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रविवार, 24 अक्टूबर 2010

कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े !

कहानी ऐसे बनी-९

गोनू झा मरे! गाँव को पढ़े!

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमा

राम-राम हजूर! देखते ही देखते सप्ताह बीत गया और फिर आ गया रविवार कहानी ऐसे बनी का दिन! अब क्या बताएं, आज सुबह-सुबह ब्लॉग पर आए तो ऐसा  अमोल बोल देखे कि गाँव की एक पुरानी कहावत याद आ गयी। हमारे मिथिलांचल में कहते हैं 'गोनू झा मरलथि ! सौंसे गाम जंचलथि!!' अर्थात्‌ 'गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े !!'

आपको गोनू झा के किस्से तो मालूम ही होंगे। यदि नहीं मालूम है तो कोई बात नहीं। हम फिर से कह देते हैं। वही कमला-बलान के किनारे मिथिला का प्रसिद्ध गाँव है, भरवारा। उस गांए के  बड़े पोखर के सामने जो ऊंचा आवास है न.... वह गोनू झा का ही है। गोनू झा की चालाकी के किस्से तो मिथिलांचल क्या अगल-बगल के क्षेत्र में भी एक युग से प्रचलित है। गोनू झा किसी स्कूल-कॉलेज में पढ़े नहीं. थे .. वे तो मिथिला का एक सीधा-सादा किसान थे। लेकिन हाज़िरजवाबी और चतुराई में बड़े-बड़े विद्वान को धूल चटा देते थे।

अब तो गाँव की बात पता ही है। उनकी चालाकी से भी सभी गाँव वाले जलते थे लेकिन मुंह पर उनका 'फैन' बने फिरते थे। पर गोनू झा की छठी बुद्धि को शक था कि लोगो के प्यार में कुछ झूठ मिश्रित है। वे बहुत दिनों से गाँव-घर के लोगों के अनमोल प्यार की परीक्षा लेने का प्लान बना रहे थे। अगर बात सिर्फ गाँव वालों की ही होती तब तो गोनू झा अपने जोगार टेक्नोलोजी से उनको तुरत फिट कर देते। मगर उनको तो अपने घर के लोगों की बातों में भी मिलाबट की महक आती थी। सो उन्होंने सोचा कि क्यूँ न सबका एक ही 'कॉमन टेस्ट एग्जाम' ले लिया जाय।

बहुत सोच-विचार कर झा जी एक दिन सुबह में उठे ही नहीं! सूरज चढ़ गया छप्पर के ऊपर मगर गोनू झा बिछावन नहीं छोड़े। तब ओझाइन को थोड़ा अंदेशा हुआ। गयी जगाने तो यह क्या ....  हे भगवान .... अरे बाप रे बाप...!!! झा जी के मुंह से तो झाग निकला हुआ था और बेचारे बिछावन से गिरकर नीचे एक कोने में लुढ़के पड़े थे। ओझाइन तो लगी कलेजा पीट के वहीं चिल्लाने। बेटा भी माँ की आवाज़ सुन कर बाबू के कमरे में आया। वहाँ का नजारा देख कर उसका कलेजा भी दहल गया। वह भी लगा फफक-फफक कर रोने।

इधर ओझाइन कलेजे पर दोनों गाथ मार-मार कर चिल्ला रही हैं,.... उधर बेटा कहे जा रहा है कि हमारा सब कुछ कोई लेले बस हमारे बाबूजी को लौटा दे। इस महा दुखद खबर सुन कर गोनू झा से उनको मरणोपरांत अपने खर्चा पर गंगा भेजने का वादा करने वाले मुखिया जी भी पहुँच गए। गोदान का भरोसा दिलाने वाले सरपंच बाबू भी। लगे दोनों जने झा जी के बेटे को समझाने। "आ..हा...हा... ! बड़े परतापी आदमी थे। पूरे जवार में कोई जोर नहीं। अब विध का यही विधान था।"

उधर ज़िन्दगी भर झा जी का चिलमची रहा अकलू हजाम औरत महाल में ज्ञान बाँट रहा है। 'करनी देखो मरनी बेला !' देखा गोनू झा जैसे उमर भर सब को बुरबक बनाते रहे वैसे ही चट-पट में अपना प्राण भी गया। सारा भोग बांक़ी ही रह गया।'

