आदरणीय गुणी जन को अनामिका का सादर नमन ! लीजिये जी आज से करते हैं एक नयी शुरुआत. आप सभी ज्ञानी गुरु साहित्यिक अध्ययन करते हैं और जानते हैं कि हिंदी के प्रथम कवि पुष्य माने गए हैं जिनका समय वि. सं. 770 के लगभग बताया गया है. तब से अब तक हिंदी काव्य साहित्य का विभाजन कई कालों के रूप में जाना जाता है जैसे अपभ्रंश या सिद्धकाल, वीरगाथा काल अर्थात आदि काल, भक्ति काल, रीति काल और अंत में आधुनिक काल जिसका आगाज़ हुआ 1900 में . तो हम बहुत पीछे न जा कर शुरू करते हैं वि. सं. 1900 के आधुनिक काल से. यह काल शुरू होता है इस सदी के महान नायक भारतेन्दु हरिशचंद्र जी से. आइये चर्चा करते हैं आज भारतेन्दु उपाधि से भूषित भारतेन्दु हरिशचंद्र जी की .
आधुनिक काल:भारतेन्दु हरिशचन्द्र
[ (जन्म स. 1907 (सन 1850 ई.) मृत्यु सं. 1941 (सन 1884 ई.)]
भारतेन्दु युग - भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना हो जाने से हिंदी कविता ने नयी मोड़ ली. रीतिकालीन परम्पराएँ विलीन होने लगीं. सन 1857 के विद्रोह ने राष्ट्रीयता की तीव्र लहर फैला दी. नये विचार, नयी शैली और नयी भाषा का आन्दोलन चल पड़ा. भारतेन्दु हरिशचन्द्र नयी कविता के प्रवर्तक थे. उन्ही से हिंदी कविता का वर्तमान युग प्रारम्भ होता है.
जीवन वृत्त -
भारतेंदु हरिशचन्द्र इतिहास प्रसिद्द सेठ अमीचंद के वंशजों में से हैं. इनका जन्म भाद्रपद शुक्ल 5 सं. 1907 को अर्थात 9 सितम्बर 1850 ई. सोमवार को हुआ. भारतेंदु हरिशचन्द्र के पिता गोपालचंद्र उपनाम गिरधर दास जी ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और पांच वर्ष की अवस्था में ही भारतेंदु ने निम्नांकित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने आशीर्वाद दिया कि तू मेरे नाम को बढ़ाएगा -
लै ब्यौड़ा ठाढ़े भये, श्री अनिरुद्ध सुजान !
बानासुर की सैन को, हनन लगे बलवान !!
पांच वर्ष की अवस्था में भारतेंदु की माता का और दस वर्ष की आयु में पिता का देहांत हो गया. अतः घर पर ही इनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई. इन्होने घर पर ही हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की थी. पिता की मृत्यु के पश्चात इन्होने क्वींस कालेज में प्रवेश लिया, पर वहां इनका जी न लगा और कविता करने की ओर दिन-प्रतिदिन इनकी रूचि बढ़ने लगी, अतः अधिक दिनों तक अध्ययन न चल सका. 13 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लाला गुलाबराय की बेटी मंनोदेवी से हो गया और पन्द्रह वर्ष की अवस्था में इन्होने सपरिवार जगन्नाथ की यात्राएँ की.यह देशाटन के अत्यंत प्रेमी थे और विभिन्न स्थानों की यात्राएं की थी. इसका परिणाम यह हुआ कि यह मराठी, गुजराती, बंगला, और संस्कृत भाषाओं के ज्ञाता भी हो गए.
भारतेंदु जी एक यशस्वी साहित्यकार के साथ साथ समाज सेवक भी थे और इन्होने कई स्कूल, क्लब, सभा, पुस्तकालयों आदि की स्थापना की तथा कुछ परीक्षाएं भी नीयत की, जिनमे उत्तीर्ण होने पर यह स्वयं बालकों को पुरूस्कार दिया करते थे. काशी का हरिशचन्द्र कालेज भी इन्होने ही स्थापित किया था. यह विद्वानों और कवियों के आश्रयदाता तो थे ही पर अनाथों का भी बड़ा उपकार करते थे. इन्होने अपनी सारी संपत्ति अपनी उदारता के फलस्वरूप कुछ ही दिनों में पानी के सदृश बहा दी थी जिसके कारण अंत में इनका जीवन कष्टपूर्ण व्यतीत हुआ और इन्हें क्षय रोग हो गया.
