अक्सर मैं सोचती हूँ कि दुनिया में कितने रंग हैं अपने गम से बाहर निकलो तो दुनिया में कितने गम हैं । कभी कभी बचपन बीतता भी नही कि आदमी बुजुर्ग हो जाता है और कभी कभी कोई बुजुर्ग बच्चे से बड़ा नहीं बन पाता है ज़िन्दगी- बहुत कुछ सिखाती है ज़रूरत इंसान को कभी कभी जल्दी ही उम्र दराज़ कर जाती है । बचपन में ही ओढ़ लेते हैं बड़ी - बड़ी जिम्मेदारियों का बोझ मासूम से कंधे झुक जाते हैं समझ नहीं पाते दुनियादारी की सोच । उनके ख़ुद के रास्ते सब बंद हो जाते हैं मेहनत के बदले चंद सिक्के ही मिल पाते हैं जोड़ - तोड़ कर जैसे - तैसे परिवार चलाते हैं किसी तरह वो ये ज़िन्दगी गुजारते हैं । एक मासूम सा किशोर अचानक बड़ा हो जाता है सबको खुशी देता है जिनसे उसका नाता है । पर जब वक्त गुज़र जाता है उम्र सच में ही ढलने लगती है थक चुका होता है ज़िन्दगी से तो नफे - नुक्सान की गणना होने लगती है पाता है कि छला गया है वो नाते - रिश्ते सब कहाँ चले गए हैं ? गम के अंधेरों से जूझता रहा है हर पल जो नक्शे - कदम बनाए थे वो कहाँ धुल गए हैं ? वो नाते , वो रिश्ते छोड़ जाते हैं सब साथ जिनके लिए उसने अपना लहू पसीना किया था आज नितांत अकेला पाता है ख़ुद को वो कहाँ हैं सब जिनके लिए वो जिया था । इल्तिजा है बस मेरी इतनी ही खुदा से यूँ मासूमों का इम्तिहान न लिया कर जो चाहते हैं सच ही ख़ुद कुछ कर गुज़रना उनको कुछ अपनी भी ताकत दिया कर . |
सोमवार, 31 जनवरी 2011
ज़िम्मेदारी
शुक्रवार, 28 जनवरी 2011
मैंने तब ये गीत लिखे हैं
मैंने तब ये गीत लिखे हैं
श्यामनारायण मिश्र
आंधी रौंद रही थी पेड़ों की जब नई जवानी,
निगल रही थी रेत, नदी का बूंद-बूंद पानी,
मैंने तब ये गीत लिखे हैं।
जीभ जलाते बचपन देखे
हृदय जलाते यौवन,
हारे थके बुढापे देखे
अर्थी बिना कफ़न,
कटी-फटी दीवारे देखी टूटी-फूटी छानी,
मैंने तब ये गीत लिखे हैं।
सांझ-सवेरे औरों के घर
चौका करती मां,
रातों को रो विरह पिता का
झेले खांस दमा,
औंधी-खाली मटकी देखी, छप्पर खुंसी मथानी
मैंने तब ये गीत लिखे हैं।
गूंगी-बहरी बस्ती देखी
चुचुवाती सड़कें,
तोड़-तोड़ सन्नाटे रातों
को वर्दी कड़कें,
तानाशाही कोल्हू देखे सदाचार की घानी,
मैंने तब ये गीत लिखे हैं।
शहर कबाड़ी के डिब्बों से
और उजड़ते गांव,
खेतों-खलिहानों पर पसरी
गोदामों की छांव,
औरों की आंखों में देखी अपनी कथा-कहानी,
मैंने तब ये गीत लिखे हैं।
बुधवार, 26 जनवरी 2011
इक्कीसवीं शती के ग्यारहवें गणतंत्र दिवस पर
इक्कीसवीं शती के
ग्यारहवें गणतंत्र दिवस पर
परशुराम राय
देश की संसद की
गंगोत्री से निकली
लोकहित
की भागीरथी
किसकी जटा में खो गयी ?
या कि कोई जह्नु आकर
राह में ही पी गया
और लोकहित
स्वार्थ की वैतरणी बहा
कोई भगीरथ छल गया ?
माना कि नवनिर्माण में
धीरज भी कोई चीज है
पर पचासा पार कर
यह बुजदिली का
राग बनकर रह गया।
इक्कीसवीं शती के
ग्यारहवें गणतंत्र दिवस पर
हे भारत के भाग्य विधाता
देश के हित
एक गंगा और दे दो
स्वतंत्रता की भैरवी को
एक राग और दे दो।
सोमवार, 24 जनवरी 2011
विश्वास
रविवार, 23 जनवरी 2011
कहानी ऐसे बनी-20 :: बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... !
कहानी ऐसे बनी-20
बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... !
हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।
रूपांतर :: मनोज कुमार
जय हो ! जनता-जनार्दन !! कैसी रही मकर संक्रांति? सब कुशल है ना.... ? अरे भाई क्या बताएं .... हमारी संक्रांति में तो ऐसा धमाल मचा कि ज़िन्दगी भर नहीं भूलेंगे। बहुत शौक से गए थे गाँव संक्रांति मनाने .... लेकिन वही हो गया, 'शौक में सोहारी [रोटी] ! आलू बैगन के तरकारी !!'
खैर चलिए, सप्ताह भर बाद आप लोगों से मिल रहे हैं। ज़िन्दा बच गए, बहुत ख़ुशी हो रही है। कहावत भी है, 'जान बचे लाखो पाई !' अब पूछिये आप, क्या हुआ ? अरे भाई क्या नहीं हुआ.... ? पूस में गए थे संक्रांति मनाने हो गया मौगत। वो कोठा पर वाले खखनु ठाकुर नहीं हैं ..... अरे वही जिनकी उजड़ी हुई ज़मींदारी बची है। उन्ही का बेटा है न बिगडुआ। भैंस चढ़ते बिगडु ठाकुर अधबयस [जिसकी आधी उम्र निकल गयी हो] हो गया था, लेकिन घोड़ी पर चढ़ने का नसीब नहीं हुआ। नालायक़ न तो पढ़ा-लिखा, और न कोई गुण-ज्ञान ही सीखा ...... खखनु ठाकुर जैसी पहलवानी भी नहीं कर सकता था ..... ऊपर से डेढ़ आँख का मालिक। पुरानी ज़मींदारी और दो-चार माल मवेशी पर गृहलक्ष्मी कैसे आयें!
बिगडुआ को अब चालिसवां लगने को आया तो बेचारे खखनु ठाकुर के हाथ-पैर जोड़ने और आरजू-मिन्नत पर घरजोरे पंडित जी पिघल गए। बंगाल बोर्डर के गाँव बिच्छुपुर में बिगडु ठाकुर की जोड़ी निकाल ही दिए। बात तय हुई कि दोतरफ़ा खर्चा खखनु ठाकुर ही करेंगे। पंडित जी बहुत खुश थे। दक्षिणा अच्छा मिला था। इसी महीने का सगुन धराया था। संक्रांति से दो दिन पहले का। गाँव गए संक्रांति में तो पता चला। मंगल पेठिया पर बिगडुआ ने तो बताया ही ठाकुरजी ख़ुद भी घर आ कर बारात चलने का न्योता दे गए थे।
भाई अधबयस है तो क्या .... बारात तो है ठाकुर की। ज़मींदारी न चली गई है, रोआब तो अभी है ही है। राजा भोज जैसी बारात सजी थी। हाथी-घोड़ा, ऊँट-बगेड़ा सब आया। बाराती भी दमदार थी। आखिर ठाकुर जी के एकलौते कुलदीपक की बारात थी। चली सज के रेवा-खंडी बाराती।
यात्रा थी दूर की। पहुंचते-पहुंचते सांझ का धुंधलका फैलने लगा था। वैसे तो रास्ते में चूरा-दही हो ही गया था लेकिन दूर से ही जलबासा देख कर 'मुदित बरातिन्ह हने निसाना....!' है। अरे!! यह क्या!!! .......... जलबासा पर तो एक बाराती पहिले से ही थी। हमने सोचा बिच्छुपुर में आज दो-दो लगन है। बैंड बाजा और नाच में अच्छा कम्पटीशन होगा।
इधर सारे बाराती पानी, शरबत, चाय, नाश्ता का रास्ता देखने लगे। बहुत देर हो गई। कुछ लोगों ने सोचा कि चलो अभी उस तरफ वाली बाराती में बँट रहा होगा तो उधर ही पा लेंगे। लेकिन यह क्या .... इस तरफ भी ठक-ठक माला सीताराम!! खैर, दोनों बाराती में बात-चीत बढी। आप कहाँ से आये हैं ? तो आप कहाँ से आये हैं ?? फिर आप किसके यहाँ आये हैं? तो आप किसके यहाँ ?? दो घड़ी तो बात हुई कि सारा मज़मा बिगड़ गया। अब आपको विश्वास नहीं होगा ........... लेकिन क्या कहें..... अरे महाराज दोनों बाराती एक ही लड़की पर आई थी। अब समझ में आया कि साराती सब क्यों गायब थे? उधर जिस तेजी से दोनों बाराती पहले हिल-मिल रहे थे वैसे ही अब फटाक से दू फार हो गया!