सरपंच बाबू ओझाइन को दिलासा दिए, 'झा जी बहुत धर्मात्मा आदमी थे। सीधे स्वर्ग गए। अब इनके पीछे रोने-पीटने का कोई काम नहीं है। कुछ रुपया-पैसा रखे हैं तो गौदान करा दीजिये। बैकुंठ मिलेगा।'

उधर मुखिया जी उनके बेटे को बोले, जल्दी करो भाई, घर में लाश अधिक देर तक नहीं रहना चाहिए। ऊपर से मौसम भी खराब है। प्रभुआ और सीताराम को तुम्हारे गाछी में भेज दिया है पेड़ काटने। जल्दी से ले के चलो। फिर दो आदमी से पकड़ कर झा जी को कमरे से बाहर निकालने लगे। लेकिन गोनू झा कद काठी के जितने ही बड़े थे उनके घर का दरवाजा उतना ही छोटा था। अपनी जिन्दगी में तो झा जी झुक कर निकल जाते थे। लेकिन अभी लोग बाहर कर ही नहीं पा रहे थे। तभी मोहन बाबू कड़क कर बोले, “अरे सुरजा बढई को बुलाओ। दरवाजा काट देगा।”

सूरज तुरत औजार-पाती लेकर हाज़िर भी हो गया। तभी झा जी का बेटा बोल पड़ा, 'रुको हो सूरज भाई ! बाबू जी तो अब रहे नहीं। उन्होंने बड़े शौक से यह दरवाजा बनवाया था। इसे काटने से उनकी आत्मा को भी तकलीफ होगी। अब तो वे दिवंगत हो गए। शरीर तो उनका रहा नहीं। इसलिए उनके पैर को बीच से काट कर छोटा कर दो। फिर आराम से निकल जायेंगे।'

images (3) ‘हूँ’ कर के सूरज बढई जैसे ही झा जी के घुटने पर आरी भिड़ाया कि गोनू झा फटाक से उठ कर बैठ गए.... और बोले “रुको! अभी हम मरे नहीं हैं। वह तो हम तुम सब लोगों की परीक्षा ले रहे थे कि मुंह पर ही खाली अपने हो कि मरने के बाद भी।”

अब तो सरपंच बाबू, मुखिया जी, अकलुआ हजाम, सूरज बढ़ई और उनका अपना बेटा... सब का मुंह बासी जलेबी की तरह लटक गया। आखिर सब की कलई जो खुल गयी थी। गोनू झा तो नकली मर के असली जी गए लेकिन तभी से यह कहावात बन गयी कि "गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े !!"

मतलब बुरे वक़्त में ही हित और अहित की पहचान होती है।

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?"

कहानी ऐसे बनी– 6

"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?"

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

मित्रों ! हम आपका स्वागत कर रहे हैं कहानी ऐसे बनी शृंखला के साथ। इस शृंखला में यूँ तो हमेशा आपको अपने गाँव घर ले जाते रहे हैं लेकिन सोचा इस बार आपको माया नगरी मुंबई की सैर करा दें।

बचपन में बाबा एक कहावत कहते थे, "बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" हम ने कहा, "बाबा ! यह कौन बड़ी बात है ? बिल्ली पकड़ कर आप लाइए घंटा तो हम  बाँध ही  देंगे !!" तब बाबा ने हमें इस कहाबत का किस्सा सुनाया। आप भी पहले यह किस्सा सुन लीजिये फिर मुंबई चलेंगे।

हमारे गाँव मे एक थे धनपत चौधरी! उनका एक बड़ा-सा खलिहान था। उस में अनाज-पानी तो जो था सो था ही, ढेरो चूहे भरे हुए थे। खलिहान में कटाई-खुटाई के मौसम ही लोग-बाग़ जाते थे वरना वहाँ चूहाराज ही था। चूहे दिन-रात कबड्डी खेलते रहते थे। धनपत बाबू ने एक मोटी बिल्ली पाल रखी थी। वह बिल्ली दिन-दोपहर कभी भी चुपके से खलिहान में घुस जाती थी और झट से एक चुहे का 'फास्ट-फ़ूड' कर के आ जाती थी।