यह हिंदी के प्रति बचपन से ही प्रेम रखते थे और इन्होने सर्वप्रथम 'कवि वचन सुधा' नामक मासिक पत्र प्रकाशित किया जो की इनके अंत समय तक प्रकाशित होता रहा. साथ ही 'कविता वार्धिनी सभा' की भी स्थापना की जिसमे लेख आदि पढ़े जाते थे. इन्हें लिखने का बड़ा व्यसन था और इनके मित्र इन्हें राईटिंग मशीन कहा करते थे. इनका स्वभाव अत्यंत सुन्दर था और यह हमेशा हंसमुख रहते थे. इनके सहयोग से कई नवीन विभूतियाँ हिंदी साहित्य जगत में आई और समकालीन साहित्य लेखकों में ये सर्वोपरि थे. संवत 1936 में इन्हें भारतेंदु की उपाधि दी गयी और मात्र कृष्ण 6, सं. 1941 में केवल 35 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी.
काव्य सृजन
वस्तुतः प्राचीन और वर्तमान काल की युग संधि पर खड़े हुए भारतेंदु का काव्य अपना एक विशिष्ट महत्त्व रखता है. गोस्वामी तुलसीदास के उपरांत हिंदी साहित्य में वही एकमात्र कवि हैं जिन्होंने प्रचलित समस्त शैलियों और विभिन्न काव्य-भाषाओं का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है. इसीलिए प्रसाद जी ने उन्हें ही हिंदी साहित्य का प्रथम यथार्थवादी कवि माना है.
भारतेन्दु जी के काव्य को अध्ययन की सुविधा के लिए चार भागों में विभाजित किया जा सकता है -
1. भक्ति प्रधान रचनाएं -
भारतेन्दु जी ने अपनी अधिकाँश रचनाओं में राधा-कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेम, प्रेम क्रीडाओं व रासलीला आदि का अत्यंत सुन्दर श्रृंगारिक चित्रण किया है. सूर और नंददास भक्त कवियों की भांति भारतेन्दु की भी यही अभिलाषा थी -
ब्रज के लता मोहि कीजै
गोपी पद पंकज पावन की राज जामें सिर भीजै
2. श्रृंगार विषयक रचनाये -
भारतेन्दु जी की काव्यगत विशेषता यह है कि उन्होंने रीतिकालीन वासनामूलक नग्न श्रृंगार का अश्लील पट सर्वदा के लिए बंद कर दिया और हृदय की गूढ़ अंतर्दशाओं का उदघाटन किया. प्रेम के संयोग, वियोग दोनों पक्षों का सफल व सरस चित्रण किया है.
3. देश भक्ति और राष्ट्रीयता सम्बन्धी रचनाएं -
यद्यपि भारतेन्दु जी ने कुछ ऐसी कवितायेँ लिखी जो उन्हें राज-भक्त के रूप में सिद्ध करती हैं. किन्तु सूक्षम दृष्टि से देखने पर उनकी कविताओं में उत्कृष्ट देश भक्ति और राष्ट्रीयता की झलक मिलती है. वास्तव में वह राष्ट्रीयता के मूल प्रवर्तक हैं क्यूंकि यह प्रथम कवि हैं जिन्होंने भारत के प्राचीन इतिहास को कवि के रूप में निहारा और अतीत की गौरव गाथाओं को विस्मरण नहीं किया. 'प्रबोधिनी' में भारत दुर्दशा का हृदयस्पर्शी वर्णन करते हुए इन्होने कहा भी है -
रोबहू सब मिली के आबहु भारत भाई !
हा ! हा ! भारत दुर्दशा न देखि जाई !!
4. समाज सुधार सम्बन्धी समस्या प्रधान रचनाये -
भारतेन्दु जी समाज सुधारक थे. विविध सामजिक समस्याओं को अपने दृष्टिकोण से सुलझाने का प्रयास भी किया और सामजिक आन्दोलन भी चलाये. बाल-विवाह से हानि, जन्म-पत्री मिलने की अशास्त्र्ता, बालकों की शिक्षा, भ्रूण हत्या, फूट और बैर, स्वदेश प्रेम, हिन्दुस्तान की वस्तु हिन्दुस्तानियों के व्यवहार में लाना, धार्मिक पाखण्ड, अंधविश्वास आदि विषयों पर भारतेन्दु जी ने बहुत सी कवितायें लिखी.
