पुस्तक परिचय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पुस्तक परिचय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 2 जून 2012

पुस्तक परिचय-31 : सुहाग के नूपुर


पुस्तक परिचय-31 : सुहाग के नूपुर

मनोज कुमार

प्रेमचन्दोतर उपन्यासकारों में अमृतलाल नागर का विशिष्ट स्थान हैं। उन्होने ऐतिहासिक और सामाजिक दोनो प्रकार के उपन्यास लिखे हैं। जहां एक ओर वे "शतरंज के मोहरे" में अवध प्रदेश के नवाबों का पतनोन्मुख जीवन अंकित करते हैं वहीं दूसरी ओर "सुहाग के नुपूर" के द्वारा तमिल के प्राचीन काव्य "शिलप्पदिकारम" की कथावस्तु पर दक्षिण भारत के ऐतिहासिक जीवन का विस्तृत और विश्वसनीय चित्रण प्रस्तुत करते हैं। आज हम आपका परिचय इसी उपन्यास से कराने जा रहे हैं जिसके कथानक और पात्रों  के चरित्र द्वारा नागर जी ने विवाह और प्रेम की समस्या का चित्रण बहुत ही प्रामाणिकता के साथ किया है।

अमृतलाल नागर ने कई महत्वपूर्ण उपन्यास स्वतंत्रता के बाद वाले दौर में लिखे। उन्होंने अपने उपन्यासों में व्यक्ति और समाज के सापेक्षिक संबंध को चित्रित किया है। ‘नवाबी मसनद’, ‘सेठ बांके मल’, ‘महाकाल’, ‘बूंद और समुद्र’, ‘सुहाग के नूपुर’, ‘शंतरंज के मोहरे’, अमृत और विष’, ‘एकदा नैमिषारण्ये’, ‘बिखरे तिनके’, ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’, ‘मानस के हंस’, ‘खंजन नयन’, और ‘करवट’ जैसे उनके प्रसिद्ध उपन्यास इसी काल में प्रकाशित हुए। नागर जी के उपन्यास जैसे "बूँद और समुद्र", "अमृत और विष", "नाच्यौ बहुत गोपाल", आदि में सामाजिक जीवन का चित्रण हैं। "बूँद और समुद्र" में व्यक्ति और समाज के सामंजस्य पर बल दिया गया है बूँद के रूप में व्यक्ति और समुद्र के रूप में समष्टि का प्रतीकात्मक संकेत है। "मानस के हंस" और "खंजन नयन" में तुलसी और सुर के जीवन का मार्मिक और मौलिक कल्पनात्मक रोचक चित्रण है।

नागर जी की ख्याति उपन्यासों के कारण अधिक हुई हैं, किंतु इनकी कई कहानियाँ भी लोकप्रिय हुई हैं। आज के जीवन के आर्थिक सकट, विपन्नता, परिवारिक संबधों का तनाव आदि इनकी कहानियों का मुख्य विषय हैं। "दो आस्थाएँ", "ग़रीब की हाय", "निर्धन" , "कयामत का दिन", "गोरखधंधा" आदि उल्लेखनीय हैं।
   
इस तरह प्रख्यात कथा-शिल्पी अमृतलाल नागर जी ने हिन्दी साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी लेखनी चलाई है। व्यंग्य और संस्मरण साहित्य में भी उनका विशिष्ट योगदान है। “सुहाग के नूपुर” उनका विशिष्ट उपन्यास है। यह कथ्य और कला दोनों की दृष्टि से बेहतरीन रचना है। इसके कथानक की प्रेरणा नागर जी को पहली शताब्दी के तमिल कवि इलंगो के अमर काव्य-कृति "शिलप्पदिकारम" से मिली है। लेकिन इस उपन्यास को नागर जी की सृजन-प्रतिभा ने अद्भुत मौलिकता प्रदान की है।