एक दिन चूहों ने मीटिंग बुलाई। उसमें यह कहा गया कि यार हम लोग इतने चूहे हैं और बिल्ली एक … फिर भी कमबख्त जब चाहती है तब हम लोगों को अपना शिकार बना लेती है... कुछ तो उपाय करना पड़ेगा। मसला तो बहुत गंभीर था। सो बहुत देर तक 'भेजा-फ्राई' के बाद बूढा चूहा बोला, "देखो बिल्ली से हम लोग लड़ तो नहीं सकते लेकिन बुद्धि लगा के बच सकते हैं। क्यूँ न बिल्ली के गले में एक घंटी बाँध दी जाए ?? इस तरह से जब बिल्ली इधर आयेगी घंटी की आवाज़ सुन कर हम लोग छुप जायेंगे।"

अरे शाब्बाश....!!!! सारे चूहे इस बात पर उछल पड़े। लगा कि जीवन वीमा ही हो गया। लेकिन चूहों का सरदार बोला, 'आईडिया तो सॉलिड है पर बिल्ली के गले मे घंटी बांधेगा कौन ?'

बूढा चूहा तो सबसे पहले पीछे हट गया। जवान भी और बच्चे भी ! कौन पहले जाए मौत के मुंह में ... ? कौन घंटी बांधे...? थे तो सब चूहे... ! सो रोज अपनी नियति पर मरते रहे। समझे... !

फिर बाबा ने हमें समझाया कि निरंकुश अत्याचारी के खिलाफ जब किसी मे चुनौती लेने कि हिम्मत न हो तो कहते हैं, "बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे?" लेकिन क्या बताएं.... समय के साथ यह कहावत और इसका मतलब सब धुंधला होता जा रहा था। लेकिन धन्य हो माया-नगरी ! एक बार फिर यह कहावत चल पड़ी।

हालांकि मुंबई मे तो चालीस साल से बिल्ली के गले मे घंटी बाँधने का प्लान हो रहा है... और दो-चार बिल्लियां तो पूरे देश में फैली हुई है.... लेकिन वही बात... कि उनके गले में घंटी बांधे कौन....? उस दिन तो टीवी पर समाचार का फुटेज देख कर बाबा का किस्सा सोलहो आने याद आ गया हमें। अरे वही बड़का खलिहान था... भला नाम उसका विधान सभा रखा हुआ था.... वहाँ भी बहुत सारे चूहे भरे हुए थे.... किस्म-किस्म के ! वहीं पर बिल्ली भी कान खरा कर के घात लगा रही थी। जैसे ही एक चूहा 'हिन्दी' में बोला...... बस हो गया 'हर-हर महादेव' ! फिर चूहों की मीटिंग बैठी.... लेकिन सवाल वही कि "बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे ?"खलिहान के मालिक धनपत बाबू तो अब रहे नहीं... लेकिन उनका मोख्तार बिल्ली को चार साल तक खलिहान मे घुसने पर रोक लगा दिया है...!!' चलो चूहों को कुछ तो राहत मिली.... लेकिन बिना घंटी बांधे कैसे काम चलेगा.... खलिहान मे नहीं तो खेत मे मरेगा.... आखिर चूहा बन कर बैठे रहने से कब तक निर्वाह होगा... रोज-रोज मरने से बचना है तो बिल्ली के गले मे घंटी तो बांधना ही पड़ेगा... !!"

रविवार, 12 सितंबर 2010

कहानी ऐसे बनी – 3 "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!"

देसिल बयना – 3


"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!"

कवि कोकिल विद्यापति के लेखिनी की बानगी, "देसिल बयना सब जन मिट्ठा !"
दोस्तों हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समतीपुरी।
देसिल बयना (1) 'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!' मतलब आधारविहीन उपयोगिता।
देसिल बयना – (2) 'न राधा को नौ मन घी होगा... !' -- किसी कार्य के लिए अपर्याप्त सामर्थ्य या संसाधनहीनता

गंगा, कमला, बागमती, कोशी और गंडक के प्रसस्त अंचल तिरहुत में एक कहावत है, "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!" अब भी कहावत है तो यूँ ही नहीं है ! कैसे बनी कहावत... क्या है इसका मतलब... यह सब जानने के लिए आपको चलना पड़ेगा मेरे साथ रेवाखंड !