अब नाश्ता-पानी तो दूर फ़िक्र तो इस बात की थी कि यहाँ भी बिगडु ठाकुर का मंगलम भगवान विष्णु होगा कि कपाल पर लाठी ! इधर हम लोगों की बारात के कुछ सुर्खुरू आदमी गए उस साइड के बाराती को समझाने...... । लेकिन क्या मजाल कि मान जाएँ ! आखिर वह भी तो ठाकुरों की ही बारात थी। फिर कुछ लोग खखनु ठाकुर को समझाने लगे। तलवार पुरानी भले ही थी लेकिन काट तो वही थी। राजपूती खून खौल उठा। जमींदारी रोआब दहाड़ मारने लगा। ठाकुर जी बेंत चमका-चमका कर कहने लगे, 'ससुरा.... हमारे दादा के रैय्यत-मोख्तारी करने वाला आज हमरे बेटे के सामने बाराती लाएगा.... ? कलेजा तोड़ देंगे लेकिन पीठ नहीं दिखाएँगे।’
इधर न लड़की वाले का पता ना ... पंडित घरजोरे का। इधर अभी तक चुप-चाप सज-संवर कर बैठा बिगडुआ ने भी युद्ध का शंख नाद कर दिया। हमको आल्हा-रुदाल के नाच वाली कहावत याद आ गई, "बिना ब्याहे घर नहीं लौटें, चाहे जान रहे या जाय.....!" कुछ इसी टोन में बोला था बिगाडुआ। बेटा बिगड़ुआ भी तो नाच का पक्का शौक़ीन था बचपन से ही। जब हो गया ऐलान तब .... कौन पीछे हटे ? उधर से भी लाठी-भाला निकलने लगा। इधर भी बल्लम-बरछी तैयार हो गया। फिर गांव वाले भी टपक पड़े। पहिले दोनों बारात को समझाया गया। लेकिन समझे कौन ? फिर शुरू हो गया ........ 'अथ श्री महाभारत कथा'। वहाँ तो दुतरफ़ा ही होता था यहाँ तो तीन तरफ़ा हो गया। दे दनादन....ले टनाटन...! हम तो गत्ते से जान बचा कर सामने एक झोपड़ी में छुप कर सारा तमाशा देखने लगे। बिगड़ुआ सेहरा उतार कर फेंका और फिर 'आल्हा' वाली कहावत दुहराया, "बिना ब्याहे घर नहीं लौटें चाहे जान रहे या जाए....!" बगल वाले से एक लाठी झपट कर जो भी सामने आये सबको भैंसे की तरह हांकने लगा।
इधर घमासान मचा हुआ था। तभी बिच्छुपुर के मुखिया सरपंच सब जुट गए। गहमा-गहमी के बीच में दोनों पार्टी से बात की गई। लडकी वालों को बुला कर खूब सुनाया। लड़की वाले अंत मे तैयार हो गया कि भाई, हमें कोई ऐतराज़ नहीं। हमसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई। अब ये दोनों बाराती आपस में फैसला कर लें। जिस से कहें हम कन्यादान कर देंगे। अभी एक राउंड झगरा-झंझट हुआ ही था। हम सोचने लगे अभी शांति होगी। लेकिन बिगडुआ फिर से बादल की तरह फट पड़ा, "अब आ गए हैं बाराती लेकर तो दुल्हन लेकर ही जायेंगे ! बिना ब्याहे घर नहीं लौटें.....!!" हालांकि गांव वालों का मन भी उस पक्ष के लड़के पर डोल रहा था लेकिन उस साइड की बाराती ने हिम्मत हार दी थी। उधर के लड़के के बापू बोले, 'हमारा लेन-देन लौटा दें, हम अपने बेटे को कहीं और ब्याह लेंगे। बेचारा दूल्हा मन-मसोस कर रह गया।
बात पटरी पर आ गयी तो हम भी झोपड़ी से निकले। इधर खखनु बाबू भी खुश थे। बोले, लेन-देन तो हम ही लौटा देंगे। और फटाफट बटुआ खोल कर गिन भी दिए। इस तरह से उधर की बारात खाली हाथ ही लौट गई। और बिगडुआ जिसे लड़की वाले ना भी पसंद कर रहे थे फिर भी दुल्हन लेके लौटा।
तो यह था कहावत का कमाल, "बिना ब्याहे घर नहीं लौटे ! चाहे जान रहे या जाय !!" देखिये बिगड़ुआ था वज्र मूर्ख लेकिन बात किया बड़ी दूर की। और जो कहा उसने वह किया भी। आखिर उसकी कहावत का मतलब ही है पुरषार्थ से लबालब।
अर्थात "जिस काम के लिए आये हैं वो कर के ही जायेंगे। जोखिम के डर से लक्ष्य से नहीं भूलेंगे।" जब ऐसा दृढ निश्चय था तब लक्ष्य भी मिल ही गया। आखिर ब्याह हो गया न। और उधर की बाराती में यही निश्चय नहीं था। थोड़ी सी घुड़की देखे कि फुसफुसा गए। फिर तो समर्थन होने के बावजूद भी दुल्हन, यानी कि लक्ष्य से वंचित रहना पड़ा। तो भैय्या यही थी अद्भुत बारात की बात। अब आप लोग टिपिया के बताइयेगा कैसी लगी !!!
गुरुवार, 20 जनवरी 2011
आज इस ब्लॉग का एक साल पूरा हो गया!
नमस्कार मित्रों!
राजभाषा हिन्दी को लेकर एक ब्लॉग बनाया जाए इसकी परिकलपना अनूप शुक्ल जी के मन में थी। कोलकाता आए हुए थे। बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा कि आप अपने संगठन में राजभाषा हिन्दी के क्रियान्वयन का काम भी देखते हैं और सचिव कोलकाता नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति भी हैं, सो क्यों नहीं एक ब्लॉग बनाते हैं जो पूर्णतया राजभाषा हिन्दी को समर्पित हो!
उनकी बात जंची। पर मुझे ‘मनोज’ ब्लॉग के निर्धारित साप्ताहिक कार्यक्रम को नियमित और सुचारू रूप से चला पाने के बीच इस नई ज़िम्मेदारी को निबाह पाऊंगा या नहीं, का डर और संशय था। अपने स्वभाव के अनुरूप अनूप जी ने मुझे विश्वास दिलाया कि यह काम काफ़ी आसानी से होगा। संगठन के ४० हिन्दी अधिकारी और डेढ सौ अनुवादक अगर सहयोग देने लगें तो इस ब्लॉग को कोई परेशानी नहीं होगी। उन दिनों अनूप जी भी अपनी निर्माणी (फ़ैक्टरी) में राजभाषा क्रियान्वयन का काम देख रहे थे। मैंने सोचा इतने वरिष्ठ ब्लॉगर का आशीर्वाद रहेगा तो यह संभव होगा ही। मुझे तब क्या मालूम था कि चने के झाड़ पर चढने जा रहा हूं मैं।
खैर अपने कार्यालय के हिन्दी अधिकारी जुगल किशोर जी एवं अनुवादक साधना, शमीम, प्रेमसागर और रीता के साथ हमने बैठक की और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इसे शुरु किया जाए। हमने विद्या-बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती के चरणों में वंदन करके वसंतपंचमी के दिन २० जनवरी २०१० को इस ब्लॉग का श्रीगणेश कर ही दिया।
तब मेरे इन सहयोगियों ने कहा कि आप पर लोड नहीं आएगा, … हम हैं साथ। जुगल किशोर जी ब्लॉगनियंत्रक की भूमिका निभाने को तैयार हो गए। बाक़ी अनुवादकों ने रचनात्मक सहयोग देने की जिम्मेदारी ली। हम आगे बढे। बीच में कुछ और लोग राजभाषा हिन्दी को आगे बढाने की अपनी मंशा के साथ इस ब्लॉग से जुड़े। सबसे ज़्यादा मैं ऋणि हूं संगीता स्वरूप जी का। वो इस संकल्प के साथ इससे जुड़ीं कि आप एक अच्छा काम कर रहे हैं और मैं आपको सहयोग देना चाहती हूं। तब से वो नियमित रूप से सप्ताह में एक दिन, सोमवार को इस ब्लॉग पर पोस्ट डाल रहीं हैं। उन्होंने ही रेखा श्रीवस्तव जी को भी प्रेरित किया इस ब्लॉग से जुड़ने को और इधर हमारे ही संगठन के संतोष गुप्त भी इस पर पोस्ट डालने लगे। अरुण रॉय से भी निवेदन किया कि वो इससे जुड़ें और उन्होंने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया।
कारवां आगे बढा और बढता गया। हमारे ब्लॉग ‘मनोज’ के भी सहयोगी करण, परशुराम राय, और हरीश गुप्त सहयोग देते रहे। चंदन का नाम लेना कैसे भूल सकता हूं, जिसने अपनी ऊर्जा, उत्साह और परिश्रम से इस ब्लॉग की गतिविधियों को गतिवान बनए रखा।
मैं आज एक वर्ष पूरा होने पर अपने सभी सहयोगियो और इसके फॉलोअर और पाठकों का आभार प्रकट करता हूं। आपके द्वारा दिए गए प्रेरणा और मनोबल के फलस्वरूप ही इस ब्लॉग पर हम एक साल में 428 पोस्ट डाल सके।
आप सबों का आभार।
आज इस अवसर पर मैं हमारे गुरु तुल्य स्व, श्री श्यामनारायण मिश्र जी का एक नवगीत पेश कर रहा हूं। दक्षिण भारत के मेदक जैसे स्थान पर राजभाषा हिन्दी के क्रियान्वयन में उनके सहयोग को मैं नहीं भूल सकता।
तक्षक की बेटी तक्षशिला पर बैठी
श्यामनारायण मिश्र
बैठ नहीं पाएगी, चिड़िया री!
