बुधवार, 14 जुलाई 2010

काव्यशास्त्र-२२ :: आचार्य विद्याधर, आचार्य विद्यानाथ और आचार्य विश्वनाथ कविराज

काव्यशास्त्र-२२

::

आचार्य विद्याधर,

आचार्य विद्यानाथ

और

आचार्य विश्वनाथ कविराज


मेरा फोटो- आचार्य परशुराम राय

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आचार्य विद्याधर का काल तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और चौदहवीं शताब्दी का प्रारम्भ माना जाता है। इनके आश्रयदाता उत्कल नरेश नरसिंह देव ( 1280 - 1314) थे।

काव्य शास्त्र के श्रेत्र में इनका एक ग्रंथ मिलता है जिसका नाम 'एकावली' है। इसमें कुल आठ उन्मेष हैं। प्रथम उन्मेष में काव्य-स्वरूप, द्वितीय में वृति विचार, तृतीय में ध्वनिभेद, चतुर्थ में गुणीभूतव्यड्.ग्य, पंचम में गुण और रीति, षष्ठ में दोष, सप्तम में शब्दालंकार और अष्टम में अर्थालंकारों का निरूपण किया गया है।

इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें दिए सभी उदाहरण आचार्य विद्याधर के स्वयं के रचे श्लोक है। इसकी रचना 'काव्यप्रकाश' और 'अलंकारसर्वस्व' के आधार पर की गई है। 14वीं शताब्दी के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य मल्लिनाथ ने एकावली' पर 'तरला' नाम की टीका लिखी है जो अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है।

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आचार्य विद्यानाथ आचार्य विद्याधर के समकालीन थे। आंध्रप्रदेश के राजा प्रतापरुद्र के राज्य में इन्हें आश्रय प्राप्त था। इन्हीं के नाम पर काव्यशास्त्र का ग्रंथ 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' नामक ग्रंथ इन्होंने लिखा। इस ग्रंथ की रचना 'एकावली' की शैली में की गई है, अर्थात् इसमें भी उदाहरण के रूप में महाराज प्रतापरुद्र की प्रशंसा में लिखे गये श्लोकों को आचार्य विद्यानाथ द्वारा दिया गया है।

महाराज प्रतापरुद्र का काल 1298 से 1317 ई0 तक रहा है और इनकी राजधानी एकशिला थी जिसे आजकल बारंगल के नाम से जाना जाता है।

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<div style="width: 200px;margin: 10px;color:red; font-size:16pt;
text-align:center; line-height:100%;  border-top:5px #7FACDE solid;
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solid;padding-top:5px;padding-bottom:5px;float:left;">आचार्य विश्वनाथ ने नायक-नायिका भेद तथा नाट्यशास्त्र के तत्वों का भी इस ग्रंथ में समावेश किया है, जबकि काव्यप्रकाशकार ने इन्हें छोड़ दिया है। काव्य की इनके द्वारा की गई परिभाषा 'वाक्यं रासत्मकं काव्यम्' अन्यन्त प्रसिद्ध है और आज भी विद्वानों को इसे उद्धृत करते हुए देखा जाता है। </div>

आचार्य विश्वाथ का काल चौदहवीं शताब्दी है। इनके पिता का नाम चन्द्रशेखर और पितामह का नाम नारायणदास था। इनके द्वारा किए गए उल्लेखों से पता चलता है कि ये 18 भाषाओं के ज्ञाता थे और किसी राज्य के सान्धिविग्रहिक (विदेशमंत्री)।

इनका ग्रंथ 'साहित्यदर्पण' काव्यशास्त्र का बड़ा ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ है। यह आचार्य मम्मट के 'काव्यप्रकाश' की भाँति ही दस परिच्देछों में विभक्त है (काव्यप्रकाश में दस उल्लास हैं)। 'साहित्यदर्पण' 'काव्यप्रकाश' की तुलना में काफी सरल और सुबोध है। दोनों के वर्णित विषय लगभग एक से हैं। आचार्य विश्वनाथ ने नायक-नायिका भेद तथा नाट्यशास्त्र के तत्वों का भी इस ग्रंथ में समावेश किया है, जबकि काव्यप्रकाशकार ने इन्हें छोड़ दिया है। काव्य की इनके द्वारा की गई परिभाषा 'वाक्यं रासत्मकं काव्यम्' अन्यन्त प्रसिद्ध है और आज भी विद्वानों को इसे उद्धृत करते हुए देखा जाता है।

'साहित्यदर्पण' के प्रथम परिच्छेद में काव्य के लक्षण, प्रयोजन आदि, द्वितीय में वाक्य और पद के लक्षण (परिभाषा) के साथ-साथ शब्द-शक्तियों का विस्तृत विवेचन, तृतीय में रसनिष्पति, चतुर्थ में काव्य के भेद, पंचम में ध्वनिविरोधी मतों का सशक्त खण्डन और ध्वनि सिद्धांत का समर्थन, षष्ठ में नाट्यशास्त्र का विषय विवेचन, सप्तम में दोष, अष्टम में गुण, नवम में रीति तथा दशम अनुच्छेद में अलंकारों का निरूपण किया गया है।

'काव्यप्रकाश' पर इन्होंने 'काव्यप्रकाशदर्पण' नाम की टीका भी लिखी है। 'राघवविलास' महाकाव्य है। 'कुवलयाश्वचरित' प्राकृतभाषा में लिखा गया काव्य है। 'नरसिंहविजय' संस्कृत में लिखा गया काव्य है। इसके अतिरिक्त 'प्रभावतीपरिणय' और 'चन्द्रकला' दो नाटिकाएँ हैं। 'प्रशस्तिरत्नावली' सोलह भाषाओं में लिखा गया करम्भक (करम्भक का अर्थ 16 भाषाओं में लिखा गया ग्रंथ) है।

आचार्य विश्वनाथ ने उपर्युक्त सभी ग्रंथों का उल्लेख 'साहित्यदर्पण' और 'काव्यप्रकाश' की टीका में किया है।

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