हिन्दी उपन्यास साहित्य की चर्चा के क्रम में अब तक हमने १. अनुदित उपन्यास, २. आरंभिक हिन्दी उपन्यास और ३. तिलस्मी-ऐयारी, जासूसी, ऐतिहासिक और भावप्रधान उपन्यास की चर्चा की है।
प्रेमचंद युगीन उपन्यास (1918-1936)
मुंशी प्रेमचंद इस युग के महान उपन्यास लेखक हैं। उनको हिन्दी उपन्यास के विकास का सर्वाधिक श्रेय प्राप्त है। उनके पहले के उपन्यास केवल मनोरंजन के साधन थे।
डॉ. रामविलास शर्मा का मत है,
“प्रेमचंद के पूर्व श्रीनिवासदास, बालकृष्ण भट्ट और राधाकृष्णदास ने उपन्यास को मनोरंजन के स्तर से ऊपर ज़रूर उठाया था, किंतु उन्होंने प्रेमचंद को प्रभावित नहीं किया था।”
प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ 1918 में प्रकाशित हुआ। इसी के साथ नये युग का सूत्रपात होता है। इसे ‘प्रेमचंद युग’ या हिन्दी उपन्यास का ‘विकास युग’ के नाम से जाना जाता है।
यह काल भारतीय स्वंत्रता संग्राम और समाज सुधार संबंधी आन्दोलनों का काल था। अंग्रेज़ी शासन और शिक्षा एवं सभ्यता के प्रभाव से हमारे समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों एवं धार्मिक आडंबरों के ख़िलाफ़ विद्रोह से एक नवीन चेतना और गौरव की भावना का उदय हो रहा था। महात्मा गांधी राजनीतिक मंच पर पूरी तरह से उदित हो गए थे। उनके सत्य, अहिंसा, सदाचार, सत्याग्रह, अस्पृश्यता विरोध, स्त्रियों की उन्नति, ग्राम सुधार, अछूतोद्धार, स्वदेशी आदि से संबंधित विचारधारा का लोगों पर काफ़ी प्रभाव पड़ने लगा था। अन्याय-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ विरोध की नई शक्ति का उदय हो चुका था। उत्पीड़क समाज, सामन्त वर्ग आदि से टक्कड़ लेने का साहस लोगों में जगा था। रूस की नवजागृति, विज्ञान के अविष्कार, आदि का हमारे जन-जागरण पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसलिए कल्पना, रोमांस और चमत्कार-प्रदर्शन के इन्द्रजाल से मुक्ति लेकर हिन्दी उपन्यासकार यथार्थ के कठोर धरातल पर कदम रख कर समाज के हित में साहित्य की रचना करने लगे।
इस नयी रचना-दृष्टि के संवाहक थे मुंशी प्रेमचंद। अपने पहले के उपन्यासकारों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था,
“जिन्हें जगत् गति नहीं व्यापती, वे जासूसी, तिलस्मी चीज़ें लिखा करते हैं।”
देवकीनन्दन खत्री के लिए उपन्यास एक जीवित शक्ति नहीं है, वह मनोरंजन का, उपभोग का, एक उपकरण मात्र है। जीवन में झूठी उत्तेजना लानेवाली एक खुराक है। प्रेमचंद तक आते-आते यह दृष्टिकोण बदल कर विवेक और नीति का दृष्टिकोण हो जाता है। उनके लिए उपन्यास सामाजिक जीवन का निर्माण करनेवाला एक चेतन प्रभाव है। उपयोगिता और सुधार उसके दो ठोस उद्देश्य हैं। नीति और विवेक दो साधन।