उस समय के समाज और राज्य-व्यवस्था के परिवेश में वेश्या समस्या को आधार बना कर नागर जी ने इसमें  मनुष्य-समाज के व्यथित अर्धांग नारी के अनंत शोषण और पुरुष-प्रकृति की उच्छृंखलता की लोमहर्षक कहानी कही है। कथानक हालाकि प्राचीन काल की आधारभूमि पर रची और बुनी गई है, और अगर हम साहित्य के विपुल भंडार पर दृष्टिपात करें तो कह सकते हैं कि ऐसी कहानी हाज़ारों बार कही गई है, जिसमें प्रेम-त्रिकोण भी है, फिर भी उस कथानक के सहारे विवाह बनाम प्रेम की पुरानी समस्या को नए रूप में प्रस्तुत करना नागर जी की लेखनी का बेमिसाल उदाहरण है।

प्रकाशन के बाद इस उपन्यास की खूब प्रशंसा हुई, लेकिन नागर जी इसे अपनी कोई विशेष उपलब्धि नहीं मानते। उनका कहना था, “सच तो यह है कि यह उपन्यास मैंने साहित्यिक कृति की तरह नहीं उठाया था।” उनके ऐसा विचार व्यक्त करने के पीछे की घटना कुछ इस प्रकार है। “धर्मयुग” साप्ताहिक पत्रिका नागर जी का एक धारावाहिक उपन्यास छपना चाहता था। उस समय उसके संपादक सत्यकाम विद्यालंकार थे। जब उन्होंने इस आशय का आग्रह नागर जी से किया तो वे इंकार न कर पाए। नागर जी के मन में आया कि “धर्मयुग” मध्यमवर्गीय घरों का पत्र है, इसलिए इन्हें गहरे चिंतन की चीज़ मत दो। उन्होंने सोचा कि इनके लिए कोई लोकरंजन कथा लिख देता हूं।

इस तरह लोकरंजन की दृष्टि से ही “सुहाग के नूपुर” के कथानक पर नागर जी का ध्यान गया। इसकी कथा वे तमिल में पढ़ चुके थे। इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी सुन चुके थे। लखनऊ में उनसे भारत भूषण अग्रवाल ने रेडियो नाटक लिखने को कहा था। जब यह कथानक 1952 में सवा घंटे के रेडियो नाटक के रूप में प्रसारित हुआ तो उसे काफ़ी लोकप्रियता मिली। इस तरह “सुहाग के नुपूर” उपन्यास के रूप में छपने के पहले रेडियो नाटक के रूप में लिखा गया था। इस उपन्यास की साहित्यिक क्षमता के बारे में इसी बात से अंदाज़ लगाया जा सकता है कि इसे पढ़ने के बाद राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने “सुहाग के नूपुर” की प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित साहित्य अकादेमी पुरस्कार के लिए सिफ़ारिश की थी।

लेखक के शब्दों में ही कहें तो “घिसी-पिटी थीम” होने के बावज़ूद भी मिली-जुली सरल भाषा में लिखा गया यह उपन्यास, जिसे साधारण हिंदी जाननेवाले पाठक पढ़ सकें, अपनी प्रामाणिकता, और मौलिकता के कारण एक अद्वितीय कृति है, जिसके अब तक बारह आवृत्ति और छह संस्करण निकल चुके हैं, और यह इसकी लोकप्रियता का अकाट्य प्रमाण है।



पुस्तक का नाम
सुहाग के नूपुर
रचनाकार
अमृतलाल नागर
 प्रकाशक
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण
प्रथम संस्करण : 1960
बारहवीं आवृत्ति : 2001
छठा संस्करण : 2011
मूल्य
250
पेज
192





पुराने पोस्ट के लिंक 

1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7.मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18.गुडिया भीतर गुड़िया 19.स्मृतियों में रूस 20. अक्षरों के साये 21. कलामे रूमीपुस्तक परिचय-22 : हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श पुस्तक परिचय-23 : बच्चन के लोकप्रिय गीत पुस्तक परिचय-24 : विवेकानन्द 25. वह जो शेष है 26. ज़िन्दगीनामा 27. मेरे बाद 28. कब पानी में डूबा सूरज 29. मुस्लिम मन का आईना 30. आधे अधूरे

शनिवार, 26 मई 2012

पुस्तक परिचय-30 : आधे-अधूरे

पुस्तक परिचय-30

आधे-अधूरे

मनोज कुमार

मोहन राकेश की रचनाएं 1958 के बाद की हैं। वे पहले कहानी और उपन्यास लिखा करते थे। बाद में उन्होंने नाटक लिखना शुरु किया। इस विधा में उन्हें काफ़ी पसिद्धि मिली।

उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई। वे साधारण परिवार के व्यक्ति थे। पिता एक वकील थे। उनका घर बदबूदार और सीलन भरा था। इस कारण से वे हमेशा बीमार रहा करते थे। उनके दीमाग पर ग़रीबी का आतंक छाया रहता था। इन सब कारणों से उनमें समाज के प्रति चिढ़ और कुढ़ की भवना घर कर गई थी।

पिता के स्वर्गवास के बाद उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी में एम.ए. किया। वे स्वच्छंदतावादी व्यक्ति थे। काफ़ी घूमते रहते थे। लहौर के अलाव मुम्बई आदि की यात्रा उन्होंने की। वे अनुशासन प्रिय तो थे पर नियमों से आबद्ध नहीं थे। कुछ लोग उन्हें आवारा व्यक्तित्व का मानते हैं। उन्होंने दो-तीन शादियां की। उनके अस्त-व्यस्त ढ़ंग से जीने का ढ़ंग उनकी रचनाओं पर भी पड़ा।

आधुनिक युग की छाप है उनकी रचनाओं पर। आधुनिक युग के समाज की विशेषता का प्रभाव उनकी रचनाओं पर देखने को मिलता है। आधुनिक युग औद्योगिक युग है। साथ ही यह वैज्ञानिक युग भी है। इस युग में मानव भी औद्योगिक और वैज्ञानिक हो गया है। उत्पादन के साधन में परिवर्तन के साथ मानव के स्वभाव में भी परिवर्तन होता है। जब-जब समय का परिवर्तन होता है, समाज की संरचना में भी परिवर्तन होता है। आज संयुक्त परिवार का विघटन हो गया है। एकाकी परिवार का प्रचलन है। व्यक्ति-व्यक्ति का संबंध अलग हो गया है। परिवार के अंदर भी आपसी संबंध में भी तनाव परिलक्षित है। पति-पत्नी का संबंध, मां-बाप के साथ बच्चे के संबंध में सहयोग, विश्वास आदि की भावना भी क्षतिग्रस्त हो गई है। लोग आत्मकेन्द्रीत होते जा रहे हैं। मानव मूल्य में परिवर्तन आ गया है। स्वार्थ की बोलबाला है। आज धन ही सर्वोपरि हो गया है। आपसी सामाजिक संबंध विलीन हो गए हैं।

समाज तीन वर्गों उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग में बंटा हुआ है। आधुनिक चिंतक मार्क्स ने मध्यम वर्ग को बुर्जुआ या सर्वहारा कहा। इस पेटी बुर्जुआ (मध्य वर्गी) की जीवनधारा अत्यंत विचित्र हो गई है। पूंजीपती या शोषक वर्ग का ध्येय है – लाभ कमाना, समाज में बिखराव लाना, समाज में एकता को नहीं लाने देना, सरकार को अपने वश में करना। निम्न वर्ग का एकमात्र उद्देश्य है किसी तरह जीवन यापन करना। मध्य वर्ग जहां एक ओर सामाजिक मान्यता में विश्वास रखता है वही उसमें बाहरी आडंबर, दिखावे की भावना भी है और वह पुराने मूल्य को नहीं स्वीकार करना चाहता है। अपने स्वजनों को अपना कहने में वह आनाकानी करता है। बाह्य आडंबर में जीना उसकी आदत बन गई है और वह धारती पर रहकर आकाश की बात करता है। व्यक्तिगत परिवार (Nucleus Family) में अविश्वास, संत्रास, हतोत्साह, खालीपन, अकेलापन आज की हक़ीक़त है। इसकी सबसे बड़ी विडंबना है – मनुष्य अपने को हमेशा अकेला पाता है। यही अकेलापन मनुष्य को बोध कराता है कि वह आधा है, अधूरा है। वह अपने को पूर्ण करने की तलाश करता है। यही बिखराव, खास कर स्त्री-पुरुष के संबंध में, मोहन राकेश के नाटकों आषाढ का एक दिन, लहरों का राज हंस, आधे-अधूरे में देखने को मिलता है।