रोप मत बवाल
ज़ंग लगी खूंटी है
टंगे हुए सैंकड़ों सवाल।
क़िस्मत ही खोटी है,
बिल्ली से बचे हुए
सुग्गे को निगल गई छिपकली।
अम्मा की धोती में रगड़ रही नाक
दूध और रोटी को मचली है लाडली।
गोकुल को लौट रहे
यमुना में डूब गए ग्वाल।
अभी जो हड़प्पा से आई है पाती,
आंखों में जलती रेत भर गई।
तक्षक की बेटी तक्षशिला पर बैठी
भेजे अनंतनाग बीन फिर नई।
गंधार के राजा, न्यौते पर आए हैं
पांसों की करने पड़ताल।
अभी संघमित्रा! श्रीलंका से लौटी है,
सिंघलियों की पुख्ता खोज खबर लेकर
सुना है विभीषण ने पुष्पक फिर मांगा है
टूट गए हैं वे डोंगी खे-खेकर।
दिशा और विदिशा फैले हैं।
सभी जगह जाल।
बुधवार, 19 जनवरी 2011
हिंदी आलोचना
हिंदी आलोचना
मनोज कुमार
काव्य शास्त्र की परंपरा काफी पहले से चली आ रही है। पर आलोचना का एक शास्त्र के रूप में उद्भव और विकास काफी बाद में हुआ, बल्कि यूँ कहें कि आलोचना साहित्य का शास्त्र न होकर साहित्य सृजन का वह जीवन है जो बार बार सृजित किया जाता है- ज्यादा उपयुक्त होगा।
काव्यशास्त्र तो सिद्धांतों और प्रतिमानों का निरूपण होता है। आलोचना में उन्हीं सिद्धांतों के प्रकाश में रचना की परख और मूल्यांकन किया जाता है। कुछ सृजन, जिसे “नया” भी कह सकते हैं, आलोचना के स्थापित या स्वीकृत प्रतिमानों को चुनौती देता है। तब आलोचना करनेवाले इस नए सृजन के मूल्यांकन के लिए नए प्रतिमानों की तलाश करता है। यह एक व्यावहारिक प्रक्रिया है, जो चलती रहती है- सिद्धांतों और सृजन बीच। यही प्रक्रिया तो सिद्धांतों और सृजन के संबंधों में बदलाव के चक्र को गतिमान रखती है।
संस्कृत काव्यशास्त्र, रीतिशास्त्र और पश्चिमी काव्यशास्त्र का विवेचन प्रधानतः सिद्धांत परक है। आलोचना की टकराहट शास्त्र से कम, नवीन सृजन, नवीन विचारधाराओं से और वैचारिक सरोकारों से अधिक रही है। हिंदी आलोचना को वैचारिक स्वरूप आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दिया। उन्हें हिंदी का प्रथम आधुनिक आलोचक, या यों कहें कि हिंदी आलोचना का युग पुरूष कहा जाता है।
साहित्य की अनेक विधाएं है। ये नाडि़यों की तरह है जिनके भीतर विचारों का रक्त प्रवाहित होता है। विचारों में निहित शक्ति ही साहित्यिक सृजन के रूप में आकारगत परिवर्तन होते हैं। साहित्य की विधाओं पर विचार करने का विशेष काम आलोचना ही तो करती है। जहां पद्य में भाव की प्रधानता होती है वहीं गध की विधाओं में विचार की प्रधानता होती है।
परिवेश और युग की प्रेरणा से सृजनात्मक मानसिकता में परिवर्तन आते हैं। इसका प्रभाव साहित्य की विधाओं पर भी पड़ता है। हर युग की मानसिकता विभिन्न विधाओं में प्रकट होती है। जहां प्राचीन युग में महाकाव्य प्रधान विधा थी वहीं आधुनिक युग में उपन्यास, कहानी, रिपोर्ताज, रेखाचित्र आदि ने स्थान लिया। विधाएं चाहे कोई भी हों, इनका रूप चाहे कितना भी नया-नया आकार ले ले पर ये लोकमानस के विचार-बिंबों को प्रतिबिम्बित करती हैं।
भारतेन्दु युग में हिंदी आलोचना का सूत्रपात पत्र-पत्रिकाओं में छपी व्यावहारिक समीक्षाओं से हुआ। सर्जक चिंतक के रूप में भारतेन्दु ने आलोचना को दिशा प्रदान की। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग में आलोचना के सरोकार सामाजिक होते गए।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है, “कविता का उद्देश्य हृदय को लोक-सामान्य की भावभूमि पर पहुंचा देना है।” यानी व्यक्ति धर्म के स्थान पर लोक-धर्म श्रेयस्कर है। मतलब साहित्य में जीवन और जीवन में साहित्य प्रतिष्ठित हो। इस तरह से जो समीक्षा होती है वह व्यावहारिक समीक्षा है। ‘भाव’ मन की वेगयुक्त अवस्था-विशेष है। भाव में बोध, अनुभूति और प्रवृत्ति तीनों मौज़ूद हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार, ‘प्रत्यय बोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गूढ संश्लेषण का नाम भाव है।’ यही वह आधार है जिसपर आचार्य शुक्ल काव्य में लोक-मंगल के आदर्श की प्रतिष्ठा करते हैं। इस प्रकार काव्य सामजिक चेतना के उत्तरदायित्व से युक्त होना चाहिए।
शुक्ल जी के अनुसार काव्य के रसास्वादन का लक्ष्य आनंद नहीं ‘भाव-योग’ है। कविता जीवन से पलायन नहीं है, बल्कि वह हमें जीवन में अधिक व्यापक पैमाने पर अधिक गहराई में उतारती है। अधिक अनुभूतिमय, अधिक बोधवान और अधिक कर्मण्य बनाती है, या बनने की प्रेरणा देती है। काव्य में मूल और महत्त्वपूर्ण है – प्रस्तुत भाव। अप्रस्तुत या तो प्रस्तुत का पोषण करे या उसके सदृश्य हो। शुक्लजी ने समीक्षा-सिद्धांत रचनाओं के आधार पर स्थापित किए हैं। अतः उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक समीक्षा में संगति है। वे व्यवहार से सिद्धांत पर पहुंचते हैं। वे आधुनिक और वैज्ञानिक समीक्षक हैं। समीक्षक के लिए सहृदय होना बहुत ज़रूरी है। समीक्षक को आलोच्य रचना या कृति के उत्कृष्ट स्थल की पहचान कर उसको प्रमुखता देना चाहिए। साथ ही वह रचना की युगानुकूल व्याख्या करे।
आचार्य शुक्ल ने हिंदी आलोचना को जो प्रौढता प्रदान किया थी उसे आगे ले जाने और दिशा परिवर्तन का चुनौतीपूर्ण काम नन्ददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नगेन्द्र ने किया। शुक्ल जी की नैतिक और बौद्धिक दृष्टि की अपेक्षा नये समीक्षकों ने सौंदर्य-अनुभूति और कला-प्रधान दृष्टि अपनाया। वाजपेयी ने काव्य सौष्ठव को सर्वोपरि महत्त्व दिया। वे किसी सहित्येतर मूल्य को मूल्यांकन के लिए निर्णायक स्थिति में रखने के पक्षधर नहीं थे। द्विवेदी जी का मानना था कि मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। वे सांस्कृतिक निरंतरता और अखंडता के समर्थक थे। जन-जीवन के प्रति मोह के कारण उनका मानवतावादी दृष्टिकोण था। उन्होंने सामयिक आधुनिक प्रश्नों पर पूरा ध्यान दिया। नगेन्द्र का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी था। नगेन्द्र ने शुरु में व्यवाहारिक आलोचना किया। बाद में वे भी सिद्धांत-विवेचन करने लगे। उनकी आलोचनाओं में खंडन-मंडन नहीं, व्याख्या-विश्लेषण और अनुशंसा ही अधिक है।
1936 से हिंदी साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत हो गई थी। कुछ समय बाद रचनात्मक प्रयोगशीलता के उदाहरण भी दिखाई देने लगे। शुरु में आलोचना की शब्दावलि मूल्यकेन्द्रित रही। मार्क्सवाद के आयात करने पर जनाधार और मानववादी दृष्टिकोण की बात प्रमुख हो गई।