-- करण समस्तीपुरी
तिरहुत के गण्डकी पुर में एक मनोरम गाँव है, रेवाखंड ! उसी गाँव में एक किसान रहता है! उसने एक कुत्ता और एक गधा पाल रक्खा था ! वो अपने जानवरों को बहुत प्यार करता था। जानवर भी अपने मालिक को बहुत चाहते थे। एक दिन किसान की घरवाली कुत्ते को खाना देना भूल गयी! कुत्ता नाराज़ हो गया!
संयोग से उसी रात किसान के घर में कुछ चोर घुस आये ! पर नाराज़ कुत्ता बोला ही नहीं! गधे ने उसे भौंकने को कहा तो उसने जवाब दिया कि उसे खाना नहीं मिला है इसीलिए वह काम नहीं करेगा. लेकिन गधे ने सोचा, "अगर शोर नहीं किया तो मालिक के घर चोरी हो जायेगी। सो वह खुद जोर-जोर से ढेंचू ढेंचू करने लगा। दिन भर का थका मांदा किसान सो रहा था। बेचारा चिढ कर उठा और गधे को दे दना दन... दे दना दन... पीट दिया। गधा चुप हो गया।
सुबह किसान सो कर उठा तो घर का सारा सामान गायब पा कर उसे समझते देर न लगी कि रात गधा क्यूँ ढेंचू ढेंचू कर रहा था। लेकिन अब उसे गुस्सा कुत्ते पे आया ! अगर कुत्ते ने भौंका होता तो चोरी भी नहीं होती और बेचारे गधे को मार भी नहीं पड़ती ! गुस्से में बौखलाया किसान वही रात बाला डंडा उठाया और कुत्ते पर भी दोहरा बजा दिया। गधा समझ नहीं पाया लेकिन आप तो समझदार हो !
तो समझे कि नहि ???
अजी !
भौंकना कुत्ते का काम था लेकिन गधे ने वो किया इसीलिये उस पर डंडे बजे और कुत्ते ने गधे वाला काम किया इसीलिये उसे भी डंडे पड़े ! इसीलिए कहते हैं, “जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे” !!
हा... हा... हा... … !!!                                                                           चित्र आभार गूगल सर्च

रविवार, 5 सितंबर 2010

कहानी ऐसे बनी- 2 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !'

देसिल बयना – 2


'न राधा को नौ मन घी होगा... !'

कवि कोकिल विद्यापति के लेखिनी की बानगी, "देसिल बयना सब जन मिट्ठा !"
दोस्तों हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहा हूँ। प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी !!               - करण समस्तीपुरी
देसिल बयना (1) 'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!'
 मतलब आधारविहीन उपयोगिता।
आइये, आज मैं आपको लिए चलते हैं वृंदा-वन! ये कहानी है, राधा-कृष्ण और व्रज-वनिताओं की। कृष्ण तो अपनी मधुर रास लीला के लिए प्रसिद्ध हैं ही! गोकुल के ग्वाल बाल और बालाओं को कृष्ण से बहुत प्यार था। कृष्ण भी इन के साथ गोकुल की गलियों में खूब धूम मचाते थे।
इधर श्री कृष्ण अपने बाल सखाओं सहित गो चारण को जाते थे, उधर से व्रज बालाएं पानी भरने या दही बेचने के बहाने चल पड़ती थीं यमुना तट। फिर कालिंदी के कूल कदम्ब के डारन और हरे भरे वृन्दावन में शुरू होती थी गोपी-किशन की अलौकिक रास लीला। गोपियाँ कृष्ण- प्रेम की बावली थी। और राधा तो सबसे ज़्यादा। कृष्ण भी राधा से उतना ही प्यार करते थे। पीताम्बर धारी सांवरे जैसे ही अपने अरुण अधर से हरित बांस की बांसुरी लगाते थे तो "इन्द्रधनुष दुति" हो जाती थी। इतना प्रकाश होता था मानो नौ मन घी के दिए जल रहे हों। फिर क्या मुरली की मनोहर धुन एवं दिव्य प्रकाश में गोपियाँ सुध-बुध बिसरा कर नाचने लगती थी।
किंतु एक दिन ऐसा आ ही गया, जब कृष्ण को अपने जन्म का हेतु पूरा करने जाना पड़ा मथुरा.... !! गोकुल की गलियाँ सूनी। वृन्दावन में पतझर। यमुना का जल उष्ण। मनुष्य तो मनुष्य गायें भी बेहाल। अति मलीन वृषभानु कुमारी राधा तो आधा भी नही रही। चन्द्रवदनी का हँसना बोलना सब बंद। सब तो सामान्य हुए या होने की कोशिश करते रहे। लेकिन राधा बेचारी क्या करे? सबो ने समझाया लेकिन राधा नाचे कैसे... ? उसमे तो नृत्य की ऊर्जा आती है श्री कृष्ण के वेनुवादन से निःसृत प्रकाश से। अन्यथा उतने प्रकाश के लिए नौ मन घी के दिए जलाने पड़ेंगे।
इसीलिये लोग कहने लगे न राधा को नौ मन घी होगा, न राधा नाचेगी !!!
कालांतर में उक्ति किसी कार्य के लिए अपर्याप्त सामर्थ्य या संसाधनहीनता के लिए रूढ़ हो गयी।