‘आधे-अधूरे’ आधुनिक मध्यवर्गीय, शहरी परिवार की कहानी है। इस परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने को अधूरा महसूस करता है। हर सदस्य अपने को पूर्ण करने की चेष्टा करता है। परिवार में पति-पत्नी, एक पुत्र और दो बेटियां हैं। पत्नी के चार मित्र हैं। महेन्द्रकांत बिज़नेसमैन है। उसे व्यापार में असफलता हाथ लगती है। पत्नी सावित्री पति के पास काम नहीं रहने की वजह से नौकरी करने घर से बाहर निकलती है। उसे तब पति में दायित्वबोध की कमी नज़र आती है। उसे लगता है कि वह सबसे बेकार आदमी है। वह सम्पूर्ण मनुष्य नहीं है। बाहर निकलने पर सावित्री की मुलाक़ात चार लोगों से होती है। एक है धनी व्यक्ति, वह मित्र स्वभाव का है औ सज्जन व्यक्ति है। दूसरा डिग्री धारी व्यक्ति शिवदत्त है जो सारे संसार में घूमता रहता है। वह एकनिष्ठ नहीं है। तीसरा सामाजिक व्यक्ति है, मनोज। वह सावित्री से दोस्ती तो गांठता है पर उसकी बेटी से प्रेम विवाह करता है। और चौथा व्यक्ति एक व्यापारी है। वह चालाक और घटिया किस्म का आदमी है। चालीस वर्षीय सावित्री जिसके चेहरे पर अभी भी चमक बरकरार है, अपनी ज़िन्दगी के ख़ालीपन को भरने के लिए एक सम्पूर्ण पुरुष की तलाश में रहती है। इस क्रम में वह इन पुरुषों के सम्पर्क में आती है। इनसे संबंध बनाकर भे उसे पूर्णता का अहसास नहीं होता। हर व्यक्ति अपने-अपने ढ़ंग से अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए उसका उपयोग करता है।

पहला व्यक्ति मित्र ढ़ंग का है। अपनी पत्नी से उसका पटता नहीं है। पत्नी को छोड़कर वह सावित्री के साथ संबंध बनाता है। जब बीमार होता है तो फिर सावित्री के पास से वापस पत्नी के पास चला जाता है।

मनोज मित्रता तो करता है सावित्री से पर सावित्री की बेटी को अपने प्रेमपाश में बांध कर उसके साथ भागकर शादी रचाता है। जब बेटी को अहसास होता है कि उसने जिस चाहत से मनोज को अपनाया था वह पूरी नहीं हो रही तो वह भी वापस मां के पास लौट आती है।

छोटी बच्ची मुंहफट है। मां-बाप के बीच संबंधों का तनाव बच्चों पर भी पड़ता है। बड़ी बेटी को मां से कोई सहानुभूति नहीं है। छोटी बेटी अश्लील उपन्यासों में रमी रहती है। मुंहफट तो है ही। लड़कों से संबंध बनाने को इच्छुक रहती है। बेटे में भी असंतोष की भावना घर किए हुए है। उसके मन में समाज के प्रति विद्रोह की भावना है। मां-बाप के प्रति भी विद्रोह की भावना है। तीनों संतान आधुनिक परिवेश की उपज हैं। परिवार के तनाव और माता-पिता के संबंधों के कारण उनमें ऐसी भावना घर कर गई है।

नाटक के अंत में सभी पात्र एक-एक कर घर वापस लौट आते हैं। सावित्री शिवदत्त के घर से निकल पड़ती है। शिवदत्त उसे नहीं रोकता। लौट कर वह घर चली आती है। महेन्द्रकांत भी अपने मित्र के यहां से लौट आता है। बेटी भी आ जाती है।