शुक्लोत्तर आलोचना के प्रमुख और महत्वपूर्ण स्तम्भ है डॉ. रामविलास शर्मा। रामविलास शर्मा तक आते-आते प्रगतिशील आलोचना का जातीय चरित्र निर्मित हो गया। उनका मानना था, ‘‘साहित्य भी शुद्ध विचारधारा का रूप नहीं है, उसका भावों और इन्द्रिय-बोध से घनिष्ठ संबंध है।” उन्होंने शुक्ल की विरासत और जनवादी परंपरा को आगे बढाया। शुक्लोत्तर आलोचना में, विशेषकर पचास के बाद की आलोचना से पश्चिमोन्मुखता की शिकायत अक्सर की जाती रही है। आलोचना में पश्चिम सरोकारों और अवधारणा के आयात का एक कारण यह भी रहा कि स्वयं रचनाओं पर भी यह प्रभाव कम नहीं रहा। दरअसल यह आयातित विचार से ज़्यादा आयातित बौद्धिक मुद्रा थी। आलोचकों में नामवर सिंह और रचनाकारों में अज्ञेय ने यह प्रभाव बख़ूबी अपना लिया।
समकालीन आलोचना में एक नयी पीढी नए तेवर के साथ आए। इनका मुहावरा नया था। इनमें यथार्थ दृष्टि का आग्रह भी प्रबल था। समकालीन आलोचक वास्तविक मूल्यांकन की कूंजी आलोच्य कृति के भीतर तलाशते हैं। उनके अनुसार रचना से रचनाकर तक पहुंचना समीक्षक का लक्ष्य होना चाहिए। इस दौर में एक तरफ़ मलयज की ‘निर्मम तटस्थता’ है तो दूसरी ओर रमेशचंद्र शाह की ‘सर्जनात्मक समीक्षा’ है। मलयज न फ़तवे देते हैं, न नारे उछालते हैं। पूरी संवेदनशीलता और अलोचनात्मक विवेक से सही जगह उंगली रख देते हैं। शाह रचनाकार की सृजन प्रक्रिया का आत्मीय विश्लेषण ज़रूरी समझते थे।
वर्तमान हिंदी आलोचना अनेक प्रकार की विसंगतियों से घिर गई है। जागरूकता तो निभाती रही है, पर समसामयिकता का आग्रह अधिक प्रबल हो गया। आज की आलोचना में व्यापक परिदृश्य बोध का स्पष्ट अभाव दिखता है। पम्परा से संबंध विच्छेद हो गया लगता है। अधिकांश आलोचना कर्म व्यवहारिक समीक्षा के रूप में है। कोई गंभीर या मूलभूत सवाल नहीं उठाए जाते हैं। स्थापित-विस्थापित करने की नीयत से अतिरंजित शब्दावलि लिए ये प्रशंशा-निंदा के आगे कम ही बढते हैं। इसलिए विश्वसनीयता कम होती जा रही है। कुछ हद तक सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता के समान आज की आलोचना हो गई है। न उन्हें रचनात्मक साहित्य की चिंता है, न रचनाकारों को उनकी परवाह। आलोचना की भाषा का कोई निश्चित चरित्र नहीं बन पाया है। मूल्यांकन के मानदंडों और पाद्धतियों की दृष्टि से भी पर्याप्त आराजकता है। आलोचना बहुत हैं, सैद्धांतिकी नहीं के बराबर। मूल्यांकन के मानदंडों की विविधता है। समसामयिकता का आग्रह सबसे प्रबल है। नये प्रयोगों और पद्धतियों की तलाश चलती रहती है। समीक्षा में रचना की सृजन प्रक्रिया का विश्लेषण पर ज़ोर दिया जाता है।
आज देश में जैसा परिदृश्य है हिंदी साहित्य में भी उसी के अनुरूप परिवर्तन आया है। सत्ता की उठापटक, आर्थिक संकट, भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद आदि से संस्कृति, कला और साहित्य भी प्रभावित हैं। पाठक का विकल्प आलोचक नहीं हैं। जागरूक पाठक अपना विमर्श खुद तैयार कर लेता है। सृजन और आलोचना दोनों में समीक्षा का अर्थ बदल गया है। परंपरा और संस्कृति का विरोध आम बात हो गई है। जहां एक ओर सृजन के नाम पर सतही रचनाएं आ रहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ़ आलोचना के नाम पर या तो दलबंदी हो रही है या पत्थरबाज़ी। लगता है विचार का अंधेरा छाया है। पता ही नहीं चल रहा कि साहित्य को परखने की कसौटी क्या है? आलोचना में वक्तव्यबाज़ी अधिक हो रही है, इस परिस्थिति में रचना को बोलने का अवसर ही नहीं मिल रहा है। रचना में भी सपाटबयानी अधिक, और स्वानुभव की मुद्रा फूहड़ता की हद तक प्रबल है।
सोमवार, 17 जनवरी 2011
अस्तित्व
जब आया पैगाम मेरी मौत का मेरे पास कहा मैंने ठहर अभी उसका ख़त आएगा गर ठहर तू जायेगी कुछ देर और तो क्या धरा पर भूचाल आ जायेगा । हंस कर बोली यूँ मुझसे मौत तब ज़िन्दगी हो गई है अब तेरी पूरी चाह तेरी निकली नही अब तलक भटक रही है क्यों तू लिए आशा अधूरी । छोड़ दे ये अधूरी आस तू मत भटक अब इस संसार में ज़िन्दगी के क्षण तुझे जितने मिले बिता दिए तुने उन्हें बस प्यार में । आई थी जब अकेली इस संसार में कोई भी बंधन तुझसे नही जुडा था बंध गई तू इन सांसारिक बंधनों से कि तुझ पर झूठा आवरण एक पड़ा हुआ था । जब असलियत " मैं " आ गई सामने तेरे अब भी तुझे एहसास नही होता है काट दे इन सांसारिक बंधनों को कि इंसान का बस यही अस्तित्व होता है. संगीता स्वरुप |
रविवार, 16 जनवरी 2011
कहानी ऐसी बनी - 19 : वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले....
कहानी ऐसी बनी – 19
वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले..
हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।
रूपांतर :: मनोज कुमार
पिछले सप्ताह तो खूब धमाचौकड़ी मची। शहर में भोलंटाइन बाबा का मेला लगा रहा तो गाँव में भोला बाबा का। हमने तो शहर से देखना शुरू किया और गाँव तक पहुँच गए। मिसरिया बाबा के मठ पर खूब धूम-धाम से शिवरात हुआ। शिवजी की बारात भी निकली थी। पंडौल के पंडित जी आये थे माधो मिरदंगिया के साथ, कथा कीर्तन के लिए। हम भी मौका देख कर बाराती बन गए। शिव-मठ पर सोहे लाल धुजा खूब फहराए।
गाँव के ही बौकू झा महादेव बने थे। झा जी के मुँह के दांतों ने तो पहले ही साथ छोड़ दिया था। पटुआ का जट्टा और प्लास्टिक का सांप लगा के औरिजनल महादेव लग रहे थे। अपने बछड़ा को बसहा भी बना लिया था उन्होंने। फागुन की रात में बसंती हवा जब केवल बाघम्बरी गमछा से ढके बूढी हड्डी में छेनी की तरह प्रहार करती थी तो झा जी ऐसे कंपकंपाते थे कि लगता था महादेव ब्याह के बदले तांडव शुरू कर दिए हैं। वो गीत है ना, "सब बात अनोखी दैय्या..... बौराहवा के बरियात में.... !!!" वैसे ही बारात बन गयी थी।
स्वांग ही क्यों न हो मगर पंडौलिया पंडित जी हारमोनियम को इस कोने से उस कोने तक गरगरा कर 'शिव-विवाह' को एकदम साक्षात बना देते हैं। गला भी बड़ा सुरीला है। खुद पंडित तो हैं ही। सब विध-व्यवहार याद है। कथा और कीर्तन के बीच में ऐसी एक्टिंग के साथ टोन छोड़ते हैं कि लगता है सच में ब्याह हो रहा है।
बाराती दरवाजा लगा दिए। द्वारपूजा होगी। सासू आ रही है महादेव की गल-सेदी करने। पंडित जी परिछन के गीत का ऐसा तान छोड़ते हैं और एकाएक हारमोनियम की पटरी पर तीन बार हाथ मार कर पें..पें...पें.... कर के रोक देते हैं। पंडित जी अपनी मैना माई बन जाते हैं। महादेव बने बौकू झा के मुँह पर से जट्टा हटाये और प्लास्टिक वाला सांप से ऐसे डर कर भागे कि..... अरे रे ... !! लगे आ कर फिर से हारमोनियम पर गाने, "एहन बूढ़ वर नारद लायेला...... हम नहीं जियब गे माई !"