प्रेमचंद जी के उपन्यासों में सभी गुण मौज़ूद थे। वे मनोरंजन के साधन भी हैं और सत्य के वाहक भी। इनके उपन्यासों की सबसे प्रमुख विशेषता है उसकी आदर्शवादिता। चरित्रों और उसकी प्रवृत्तियों का निर्देश करने में वे आदर्शोंन्मुखी हैं। इस प्रकार ‘सेवा सदन’ से लेकर ‘कर्मभूमि’ तक प्रेमचंद जी का सुधारवादी और आदर्शवादी रूप मिलता है। जिसमें वे आश्रमों और सदनों की कल्पना करते हुए दृष्टिगत होते हैं। उन्होंने अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक गतिविधि का पूरा चित्र इन उपन्यासों में अंकित किया है। इनके उपन्यासों में आदर्श, कर्तव्य, प्रेम, करुणा, समाज-सुधार, देश-भक्ति, सत्याग्रह, अहिंसा, स्त्री-व्यथा, मध्यवर्गीय मनुष्य की त्रासदी, कृषक जीवन की समस्याएं, मेहनतकश जनता का संघर्ष आदि अनेक जीवन संदर्भों का प्रभावोत्पादक चित्रण हुआ है। उनके उपन्यासों में आदर्शवाद और यथार्थवाद का अद्भुत मेल देखने को मिलता है। वैसे अपने जीवन के प्रारंभिक काल में प्रेमचंद जी आदर्शवादी ही रहे हैं, पर बाद में चलकर जीवन नीरस होते देख यथार्थ का उन्हें पल्लू पकड़ना पड़ता है। ताकि दोनों सम्मिश्रण से उनका जीवन सरलता से पूर्ण हो। ‘गोदान’ में उनका आदर्शवाद पूरी तरह बिखर गया है और उसका स्थान ले लिया है क्रूर यथार्थ ने। इसे जीवन का महाकाव्य भी कह सकते हैं। ‘गोदान’ के विषय में नलिन जी के विचार हैं,
“गोदान हिंदी की ही नहीं, स्वयं प्रेमचंद की भी एक अकेली औपन्यासिक कृति है, जिसका विराट् विस्तार, निर्मम तटस्थता, यथार्थता और सरलता की पराकाष्ठा तक पहुंचकर अत्यंत विशिष्ट बन गई है। ऐसी शैली किसी एक भारतीय उपन्यास में नहीं मिलती।”
प्रेमचंद के पहले के उपन्यासकारों या उनके समकालीन उपन्यासकारों की भाषा दुरूह और क्लिष्ट हुआ करती थी। सिर्फ़ देवकी नन्दन खत्री की भाषा आडम्बरहीन हुआ करती थी। प्रेमचंद जी ने भाषा की सादगी और सरलता को शैली की विशिष्टता में रूपान्तरित किया।
‘कर्मभूमि’ प्रेमचंद जी का अंतिम अपूर्ण उपन्यास है। जिसमें क्रांतिकारी भावनाओं के दर्शन होते हैं। प्रेमचंद जी ने समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों की परस्पर स्थिति और उनके संस्कार चित्रित करने वाले उपन्यास ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, की रचना की।
डॉ. नगेन्द्र लिखते हैं,
“प्रेमचंद जी की बहिर्मुखी सामाजिकता को उसी समय प्रसाद ने चैलेंज किया। प्रसाद ने निर्मम होकर सामाजिक संस्थाओं का गर्हित खोखलापन दिखाया।”
प्रेमचंद युग में ही प्रसाद जी ने ‘कंकाल’, ‘तितली’ ‘इरावती’, जैसे उपन्यासों में इस समाज की घृणित कुत्सित और ईर्ष्यापूर्ण भावनाओं का पर्दाफाश किया गया है। उन्होंने ‘कंकाल’ में सामाजिक यथार्थ का चित्रण कर यह प्रमाणित किया कि वे अतीत में ही रमे रहने वाले रचनाकार नहीं थे, बल्कि उन्हें अपने समय के सामाजिक यथार्थ की भी गहरी जानकारी थी।
इसी समय निराला ने ‘अप्सरा’, ‘प्रभावती’, ‘निरुपमा’, ‘चोटी की पकड़’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘कुल्लीभाट’ जैसे उपन्यासों से सामाजिक चेतना को एक नया आयाम दिया। ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ और ‘कुल्लीभाट’ में उन्होंने यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ ही संस्मरणात्मक उपन्यास की एक नई शैली का विकास किया। इनमें हास्य-व्यंग्य की सरसता और तीक्षणता है, जिसके कारण प्रगतिशील चेतना अधिक सघनता एवं प्रामाणिकता के साथ परिपुष्ट होती है।
