तुकाराम महाराष्ट्र क्षेत्र में सक्रिय थे। उन्होंने भगवान बिठोवा की अर्चना को लोकप्रिय बनाया। उनका मंदिर पंढ़ारपुर में है। बाद में बिठोवा भगवान को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाने लगा। संत तुकाराम ने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। संत तुकाराम के ही उपदेशों का प्रभाव था कि महारज शिवाजी मुस्लिम प्रजा के प्रति काफी उदार भाव रखते थे।

निर्गुण भक्ति की परंपरा में संत कबीर दास और गुरु नानक देवजी के साथ एक और नाम है संत दादू दयाल का। उन्होंने नैतिक शुद्धता पर बल दिया। उन्होंने भक्ति के द्वारा समाज सेवा एवं मानवतावादी दृष्टिकोण लोगों के सामने प्रस्तुत किए। विभिन्न विरोधी सम्प्रदायों को भ्रातृत्व और प्रेम में बांधकर एक करने की कामना से उन्होंने एक अलग पंथ का निर्माण किया जो “दादू पंथ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। “दादू ग्रंथावली” में उनकी संकल्पनाएं संग्रहीत हैं।

अगले अंक में उपसंहार और समापन (चित्र आभार गूगल सर्च)

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

साहित्यकार-6 :: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987)

साहित्यकार-6

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

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अज्ञेय एक सफल कवि, उपन्यासकार, कहानीकार और आलोचक रहे हैं। इन सभी क्षेत्रों में वे शीर्षस्थ भी थे। छायावाद और रहस्यवाद के युग के बाद हिन्दी-कविता को नई दिशा देने में अज्ञेय जी का सबसे बड़ा हाथ है। हिन्दी के अनेक नए कवियों के लिए अज्ञेय जी प्रेरणा-स्रोत और मार्ग-दर्शक रहे हैं। आपकी रचनाओं का मूल स्वर दार्शनिक और चिन्तन-प्रधान है।

अज्ञेय आधिनिक युग के कवि थे। वे आधुनिक भाव-बोध के कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनकी दृष्टि में कविता का बहुत सारी चीज़ों के साथ संबंध बदल गया है। कविता में सिद्धांत के तौर पर अज्ञेय व्यक्तित्व से दूरी बनाने की बात करते हैं। आधुनिक भाव-बोध पहले से चले आ रहे काव्य-विधान से संभव नहीं था-

“ये उपमान मैले हो गए हैं

देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।”

अज्ञेय ‘मैं’ से दूरी बनाकर चलते हैं, लेकिन व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का बोध पाठक को कराते हैं। एक स्तर पर उनकी कविता ही व्यक्तित्व की खोज की कविता का रूप ले लेती है। उनके आधुनिक बोध के मूल में व्यक्तित्व की खोज है। व्यक्तित्व की खोज बहुत कुछ अभिव्यक्ति की खोज है।

अज्ञेय ‘प्रयोगवाद’ नामक काव्य-आंदोलन के प्रवर्तक थे। साथ ही नयी कविता के अग्रणी कवि के रूप में उनका महत्व निर्विवाद है। उनकी रचनाओं में चमत्कारपूर्ण प्रयोग मिलता है। सामाजिक सरोकार तो है ही, साथ ही वैक्तिकता और सामाजिकता का द्वंद्व भी स्पष्ट है-

“यह दीप अकेला स्नेह-भरा

है गर्व-भरा मदमाता पर

इसको भी पंक्ति दे दो।”

वे एक “सांचे ढले समाज” की जगह “अच्छी कुंठा रहित इकाई” के पक्ष में हैं।

संवेदना के कवि के रूप में उनकी एकदम अलग पहचान है। उनकी कविता में प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु जैसे अनुभव आधुनिक बोध और संवेदना का हिस्सा बन कर आते हैं-

“पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में

डगर चढती उमंगों-सी।

बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।

विहग-शिशु मौन नीड़ों में

मैंने आंख भर देखा।

अधिकतर कवि सत्य को पहले से प्राप्त मानते हैं। वे सत्य को कहने के लिए शब्द को साधन के रूप में देखते हैं। परन्तु अज्ञेय तो कविता को सबसे पहले शब्द मानते हैं। वे सत्य को अन्वेषण का विषय मानते हैं और शब्द को भी। फिर मानते हैं कि दोनों शब्द और सत्य में निरंतर द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है। परस्पर टकराकर नया काव्यत्व प्राप्त करते हैं। तनाव और द्वन्द्व की स्थिति में ही अज्ञेय को नया काव्योन्मेष उपलब्ध हो पाता है।

