सोमवार, 2 जनवरी 2012

कुरुक्षेत्र ..तृतीय सर्ग ( भाग - 3 )




जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,
क्षमा वहाँ निष्फल है।
गरल-घूँट पी जाने का
मिस है, वाणी का छल है।
फलक क्षमा का ओढ छिपाते
जो अपनी कायरता,
वे क्या जानें ज्वलित-प्राण
नर की पौरुष-निर्भरता ?
वे क्या जानें नर में वह क्या
असहनशील अनल है,
जो लगते ही स्पर्श हृदय से
सिर तक उठता बल है?
जिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं,
जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का.
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का.
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका.
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का.

उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या,
करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है.
करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे,
ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है?
सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव,
जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है.
करुणा, क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर,
क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है.

प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त,
प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है.
छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही,
जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है.
चोट खा सहिष्णु व' रहेगा किस भाँति, तीर
जिसके निषग में, करों में धृड चाप है.
जेता के विभूषण सहिष्णुता, क्षमा है पर,
हारी हुई जाति की सहिष्णुता अभिशाप  है.

सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,
उठता कराल हो फणीश फुफकर है.
सुनता गजेंद्र की चिंघार जो वनों में कहीं,
भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है.
शूल चुभते हैं, छूते आग है जलाती, भू को
लीलने को देखो गर्जमान पारावार है.
जग में प्रदीप्त है इसी का तेज, प्रतिशोध
जड़-चेतनों का जन्मसिद्ध अधिकार है.

सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति,
लोभ की लड़ाई क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है.
वासना-विषय से नहीं पुण्य-उद्भूत होता,
वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है.
चोट खा परन्तु जब सिंह उठता है जाग,
उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है.
पुण्य खिलता है चंद्र-हास की विभा में तब,
पौरुष की जागृति कहाती धर्म-युद्ध है.

धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत,
कोई क्यों प्रचंड वेग वायु को बुलाता है?
फूटेंगे कराल ज्वालामुखियों के कंठ, ध्रुव
आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है?
फूँक से जलाएगी अवश्य जगति को ब्याल,
कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है?
विद्युत खगोल से अवश्य ही गिरेगी, कोई
दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है?

युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि
वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता?
वह जो दबा है शोषणो के भीम शैल से या
वह जो खड़ा है मग्न हँसता-मचलता?
वह जो बनाके शांति-व्यूह सुख लूटता या
वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता?
या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?

पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन कि भ्रांति है.
शोषणो के श्रंखला के हेतु बनती जो शांति,
युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशांति है.
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व का है,
ईश के अवज्ञा घोर, पौरुष कि श्रान्ति है.
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रंखला में धर्म विप्लव है, क्रांति है.

भूल रहे हो धर्मराज तुम
अभी हिंस्र  भूतल है.
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
खड़ा चतुर्दिक छल है.

मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे मिटे जिघान्सा,
किस प्रकार धरती पर फैले
करुणा, प्रेम, अहिंसा.

जिए मनुज किस भाँति
परस्पर होकर भाई भाई,
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का?
कैसे रुके लड़ाई?

धरती हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो.
मनुज प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष गरल हो.

बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोए,
एक दूसरे के उर में,
नर बीज प्रेम के बोए.

किंतु, हाय, आधे पथ तक ही,
पहुँच सका यह जग है,
अभी शांति का स्वप्न दूर
नभ में करता जग-मग है.

भूले भटके ही धरती पर
वह आदर्श उतरता.
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता.

किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा कर,
रुद्ध मनुज के मनोद्देश के
लौह-द्वार को पा कर.

घृणा, कलह, विद्वेष विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन, एक दो
का ही हृदय भिगो कर.

क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
अगणित अभी यहाँ हैं,
बढ़े शांति की लता, कहो
वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?

शांति-बीन बजती है, तब तक
नहीं सुनिश्चित सुर में.
सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक
उठे नहीं उर-उर में.

शांति नाम उस रुचित सरणी का,
जिसे प्रेम पहचाने,
खड्ग-भीत तन ही न,
मनुज का मन भी जिसको माने

शिवा-शांति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में.
सदा जन्म लेती वह नर के
मनःप्रान्त निस्प्रह में.

घृणा-कलह-विफोट हेतु का
करके सफल निवारण,
मनुज-प्रकृति ही करती
शीतल रूप शांति का धारण.

जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह
भय न शेष रह जाता.
चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता.

शांति, सुशीतल शांति,
कहाँ वह समता देने वाली?
देखो आज विषमता की ही
वह करती रखवाली.

आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है.
बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का
विष से भरा दशन है.

वह रखती परिपूर्ण नृपों से
जरासंध की कारा.
शोणित कभी, कभी पीती है,
तप्त अश्रु की धारा.

कुरुक्षेत्र में जली चिता
जिसकी वह शांति नहीं थी.
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
वह दुश्क्रान्ति नहीं थी.

थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,
वह जो जली समर में.
असहनशील शौर्य था, जो बल
उठा पार्थ के शर में.

हुआ नहीं स्वीकार शांति को
जीना जब कुछ देकर.
टूटा मनुज काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर

पापी कौन? मनुज से उसका
न्याय चुराने वाला?
या कि न्याय खोजते विघ्न
           का सीस उड़ाने वाला?
क्रमश:


प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२ 
द्वितीय  सर्ग  ---  भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२

7 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन में भी प्रतिपल कुरुक्षेत्र है। आभार।

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  2. यह एक ऐसे रण की कथा है जो प्रत्येक व्यक्ति दैनंदिन में लड़ रहा है!!

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  3. बहुत प्रसन्न हुआ है मन इस उत्कृष्ट शृंखला के अंश को पढ़कर...
    कुछ ऐसे शब्द भी ज्ञात हुए जो मेरे लिए अब तक अनजाने थे, सचमुच हमारी हिंदी अत्यंत समृद्ध और वैभवशाली भाषा है... सगर्व सादर बधाई..

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  4. बहुत सुन्दर श्रृंखला चल रही है

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  5. हमें ऐसी बेहतरीन रचना पढवाने के लिए आभार ..

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  6. एक बेहतरीन श्रंखला..बहुत आभार.

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