हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी। रूपांतर :: मनोज कुमार
जय हो ! जय हो !!
भये प्रकट किरपाला..... दीन-दयाला कौसल्या हितकारी........... !!!
बधाई हो रामनवमी का त्यौहार !!!
बस आने ही वाला है। नवरात्र चल रहा है। दो दिन बाद हम रामनवमी भी मना रहे होंगे।
अरे राम नवमी से याद आया......... ओह ! कहाँ गए वे दिन ! हाथ-पैर से होली का रंग छूटा नहीं कि जुट जाते थे रामनवमी की तैयारी में। ध्वजा-पताका, बंदनवार, फूल-माला, रंग-रोगन, नाच-गीत........ तैयारी भी तो महाभारत जैसी ही करनी पड़ती थी। लेकिन एक बात है, महावीर स्थान में रामनवमी होती भी थी जमकर !
एक बार का किस्सा कहते हैं। रामनवमी में कीर्तन के लिए 'टोकना मठ' के बाबाजी लोग आये थे। भकोलिया माय कहती थी कि ये लोग बेजोड़ कीर्तन करते हैं। तरह-तरह का रूप बना कर ऐसा स्वांग भरते हैं कि लगेगा सारी अयोध्या नगरी अपने महावीर स्थान में पहुँच गयी है। इस रामनवमी में एक अरसे के बाद 'टोकना-मठ' की मण्डली आ रही थी।
दोपहर में भगवान का जन्मोत्सव हुआ। फिर हनुमान जी की ध्वजा बदली गयी और फिर शुरू हुआ कीर्तन। हमलोग ‘पछियारी टोला’ में खेल रहे थे। वहीं लाउडस्पीकर की आवाज आयी ...
"ध.... धिन्ना... ध...ध... तिरकिट....... धिन ......
जनमे चारो ललनमा हो रामा....... दशरथ आंगनमा.... !!"
हमारे मुँह से फट से निकला, 'अरे रे रे !! ...... चल रे बैजुआ ! महावीर स्थान में कीर्तन शुरू हो गया।'
फिर जिस हाल में थे वैसे ही सारा खेल तमाशा छोड़ हम, बैजू, पचकोरिया, घंटोलिया, अजगैबी, नेंगरा, कोकाई सब दौड़े सीधे पूर्व की तरफ़।
बीच में हमारा घर पड़ता था, मझकोठी टोल में। हमारे पड़ोसी थे, झुरुखन काका। उनका बेटा बटिया भी हम लोगों की उमर का ही था। बेचारा उम्र के लिहाज से लाखों गुना अधिक काम करता था। झुरुखन काका तो खुद गांजा का सोंट मार कर 'खो-खो... खो-खो' करते रहते थे और घर-द्वार, माल-जाल से लेकर खेती-पथारी का सारा काम बटिया और सुखिया दोनों भाई को करना पड़ता था। उस में थोड़ी भी गड़बड़ी हुई कि दे ‘धमक्का’ पीठ पर।
हमलोग इधर से बेतहाशा दौड़े जा रहे थे। बटिया माल-मवेशी के लिए ‘भुस्कार’ से गेहूं का भूसा निकाल रहा था। हमलोगों को भागते देख पूछा, "अरे ! कहाँ जा रहे हो तुम लोग ?"
"धत्त् बेवकूफ़ ! सुनाई नहीं दे रहा है..... महावीर स्थान में 'टोकना-मठ' वाली मंडली का कीर्तन हो रहा है। वही देखने जा रहे हैं।"
बैजू चहकते हुए बोला। "अरे तोरी के.... जरा ठहरो भाई ! हम भी चलते हैं।"
इतना कहकर बटिया ने सिर पर से टोकड़ी पटका और, उसी देह-दशा में हमलोगों की जमात में शामिल हो गया।
हम लोगों में सब से सीनियर था अजगैबी। बटिया से बोला, "उल्लू कहीं का ! तू जो भूसा छोड़ कर चल दिया कीर्तन में, सो बापू कुछ कहेगे नहीं तुमको ? क्या हाल होगा तेरा ........ डर-वर है कि नहीं बापू का...?"
"क्या होगा...." बटिया ने भी बहुत दृढ़ता से जवाब दिया, "मार खाई पीठिया-अंखिया रोई ! हमनी का होई ?" मतलब मार पड़ेगी पीठ को और रोयेगी आँख ... उस से मेरा क्या ? हा... हा...हा.... आ...हा...हा...हा.... ! उंह !”
