हमारे प्रबुद्ध पाठकों में से एक हैं प्रतिभा सक्सेना जी । आपने एक विशिष्ट बात पर ध्यान आकृष्ट कराया है .
कबीर की रचनायें तीन श्रेणियों में हैं - 1. साखी (दोहे छंद में हैं पर कवीरने कभी दोहा या श्लोक नहीं कहा .जैसा अब कहा जाने लगा है ).2 . सबदी (उनके मुक्तक पद ,गुरुग्रंथ साहब में भी 'सबद' संज्ञा के अंतर्गत संग्रहीत हैं ). 3. रमैनी.- दोहे और चौपाई छंदों में ,जिसमें आगे चल कर तुलसी ने राम चरित-मानस की रचना की .
क्या कबीर के वचनों की रक्षा करते हुये ,दोहें के स्थान पर उसे साखी (साक्षी,जिस के वे साक्षी थे)
कहने में कोई बाधा है?
. इससे आगे की पीढ़ियों को सही संदेश मिलेगा .साखी केसाथ कबीर का एक कथन ,सब की जानकारी के लिये , मुझे उद्धृत करने योग्य लग रहा है -
'साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माहिं ,
बिनु साखी संसार का झगरा छूटे नाहिं !'(कबीर).
'साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माहिं ,
बिनु साखी संसार का झगरा छूटे नाहिं !'(कबीर).
इस बात से प्रेरित हो कर अब यह शृंखला दोहावली न हो कर साखी के रूप में प्रस्तुत की जाएगी .... आभार प्रतिभा जी
जन्म --- 1398
निधन --- 1518
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥
माली आवत देख के, कलियान करी पुकार ।
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥
मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥
या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥
राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास ।
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥
हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥
कबीर साहब का प्रत्येक दोहा जीवन का गहन दर्शन प्रस्तुत करता है .....इस श्रृंखला को प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार
जवाब देंहटाएंरात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
जवाब देंहटाएंहीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥
इसी तरह हम अपना हीरा सा जीवन गंवाते जा रहे हैं।
संगीता जी ,
जवाब देंहटाएंश्रेय तो आपको ,जो हर जगह से तत्व के संगहण हेतु तत्पर हैं !
हम सभी लोग परस्पर सहयोग पाने और देने के उद्देश्य से ही तो यहां हैं .
आभार स्वीकारें .
प्रतीक्षा रहेगी आगे साखियों की... कबीर को जितना पढ़िए नया ही लगते हैं..
जवाब देंहटाएंखुद भोगा वह कह गए, बहता है ज्यों नीर।
जवाब देंहटाएंसोना जल कुन्दन भया, कुन्दन भया कबीर।
सादर आभार।
खरगोश का संगीत राग
जवाब देंहटाएंरागेश्री पर आधारित है
जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन
राग है, स्वरों में कोमल
निशाद और बाकी स्वर शुद्ध
लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर
हमने इसमें अंत में पंचम का
प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा
जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
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