“ये दोनों जो

सदा एक-दूसरे से तनकर रहते हैं

कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में

इन्हें मिला दूं –

दोनों जो हैं बंधु, सखा, चिर सहचर मेरे।“

अज्ञेय निर्वैयक्तिक संवेदना को महत्व देते हैं। अज्ञेय की प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु संबंधी कविताओं में सब कुछ नयी प्रश्नशील निगाह से देखा जा रहा है। प्रकृति केवल अलंकरण तक सीमित नहीं है।

“बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढती है।

उसकी कलियां हैं मेरी आंखें,

कोपलें मेरी अंगुलियों में अंकुराती हैं,

फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है।”

उनकी रचनाओं में प्रेम ढर्रे से अलग है। वे कहते हैं प्रेम के क्षण दुहराए नहीं जाते। प्रेम बिना आशा, आकांक्षा के ही संभव है। यह आधुनिक बोध है प्रेम का।

“ओ प्यार! कहो, है इतना धीरज,

चलो साथ

यों : बिना आशा-आकांक्षा

गहे हाथ?”

मृत्यु भय नहीं देती। उनके यहां मृत्यु का वरण है। डर नहीं है। प्रेम और मृत्यु अभिन्न हो जाते हैं यहां।

“सागर को प्रेम करना

मरण की प्रच्छन्न कामना है

मरण अनिवार्य है

प्रेम

स्वच्छंद वरण है”

एक ओर अहं का विलयन अज्ञेय का ज़रूरी सरोकार है तो दूसरी ओर व्यक्तित्व का तेजस अंश बचाए रखने की चिंता उन्हें सबसे अलग प्रमाणित करती है। जब वे लिखते हैं ‘सखि आ गये नीम को बौर’ तो वे परंपरा से हटते हैं। आम के पेड़ से बौर का संबंध न जोड़कर, नीम से जोड़ने के पीछे अभिव्यक्ति की नई आज़ादी का बोध है। अज्ञेय की स्वाधीन चिंता के निहितार्थ अनेक हैं।

“मेरे छोटे घर – कुटीर का दिया

तुम्हारे मंदिर के विस्तृत आंगन में

सहमा-सा रख दिया।”

अज्ञेय की कई कविताएं काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएं हैं। उनमें अधिकतर कविताएं अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती है।

“दु:ख सबको मांजता है

और –

चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु

जिनको मांजता है

उन्हें सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।”

जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है। वह संघर्ष की सार्थकता का पर्याय है। यह उन्हें एक नए मानववाद के कवि के रूप में देखने के लिए प्रेरित करती है। यह सजग काव्य-बोध है।

“तू अंतहीन काल के लिए फलक पर टांक दे –

क्योंकि यह मांग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के

एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूं उदग्र, वह

अंतहीन काल तक मुझे खींचता रहे --------”

अज्ञेय ने अपने पहले उपन्‍यास का नाम रखा – “शेखर एक जीवनी” यह एक मनोविश्‍लेषणात्‍मक उपन्‍यास है। इसका पहला भाग 1941 में प्रकाशित हुआ था और दूसरा भाग आया 1944 में। अज्ञेय जी की योजना तो थी इसे चार भागों में तैयार करने की। लेकिन 1987 में इनके निधन से सिर्फ दो भाग ही हमारे सामने आ सका।

इस उपन्‍यास में बाल मनोविज्ञान के सिद्धांतों का अदभुत समावेश है। दूसरी विशेषता है इस उपन्‍यास की इसमें फ्लैशबैक तकनीक का उपयोग किया गया है। उपन्‍यास आत्‍मकथात्‍मक है। नायक इसका शेखर है। ऐसा लगता है कि शेखर और अज्ञेय के व्‍यक्तित्‍व में अदभुत साम्‍य है। शेखर के बचपन से लेकर युवा होने की गतिविधियों को इस उपन्‍यास में बताया गया है। नाम तो इसका है शेखर एक जीवनी पर इसका शिल्‍प आत्‍मकथा के अधिक निकट है।

माना जाता है कि सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍सायान “अज्ञेय” का लेखन आम पाठकों के लिए नहीं था। कविताएं, निबंध, यात्रा-वृतांत, आदि के लेखक अज्ञेय का “शेखर एक जीवनी”को काफी सराहना मिली। इस उपन्‍यास के पहले भाग में शेखर के बाल्‍यावस्‍था से कैशोर्य तक की घटनाएं है। यहां पर शेखर के द्वारा बालमनोविज्ञान के सिद्धांतों की चर्चा की गई है। अहं, भय आदि दशार्या गया है।

दूसरे भाग में युवा शेखर का अहंकार उसे विद्रोही बनाता है। परिवार में विद्रोह करता शेखर देश-समाज के लिए क्रांतिकारी बन जाता है। अज्ञेय ने अपने इस नायक की कथा को अवचेतन मन का प्रतिबिम्‍ब बनाया है।

