कहानी ऐसे बनी– 6"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" |
हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी। रूपांतर :: मनोज कुमार |
मित्रों ! हम आपका स्वागत कर रहे हैं कहानी ऐसे बनी शृंखला के साथ। इस शृंखला में यूँ तो हमेशा आपको अपने गाँव घर ले जाते रहे हैं लेकिन सोचा इस बार आपको माया नगरी मुंबई की सैर करा दें। बचपन में बाबा एक कहावत कहते थे, "बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" हम ने कहा, "बाबा ! यह कौन बड़ी बात है ? बिल्ली पकड़ कर आप लाइए घंटा तो हम बाँध ही देंगे !!" तब बाबा ने हमें इस कहाबत का किस्सा सुनाया। आप भी पहले यह किस्सा सुन लीजिये फिर मुंबई चलेंगे। हमारे गाँव मे एक थे धनपत चौधरी! उनका एक बड़ा-सा खलिहान था। उस में अनाज-पानी तो जो था सो था ही, ढेरो चूहे भरे हुए थे। खलिहान में कटाई-खुटाई के मौसम ही लोग-बाग़ जाते थे वरना वहाँ चूहाराज ही था। चूहे दिन-रात कबड्डी खेलते रहते थे। धनपत बाबू ने एक मोटी बिल्ली पाल रखी थी। वह बिल्ली दिन-दोपहर कभी भी चुपके से खलिहान में घुस जाती थी और झट से एक चुहे का 'फास्ट-फ़ूड' कर के आ जाती थी।
अरे शाब्बाश....!!!! सारे चूहे इस बात पर उछल पड़े। लगा कि जीवन वीमा ही हो गया। लेकिन चूहों का सरदार बोला, 'आईडिया तो सॉलिड है पर बिल्ली के गले मे घंटी बांधेगा कौन ?' बूढा चूहा तो सबसे पहले पीछे हट गया। जवान भी और बच्चे भी ! कौन पहले जाए मौत के मुंह में ... ? कौन घंटी बांधे...? थे तो सब चूहे... ! सो रोज अपनी नियति पर मरते रहे। समझे... ! फिर बाबा ने हमें समझाया कि निरंकुश अत्याचारी के खिलाफ जब किसी मे चुनौती लेने कि हिम्मत न हो तो कहते हैं, "बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे?" लेकिन क्या बताएं.... समय के साथ यह कहावत और इसका मतलब सब धुंधला होता जा रहा था। लेकिन धन्य हो माया-नगरी ! एक बार फिर यह कहावत चल पड़ी। हालांकि मुंबई मे तो चालीस साल से बिल्ली के गले मे घंटी बाँधने का प्लान हो रहा है... और दो-चार बिल्लियां तो पूरे देश में फैली हुई है.... लेकिन वही बात... कि उनके गले में घंटी बांधे कौन....? उस दिन तो टीवी पर समाचार का फुटेज देख कर बाबा का किस्सा सोलहो आने याद आ गया हमें। अरे वही बड़का खलिहान था... भला नाम उसका विधान सभा रखा हुआ था.... वहाँ भी बहुत सारे चूहे भरे हुए थे.... किस्म-किस्म के ! वहीं पर बिल्ली भी कान खरा कर के घात लगा रही थी। जैसे ही एक चूहा 'हिन्दी' में बोला...... बस हो गया 'हर-हर महादेव' ! फिर चूहों की मीटिंग बैठी.... लेकिन सवाल वही कि "बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे ?"खलिहान के मालिक धनपत बाबू तो अब रहे नहीं... लेकिन उनका मोख्तार बिल्ली को चार साल तक खलिहान मे घुसने पर रोक लगा दिया है...!!' चलो चूहों को कुछ तो राहत मिली.... लेकिन बिना घंटी बांधे कैसे काम चलेगा.... खलिहान मे नहीं तो खेत मे मरेगा.... आखिर चूहा बन कर बैठे रहने से कब तक निर्वाह होगा... रोज-रोज मरने से बचना है तो बिल्ली के गले मे घंटी तो बांधना ही पड़ेगा... !!" |
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रविवार, 3 अक्टूबर 2010
कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?"
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