इस नाटक में आपस का तनाव, आना-जाना के रूप में कई प्रकार की मनोवृत्ति का अनावरण हुआ है। जैसे स्वतंत्रता की भावना को दिखया जाना। यह अंत में साबित होता है कि वे स्वतंत्र रहकर भी पारिवारिक बंधन में बंधे हैं। एक प्रकार के ख़ालीपन की भावना लोगों के जीवन के अधूरेपन को दर्शाता है। इस अधूरेपन को पूर्ण करने के लिए वे अन्य लोगों से सम्पर्क करते हैं। इसमे यह भी दिखाया गया है कि अर्थिक विपन्नता से परिवार में बिखराव आ जाता है। यह संदेश भी दिया गया है कि जब नारी मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयास करती है और उसे स्वतंत्रता मिलती है तो किस प्रकार वह परिवार को भुला देती है। स्त्री-पुरुष का संबंध मर्यादित होता है। उन्मुक्त काम भावना से यह मर्यादा समाप्त हो जाती है। उसे पूर्ण करने के लिए विभिन्न प्रकार के पुरुषों से सम्पर्क साधती है। पुरुष-प्रधान समाज से नारी मुक्ति के प्रश्न को भी उठाया गया है। नारी स्वतंत्र तभी हो सकती है जब वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो। इस अर्थ-संग्रह की भावना उसमें अनुशासनहीनता लाती है। मानव-मूल्य समाप्त होता है। पारिवारिक सुख-शांति समाप्त होती है। इस नाटक में बड़े प्रभावी तरीक़े से दिखाया गया है कि किस प्रकार से स्त्री-पुरुष संबंध बन और बिगड़ रहा है। अंत में यह बताया गया है कि परिवार ही वह धूरी है जो सबको बांधे है। परिवार रूपी संस्था ही एक प्रकार से जीवन को अनुशासित रखती है। आज प्रत्येक परिवार में कलह है। उच्छृंखलताएं, अनुशासनहीनता जो समाज और परिवार में दिख रही हैं उसका मुख्य कारण है समाज का उद्योगीकरण और भौतिकवादी स्वभाव। लेखक यह संकेत देता है कि हमारा जीवन किस ओर जा रहा है? यह एक प्रकार के अदिम अवस्था की ओर जा रहा है। हम लोग एक सभ्य आदिम समाज की ओर बढ़ रहे हैं। फिर भी लेखक आशावादी है। एक प्रकार की आशा है। परिवार यदि अनुशासित हो तो बिखराव से बच सकता है।

***

पुस्तक का नाम

आधे-अधूरे

रचनाकार

मोहन राकेश

प्रकाशक

राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

संस्करण

प्रथम संस्करण : 2008

मूल्य

160 clip_image002

पेज

119

पुराने पोस्ट के लिंक

1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7.मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18.गुडिया भीतर गुड़िया 19.स्मृतियों में रूस 20. अक्षरों के साये 21. कलामे रूमीपुस्तक परिचय-22 : हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श पुस्तक परिचय-23 : बच्चन के लोकप्रिय गीत पुस्तक परिचय-24 : विवेकानन्द 25. वह जो शेष है 26. ज़िन्दगीनामा 27. मेरे बाद 28. कब पानी में डूबा सूरज 29. मुस्लिम मन का आईना

शनिवार, 12 मई 2012

पुस्तक परिचय-29 : मुस्लिम मन का आईना


पुस्तक परिचय-29 : मुस्लिम मन का आईना

मनोज कुमार

एक बेहतर हिन्दू-मुस्लिम संबंधों और लोगों के बीच सहिष्णुता के वातावारण के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि मुसलमान हिन्दुओं के और हिन्दू मुसलमानों के मानस को समझें। इसी उद्देश्य को केन्द्र में रखकर श्री राजमोहन गांधी ने “मुस्लिम मन का आईना” पुस्तक लिखी है। 1984-85 में यह पुस्तक लिखी गई थी और 1986 में अमरीका से “अंडरस्टैंडिंग द मुस्लिम माइंड” नाम से प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक का अनुवाद अरविन्द मोहन ने किया है।

राजमोहन गांधी महात्मा गांधी के पोते हैं। उनके पिता श्री देवदास गांधी हिन्दुस्तान टाइम्स के प्रबन्ध सम्पादक थे। उनके नाना श्री सी. राजगोपालाचारी स्वन्तन्त्र भारत के पहले गवर्नर जनरल थे। सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़, नई दिल्ली में रिसर्च प्रोफेसर श्री राजमोहन गांधी ने न सिर्फ़  गांधी जी, राजा जी, सरदार पटेल की जीवनी लिखी है बल्कि भारतीय स्वन्त्रता संग्राम के नायकों, भारत-पाक संबंध और मानवाधिकार पर विस्तारपूर्वक लिखा है।

