बुधवार, 28 जुलाई 2010

काव्य लक्षण – 12 :: रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्‌

काव्य लक्षण – 12 :: रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्‌

शुरु से ही यह विवाद चला आ रहा था कि काव्य शब्द में होता है या अर्थ में अथवा शब्द और अर्थ दोनों में। इस विवाद का ध्यान रखते हुए पंडितराज ने कहा कि काव्य शब्द में होता है।

रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्

अर्थात्‌ रमणीयतार्थ प्रतिपादक शब्द काव्य है। रसगंगाधर में पंडितराज ने तीन काव्य लक्षणों को प्रस्तुत किया है। ये हैं सामान्य, परिष्कृत और फलित। सामान्य लक्षण के अनुसार रमणीय (सुंदर, मनोहर) अर्थ का प्रतिपादक शब्द ही काव्य है। पंडितराज के शब्द की विशेषता थोड़ा अलग है। प्रायः भाषा के सभी शब्द अर्थ प्रतिपादक होते हैं, निरर्थक शब्दों का भाषा में कोई स्थान नहीं होता। सामान्य भाषा के शब्दों के प्रतिपाद्य अर्थ से काव्य का प्रतिपाद्य अर्थ भिन्न होता है। जिसे पंडितराज रमणीय कहते हैं। सामान्य शब्द या भाषा-शब्द तो सामान्य अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं। किन्तु काव्य-भाषा के शब्द एक चमत्कारी आह्लाद्‌ की सृष्टि करते हैं। यानी भाषा-शब्दों के सामान्यतः प्रतिपाद्य अर्थ काव्य के रमणीय अर्थ के बीच होते हैं।

अर्थ या तो सूक्ष्म होते हैं या स्थूल। दोनों ही अर्थ में रमणीयार्थ प्रतिपादन निहित है। किन्तु पंडितराज का मानना है कि रमणीय वस्तु हमारे ज्ञान से  काव्यानुभूति में आकर आह्लाद्‌ की सृष्टि करते हैं। इसलिए रमणीय अर्थ का धरातल स्थूल या भौतिक नहीं है, बल्कि यह सूक्ष्म या मानसिक है। ज्ञान गोचरता तो मानसिक धरतल पर ही हो सकती है। इसलिए रमणीय काव्यार्थ शुद्ध मानसिक धरातल पर ही प्राप्त होता है।

“रमयणीयता च लोकोत्तराल्हादजनक ज्ञान गोचरता।”

पंडितराज के अनुसार काव्यार्थ की रमणीयता विषयगत (वस्तुपरक/Objective) और विषयिगत (आत्मपरक/Subjective), दोनों है। काव्य का आह्लाद्‌ लौकिक नहीं लोकोत्तर है, यानी लोक का परिष्कृत आनंद है। लोकोत्तर आनंद में चमत्कार है। यह चमत्कार कौतूहल नहीं है काव्यानुभूति की अपूर्वता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पंडितराज के अनुसार काव्य लक्षण “चमत्कारी आह्लाद्‌ से पूर्ण रमणीय अर्थों के प्रतिपादक शब्द काव्य हैं।” और यह आत्मपरक है। यह आत्मपरकता सहृदयमूलक है, कविमूलक नहीं। भारतीय काव्य-विवेचन का प्रतिमान है – सहृदय या सामाजिक। यह सहृदय बाहरी व्यक्ति न होकर भीतरी व्यक्ति है – काव्य से अभिन्न।

आचार्य विश्‍वनाथ रस को काव्य की आत्मा मानते हैं। पंडितराज ने रस के स्थान पर रमणीयता शब्द का प्रयोग किया है। यह विश्‍वनाथ के दृष्टिकोण की सीधी अस्वीकृति है। केवल रसादि-ध्वनि ही काव्य की अत्मा नहीं है। ध्वनि सिद्धांत के अनुसार रस-ध्वनि  के अलावा वस्तु-ध्वनि और अलंकार-ध्वनि भी है। रस-ध्वनि भावनात्मक आनंद, वस्तु-ध्वनि बौद्धिक आनंद और अलंकार-ध्वनि कल्पनात्मक आनंद प्रदान करती है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने यह मत प्रस्तुत किया कि गली के अंधेरे में उगे पौधे में भी सौंदर्य होता है – पतझड़ के वृक्षों में भी एक तरह का सौंदर्य होता है। बौद्धिक अनुभूतियों से प्राप्त सौंदर्य की चरम परिणति रसात्मक नहीं होती, चैन तोड़ने वाली होती है। हर संघर्ष का अपना सौंदर्य होता है।

पंडितराज का काव्य लक्षण आपनी व्यापकता के कारण आज भी ग्राह्य है। उनकी रमणीयता की अर्थ सीमा बहुत खुला क्षेत्र देती है। सभी ललित कलाओं का सौंदर्य इसमें आ जाता है। चित्र, मूर्ति, वास्तु, काव्य, संगीत ये सारी कलाएं रमणीय अर्थ देती हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि आज भी पंडितराज का काव्य लक्षण नकारने की चीज़ नहीं है, नए युग के संदर्भ में विचार करने की चीज़ है।

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