खैर मान-मनौती, बोल-संभार के बाद मैना माई फिर परिच्छ कर ले गयीं शिव दूल्हा को। ब्याह हुआ। ज्योनार होगा अब। लेकिन बिना दहेज़ के दूल्हा जीमेंगे कैसे ? कौर नहीं उठाएंगे बिना दहेज़ के। हम तो देखते हैं कि अभी भी दूल्हा सब रूठ जाता है ससुराल में। टीवी मिल गया तो फटफटिया। फटफटिया मिल गया तो कार दीजिये तब कौर उठाएंगे।
अब महादेव क्या करते हैं पता नहीं! खैर पर्वतराज हिमांचल के एकलौते दामाद हैं। जो मांगेंगे मिल ही जाएगा। सामने में दो चार लोटा-थाली पसार दिया। बौकू झा तिरछी नज़र से इधर उधर देख रहे थे। इधर पंडौलिया पंडित जी गाने-गाने में इशारा कर रहे थे। दूल्हा मांग लीजिये। मालदार ससुराल है। जो भी लेना है अभी ही खींच लीजिये। लोटा-थाली पर नहीं मानियेगा..... । लेकिन बौकू झा तो सच्च में जैसे बुत बन गए। कुछ बोल ही नहीं रहे थे। लगता है महादेव ही समझ रहे थे खुद को। सोचे कि एक बार तो रूप-रंग देख कर सासू भड़क गयी थी। परिछन के लिए भी तैयार नहीं थी। किसी तरह ब्याह हुआ। अब दहेज़ में कुछ मांगे तो बनी बात भी बिगड़ न जाए। पंडित जी गीत गा गा के कहते रहे मगर महादेव मुँह खोले नहीं। वैसे महादेव हैं तो निर्विकार तो मांगेंगे क्या ?
एक चुटकी छोड़ के लगे पंडित मजकिया गीत गाने, "वर हुआ बुद्धू.... हो...ओ...ओ... वर हुआ बुद्धू .... दहेज़ कौन ले.... हे.... दहेज़ कौन ले.... !" छमक के एक ही बार रुके और बाईं हथेली पर उल्टी दायें हथेली पटक कर बोले, 'वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले ?' हा...हा... हा..... !! पूरा मंडली बौकू झा के सामने उल्टा ताली पीटे लगा, "वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले ?'
तब हमारी समझ में आया। अच्छा..... तो यह है कहावत की जड़। हम पहले सोचते थे कि क्यों कहते हैं, "वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले.... ?" अब साफ-साफ समझ में आ गया। जब अपनी ही अयोग्यता, लापरवाही, बेवकूफी, अत्यंत सरलता, विनम्रता या किसी भी कारण से संभावित लाभ नहीं मिल पाता है तो लोग कहते हैं, 'वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले ?' लगता है महादेव से ही यह कहावत शुरू हुई होगी। तो इसी बात पर बोल दीजिये, 'हर-हर महादेव !'
गुरुवार, 13 जनवरी 2011
शमशेर बहादुर सिंह – जन्म दिवस पर
शमशेर बहादुर सिंह - जन्मशती के मौके पर
मनोज कुमार
13 जनवरी 1911 को मुजफ्फरनगर के एलम ग्राम में जन्मे शमशेर बहादुर सिंह की आज सौंवी वर्षगांठ है। हम उनके जन्म दिन पर उनको याद करते विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। १२ मई १९९३ को उनकी मृत्यु हुई।
कुछ प्रमुख कृतियाँ
कुछ कविताएं (1959), कुछ और कविताएं (1961), चुका भी हूँ मैं नहीं (1975), इतने पास अपने (1980), उदिता: अभिव्यक्ति का संघर्ष (1980), बात बोलेगी (1981), काल तुझसे होड़ है मेरी (1988)
1977 में "चुका भी हूँ मैं नहीं " के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के "तुलसी" पुरस्कार से सम्मानित। सन् 1987 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा "मैथिलीशरण गुप्त" पुरस्कार से सम्मानित।
शमशेर को आधुनिक दौर का सबसे जटिल कवि माना गया है। मतलब यह कि शमशेर की कविताओं को समझने में आलोचकों को मुश्किल होती रही है। इसका एक प्रमुख कारण तो यह है कि वे आलोचकों द्वारा बनाए गए सांचे में फिट नहीं बैठते। उन्हें समझने के लिए साहित्य-कला-जीवन के बारे में उनकी मान्यताओं को ध्यान में रखना बहुत ज़रूरी है।
यह सही है कि उनकी काव्य संवेदना सरल नहीं है। उन्होंने १९४९ में अपना पहला कविता-संग्रह ‘उदिता’ तैयार कर लिया लिया था, पर अह उस साल छप नहीं सका। उन दिनों वे अत्यंत निजी-भाव की कविताएं लिख रहे थे। ‘उदिता’ में उन्होंने कहा भी है कि वे उस पाठक का ख़्याल रखकर लिखते हैं, जो उनकी हंसी-ख़ुशी और दुख-दर्द की आवाज़ सुनता और समझता है। उनकी आरंभिक कविताएं छायावादी और उत्तर-छायावादी काव्य संस्कारों से निर्मित हुई।
रह जाते हैं सिहर-सिहर
मृदु कलिका के विस्मित गात:
बहका फिरता मधुप अधीर,
तितली अस्थिर गति अवदात।
कोई अपने सुख-दुख भूल
सूने पथ पर राग-विहीन,
विस्मृति के बिखराता फूल
फिर आया है मूक-मलीन।
अपने ऊपर निराला और पंत के गहरे प्रभाव की चर्चा करते हुए उन्होंने यह कहा भी है कि हिन्दी की ओर उनका खिंचाव भी इन्हीं दोनों कवियों के कारण हुआ। अपने प्रिय कवि निराला को याद करते हुए शमशेर ने लिखा था-
भूल कर जब राह- जब-जब राह.. भटका मैं
तुम्हीं झलके हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए।
घने अंधेरे में शमशेर के लिए आंख बन निराला इसलिए झलके कि दोनों का जीवन साम्य लिये हुए था। एक जैसा आर्थिक और भावात्मक अभाव। बचपन में मां की मृत्यु, युवाकाल में पत्नी की मृत्यु, अनियमित रोजगार और अकेलापन। पत्नी की मृत्यु के बाद जीवन में गहरे हो गए अकेलेपन में हिन्दी कविता शमशेर से छूट-सी गई थी। ऐसे में बच्चन से उनकी मुलाक़ात हुई। बच्चन उनको इलाहाबाद ले आए। ‘निशानिमंत्रण’ की कविताओं ने उनपर प्रभाव डाला और उन्होंने ‘निशानिमंत्रण के कवि से’ कविता में कहा,
यह खंडहर की सांस
तुम जिसे भर रहे वंशी में -
है तंग घुटी-सी सुबह
लाल सफेद सिहाह!
मत गाओ यह गीत
मैं बिखर पड़ूंगा पागलपन में
ओ देर अजान मुसाफ़िर
यह हंसी मरुस्थल की है।
वे बहुत ही एकांत-प्रिय थे। उनका यह निजीपन उनकी कविताओं को एक अलग स्वर और स्वरूप प्रदान करता है। एकाकीपन उनके लिए उतनी ही ठोस हक़ीक़त था, जितनी उनके लिए मौत। उनके सम्पूर्ण काव्य में जिस गहन वेदना की अंतर्धारा प्रवहमान है वह उनकी वास्तविक जीवन-परिस्थितोयों से उत्पन्न हैं। अपने अकेलेपन को अपने युग के साथ जोड़कर एक बहुत ही जटिल एकाकीपन की रचना उन्होंने अपने लिए की थी। ‘आधी रात’ कविता में कहते हैं,
बहुत धीरे-धीरे
बजे हैं बा .. sरा s …
गिना है रुक रुक कर मैंने
बा र ह बा र
सुनो!
अब भी वैसे ही हवा में
बा रा बज रहे हैं …
(बादल घिरे हुए हैं दिन भर।)
एक का ए क्
श्वान भूकने लगे!
गा उठा बिरहा कोई दूsर जाता पथ
पर …
नीम के सन्नाटे में एकाएक जोड़ा
ओल्लुओं का चीख उठा
प्री ई अ, प्री ई अ, ! प्रईअ!