श्री राजमोहन गांधी द्वारा लिखी गई “मुस्लिम मन का आईना” एक विशिष्ट पुस्तक है जो हिन्दू-मुस्लिम संबंधों के विषय में हमें जागरूक करती है, ऐसे प्रश्नों को लेकर सार्थक चिन्तन और उत्तर प्रस्तुत करने का प्रयास करती है जो आज तक अनुत्तरित हैं।

इस पुस्तक में भारत और पाकिस्तान के आठ प्रसिद्ध मुस्लिम नेताओं के जीवन को रेखांकित किया गया, उनके कहे-अनकहे पहलुओं को हमारे सामने लाया गया है। ये लोग हैं सैयद अहमद ख़ान, मुहम्मद इक़बाल, मुहम्मद अली, मुहम्मद अली जिन्ना, फज़्लुल हक़, अबुल कलाम आज़ाद, लियाक़त अली ख़ां, ज़ाकिर हुसैन। लेखक ने इन हस्तियों की जो इस माध्यम से कई ही-अनकही बातों को कहा है, उसे कानों के साथ-साथ दिल से भी सुनने की अपेक्षा रखी जाती है। लेखक खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनपर ‘छद्म-धर्मनिर्रपेक्षतावादी’ होने का लेबिल लगाया जा सकता था, लेकिन निष्ठावान हिन्दूओं द्वारा भी इस पुस्तक की प्रशंसा की गई है।

यह पुस्तक हमारे मन में बनी मुसलमानों के प्रति उन सभी भ्रान्त धारणाओं को वैचारिक स्तर पर तोड़ती है जिन्हें हम तथा कथित “इतिहास” के रूप में जानते आए हैं। इतिहास कभी आपसी द्वेष और शंकाओं को खतम नहीं कर पाया। लेखक का मानना है कि एक उदार और जहां तक सम्भव हो सके इतिहास के प्रति एक ग़ैर-पक्षपातपूर्ण नज़रिया हमें कम से कम हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के रास्ते की रुकावटों के बारे में बता सकता है और साथ ही यह बता सकता है कि इतिहास में क्या कुछ ग़लत हुआ था और क्यों, जो कि हमें इन बाधाओं को समाप्त करने में मददगार हो सकता है।

हिन्दू और मुसलमानों की मानसिक संरचना में कितनी एकरूपता है और कितनी भिन्नता, तथा दोनों ही समुदाय हर पहलू से कितने एक-दूसरे के नज़दीक हैं, यह पुस्तक हमें विस्तार से बताती है। लेखक के अनुसार ‘यदि हम उस समय का अध्ययन करें जब दूसरा पक्ष भी उदार-हृदय था और उस समय का जब हमने भी संकीर्ण नज़रिया अपनाया था, यह चेतना, चाहे हम मुसलमान हों या हिन्दू, हमारे द्वेष को कम कर सकती है। तब जाकर कहीं इतिहास हमें राष्ट्रीय और उपमहाद्वीपीय पारस्परिक समझ दे पाएगा।”

यह पुस्तक हमें अत्यंत विनम्रता से उन ज़िन्दगियों को समझाने का प्रयास करती है जिनके विषय में हम जानते हुए भी बहुत कम जानते हैं। पुस्तक परिचय के इस अंक को समाप्त करते हुए, इसी पुस्तक के “निष्कर्ष” अध्याय की कुछ पंक्तियां कोट करना चाहूंगा,
“ये ज़िन्दगियां न हिन्दू-मुस्लिम सह-अस्तित्व को नकारती हैं, न ही उसका भरोसा दिलाती हैं, यद्यपि यह महत्वपूर्ण है कि एक या दूसरे समय में इन आठों में से सभी का इस पर विश्वास था।…”

इसे एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए।
***


पुस्तक का नाम
मुस्लिम मन का आईना
रचनाकार
राजमोहन गांधी
 प्रकाशक
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण
प्रथम संस्करण : 2008
मूल्य
450
पेज
400


