प्रबुद्ध पाठकों को अनामिका का सादर नमन ! जैसे एक ही उद्गम से निकलकर एक नदी अनेक रूप धारण कर लेती है वैसे ही हिंदी साहित्य का इतिहास भी प्रारंभिक अवस्था से लेकर अनेक धाराओं के रूप में प्रवाहित होता हुआ आधुनिक काल रूप में परिवर्तित होता है। तो आइये आधुनिक काल के प्रसिद्द कवियों और लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा-शैली पर प्रकाश डालते हुए आज चर्चा करते हैं पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी की...
अनामिका
पं गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
जन्म संवत 1940 ( सन 1883 ई.) , मृत्यु 1972 ई.
जीवनवृत -
पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी का जन्म श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, सं 1940 चि. में उन्नाव जिले के हडहा नामक ग्राम में हुआ। यह गाँव बैसवाड़ा क्षेत्र के अंतर्गत है। सनेही जी के पिता पं. अक्सेरीलाल शुक्ल बड़े साहसी और देशभक्त व्यक्ति थे। 1850 ई. के स्वातंत्र्य संग्राम में उन्होंने भी जमकर भाग लिया और ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन बने। देशभक्ति और वीरभाव की यह परंपरा सनेही जी को अपने पिता से ही प्राप्त हुई।
सनेही जी आरम्भ से ही मेधावी छात्र रहे। काव्यरचना का शौंक इन्हें बचपन से ही था। काव्यशास्त्र का सम्यक अनुशील इन्होने हडहा निवासी लाला गिरधारीलाल के चरणों में बैठकर किया. लालाजी रीतिशास्त्र के बड़े पंडित और ब्रजभाषा के सिद्धस्त कवि थे।
सनेही जी ने अपनी जीविका के लिए शिक्षक की वृति अपनाई। सन 1902 में ये शिक्षण पद्धति का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए दो वर्ष लखनऊ आकर रहे। यहाँ इनकी प्रतिभा का और भी विकास हुआ तथा ये ब्रजभाषा, खड़ीबोली एवं उर्दू के कवियों के संपर्क में आये। सनेही जी इन तीनों भाषाओं में काव्यरचना करते थे परन्तु रससिद्ध कविता की दृष्टि से ये प्रमुखतः ब्रजभाषा के ही कवि थे। इनकी प्रसिद्धि होने पर पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इन्हें खड़ीबोली काव्यरचना की ओर प्रेरित किया और इस क्षेत्र में भी सनेही जी का अद्वितीय स्थान रहा परन्तु ब्रजभाषा में भी ये आजीवन लिखते रहे। शिक्षा विभाग में नौकरी करने के कारण इन्होने अपनी राष्ट्रीय कवितायेँ 'त्रिशूल' उपनाम से लिखीं। सनेही नाम से ये परंपरागत और रससिद्ध कवितायें करते थे और त्रिशूल उपनाम से ये समाजसुधार और स्वाधीनता प्रेम की रचनाएं लिखते थे। 'तरंगी' और 'अलमस्त' ये दोनों भी सनेही जी के उपनाम हैं . असहयोग आन्दोलन के समय इन्होने टाउन स्कूल की हेड मास्टरी से त्यागपत्र दे दिया और कानपुर को अपना कर्मक्षेत्र बनाकर स्वाधीनता के कार्यों में अपने को खपा दिया।
सनेही जी की आरंभिक रचनाएं 'रसिक रहस्य', 'साहित्य सरोवर', 'रसिकमित्र ' आदि पत्रों में प्रकाशित होती थी। बाद में सरस्वती में भी लिखने लगे थे। 'प्रताप' में इनकी क्रांतिकारी रचनाएं प्रकाशित होती थी। 'दैनिक वर्तमान' के संस्थापकों में से ये एक थे। गोरखपुर से निकलनेवाले 'कवि' का संपादन इन्होने वर्षों किया। सन 1928 में इन्होने कविता प्रधान पत्र 'सुकवि' निकाला संपादन, संचालन सनेही जी 22 वर्षों तक करते रहे। इस पत्र में पुराने और नए - दोनों श्रेणियों के कवियों की रचनाएं प्रकाशित होती थीं। समस्यापूर्ति इसका स्थायी स्तम्भ था, जिसके कारण कविता का प्रचार, प्रसार तो हुआ ही, न जाने कितने सह्रदयों को सनेही जी ने रचनाकार भी बना दिया। सनेही जी ने अपने जीवन में असंख्य कवियों को काव्याभ्यास कराकर सत्काव्यरचना में प्रवृत किया। आज के अनेक प्रसिद्द कवि अपने को सनेही जी का शिष्य कहने में गौरव का अनुभव करते हैं। इन्होने कवि सम्मेलनों की परंपरा का भी विकास किया और जीवन में शतशः कवि सम्मेलनों का सभापतित्व भी किया।
सनेही जी का रचनाकाल और रचना का विषय क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। इनकी प्रकाशित रचनाओं में प्रेम पच्चीसी, कुसुमांजलि, कृषक क्रंदन, त्रिशूल तरंग, राष्ट्रीय मन्त्र, संजीवनी, राष्ट्रीय वाणी, कलामे त्रिशूल तथा करुणा -कादम्बिनी हैं। स्पष्ट है कि सनेही जी का रससिद्ध व्यक्तित्व उनके ब्रजभाषा काव्य में ही परागत हुआ है।
आचार्य पं रामचंद्र शुक्ल जी ने लिखा भी है - पं गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' के प्रभाव से कानपुर में ब्रजभाषा काव्य के मधुस्त्रोत अब भी बराबर वैसे ही चल रहे हैं, जैसे 'पूर्ण' जी के समय में चलते थे .