वर्ष 1918 से 1936 का कालखंड पेमचंद के नाम जाता है जिन्होंने उपन्यास के क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित किया। उनके उपन्यासों के संबंध में
जवाब देंहटाएं'ऱामविलाश शर्मा' एवं 'नलिन' जी के विचारों का समावेश अच्छा लगा। 'मंगलसूत्र' ही केवल अधूरा रह गया जिसे बाद में उनके सुपुत्र अमृत्र राय ने पूरा किया। प्रेमचंद के बारे में जानकारी अच्छी लगी। धन्यवाद।
उपन्यास की यह कक्षा अच्छी लगी...
जवाब देंहटाएंमुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों का अपना पूरा इतिहास है ...बहुत अच्छी प्रस्तुति ...नारी भावनाओं से जुड़ा उनका निर्मला उपन्यास बहुत पसंद है ..उनके हर उपन्यास में सामाजिक रीतियों का ज़िक्र सही चित्रण प्रस्तुत करता है
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (14-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
इस युग में उपन्यासों ने समाज का यथार्थवादी चित्रण किया था . आपका आलेख जानकारी पूर्ण है.
जवाब देंहटाएंहिंदी पढ़ने वाला मुंशी जी का प्रसंशक न हो ऐसा हो ही नहीं सकता..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति आभार.
प्रेमचंद ने आम आदमी के जीवन को नजदीक से अपने रचनाओं में उढ़ेरा | इसीलिए जन-मानस तक तथा सबके प्रिय रहे | सभी के दिलो में उनकी रचनाये बैठ गयी | इस लेख के लिए आप का बहुत - बहुत धन्यबाद
जवाब देंहटाएंधनपत राय प्रेमचंद जी के उपन्यासों में सामाजिक सराकारों की गहरी पैठ दिखाई पड़ती है, उन्होंने उपन्यास को तिलस्म और काल्पनिक जगत से निकाल कर यथार्थ के धरातल पर स्थापित किया। उनके अन्य उपन्यासों में प्रेमा, वरदान,सेवासदन,कर्मभूमि,गबन, कायाकल्प,वरदान,आदि प्रमुख हैं।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद उपन्यास सम्राट सिद्ध होते हैं। यथार्थ के साथ-साथ उनमें आदर्श के भी पूरे गुण उपस्थित होते हैं ।
धन्यवाद इस जानकारी के लिए।
एक्सार्थक प्रस्तुति उपन्यास सम्राट के कृतित्व के माध्यम से उपन्यास चर्चा!!
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद युगीन हिंदी उपन्याशकारो में प्रेमचंद अपनी महान प्रतिभा के कारण युग प्रवर्तक के रूप में जाने जाते है।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद के उपन्यास राष्ट्रीय आंदोलन, कृषक समस्या, मानवतावाद, भारतीय संस्कृति, शोषढ़ ,विधवा विवाह, दहेज़ प्रथा आदि विषये से सम्बंधित हैं।
प्रगतिशील उपन्यास का विकास ओर विशेषतया
जवाब देंहटाएंIn upanyaso ka uddesh kya hai?
जवाब देंहटाएंPremchand yug ke upanyas
जवाब देंहटाएंPremachandra yugeen
जवाब देंहटाएंHindi upanyas
प्रेमचंद योगीन उपन्यासों के चरण
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