पुराने पोस्ट के लिंक 


1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7.मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18.गुडिया भीतर गुड़िया 19.स्मृतियों में रूस 20. अक्षरों के साये 21. कलामे रूमीपुस्तक परिचय-22 : हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श पुस्तक परिचय-23 : बच्चन के लोकप्रिय गीत पुस्तक परिचय-24 : विवेकानन्द 25. वह जो शेष है 26. ज़िन्दगीनामा 27. मेरे बाद 28. कब पानी में डूबा सूरज

शनिवार, 5 मई 2012

पुस्तक परिचय-28 : कब पानी में डूबा सूरज


पुस्तक परिचय-28

कब पानी में डूबा सूरज

मनोज कुमार
गीत बने बैसाखी अपनी
जब भी घोर निराश हुआ मन
पिला गये कुछ अमृत जैसा
भूल गया सब विपदायें तन।
इन पंक्तियों के रचनाकार श्री बी.एल. गौड़ के काव्य-संग्रह “कब पानी में डूबा सूरज” से आज हम आपका परिचय कराने जा रहे हैं। इस संग्रह से पहले इनके तीन काव्य-संग्रह ‘थोड़ी सी रोशनी’, ‘काव्याकृति’ और ‘आखिर कब तक’ और मीडिया पर एक पुस्तक ‘लोकतंत्र में खोया लोकतंत्र’ प्रकाशित हो चुके हैं। इस संकलन में इनके अधिकांश गीत आत्मानुभूति व्यंजक हैं। उनके गीत प्रेमानुभूतिपरक तो हैं, पर इनमें प्रेम है तो सिर्फ़ घटना बनकर नहीं है, मांसल और शारीरिक अतृप्ति की चीख-पुकार बनकर नहीं। परिवर्तन की बात है तो वह सिर्फ़ रस्मी जोश तक नहीं है। ये सब कुछ इनकी रचनाओं में बुनियादी सवालों से टकराते हुए है। गौड़ की लेखनी से जो निकला है वह दिल और दिमाग के बीच खींचतान पैदा करता है।
पाँखुरी की देह पर
कुछ ओस के कण देखकर
एक पल को यों लगा
ज्यों किसी ने थाम कर आँसू किसी के
ला बिखेरे फूल पर।

संग्रह में कुल 71 रचनाएं हैं। अधिकांश रचनाएं गीत और छन्दोबद्ध हैं साथ ही कुछ रचनाएं मुक्तछन्द में लिखी गई हैं। संग्रह की शुरुआत ‘सरस्वती वन्दना’ से हुई है, जिसे पढ़कर बरबस ‘निराला’ के ‘वर दे ..’ की याद आ जाती है।
असमय जहां पुष्प मुरझायें
मेरे पांव वहीं रुक जायें
किसी नयन से अश्रु ढलें तो
मेरी आंखें भी भर आयें
अपने सब साधक-भक्तों की
वाणी को कल्याणी कर दे।
हे मां! तू कुछ ऐसा वर दे
कण्ठ-कण्ठ में नवरस भर दे।

राग-संवेदना का इस संग्रह की कविताओं में ऐसा सहकार है जो बड़े-बड़े कवियों में दिखता है। कवि वही बड़ा होता है जो सामान्य भाषा की शक्ति-सामर्थ्य को कई गुना बढ़ा सकता है, जहां उसकी भाषा ही काव्य हो जाती है। उसका गद्यात्मक संगठन भी कवितापन से सिक्त हो जाता है। इनकिइ कविताओं में मार्मिक स्पर्श उसकी बुनावट में चार-चांद लगा देते हैं।
काश! मैंने
तुम्हारी हथेली पर बना
एक अनजान द्वीप का नक्शा
पढ़ लिया होता
तो इतिहास कुछ और होता
न तुम पीर सहते
न मैं दर्द ढोता।

