शनिवार, 17 दिसंबर 2011

पुस्तक परिचय-11 : आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श

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SDC11128_editedमनोज कुमार

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1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी |

नाट्य विमर्शनाटक और रंगमंच मनुष्य जाति का पहला और सदियों तक एकमात्र सशक्त और जीवन्त जन-माध्यम रहा है। इसके स्वरूप और सरोकार लगातार बदलते रहे। मुग़ल काल में रंगमंच उपेक्षित रहा। अंग्रेज़ों के आगमन के साथ नाटक व्यवसाय पारसी रंगमंच के रूप में विकसित हुआ। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय इप्टा ने रंगकर्म को आगे बढ़ाया। लब्धप्रतिष्ठित नाट्य-समीक्षक डॉ. जयदेव तनेजा जी ने “आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श” पुस्तक में ऐसे नाटककारों और नाटकों की समीक्षा की है जो वर्षों से अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। इन भारतीय नाटककारों का आधुनिक नाट्य-परिदृश्य को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, जगदीशचन्द्र माथुर, भीष्म साहनी, बी.एम. शाह, बादल सरकार, जे.पी. दास, विजय तेन्दुलकर, महेश एल्कुंचवार आदि के दीर्घजीवी अथवा कालजयी उन श्रेष्ठ नाट्यलेखों को तनेजा जी ने समीक्षा के लिए चुना है, जो अपनी बहुमंचीयता से अपनी महत्ता, प्रासंगिकता और बहुअर्थगर्भी सार्थकता सिद्ध कर चुके हैं और जिनकी संभावनाएं अभी चुकी नहीं हैं।

डॉ. जयदेव तनेजा रचित यह पुस्तक पांच खंडों में बंटी है। पहले खंड में भारतीय परिप्रेक्ष्य में, नाटक के विविध रूपों, आधुनिकता और समाज और नाटक में स्त्री विमर्श पर लेख हैं। दूसरे खंड में संस्कृत, लोक और पारसी नाटकों के आधुनिक रंग प्रयोगों पर चर्चा की गई है। इसी खंड में जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, जगदीशचन्द्र माथुर, भीष्म साहनी, बी.एम. शाह की विशेष रंग-दृष्टि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे खंड में , बादल सरकार, जे.पी. दास, विजय तेन्दुलकर, महेश एल्कुंचवार की रचनात्मकता के साथ उनके वैचारिक दृष्टिकोण पर समग्रतः नज़र डाली गई है। चौथे खंड में बहुमंचित प्रमुख आधुनिक नाटकों के सरोकारों, समस्याओं, शक्ति और सीमाओं की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। पांचवें और अंतिम खंड में मीरा कान्त, नादिरा ज़हीर बब्बर, शाहिद अनवर और मानव कौल के नाट्य़ कर्म पर विशेष रूप से आलोचनात्मक दृष्टिपात किया गया है।

यह पुस्तक नाटक-रंगमंच समन्वित उस संश्लिष्ट रंग-समीक्षा दृष्टि की ओर इशारा करने की पहल करती है, जिसके बिना किसी भी नाटक का वास्तविक और सन्तुलित मूल्यांकन हो ही नहीं सकता। लेखक ने पुरानी नाट्यकृतियों को साहित्य-रंगमंच सम्पृक्त नई दृष्टि से विश्लेषित एवं पुनर्मूल्यांकित किया है। इस पुस्तक में नाट्य समीक्षक तनेजा जी ने ध्रुवस्वामिनी, अन्धायुग, लहरों के राजहंस, पगला घोड़ा, इला, कोमल गान्धार, अग्नि और बरखा और गुलाम बादशाह – हस्तिनापुर कृतियों की समृद्ध संभावनाओं का उद्घाटन करते हुए भावी नाट्य-परिदृश्य का संकेत भी दिया है।

चिरजीवी नाटककार मोहन राकेश के रंग-शिल्प और प्रदर्शन, बादल सरकार की रंग यात्रा, जे.पी. दास और ओड़िया नाटक, विजय तेन्दुलकर – पुनरावलोकन और महेश एल्कुंचवार की अन्तर्यात्रा के बहाने यह पुस्तक समकालीन हिन्दी/भारतीय रंगकर्म की उस गम्भीर, वैविध्यपूर्ण और व्यापक सर्जनात्मक छटपटाहट को भी उजागर करती है, जो किसी भी सार्थक रचना-कर्म की बुनियादी शर्त है।

इस पुस्तक में नाट्य समीक्षक जयदेव तनेजा ने कुछ उभर चुके और उभर रहे उन युवा नाटककारों, जैसे मीरा कन्त, नादिरा ज़हीर बब्बर, शाहिद अनवर, मानव कौल, आदि की चर्चा भी की है, जिसे वे भावी भारतीय नाट्य-कर्म की समृद्ध संभावना के रूप में पहचाना है।

