बुधवार, 9 नवंबर 2011

धूमिल के जन्म दिन पर - किस्सा जनतंत्र

धूमिलधूमिल

जन्म : वाराणसी जनपद के एक साधारण से गांव खेवली में 9 नवम्बर, 1936 को।

धूमिल की कविता-5

किस्सा जनतंत्र

करछुल...
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है

औरत...
गवें गवें उठती है...गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है।
उसे कठवत में झाड़ती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोड़ती)
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है

बच्चे आँगन में...
आंगड़बांगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं

एक छोटा-सा जोड़-भाग
गश खाती हुई आग के साथ
चलता है और चलता रहता है
बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबती... बालकिशुन आधे में आधा
कुछ रोटी छै
और तभी मुँह दुब्बर
दरबे में आता है... 'खाना तैयार है?'
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेटभर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है

और अब...
पौने दस बजे हैं...
कमरे में हर चीज़
एक रटी हुई रोज़मर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक्त घड़ी से निकल कर
अंगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दंत टूटी कंघी
बालों में गाने लगती है

दो आँखें दरवाज़ा खोलती हैं
दो बच्चे टा टा कहते हैं
एक फटेहाल क्लफ कालर...
टाँगों में अकड़ भरता है
और खटर पटर एक ढड्ढा साइकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
'ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को चूमना...
देखो, फिर भूल गया।

10 टिप्‍पणियां:

  1. साठोत्तरी कविता के कवि सुदामा प्रसाद धूमिल उर्फ सुदामा प्रसाद पाण्डेय ने अपनी इस कविता के सरल शब्दों में मानवीय रिश्तों के अलावा भी कुछ बताने की कोशिश की है एवं इसमें वे विलक्षण रूप से सफल भी रहे है। मैं और अधिक कुछ कह कर इस कविता को कमज़ोर नहीं करना चाहता हूँ क्योंकि कुछ कविताएँ ऐसी होती हैं जिनको महसूस किया जाता है ,व्यक्त नहीं; अभिव्यक्ति भावों को कमज़ोर कर देती है। धन्यवाद ।

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  2. सुबह साढ़े छः बजे इस कविता को पढना अपने भीतर एक क्रांति बीज को रोप लेने जैसा है... हाँ... ठीक ही तो है... जनतंत्र में चूल्हा केवल जलता है... कुछ कहता नहीं....

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  3. दिल को छू गयी धूमिल की यह कविता .सुंदर प्रस्तुतिकरण के लिए आपको धन्यवाद .

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  4. धूमिल की नज़रों से जनतंत्र का किस्सा पढ़ना एक अलग ही अनुभूति देता है ..सुन्दर प्रस्तुति

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  5. एक दंत टूटी कंघी
    बालों में गाने लगती है
    kya sunder soche......bahut achcha laga.

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  6. सही ही तो है..एकदम सच्ची कविता.

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  7. यथार्थ-चित्रण करती कविता के माध्यम से जन-कवि धूमिल जी को 76 वे जन्मदिन पर याद करके बेहद अच्छा संदेश दिया है।

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  8. खाने से पहले मुँह दुब्बर
    पेटभर
    पानी पीता है और लजाता है
    कुल रोटी तीन
    पहले उसे थाली खाती है
    फिर वह रोटी खाता है.bhut khub.

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  9. बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

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