इस संग्रह को  पढ़कर ऐसा लगा मानों कवि की अनुभूति, सोच,  स्मृति और स्‍वप्‍न सब मिलकर काव्‍य का रूप धारण कर लिया हो। विचार कहीं ऊपर से चिपकाए नहीं लगते  इसलिए कविताओं में कई पैबंद या झोल नहीं है।
रेत पर कुछ स्वप्न मैं रचता रहा हूं
तर्जनी से गीत इक लिखता रहा हूं
पर अचानक  लहर क्रोधित हो गई क्यों
मैं अभी तो पंक्ति अंतिम लिख रहा हूं
सिर्फ़ जल के अब बचा कुछ भी नहीं है
फिर स्वयं से पूछता हूं मैं कहां हूं।

बी.एल. गौड़ के लेखन में अभिव्यक्ति की सहजता, भाषा की सादगी, प्रसंगानुकूल शब्‍दों का खूबसूरत चयन, जिनमें ग्राम व लोक जीवन के व्‍यंजन शब्दो का प्राचुर्य है। ये कवि की भाषिक अभिव्‍यक्ति में गुणात्‍मक वृद्धि करते हैं। कविता में लोकजीवन के खूबसूरत बिंब कवि के काव्‍य-शिल्‍प को अधिक भाव व्‍यंजक बनाते हैं। 
गाँव छूटे, खेत छूटे,
बालपन के मीत छूटे
सावनी मल्हार छूटी
शुभ लगन के गीत छूटे।
कौन सी मजबूरियां थी
खींच लायीं जो शहर को
क्या कभी हम भूल पाये
नीम छनती दोपहर को
अब हिरन-सा हो गया मन
दूर तक भरता कुंलाचें
किंतु मिलते ताल झूठे

उनकी काव्य संवेदना जहां एक तरफ़ गांव की मिट्टी में रची-बसी है वहीं दूसरी तरफ़ अभिजात शहरी सम्भ्यता को भी दर्शाती है। सहृदय कवि मन से जब आवाज़ फूटती है तो सामाजिक गरिमा का दर्द प्रस्फुटित होता है। उस पर से भाषा का माधुर्य छन्द-लय के सहज प्रवाह के साथ एक नए तेवर के साथ हमारे सामने आता है।
यहां की भीड़ करती प्रश्न
कौन हो तुम नाम क्या है
अजनबी से लग रहे तुम
इस शहर में काम क्या है
इससे पहले कि मैं
इस भीड़ का हिस्सा बनूं
सुन मेरे पारद सरीखे मन
लौट चल तू फिर उसी परिवेश में
तीर नदिया के जहां पर
नृत्य करते मोर
स्वर्ण की चादर लपेटे
धीरे बहुत धीरे सरकती भोर
और सारस ताल में डुबकी लगाकर
आ किनारे फड़फड़ाते पर।

इस संग्रह से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि कविताएं अतिशय भावुकता से लवरेज़ हैं जिसके कारण शब्द विगलित हो जा रहे हैं। अधिकांश कविताओं में भावुकता के साथ-साथ चिंतन का परिमाण जिस अनुपात में होना चाहिए उसमें संतुलन की मुझे कमी नज़र आती है। ऐसा लगता है कि श्री गौड़ जब कविता लिखते हैं तो अपनी ही रौ में बहे चले जाते हैं, लेकिन अभी की स्थिति में ऐसा संभव नहीं है। फिर भी एक बात तो निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि गौड़ जी की कविताओं में छायावाद का उच्छ्वास और प्रगतिवाद की ललक का सम्मिश्रण दिखता है और इस आधार पर हम कह सकते हैं कि गौड़ जी की कविता का सूरज कभी पानी में नहीं डूबने पायेगा।
***  ***  ***

  
पुस्तक का नाम
कब पानी में डूबा सूरज
रचनाकार
बी.एल. गौड़
प्रकाशक
ज्योतिपर्व प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण
प्रथम संस्करण : 2012
मूल्य
99 clip_image002
पेज
127


पुराने पोस्ट के लिंक 

1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7.मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18.गुडिया भीतर गुड़िया 19.स्मृतियों में रूस 20. अक्षरों के साये 21. कलामे रूमीपुस्तक परिचय-22 : हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श पुस्तक परिचय-23 : बच्चन के लोकप्रिय गीत पुस्तक परिचय-24 : विवेकानन्द 25. वह जो शेष है 26. ज़िन्दगीनामा 27. मेरे बाद