बटिया की कहावत सुनकर जो ठहाका गूंजा कि पूछिये मत। लाउडस्पीकर की आवाज फिर आई,
"राजा लुटाबे रामा अन्न-धन-सोनमा... !
रानी लुटाबे हाथ कंगनमा
हो रामा...... दशरथ आंगनमा.... !!"
हम लोग फिर दौड़ पड़े।
कीर्तन तो बड़ा मजेदार हो रहा था। लेकिन हमारा मन बार-बार बटिया की कहावत पर दौड़ जाता था, "मार खाई पीठिया-अंखिया रोई ! हमनी का होई ?"
..... आखिर मतलब क्या हुआ इसका ? एक पहर सांझ गए कीर्तन ख़तम हुआ। केला के पत्ता पर भर-भर कर के साबूदाना की खीर, गेंहू की रोटी का लड्डू और मालभोग केला का परसाद पाए। फिर चले वापिस .... स्व-स्व स्थानं गच्छः !
लेकिन बटिया की कहावत अभी भी हमारे मन में उधम मचाये हुए था। आखिर हम पूछ ही लिए, 'बटेसर ! इस कहावत का मतलब क्या हुआ ? पीठ-आँख सब तो तुम्हारी ही है। चोट तो तुम्ही को लगेगी.... फिर ?
बटिया को तो कुछ कहते नहीं बना लेकिन कोकाई बोला, 'धत्त्... ! अरे थेथर ( हठी, जिस पर किसी बात का असर नहीं होता) है। असल में इसके बापू ने इसे इतना पीटा है कि अब इसे कोई फर्क नहीं पड़ता। पीठ पर धौल जमा के बापू को संतुष्टि मिलती है कि पिटाई किया। थोड़ा-बहुत दर्द हुआ तो आँख से आंसू निकल गया। लेकिन उससे यह सुधर थोड़े न जाएगा। जिसको कभी-कभार डांट-फटकार, मार-पीट होती है, उसको फर्क पड़ता है। इसके लिए तो यह सब रोजाना की बात है। मार खाते-खाते थेथर हो गया है इसीलिए अब पीठ पर मुक्का पड़े, आँख से आंसू जाए, उस से इसका क्या.... कुछ फर्क नहीं।"
अच्छा ! तो यह था कहावत का मतलब। 'धमकी, दंड या अत्याचार कभी-कभार हो तब आदमी को उस से भय होता है। हमेशा मिलने वाले दंड से तो वह अभ्यस्त हो जाता है। फिर उस से न कोई भय, न सुधार की कोई गुंजाइश। क्षण भर के लिए दर्द महसूस हो जाए लेकिन कोई दूरगामी प्रभाव नहीं पड़ने वाला।’
तो रामनवमी के अवसर पर यही था आज का कहानी ऐसी बनी। इसी बात पर बोल दीजिये,
'अयोध्या-रामलला की जय !'
पुराने लिंक
नवरात्र पर यह पोस्ट अच्छा लगा।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंभ्रष्टाचारियों के मुंह पर तमाचा, जन लोकपाल बिल पास हुआ हमारा.
जवाब देंहटाएंबजा दिया क्रांति बिगुल, दे दी अपनी आहुति अब देश और श्री अन्ना हजारे की जीत पर योगदान करें
आज बगैर ध्रूमपान और शराब का सेवन करें ही हर घर में खुशियाँ मनाये, अपने-अपने घर में तेल,घी का दीपक जलाकर या एक मोमबती जलाकर जीत का जश्न मनाये. जो भी व्यक्ति समर्थ हो वो कम से कम 11 व्यक्तिओं को भोजन करवाएं या कुछ व्यक्ति एकत्रित होकर देश की जीत में योगदान करने के उद्देश्य से प्रसाद रूपी अन्न का वितरण करें.
महत्वपूर्ण सूचना:-अब भी समाजसेवी श्री अन्ना हजारे का समर्थन करने हेतु 022-61550789 पर स्वंय भी मिस्ड कॉल करें और अपने दोस्तों को भी करने के लिए कहे. पत्रकार-रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना हैं ज़ोर कितना बाजू-ऐ-कातिल में है.
मनोज जी,
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट और अच्छी जानकारी. राम नवमी पर हमारी हार्दिक शुभकामनाएं !
शानदार प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंराम नवमी पर हमारी हार्दिक शुभकामनाएं .
नई कहावत और कहावत का अर्थ ..प्रसंग सब पता चला...
जवाब देंहटाएंरामनवमी की हार्दिक शुभ कामनाएं
बहुत अच्छी पोस्ट ..आभार
जवाब देंहटाएं