सनेही जी की प्रथम कृति 'प्रेम्पच्चिसी' का प्रकाशन सन 1905 के आस-पास हुआ था। इसमें श्रृंगार रस के ब्रजभाषा में लिखे पच्चीस छंदों का संकलन किया गया था। 'प्रेमपच्चीसी' का एक छंद यहाँ प्रस्तुत है -
जेहि चाह सों चाह्यो तुम्हें प्रथमै
अबहूँ तेहि चाह सों चाहनौ है .
तुम चाहौ न चाहौ लला हमको
कछु दीबो न याकौ उराहनौ है .
दुःख दीजै कि कीजै दया दिल में
हर रंग तिहारौ सिराहनौ है .
मन भावै करौ मनभावन सो
हमें नेह कौ नातौ निभावनौ है।
समय के साथ सनेही जी का ब्रजभाषा काव्य भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से समृद्धतर होता गया . प्रेमव्यंजना को इन्होने ब्रजभाषा काव्य में सर्वप्रमुख स्थान दिया है। इस प्रेम्वार्नन में ये भक्तिकाल के कवियों की अपेक्षा रीतिकाल के कवियों से अधिक प्रभावित हैं। इतना अवश्य है कि इनमे रीतिकाल के अधिकाँश कवियों के सामान हृद्यानुभूति का अभाव और केवल कलात्मकता ही नहीं है, अपितु इनकी रचनाएं प्रसाद गुण लिए हुए अनुभूतियों का विषद वर्णन ही है।
प्रेम के विषय में श्रीकृष्ण की निस्संगता को आधार बनाकर सनेही जी ने विरहणी गोपियों की स्थिति को किस प्रकार आमने - सामने रखकर इस छंद को प्रस्तुत किया है, यह देखते ही बनता हैं।
नव नेह कौ नेम निबाहत चातक, कानन ही में मवासौ रहै .
रट 'पी कहाँ ' 'पी कहाँ ' की ही लगे, भरो नीर रहै पै उपासौ रहै .
तजि पूरबी पौन न संगी कोऊ, कछु देत हिए कौं दिलासौ रहै .
लगी डोर सदैव पिया सों रहै, चहे बारहु मॉस पियासौ रहै .
सरल और सहज अभिव्यक्ति होते हुए भी ब्रजभाषा कवियों की अलंकार प्रियता की रीति सनेही जी ने भी निबाही है। उक्त छंद में 'पियासौ' में यमक अलंकार कितना स्वाभाविक ढंग से आ बैठा है।
सनेही जी के काव्य में कलात्मकता भी कम नहीं है। समस्यापूर्ति के निमित्त लिखी गयी रचनाओं में चमत्कार का प्रदर्शन स्वभावतः अधिक होता है परन्तु सनेही जी का यह पांडित्य केवल शब्दों में न होकर उनकी कल्पनाशीलता में है, परिणामतः इनके छंद अनुभूति को ही विशेष रूप से जाग्रत करने में समर्थ होते हैं .
सनेही जी की ब्रजभाषा की रचनाओं में श्रृंगार रस के अतिरिक्त शांत, वीर, करुण, हास्य एवं अन्य रसों की भी कवितायें हैं। इनकी भाषा में अवधि, बैसवाड़ी, बुन्देलखंडी प्रयोगों के साथ अरबी फारसी के शब्द भी प्रयाप्त मात्रा में पाए जाते हैं इसलिए इनकी भाषा विशुद्ध ब्रजभाषा नहीं कही जा सकती। यही नहीं खड़ी बोली का पुट भी जहाँ तहां इनकी भाषा में मिलता है। इन सब प्रयोगों से इनकी ब्रजभाषा सरल और प्रसादगुण युक्त भी बनी है यही सनेही जी की विशेषता है। इनकी कथन भंगिमाएं सहज और विविध हैं, इनका अलंकार विधान स्वाभाविक है, छंद योजना में ये प्रायः रीतिकाल के अनुवर्ती हैं। अर्थात इस विवेच्य युग में भी सनेही जी ब्रज से बाहर रहकर भी ब्रजभाषा के एक बहुत बड़े स्तम्भ माने जाते हैं।
सनेही जी का इंतकाल 20 मई, 1972 में कानपुर में हो गया