बुधवार, 23 नवंबर 2011

अंक-10 हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई


अंक-10

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेई

आचार्य परशुराम राय

आचार्य वाजपेयी के अनुसार उनके जीवन का तृतीय उन्मेष 1941 से 1950 तक है। यह काल उनके साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश था, क्योंकि इसी अवधि में देश स्वतंत्र हुआ और हिन्दी को राष्ट्रभाषा (राजभाषा) का स्थान मिला था। वे कांग्रेस और हिन्दी साहित्य सम्मेलन की गतिविधियों से भी विरत हो चुके थे। हाँ, स्वतंत्रता के पूर्व वे ब्रजभाषा का व्याकरण लिख चुके थे।

पिछले अंक में अबोहर में हुई हिन्दी साहित्य सम्मेलन की चर्चा की गयी थी। इस सम्मेलन में कश्मीर में हिन्दी के प्रचार हेतु काफी लम्बी धनराशि निर्धारित की गयी थी। आचार्य जी भी हिन्दी के प्रचार के लिए सम्मेलन द्वारा नियुक्त किए गए थे। कश्मीर के बारे में इन्होंने सब पता किया कि कश्मीर सैर आदि के लिए कौन सा समय अच्छा रहता है। लेकिन एकाएक टंडन जी का आदेश जारी हुआ कि कश्मीर से पहले पंजाब में हिन्दी प्रचार का काम किया जाय, फिर कश्मीर में। लोकसेवक-मंडल, लाहौर, के श्री अचिन्त्यराम जी के लिए टंडन जी ने एक पत्र लिखकर आचार्य जी को पंजाब भेजा। पत्र में आचार्य जी को हिन्दी प्रचार के लिए पूर्ण सहयोग देने के लिए कहा गया था। इसके लिए आर्यसमाज, सनातनधर्म सभा और देवसमाज आदि द्वारा संचालित विद्यालयों में हिन्दी के माध्यम से शिक्षा देने की योजना थी।

लाहौर पहुँचकर आचार्य जी लाला लाजपत राय की कोठी में ठहरे, जो एक ऐतिहासिक भवन था और लोकसेवक-मण्डल की स्थापना के बाद लाला जी ने इसे मण्डल को दान कर दिया था। सन् 1920-1924 के आन्दोलन के दौरान और उसके बाद देश में इस प्रकार की संस्थाएँ राष्ट्रीय पद्धति पर शिक्षा देने के लिए स्थापित की गयी थीं। इनमें काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, तिलक विद्यापीठ, नेशनल कालेज आदि उल्लेखनीय हैं। आचार्य जी जब कार्यक्षेत्र में उतरे तो उन्हें लगा कि उनकी वेश-भूषा, रहन-सहन, बोलचाल आदि उन स्कूल-कालेजों के संचालक बड़े-बड़े रायबहादुरों को आकर्षित करने में सक्षम न थे। पं. गणेशदत्त गोस्वामी से बातचीत से कोई बात नहीं बनी तो उन्हें पता चला कि उनकी दाल गलनेवाली नहीं। देवसमाज की ओर से आशा जरूर दिलाई गई, किन्तु उनकी संस्थाएँ अधिक न थीं। इसी दौरान यहाँ से वे दो दिनों के लिए लायलपुर गए। गवर्नमेंट कालेज में वहाँ के प्रोफेसर श्री हंसराज जी ने आचार्य जी का एक व्याखान आयोजित कराया था। इस व्याख्यान का अच्छा प्रभाव पड़ा था। लेकिन जिस काम का रूप आचार्य जी के दिमाग में था उसे प्रभावित करने के लिए यह काफी नहीं था। सामान्यतया सिक्ख लोग उस समय उर्दू से प्रेम करते थे।

पन्द्रह-बीस दिन के अनुभव के आधार पर आचार्य जी को लगा कि यह काम उनके बूते का नहीं है और राष्ट्रीय संस्था सम्मेलन का धन व्यर्थ जा रहा है। अतएव उन्होंने राजर्षि टंडन को एक पत्र लिखकर परिस्थितियों से अवगत कराते हुए लिखा कि यह काम उनसे न हो सकेगा। कश्मीर जाने के लिए भी अपनी अनिच्छा बता दी।

आचार्य जी के इस पत्र का जवाब टंडन जी ने गुस्सा मिश्रित झिड़की देते हुए लिखा था और धैर्य से काम लेने की सलाह दी थी। साथ ही ढाँढ़स बधाया था कि आप बीज बो रहे हैं और एक दिन में बीज पेड़ नहीं बनता। जहाँ तक प्रभाव की बात है तो मेरा ही कहाँ प्रभावशाली व्यक्तित्व है, आदि-आदि। आचार्य जी ने उनके साथ बहस में न पड़कर तमाम दस्तावेजों को लेकर सम्मेलन वापस आ गए। टंडन जी उनसे काफी नाराज हुए और सम्मेलन के अगले अधिवेशन की व्यवस्था में सहायता करने के लिए नामधारी सिक्खों के प्रसिद्ध गुरुद्वारा लुधियाना के भैणी साहब जाने को कहा।

भैणी एक गाँव है जो लुधियाना रेलवे स्टेशन से काफी दूर है। वहाँ गुरु का लंगर चौबीसों घंटे चलता रहता है। आचार्य जी यहाँ आकर अपना काम अभी शुरु भी न कर पाए थे कि 1942 का स्वतंत्रता आन्दोलन शुरु हो गया। अखबारों में गरम-गरम खबरें आने लगीं। आचार्य जी का मन इस आन्दोलन में कूद पड़ने के लिए मचलने लगा। गुरु जी ने (आचार्य जी ने नाम नहीं दिया है) कहा, पहले यह देखा जाय कि आगे क्या होता है, फिर तय किया जाएगा। लेकिन 11 और 12 अगस्त तक पूरे देश से गरम खबरे आने लगी थीं। अतएव तय किया गया कि सम्मेलन को एक पत्र लिखकर अधिवेशन का आयोजन स्थगित करने की सलाह दी जाए। क्योंकि ऐसे समय में अधिवेशन का उद्देश्य पूरा नही होगा। चिट्ठी लिखकर आचार्य जी ने गुरु जी से हस्ताक्षर कराए। उसे पोस्ट करने का दायित्व गुरु जी पर छोड़कर शाम की गाड़ी से हरिद्वार के लिए निकल पड़े।

प्रातःकाल 14 अगस्त को हरिद्वार पहुँचे। दस बजते-बजते हरिद्वार भड़क उठा था। हरिद्वार के अतिरिक्त कनखल और ज्वालापुर की स्थिति भी वैसी ही थी। डाकखाने जला दिए गए थे। आचार्य जी भी गिरफ्तार किए गए। इसका विवरण थोड़ा विस्तार से अगले अंक मे लिखा जाएगा। इस अंक में बस इतना ही।

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