रविवार, 29 अगस्त 2010

कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश !

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कहानी ऐसे बनी

नयन गए कैलाश !

.करण समस्तीपुरी
हा... हा... हा.... ! राम-राम !! हा... हा....हा... हा.... !!!! अरे बाप रे बाप ... हा... हा... हा... हा... !!! आप भी सोच रहे होंगे कि करण समस्तीपुरी का दिमाग  ख़राब हो गया है क्या.... ? परंतु बात ही ऐसी है कि हंसी रुक ही नहीं रही है.... !!! आप भी सुन के ठहाका लगा ही दीजियेगा.... !
आज-कल तो जिसे देखो वही शहर-बाजार में ही रहने लगा है। आप लोग तो साहब-हुक्मरान हैं। परमानेंट शहरी। सावन-भादों क्या समझ मी आएगा। किन्तु चौमासा आते ही गाँव-घर में अभी भी हरियाली छा जाती है। झमाझम बरसते पानी में सिर पर बिचरा (धान का छोटा पौधा) और काँधे पर कुदाल लिए धानरोपनी के लिए जाते किसान और पीछे से भोजन लेकर चलती उनकी पत्नी.... ! हरे-पीले रंग-बिरंग के मेढक सब टर्र-टायं-टर्र-टायं कर के जो तान छोड़ता है कि आदमी तो आदमी पेड़-पौधों के तरु-शिखा तक नाचने लगते हैं। उस पर से यदि पुरबा हवा चल पड़ी तो, लहरिया लूटो हो राजा... !
चास-धानरोपनी हो गया। घर में लकड़ी-काठी समेटा गया फिर तो मौजा ही मौजा... ! क्या स्त्री और क्या पुरुष.... ! सब मिल-जुल कर जो छेड़-छाड़, हंसी-ठिठोली करते हैं कि मन आनंद से भीग जाता है। ताल-पचीसी , झूला-कजरी, चौमासा के तान मृदंग के थाप और बांसुरी के तान... वाह रे वाह.... समझिये कि पूरा गाँव ही वृन्दावन। नहीं कदम तो बगीचे में आम-कटहल, बरगद-पीपल जो भी मजबूत पेड़ मिल गया उसी में मोटी रस्सी टांग दिए और हो गए शुरू, "झूला लगे कदम के डारि, झूले कृष्ण-मुरारी ना.... !"
उस दिन आधी रात से ही आसमान फार के  मुसलाधार बारिश हो रही थी। हमारे टोले के सभी लोग बर्कुरबा और  खिलहा चौरी में तड़के ही हल-बैल छोड़ दिए थे। दोपहर तक धानरोपनी कर के आ गए। फिर घुघनी लाल की पत्नी और चम्पई बुआ घरक  पूरब वाले बगीचे में झूला का प्लान बनाई।  झिगुनिया और  नौरंगी लाल तुरत रस्सी-गद्दा लेकर बढ़ गए। एक बात तो मालूम ही होगा .... मौसम-बयार कैसा भी हो स्त्रियों को श्रृंगार से मन नहीं भरता। वो गीत में भी कहते हैं न....
"बरसे सावन के रस-झिसी पिया संग खेलब पचीसी ना...  !
मुख में पान,   नयन   में  काजल,   दांत में  मिसी       ना... !!"
बरसात में भी काजल-मेहँदी के बिना बात नहीं बनती।  बिना श्रृंगार के झूला कैसे झूलेगी। ऊपर से यहाँ तो टोला भर की स्त्रियों के बीच फैशन का कम्पेटीशन  होगा। किसकी मेहँदी सज रही थी, किसका पाउडर चमक रहा था। किसकी चुरी खनक रही थी और किसका लपेस्टिक लहक रहा था.... ।