यह रंगकर्मियों, शोधार्थियों, अध्यापकों और छात्रों के लिए समान रूप से उपयोगी और रंगपरिवेश के जिज्ञासु पाठकों/इतिहासकारों के लिए एक दिलचस्प, प्रामाणिक और संग्रहणीय दस्तावेज़ ग्रन्थ है। इस पुस्तक की एक और बात जो बहुत ही आकर्षित करती है, वह यह है कि हितोपदेश की तरह या आचार्य रजनीश के प्रवचन में जो शैली है, वह शैली यहां भी प्रस्तुत किया गया है। नाट्य इतिहास भी साहित्य के सृजनात्मक विधा में ढल जाए तो क्या कहने ! यह विलक्षण प्रयोग लेखक की क्षमाता को दर्शाता है।

इस पुस्तक में भाषा का ऐसा तरल प्रवाह है कि इसे पढ़ते समय,एक उपन्यास के पढ़ने का जो सुख मिलता है, वह इस पुस्तक को पढ़ने में मिलता है। भाषा की तरल खिलखिलाहट में गंभीर और ठस्स चिंतन भी बोधगम्य होकर सामने आता है। इसलिए नाटक, खासकर भारतीय परिदृश्य में आधुनिक नाटक, को समझने के लिए यह पुस्तक आम पाठकों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है।

समयबद्ध रचना ही कालजयी रचना होती है। समयबद्धता, या समय के परिवर्तन के साथ नाटक के परिवर्तनों की आहटों की पहचान, उसकी रूपाकृति की एक-एक भंगिमा पर इनका दृष्टिकोण हमें नाटकों के स्वरूप का एक-एक कोना, एक-एक रेशा दिखाता है, जिससे नाटक की बदलती शैली और बदलता जीवन को देखने में भरपूर मदद मिलती है। उनके अनुसार –

“हमें अच्छा लगे या न लगे, लेकिन बदलते समय के साथ-साथ नए नाटक का रूपाकार, मुहावरा और मिजाज तो बदलेगा ही। उसकी संरचना और प्रस्तुति-शैली भी निरन्तर बदल रही है। यदि नाटक और रंगमंच को ज़िन्दा रखना है, तो इसे समय के अनुरूप बदलना भी होगा और निरन्तर नए प्रयोग भी करने होंगे।”

... और अंत में यही कहना चाहूंगा कि आम पाठक जिन्हें नाटक के प्रति कौतूहल है, उन्हें यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए।

*** ***

पुस्तक का नाम

आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श

लेखक

डॉ. जयदेव तनेजा

प्रकाशक

राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड

संस्करण

पहला संस्करण : 2010

मूल्य

400 रुपये

पेज

312

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही जानकारी पूर्ण पुस्तक परिचय.. वे सारे लोग जिनके नाटकों को देखकर हमने रंगमंच को जाना है और नाटक को समझने की कोशिह्स की है उनका परिचय और कृतित्त्व... बहुत अच्छा लगा देखकर.. धन्यवाद!!

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  2. नाट्य-विमर्श पर जयदेव तनेजा की इस पुस्तक से परिचय करवाने के लिए हृदय से आभार!!!

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  3. जाने माने नाटक लेखकों पर लिखी जयदेव तनेजा जी की पुस्तक से परिचय अच्छा लगा ..

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  4. “हमें अच्छा लगे या न लगे, लेकिन बदलते समय के साथ-साथ नए नाटक का रूपाकार, मुहावरा और मिजाज तो बदलेगा ही। उसकी संरचना और प्रस्तुति-शैली भी निरन्तर बदल रही है। यदि नाटक और रंगमंच को ज़िन्दा रखना है, तो इसे समय के अनुरूप बदलना भी होगा और निरन्तर नए प्रयोग भी करने होंगे।”

    श्री मनोज कुमार जी आपको याद होगा कि शायद 5-6 महीने पूर्व मैंने आपके एक पोस्ट पर दिप्पणी दिया था कि समय के प्रवाह के साथ एवं परिवर्तित होती आर्थिक, सामाजिक, जनभावना के अनुरूप नाटकों को ही पहचान के साथ-साथ सामाजिक मान्यता मिलेगी । डॉ जयदेव तनेजा की यह पुस्तक इस संबंध में प्रकाश डालने में सफल सिद्ध होगी । इस पुस्तक के संबंध में जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद । "नकेनवाद" पर एक पोस्ट किया हूँ,,समय मिले तो तो देख लीजिएगा ।

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  5. मुझे नाटकों में रुचि है। यह पुस्तक रुचिकर होगी। समीक्षा से ऐसा ही प्रतीत होता है।

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