“फांसी" से शुरू हुए इस कथानक में इसका नायक अतीत को देखता है। फ्लैशबैक में। अगली सुबह शेखर को फांसी दी जाएगी। इस रात वह अपने अतीत को याद करता है। रचयिता अज्ञेय ने नायक के भीतर घुस कर इसे मनोविश्‍लेषणात्‍मक विस्‍तार दिया है।

अज्ञेय आधुनिक भावबोध के ऐसे कवि हैं जिन्होंने काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से खड़ी बोली की हिन्दी कविता को नयी समृद्धि दी है। उन्होंने छायावादी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होने में वह नई काव्यभाषा अर्जित की जिससे प्रयोगवाद और आगे नयी कविता की पहचान बनी। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।

जन्म : ‘अज्ञेय’ जी का जन्म ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसया (कुसीनगर) नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ था। इनका बचपन अधिकतर लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता।

मृत्यु : 4 अप्रैल 1987

शिक्षा : इनकी शिक्षा मद्रास और लाहौर में हुई जहां इनके पिता सेवारत थे। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा विद्वान पिता की देख-रेख में घर पर ही संस्कृत, फारसी, अँग्रेज़ी और बँगला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। १९२५ में पंजाब से एंट्रेंस, मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से विज्ञान में इंटर तथा १९२९ में लाहौर के फॉरमन कॉलेज से बी एस सी की परीक्षा पास की। अंगरेज़ी विषय में एम.ए. पढाई करते समय दिल्ली षडयंत्र केस तथा अन्य अभियोग के सिलसिले में वे भूमिगत गुए पर बाद में पहड़े गए और दो वर्ष तक नज़रबंद रहे। इस तरह क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी। इन्होंने किसान आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। १९३० से १९३६ तक के दौरान इनका अधिकांश समय विभिन्न जेलों में कटे।

कार्यक्षेत्र : १९३६-१९३७ में `सैनिक' और `विशाल भारत', `वाक्' और `एवरीमैंस' नामक पत्रिकाओं का आपने बड़ी कुशलता से संपादन किया। १९४३ से १९४६ तक अपने जीवन के तीन वर्ष ब्रिटिश सेना में बिताए। इसके बाद इलाहाबाद से `प्रतीक' नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की सलाहकार के पद पर कार्य किया। 1955-1956 तक यूरोप की और 1957-58 तक पूर्वेशिया की यात्राएँ कीं। इसके बाद अनेक बार भ्रमण और अध्यापन के सिलसिले में अज्ञेय जी विदेश गए।

पुरस्कार :
(१) १९६४ में `आँगन के पार द्वार' पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ।

(२) १९७९ में 'कितनी नावों में कितनी बार' पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।

कृतियां :

काव्य रचनाएँ : भग्नदूत, इत्यलम, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आंगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, सुनहरे शैवाल, महावृक्ष के नीचे, और ऐसा कोई घर आपने देखा है इत्यादि उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं।

उपन्यास : शेखर: एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी।

कहानी-संग्रह : विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप |

यात्रा वृत्तांत: अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली।

निबंध संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल,

संस्मरण :स्मृति लेखा

डायरियां : भवंती, अंतरा और शाश्वती।

विचार गद्य :संवत्‍सर

उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध केंद्र और परिधि नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ अज्ञेय ने तारसप्तक, दूसरा सप्तक, और | तीसरा सप्तक जैसे युगांतरकारी काव्य संकलनों का भी संपादन किया तथा पुष्करिणी और रूपांबरा जैसे काव्य-संकलनों का भी। वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध- संग्रहों के भी संपादक हैं।

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

काव्य प्रयोजन आधुनिक काल

काव्य प्रयोजन

आधुनिक काल

मनोज कुमार

आदिकाल और मध्यकाल

पूरा भक्तिकाव्य यह धारना व्यक्त करता है कि

“मानुष प्रेम भय‍उ बैकुंठी”

अर्थात्‌ प्रेम ही जीवन को दिव्य बनाता है। बैर नहीं। प्रेम से ही बैकुंठ की प्राप्ति संभव है।

भक्ति-रस में डूब कर ही लोग महान बन सकते हैं। भक्तिशास्त्र में कहा गया,

“प्रेमा पुमर्थो महान”।

भक्ति काल के साहित्य में यह भाव पुरुषार्थ के रूप में प्रखर रूप से आया। सूफ़ी कवियों ने भी इसे प्रतिस्थापित किया।

निर्गुणपंथी संत कबीरदास ने अंधविश्‍वास, कुरीतियों और रूढ़िवादिता का विरोध किया। विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिंदु-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम और रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों धर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई।