बड़का कक्का के दालान पर टपकू भाई हरमुनिया टेर रहे थे। सुखाई ढोलकी पर ताल दे रहा था और हम भी वहीं मजीरा टुनटुना रहे थे। महिलाओं  का झुण्ड वहीं बन रहा था। पूरा टोला इकट्ठा हो जाए तो झूला झूलने जायेंगे। महिला मंडली के सरदार बड़की काकी ही तो थी। अरे रे रे .... कोई पनिहारन बन के... तो कोई मनिहारन बन के.... कोई गुज़री बन के तो कोई सिपाहन बन के.... सज-धज के आने लगी। किसी की सजावट में एक चुटकी कमी नहीं रहना चाहिए। बड़की काकी खुद से सब को परख रही थी और जो भी कमी उनको नज़र आता, अपने श्रृंगारदानी से भर देती थी। काकी की तीनो बहुएं भी साज-श्रृंगार में लगी हुई थी। समझिये कि काकी का दरवाज़ा नहीं हुआ कि वो शहर में क्या कहते हैं.... हाँ ! ब्यूटी-परलर हो गया।
सब  सज-धज के तैयार हो गयी तो काकी जोर से सबको पुकार के बोली, "सब तैयार हो गयी न.... अब चलो!"
"अरे बड़की भौजी ! अरे इतना जल्दी क्या है अरे.... ठहरिये-ठहरिये... ! हम भी आ रहे हैं।", उत्तर की तरफ़ से  छबीली मामी बोलती हुई धरफराते हुए चली आ रही थी।
"मार हरजाई..... तो मार..... छि..... !" काकी और छबीली मामी का हंसी-मजाक इलाका-फेमस है।
रसभरी ठिठोली वहाँ भी हो गया फिर काकी बोली, "ऐ छैल-छबीली ! अब चलो भी... ! नहीं तो अंधरिया में झूलते रहना.... !"
"अरे क्या हड़बड़ी मचा रखी हो.... कोई इन्तज़ार कर रहा है क्या....? जरा तैय्यार तो होने दो !"
मामी की बात पर महिलाएं मुँह में आँचल दबा के हंस पड़ीं थी। फिर मामी के केश में गजरा लगा के काकी बोली, "अब बाग़ में चलें हेमा मालिनजी....?"
मामी अपनी आँखों से मोटा चश्मा हटा के बोली, "अरे भौजी ! हमरे अधबयस रूप में नजर-गुजर नहीं लग जाएगा क्या.... ?" फिर एक आँख दबा के बोली थी, “जरा काजल तो लगाने दो !"
"धत्‌ तेरे के... ! 'नयन गए कैलाश  और कजरा के तलाश !!' आँख गया जहन्नुम में और ई मोटका चश्मा के भीतर काजल लगाएगी.... !!" हा....हा.... हा.... ! ही....ही....ही....ही..... !! ओ...होह्हो.....हो...हो.... !!! काकी जिस अदा से बाया हाथ नाचा के बोली थी कि नयी दुल्हने भी आँचल के नीचे से ही खिल्खिला के हंस पड़ीं। खें......खें....खें........ !!! हे....हे....हे....हे... !!!!" हम तो मजीरा पटक के हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। हो...हो...हो...हो.... बड़का कक्का भी पेट पकड़ कर हंस रहे थे। अरे बाप रे बाप..... "नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!" ही....ही...ही....ही.... ! आज वही दृश्य याद आ गया इसीलिए हँसते-हँसते बेदम हैं हम तो..... हें....हें...हें....हें.... !!
अरे महाराज ! उस के बाद तो यह कहावत ही बन गया, 'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!' मतलब आधारविहीन उपयोगिता। जब आँख है ही नहीं तो काजल का क्या काम ? काजल लगाने से आँख की शोभा बढती है नाकि चश्मे की। सो जब आधार ही नहीं रहा तो उपयोगी साधन का उपयोग भी हम कहाँ करेंगे ? इसीलिए पहले आधार जरूरी है फिर अन्य संसाधन। समझे...? तो यही था आज का देसिल बयना। खाली ठहाके मत लगाइए। अर्थ भी समझते जाइए। नहीं तो बस, "नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!”