उन्होंने अर्थ को ज़्यादा से ज़्यादा छोड़कर कविता लिखी। इसके चलते उनकी कविताओं की दुरूहता बढती ही चली गई।
एक आदमी दो पहाड़ों को कोहनियों से ठेलता
पूरब से पच्छिम को एक कदम से नापता
बढ़ रहा है
कितनी ऊंची घासें चांद-तारों को छूने-छूने को हैं
जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है
अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ
फिर क्यों
दो बादलों के तार
उसे महज उलझा रहे हैं?
अशोक वाजपेयी ने ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ की भूमिका में कहा है,
“शमशेर की कविताओं का आप किसी अन्य अभिप्राय के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते। वह अपने अत्यंतिक अर्थ में परम नैतिक कविता है, प्रार्थना की तरह पवित्र …।”
वाह जी वाह!
हमको बुद्धू ही निरा समझा है!
हम समझते ही नहीं जैसे कि
आपको बीमारी है :
आप घटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं,
और बढ़ते हैं तो बस यानी कि
बढ़ते ही चले जाते हैं-
दम नहीं लेते हैं जब तक बि ल कु ल ही
गोल न हो जाएं,
बिलकुल गोल ।
वे कविओं के कवि थे। चित्रात्मकता, ऐंद्रियता, मितकथन, कविता में मौन की जगह आदि उनकी कविता की विशेषता है। वे आत्मविलोपन और आत्म-अवमूल्यन के कवि हैं। यह एक आध्यात्मिक विनय है। उन्हें सौंदर्य का कवि माना गया है। कविता लिखने के साथ वे चित्र भी बनाते थे। उनका मानना था कि कलाकार का नज़रिया सौंदर्यात्मक ही हो सकता है और कुछ नहीं, भले ही वह राजनीतिक विषय पर लिख रहा हो। कलाकार किसी जाहिरी रूप को अभिव्यक्त नहीं करता, वह उसके कलात्मक रूप को अभिव्यक्त करता है।
मोटी, धुली लॉन की दूब,
-
- साफ़ मखमल की कालीन।
-
ठंडी धुली सुनहरी धूप।
हलकी मीठी चा-सा दिन,
मीठी चुस्की-सी बातें,
मुलायम बाहों-सा अपनाव।
पलकों पर हौले-हौले
तुम्हारे फूल से पाँव
-
- मानो भूलकर पड़तेहृदय के सपनों पर मेरे!
-
अकेला हूँ आओ!
‘प्रम की भावुकता’ को उन्होंने महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। न प्रेम सीमित है, न ही उनकी भावुकता का दायरा तंग है। प्रेम की भावुकता उन्हें कमज़ोर करने की जगह इन्सानों के साथ सही रिश्ते क़ायम करने में मदद करती है।
द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
रूप नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
सांसारिक व्यवहार न ज्ञान
फिर भी मैं करता हूं प्यार
शक्ति न यौवन पर अभिमान
फिर भी मैं करता हूं प्यार
कुशल कलाविद् हूं न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूं प्यार
केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूं प्यार ।
मैंने कितने किए उपाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब विधि था जीवन असहाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब कुछ साधा, जप, तप, मौन
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
कितना घूमा देश-विदेश
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
तरह-तरह के बदले वेष
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम ।
नम्रता और दृढता, फाकामस्ती और आत्मविश्वास से बना शमशेर का कवि-व्यक्तित्व अपनी पूरी गरिमा के साथ हमारे बीच मौजूद है। जन्मशती के मौके पर उनके इन गुणों को पहचानना, याद करना, और हो सके तो अपनाना, सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
शुक्रवार, 7 जनवरी 2011
‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का प्रथम पाठ पढाने वाले महाकवि विद्यापति
‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का प्रथम पाठ पढाने वाले महाकवि विद्यापति
मनोज कुमार
प्रकृति के उपासक एवं जनकवि विद्यापति का बिहार राज्य के मधुबनी ज़िला के विष्फी गांव में जन्म हुआ था। उन्होंने अपनी सरस, अनुपम रचनाओं के बल पर महाकवि के रूप में अमरत्व प्राप्त किया। महाकवि विद्यापति का काल १३६० से १४४८ के बीच का माना जाता है। पूर्वोत्तर भारत के लोकभाषा काव्य के आकाश में महाकवि विद्यापति प्रथम महान नक्षत्र हैं। जिस समय विद्यापति का जन्म हुआ था (लगभग १३४०) उस समय अंगरेजी साहित्य शैशवकाल में था। विद्यापति का प्रादुर्भाव असमिया कवि शंकर देव, जन्म १४४९, बांग्ला कवि चंडी दास जन्म १४१८, ओड़िया कवि रामनंद राय, जन्म १५वीं शताब्दी के मध्य, हिन्दी के कवि कबीर, जन्म १४४७ और सूर दास जन्म १४३५ से बहुत पहले हो गया था। उनके जन्म तिथि पर विवाद है पर पुण्य तिथि के बारे में चर्चित है ‘विद्यापति आयु अवसान कार्तिक धवल त्रयोदशी जान’ यानी कार्तिक धवल त्रयोदशी – महाकवि विद्यापति का अवसान दिवस है (लगभग १४४०)।
मूलतः मैथिली भाषा में लिखने वाले महाकवि ने ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा। ते तैसन जम्पओ अवहटट्ठा । ।’ का प्रथम पाठ लोगों को पढा कर मातृभाषा के प्रति अनुराग की महता को बताया। अगर हम ग़ौर से देखें तो मैथिली साहित्य में विद्यापति के युग को अंगरेज़ी साहित्य के शेक्सपीयर के युग से तुलना की जा सकती है।
कान्ह हेरल छल मन बड़ साध।
कान्ह हेरइत भेलएत परमाद।।
तबधरि अबुधि सुगुधि हो नारि।
कि कहि कि सुनि किछु बुझय न पारि।।
मैथिली भाषा के माध्यम से प्रबंध काव्य एवं गीत रचना के कारण विद्यापति अपने समकालीन विद्वानों के बीच एक नक्षत्र की तरह चमके। विद्यापति ठाकुर की रचनाओं ने उन्हें मिथिलांचल से भी आगे एक बड़े क्षेत्रफल में पहचान दिलाई। बंगाल, ओड़िसा और असम में उन्हें एक महान वैष्णव माना गया। बंगाल में विद्यापति की चर्चा कवि चंडीदास के समकक्ष होती है। बंगाल के महान वैष्णव संत चैतन्य देव महाप्रभू पर भी विद्यापति के गीतों का प्रभाव साफ दिखा। कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के आदर्श भी विद्यापति ही थे। उनकी कालजयी रचना ‘गीतांजलि’ की कविताओं पर भी महाकवि की छाया साफ दिखती है।
सैसव जौवन दुहु मिलि गेल। स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।
वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिए चाँद कएल परगास।
मुकुर हाथ लए करए सिङ्गार। सखि पूछए कैसे सुरत-बिहार।
निरजन उरज हेरइ कत बेरि। बिहुसए अपन पयोधर हेरि।
उन्होंने गीत या पद, में अपने बात मैथिली भाषा में लोगों के सामने रखी। ‘लिरिक’ में मानव मन की सहज और मौलिक अभिव्यक्ति होती है। अगर वास्तविकता में देखा जाए तो मानव मन के समर्थतम स्रष्टा थे महाकवि विद्यापति। उनके गीतों की लोकप्रियता का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि बिहार के मिथिलांचल में चले जाइए और देखिए कि इसे पंडितों से लेकर निरक्षरों तक मुक्त कंठ और राग से प्रतिदिन और हर दैनिक कार्य के साथ गाते रहते हैं
माधव ई नहि उचित विचार।
जनिक एहनि धनि काम-कला सनि से किअ करु बेभिचार।।
ऐसा नहीं है कि महाकवि विद्यापति ने सिर्फ़ मैथिली भाषा में रचना की। वो शायद विश्व के एकमात्र रचैता होंगे जो दो-दो भाषाओं के द्वारा कवि एवं साहित्यकार माने गए हैं। उनके साहित्यिक उत्कर्ष का पता तो इसी से लगता है कि इस युग की दो प्रधान भाषा हिन्दी और बांग्ला ने उन्हें अपनी भाषा का साहित्यकार होने का दावा किया है। सर जान वीम्स ने स्पष्ट कहा है कि कवि विद्यापति ही एक ऐसे कवि थे जिन्हें जिन्हें दो भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वाली जनता ने अपनी भाषा का कवि माना है। सर जार्ज अब्राहम ग्रेयर्सन ने इस बात को साहित्यिक इतिहास की अद्वितीय घटना करार दिया है। उन्होंने कहा है कि यह संभव है कि हिन्दू धर्म का सूर्य अस्त हो जाए या कृष्ण तथा कृष्ण भक्ति काव्य लुप्त हो जाएं लेकिन महाकवि द्वारा रचित राधा-कृश्ण लीला विषयक गीत के प्रति लोगों का अनुराग बना ही रहेगा।
कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी।।
छोड कान्ह मोर आंचर रे फाटत नब सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे जानि करिअ उधारी।।
महाकवि विद्यापति एक तरफ़ प्राकृतिक सौन्दर्य, राधा-कृष्ण, भगवान भोले नाथे केन्द्रीत रचनाएं की, वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रहार करते हुए पदावलि लिखी। उनका पहला प्रबंध काव्य ‘कीर्तिलता’ है। उनकी लेखनी का विस्तार तो संस्कृत में शैवर्सव-स्वसार, गंग, गावाक्यावलि और दुर्गाभक्तिरंगिणी जैसी रचनाओं तक पहुंची। आम जनता की परेशानियों को ध्यान में रखते हुए महाकवि ने गया श्राद्ध में अनुष्ठेय कर्म से संबंधित ‘गया पत्रलक’ जनसामान्य के उपयोग हेतु पत्र लिखने का नमूना ‘लिखनावलि’ का निर्माण किया। मनुष्यों की पहचान कराती उनकी रचना ‘पुरुष परीक्षा’ आज भी प्रासंगिक है। समाज में बंटते परिवार जैसी समस्या पर ‘विभासागर’ जैसी रचना कर महाकवि ने सूक्ष्म दूरदृष्टि का परिचय दिया।
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे। छाड़इते निकट नयन बह नीरे।
कर जोड़ि बिनमञो विमलतरङ्गे । पुन दरसन होअ पुनिमति गङ्गे ।
एक अपराध छेँओब मोर जानी । परसल माए पाए तुअ पानी।
कि करब जप तप जोग धेआने । जनम सुफल भेल एकहि सनाने।
भनइ विद्यापति समन्दञो तोही । अंत काल जनु बिसरह मोही।
जहां एक ओर मिथिला में उन्हें श्रृंगार रस के गीतकार व शिव भक्त के रूप में ख्याति मिली, वहीं दूसरी ओर वे सामाजिक बुराइयों पर भी प्रहार करते रहे। सामाजिक दुस्थिति और राजनीतिक अराजकता जैसे विषयों पर महाकवि विद्यापति ने वर्षों पूर्व अपनी लेखनी से भारतवासियों को आगाह कर दिया था। देखिए उनकी पंक्तियां
ठाकुर ठग भए गेल चोरे छप्परिधर सिज्जिअं
दास गोसाउंनि गहि अधम्म गये धंध निमज्जिअं
खेल सज्जन परिभविअ कोइ नहिं होय विचारक
जाति अजाति विवाह अधम उत्तम कां पारक
अक्खर रस बुझनिहार नहीं कइकुलभर्भ भिक्खारि भऊं
तिरहुति तिरो हितसव्वगुणे रा गणेश जवे सग्गगऊं
महाकवि विद्यापति की रचना में विरह वर्णन प्रेम तन्मयता का यथार्थपूर्ण अभिव्यक्ति अद्वितीय है। देखिए
सखी हे हमर दुखक नहीं ओर
लोचन नीर तटनि निर्माण
के पतियालए जायत रे
माधव कठिन हृदय परवासी
विरह व्याकुल बकुलतरू पर
नयनक नीर चरण तल गेल
महाकवि शिव के उपासक थे। मान्यता यह है कि उनके भक्तिभाव से रीझकर साक्षात महादेव उनके यहां नौकर उगना के रूप में आ गये। विद्यापति को शिवजी के दर्शन का सौभाग्य मिला। और जब उगना रूठ कर चले जाते हैं तो उनकी लेखनी से निकला गीत ‘उगना रे मोर कत गेल’ आज तक घर-घर में गाया जाता है। इसी तरह विद्यापति रचित ‘कखन हरब दुख मोर हे भोलानथ’ अथवा ‘तो हे प्रभु त्रिभुवन नाथ हे हर’, हमसे रूसल महेसे, गौरी विकल मन करथि उदेसे आदि पद आज भी मिथिला के घर-घर में गाये जाते हैं।
कखन हरब दुःख मोर
हे भोलानाथ।
दुखहि जनम भेल दुखहि गमाओल
सुख सपनहु नहि भेल हे भोला ।
एहि भव सागर थाह कतहु नहि
भैरव धरु करुआर ;हे भोलानाथ ।
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति
देहु अभय बर मोहि, हे भोलानाथ।
उन्होंने कृष्ण-राधा विवाह बाल विवाह के विरोध में लिखा ‘पिया मोर बालक हम तरुणी गे, कोन तप चुकलौं मेलौ जननी गे’।
कवि विद्यापति ने शक्ति, गंगा व विष्णु विषयक पदों की रचना की। जय-जय भैरवि असुर भयाउनी, दुर्गा की स्तुति के रूप में कनक भूधर शिखर वासिनी, अर्धनारीश्वर का वर्णन करते हुए विद्यापति ने रचना की जय जय शंकर जय त्रिपुरारि जय अधपुरुष तयति अधनरी।
जय जय भैरवि असुरभयाउनि, पसुपति–भाबिनि माया ।
सहज सुमति वर दिअ हे गोसाञुनि, अनुगति गति तुअ पाया ।।
बासर–रइनि सवासने सोभित, चरन चन्द-मनि-चूड़ा ।
कतओक दैत मारि मुहे मेरल, कतन उगिलि करु कूड़ा ।।
सामर बदन, नयन अनुरञ्जित, जलद जोग फुल कोका ।
कट-कट विकट ओठ–पुट पाँड़रि, लिधुर–फेन उठ फोका ।।
घन घन घनन घुघुरु कटि बाजए, हन हन कर तुअ काता ।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरु जनु माता ।।
महाकवि विद्यापति का संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली भाषाओं पर समान अधिकार रहा। तभी तो ग्रियरसन ने अंग्रेजी में लिखा ‘विद्यापति इज़ अनपैरेलल इन द हिस्ट्री ऑफ़ लिटरेचर’ । महाकवि विद्यापति कवि कोकिल के रूप में अमर रहेंगे।
सोमवार, 3 जनवरी 2011
उफान …सोच के
सोच , सर्फ़ के झाग की तरह कुछ देर फेनिल झागों के समान उभरी और ख़त्म हो गई दूध में उफान की तरह विचार उफनते हैं और कुछ समय बाद ठंडे हो जाते हैं उन झागों की तरह जो स्वयं नीचे बैठ गए हों । और फ़िर - वही बेरौनक सी ज़िन्दगी कैसे , कब और कहाँ शुरू हुई एहसास नही रहता कल आज और कल बीतते जाते हैं पर उनका हिसाब नही रहता इस बेहिसाबी दुनिया में तुम बीता कल ढूँढते हो पर यहाँ तो अब आज का हिसाब नही मिलता वक्त नही है अब सोचने का कल का क्या सोचें कर्म किए जाओ फ़िर - वक्त कहीं का कहीं पहुंचे. |
रविवार, 2 जनवरी 2011
कहानी ऐसे बनी - 18 :: सास को खांसी बहू को दमा
कहानी ऐसे बनी – 18
सास को खांसी बहू को दमा
हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।
रूपांतर :: मनोज कुमार
हैलो जी ! लीजिये, आ गया रविवार ! मन लीजिये संवार !! और सुनिए एक ताज़ी कहानी !!! अब क्या बताएं .... यह तो आप भी जानते ही होंगे। जैसे ही ३१ दिसंबर की रात को बारह का घंटा बजता है, बस सारा संसार हर्ष और उल्लास से भर जाता है। हम तो एक ही बात जानते हैं भैय्या ! जब बसंती बयार बहेगी तो मनवा में हिलोर तो मारेगा ही। पर्व-त्यौहार का बहाना करके लोग मन का उल्लास बाहर करते हैं। अब देखिये न आज-कल गाँव-क़स्बा से लेकर शहर-बाजार तक खाली परवे-त्यौहार हो रहा है।
शहर में तो आज-कल HAPPY NEW YEAR की धूम मची है। सभी नुक्कड़-चौराहे पर जगमग-जगमग, चकमक-चकमक!! ताजा-ताजा रंग-बिरंगे फूलों की सजावट! तरह-तरह के प्रकाशों की सजावट। अरे भाई, अँगरेज़ मुल्क में जो नया साल आता रहा होगा वो अपने यहां भी पहुंच ही गया है, तो लगे हाथ हम भी आपको HAPPY NEW YEAR बोल ही दें। वरना अपने यहां तो जब नयी फसल आएगी तो HAPPY NEW YEAR मनाया जाएगा। सबसे ज़्यादा मन तो खेत-खलिहान में लहराती फसल को ही देख कर न हुलसता है। पर इधर शहर में जवान-व्यस्क, लड़का-लड़की सब हर्षोल्लास के साथ नए साल की उमंग में रमे हैं। अब पार्क-वार्क में गला-वला मिलते तो दिखते ही हैं, डिस्को-विस्को में नाच-गान भी होता है। हम तो ठहरे भुच्च देहाती, हमको इस तरह के HAPPY NEW YEAR का ज्यादा विध-विधान का पता नहीं है। सब इधर 'HAPPY NEW YEAR' मनायेगा और हम इहाँ अकेले बोर होंगे.... सो अच्छा है चल रे मन 'रेवा-खंड'। कुछ भी है तो अपना गाँव, स्वर्ग से भी सुन्दर है।
गाँव में तो हमारे जैसे एकाध पढ़े-लिखे आदमी ही HAPPY NEW YEAR का नाम जानते हैं। बांकी को तो पता भी नहीं है। लेकिन यह मत समझिये कि गाँव में सुन्ना उपवास है। भाई, HAPPY NEW YEAR तो गांव में भी हो रहा है। ... पर अपने अंदाज़ में। विशुद्ध और खालिस देहाती। सत्यनाराण भगवान की पूजा का इंतज़ाम किया जा रहा है। अब सत्यनाराण भगवान की पूजा क्या होता है, यह भी बताना पड़ेगा क्या ? अंगरेज़ मुल्क में नए साल के आगमन का उत्साह नाच-गा कर मनाते हैं और अपने यहाँ पूजा-पाठ करा देते हैं। लेकिन यह मत समझिये कि यहाँ भी तैय्यारी में कोई कमी है। यहाँ लाइट की लड़ियों के बदले ध्वजा-पताका लहरा रहा है और गुलाब नहीं तो गेंदा ही खिल रहा है। अब तो फिल्म में भी तो गीत में कहता है 'ससुराल गेंदा फूल....' सो नया साल आया हैं तो सजावट गेंदे फूल से होगा ना... !!