वहीं ‘पद्मावत’ के रचयिता जायसी ने सता शक्ति के अभिमान पर प्रहार किया।

‘रमचरितमानस’ में संत तुलसी दास ने कहा है

“कीरति भनितिभूति भलि सोई।

सुरसरि सम सब कह हित होई॥”

अर्थात्‌ कीर्ति-प्रीति-भनिति का एक ही उद्देश्य है - ‘लोकमंगल की भावना’।

इस प्रकार हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भक्ति-काव्य का प्रयोजन था लोकमंगल की भावना।

रीतिकाव्य में दरबारी काव्य के मूल्यों का पोषण हुआ। कहा गया,

“सरस राग-रीति-रंग”

इसी धारणा में पूरी तरह डूब जाना उस काल के सामंतों की नियति थी। इस काल में शृंगारिकता, रसिकता और झूठी शास्त्रीयता को कवि लोग पकड़े रहे।

“राधिका कान्ह सुमिरन को बहाने”

कविता का मुख्य प्रयोजन बन गया भोग, केलि-क्रीड़ा, विलास-पूर्ण मनोरंजन। उनका तो लक्ष्य था

तजि तीरथ हरि-राधिका तन दुति कर अनुराग।

जेहि ब्रज केलि निकुंज मग पग-पग होतु प्रयाग॥

नायिका के शरीर से अनुराग करो – यही पूरे रीतिकाल का जीवन दर्शन था। इस काल में शृंगार-रस को रसराज का रूप मिला। यह एक प्रकार से कलाकाल है। इस काल के अधिकांश कवि, बिहारी, देव, मतिराम, घनानंद, आदि रसवाद के पोषक हैं। ये कवि प्रेमी नहीं, रसिक हैं।

नवजागरण काल

इतिहास में एक काल आया पुनर्जागरण का। यह काल सांस्कृतिक नवजागरण का काल है। इस समय में ईश्‍वर की धारणा व्यक्तिगत आस्था तक सीमित हो गई। हमारी इस धारणा में बदलाव नवजागरण की मानसिकता से आया। सांस्कृतिक नवजागरण की प्रक्रिया का उद्भव दो जातीय सांस्कृतियों के टकराने से हुआ। भारत में अंग्रेज़ी हुक़ूमत आ चुकी था। इसका विरोध भी हो रहा था।

सहित्य का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं था। भारतेंदु हरिश्‍चद्र ने ‘कविवचन सुधा’ में स्वदेशी वस्तुओं को व्यवहार में लाने का प्रतिज्ञा-पत्र प्रकाशित किया। यह प्रतिज्ञा-पत्र भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है।

नवजागरण की चेतना बंगाल में आरंभ हुई। फिर यह हिन्दी प्रदेशों में पहुंची। शनैः-शनैः यह राष्ट्रीय सांस्कृतिक रूप धारण करती गई। इस युग के लगभग सभी लेखकों ने अंग्रेज़ों के दमन चक्र का अपने-अपने लेखन में विरोध किया।

विरोध का सर्वाधिक समर्थ माध्यम था नाटक। नटकों ही नहीं सभी तरह की सृजन-ध्वनि में साम्राज्यवादी ताकतों का विरोध स्पष्ट था। इसके अलावा अपसी कलह और वैमनष्व को भी समाप्त करने की चेतना जगाने का इस काल के साहित्य का प्रयोजन था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस काल की सृजनात्मक ध्वनि थी सामाजिक धार्मिक सुधार चेतना।

1857 की जन क्रांति विफल हो गई तो इसका दर्द भी रचनाओं में स्पष्ट रूप से आया तथा साथ ही लोकजागरण की चेतना का विकास इस काल के काव्य का प्रयोजन हो गया।

1857 की जन क्रांति के बाद स्वाधीनता संग्राम में प्रसार हुआ। जनता में जागृति आई। सभी तबके के लोग इस आंदोलन का हिस्सा बनने लगे। अतः हम कह सकते हैं कि नवजागरण की चेतना का उद्भव और विकास अंग्रेज़ों की देन नहीं बल्कि हमारी चिंतन परंपरा की ऊर्जा का उग्र विस्फोट है। उस काल की रचनाओं में आंतरिक राष्ट्र ध्वनि कुछ इस प्रकार देखने को मिलते हैं,

“सरबस लिए जात अंग्रेज़”, … “धन विदेश चलि जात” … या “भारतवासी रोए”।

इस प्रकार हम पाते हैं कि नवजागरण काल के काव्य की अंतः ध्वनि अंग्रेज़ी साम्राज्यवादी लूटतंत्र के प्रति विरोध, विक्षोभ, विद्रोह और बग़ावत को व्यक्त करना था।