सोमवार, 4 जून 2012

कुरुक्षेत्र ... सप्तम सर्ग .... भाग --3 / रामधारी सिंह दिनकर



भीष्म युद्धोपरांत धर्मराज युधिष्ठिर  को संबोधित करते हुए  कह रहे हैं ---


धर्मराज  , यह भूमि किसी की 
नहीं  क्रीत  है दासी 
हैं जन्मना समान परस्पर 
इसके सभी निवासी । 

है सबको अधिकार मृत्ति का 
पोषक - रस पीने का 
विविध अभावों से अशंक हो - 
कर जग में जीने का । 

सबको मुक्त प्रकाश चाहिए , 
सबको मुक्त समीरण, 
बाधा - रहित  विकास , मुक्त 
आशंकाओं से जीवन । 

उद्भिज - निभ  चाहते सभी नर 
बढ्न मुक्त गगन में 
अपना चरम विकास खोजना 
किसी प्रकार भुवन  में । 

लेकिन , विघ्न  अनेक अभी 
इस पाठ में पड़े हुये हैं 
मानवता की राह रोक कर 
पर्वत  अड़े  हुये हैं । 

न्यायोचित  सुख सुलभ नहीं 
जब तक मानव - मानव को 
चैन  कहाँ धरती पर , तब तक 
शांति कहाँ इस भाव को ? 

जब तक मनुज - मनुज  का यह 
सुख भाग नहीं  सम  होगा 
शमित न होगा  कोलाहल 
संघर्ष  नहीं कम होगा । 

था पाठ सहज अतीव , सम्मिलित 
हो समग्र सुख पाना 
केवल अपने लिए  नहीं 
कोई सुख - भाग चुराना । 

उसे भूल नर फंसा परस्पर 
की शंका में , भय में , 
निरत हुआ  केवल अपने ही 
हेतु भोग संचय में । 

इस वैयक्तिक  भोगवाद  से 
फूटी विष  की  धारा , 
तड़प रहा जिसमें पड़ कर 
मानव - समाज यह सारा । 

प्रभु के दिये हुये सुख  इतने 
हैं विकीर्ण धरणी  पर 
भोग सकें जो ,जगत में , 
कहाँ अभी इतने नर ? 

भू से ले अंबर तक यह जल 
कभी न घटने वाला , 
यह प्रकाश , यह पवन  कभी भी 
नहीं सिमटने वाला । 

यह धरती फल , फूल , अन्न , धन -
रत्न उगलने वाली 
यह पालिका मृगव्य  जीव की 
अटवी  सघन निराली । 

तुंग शृंग ये शैल कि जिनमें 
हीरक - रत्न  भरे हैं , 
ये समुद्र जिनमें मुक्ता 
विद्रुम  , प्रवाल बिखरे हैं । 

और मनुज की  नयी नयी 
प्रेरक  वे  जिज्ञासाएँ !
उसकी वे सुबलिष्ठ , सिंधु मंथन 
में दक्ष  भुजाएँ । 

अन्वेषणी बुद्धि वह  
तम में भी टटोलने  वाली , 
नव रहस्य , नव रूप प्रकृति का 
नित्य  खोलने वाली । 

इस भुज , इस प्रज्ञा  के सम्मुख 
कौन ठहर सकता है ? 
कौन विभव वह , जो कि  पुरुष को 
दुर्लभ  रह सकता है ? 

इतना कुछ है भरा विभव  का 
कोष  प्रकृति  के भीतर 
निज इच्छित  सुख - भोग सहज 
ही पा सकते नारी - नर । 

क्रमश: 

प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग –२

द्वितीय  सर्ग  --- भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 

तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२

चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 




षष्ठ  सर्ग ---- भाग - 1भाग -2 / भाग -3 / भाग -- 4

सप्तम सर्ग ---भाग -- 1


7 टिप्‍पणियां:

  1. धर्मराज , यह भूमि किसी की
    नहीं क्रीत है दासी
    हैं जन्मना समान परस्पर
    इसके सभी निवासी ।

    आज भी भीष्म पितामह की यह बात लागू होती है। आपका यह पोस्ट हमें बहुत कुछ सीख प्रदान करता है । धन्यवाद ।

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  2. आपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार 29/5/12 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |

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  3. सब को मुक्त हवा और प्रकाश चाहिए - इसी उद्देश्य से महाभारत हुआ।

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  4. कुरुक्षेत्र के धारावाहिक प्रसंग के साथ मनोज पर ९५० वीं पोस्ट की भी बधाई .आप बढ़िया काम यूं ही करते रहेंगे तो हम क्यों नहीं आयेंगे दौड़ दौड़ के ?

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