सारा गाँव हर्ष-उल्लास से खल-खल कर रहा था। सबका अंगना-द्वार गाय के गोबर से लीपा-पोता गया है। लगता है जैसे इसी गाँव में शिवजी की बरात आयेगी। हम तो भोरे-भोर चले जा रहे थे, ओझटोली। भौजी ने कहा था पंडितजी को सत्यनाराण भगवान की कथा कहने के लिए बुला लाने। गाँव-घर की शोभा निरख-निरख हमरा हृदय बिहस रहा था। बनइ न बरनत नगर निकाई.... ओह! इस सुन्दरता पर तो हम स्वर्ग को भी लात मार दें।
लेकिन यह क्या !!! मुसाई झा के दालान पर अभी भी धूल उड़ रही है। पूरा गाँव जवानी से छम-छम कर रहा है और सबका बुढ़ापा इन्ही के द्वार पर समा गया है। हम आवाज लगाए, 'पंडी जी ! ओ पंडी जी !!'
अन्दर से खिलखिलाती हुई पतली आवाज आई, 'पंडी जी काम से गए हैं.... बाद में आइयेगा।'
हम जैसे ही उनके दरवाजे से मुड़े कि देखते है, बेचारे बूढ़े मुसाई झा माथे पर गोबर का छिट्टा उठाए हांफते चले आ रहे हैं। हम बोले, 'प्रणाम पंडीजी !'
पंडितजी आशीर्वाद क्या देंगे, धरफरा कर बोले, 'ऐ ज़रा छिट्टा पकड़ो ... !'
हमने छिट्टा पकड़वा कर नीचे रखवाया फिर पंडितजी गमछी से मुँह पोछते हुए बोले, 'अब कहिये बौआ ! क्या बात है ?'
हमने कहा पंडितजी ! भौजी ने बुलाया था, कथा बांचने के लिए। मुसाई झा बोले, 'दोपहर में आयेंगे।'
हम बोले, 'ना पंडीजी ! भौजी तब तक उपवास में कैसे रहेंगी? अभी ही बुलाई है। कहा है सबसे पहले हमरे यहाँ कह दीजिये फिर कहीं जाइयेगा।’
मुसाई झा बोले, 'हाँ ! सो तो सबसे पहिले आपही के यहाँ आयेंगे। लेकिन दोपहर से पहिले नहीं होगा।'
हम बोले, 'पंडीजी ! इतना लेट क्यों ? अभी ही चलिए न।'
मुसाई झा थोड़ा गर्माते हुए बोले, 'हम बोले न दोपहर में आयेंगे। अभी हमको फुरसत नहीं है। घर का इतना सारा काम है। सारा गाँव पवित्र हो गया। हमरे घर-द्वार में अभी झाड़ू भी नहीं लगा है। लीपा-पोती फिर रसोई.... !'
हम बोले, 'तो ये सब आप कीजियेगा... ?'
मुसाई झा रिसियाके बोले, 'नहीं तो तुम्हारा ससुर करेगा... शैतान कहीं का !'
हम बोले, 'अरे पंडीजी वह नहीं, कहने का मतलब अन्दर पंडिताइन है, बहू भी है। फिर आप लीपा - पोती.... ?'
मुसाई झा तमक के बोले, 'यहाँ हमको जो सीख दे रहे हो सो ज़रा उनसे ही जा कर बतिया लो ना... !!'
हम भी पूरे जोश में मुसाई झा के आँगन में घुसे। पंडिताइन खटिया पर बैठी पान लगा रही थी। हमने कहा, 'गोर लागी पंडिताइन !'
पंडिताइन प्रेम से अशीसती हुई बोली, 'जुग-जुग जीयो बाबू। शहर से कब आये?'
हमने कहा ‘कल्ह ही आये हैं पंडिताइन।’ पंडितजी के ललकारे से चले तो आये थे मगर मुँह से बोल नहीं फूट रहा था। क्या कहें ? कैसे कहें ? किसी तरह हिम्मत कर के पर्दे में बोले, 'पंडिताइन ! सारा गाँव खल-खल कर रहा है। और आपका घर-आँगन अभी तक बासी ही है।'
पंडिताइन अभी गाल में पान रखी ही थी कि हमरी बात सुन कर खांस पड़ीं। ज़ोर की खांसी उठ गयी बेचारी को। 'खों....खों....अक्खों..... होआक...... थू..........!' आंगन में बलगम फेंकते हुए बोली, 'बौआ ! अब ऐसे ही ही रहेगा अंगना-घर। अब पहिले वाला स्वास्थ है हमारा जो लीपा-पोती करें ? खांसी से दम नहीं धरा जा रहा है। अभी जरा सा धूप सेंकने बैठे हैं बाहर.....!'
हमने कहा, 'हाँ ! वह तो है ! आपकी उम्र भी तो हो गई। मगर भौजी मतलब चुहलदेव भैय्या की ..... ?'
पंडिताइन फिर से दूसरा पान लगाते हुए बोली, 'अब भौजी की बात भौजी से ही पूछो। उस उम्र में तो हम लोग पहार ढा देते थे।'
हम कुछ पूछते, इस से पहले ही पलंग पर बैठी पैर रंग रही चुहलदेव झा की लुगाई बोलीं, 'बौआ ! यहाँ हमारा दुःख कौन समझे वाला है ? बचपन से ही ... बौआ दमा पकड़ लिया। वह तो वैसा घर था .... हमारे पप्पा ख्याल-बात रखे, डाक्टरी इलाज हुआ .... जो हम हैं।'
भौजी बीच में जोर-जोर से दो बार सांस छोड़ती हुई बोली, 'यहाँ कौन देखने वाला है ? बौआ ! शरीर जवान लगता है, बांकी भीतर-भीतर कितना कष्ट है सो कौन समझेगा... ? इतना दम फूलता है कि रात भर जाग-जाग कर परात करते हैं। हंपसते-हंपसते पंजरी में दर्द हो गया है। कभी-कभी तो लगता है अब सांस छूटा कि तब... ! ओहों... सों..... सोएँ.....साईं........!!'
बाप रे बाप ! भौजी की सांस सच में तेजी से चलने लगी थी।
आँगन में खड़े मुसाई झा सब सुन रहे थे। हम अपना जैसा मुँह लेके जैसे ही उनके सामने से गुजरे, पंडितजी तुरत वेदमंत्र पढ़ दिए, 'सुन लिए न बाबू साहेब ! "सास को खांसी, बहू को दमा ! अब कौन करे घर का कमा ?" सास खो-खो कर रही है और पतोहू का सोएँ साईं दम फूल रहा है तो घर का काम कौन करेगा ? बचे मुसाइए झा न सब से स्वस्थ .... इसीलिए ही कहे कि बौआ बहुत काम है अभी, बाद में आयेंगे !'
मुसाई झा के व्यंग्य में भी व्यथा साफ़ झलक रही थी। इसीलिए इस कहावतो पर हंसी नहीं आयी।
लेकिन उ दिन से हमने भी सीख लिया। जब भी कोई अपने निहायत कर्त्तव्य में भी सच या झूठ बहाना करता है और मजबूरी में वह काम किसी और के सिर बंधता है या नहीं होता है तो हमें बस मुसाई झा की बात याद आती है। "सास को खांसी, बहू को दमा ! अब कौन करे घर का कमा !!"