कृतियाँ -
नाटक - साहित्य, धर्म, इतिहास आदि विषयों पर लिखे इनके ग्रंथों की संख्या 238 है. सत्य हरिश्चंद्र, चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, अंधेर नगरी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, सती प्रताप और प्रेम-योगिनी इनके उल्लेखनीय नाटक हैं.
निबन्ध - वैष्णवता और भारतवर्ष, ईश खृष्ट और ईश कृष्ण, अकबर, औरंगजेब मणिकणिका, लखनऊ, हिंदी भाषा, स्त्री सेवा पद्धति, जाति विवेकिनी सभा, स्वर्ग में विचार सभा, ग्रीष्म ऋतु, दिल्ली दरबार दर्पण, अंग्रेज-स्त्रोत आदि प्रसिद्द निबन्ध हैं.
काव्य ग्रन्थ - भक्ति-सर्वस्व, प्रेम मालिका, कार्तिकस्नान, वैशाख महात्म्य, प्रेम सरोवर, प्रेमाश्रु वर्षण, जन कुतूहल, प्रेम माधुरी, प्रेम तरंग उत्तरार्द्ध, भक्तमाल, प्रेमप्रलाप, गीत गोविंदानंद, सतसई श्रृंगार, होली, मधुमुकुल, राग संग्रह, वर्षाविनोद, विनय-प्रेम-पचीसी, फूलों का गुच्छा, प्रेम फुलवारी और कृष्ण चरित्र. इसके अलावा 70 छोटे छोटे प्रबंध काव्य व् मुक्तक कविताओं का भी सृजन किया.
भारतेन्दु जी युग जागरण के दूत थे. उनमे जहाँ प्राचीन के प्रति मोह था, वहीँ नवीन के प्रति आकर्षण. अपनी कवित्व की प्रतिभा का उन्होंने सदुपयोग किया. उनकी इन सेवाओं के कारण ही देश ने उन्हें 'भारतेन्दु' की उपाधि से भूषित किया. वे थे भी भारत के चाँद . अनेक व्यसन रूप कलंक लिए हुए भी इस चन्द्र ने जिस दिव्य प्रकाश को प्रकीर्ण किया, वह अभी तक सम्पूर्ण हिंदी-साहित्य क्षितिज में छाया हुआ है. पर खेद है कि भारत का यह इंदु थोड़े ही समय तक अपना आलोक फैला सका और शीघ्र ही अस्त हो गया.
अपने समय के साहित्यिक नेता भारतेंदु जी का आधुनिक हिंदी साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। वे बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि सभी क्षेत्रों में उनकी देन अपूर्व है। भारतेंदु जी हिंदी में नव जागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए। उन्होंने हिंदी के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनका नाटक "अंधेर नगरी और चौपट राजा" आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना उनके जमाने में था। उनसे कितने ही प्रतिभाशाली लेखकों को जन्म मिला। मातृ-भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति के लिए वे जीवन पर्यंत कटिबद्ध रहे। इसका प्रमाण उनके निम्नलिखित दोहे से मिलता है-
जवाब देंहटाएंनिज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।
प्रस्तुत पोस्ट से उनकी जीवनी एवं कृतित्व पर अच्छी जानकारी मिली । इस शानदार पोस्ट के लिए धन्यवाद।
हिन्दी साहित्य के युग-निर्माताओंको सामने लाने हेतु आपका आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अनामिका जी....
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय पोस्ट....
इस बेहतरीन जानकारी भरी पोस्ट के लिए आपका आभार.
सादर
अनु
हिंदी साहित्य के आधार स्तंभों और उनके कृतित्व से परिचय कराने का बहुत सराहनीय प्रयास...आभार
जवाब देंहटाएंgyanvardhak jankari !
जवाब देंहटाएंजानकारी युक्त पोस्ट ... आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंश्रावणी पर्व और रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
अनामिका जी खडी बोली का व्यवस्थित रूप से शुभारम्भ करने वाले युग-प्रवर्त्तक कवि लेखक भारतेन्दु जी के विषय में यह दुर्लभ जानकारी देने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंग्यानवर्द्धक पोस्ट। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंभारतेंदु हरिश्चंद्र जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आपने बड़ी सूक्ष्मता के साथ प्रकाश डाला है ! उनका साहित्य युग प्रवर्तक था और लेखन शैली एवं उद्देश्य में क्रांतिकारी परिवर्तन का पक्षधर था ! आपके आलेख ने उनके बारे में इतनी विस्तृत जानकारी दी है कि पढ़ने का आनंद दोबाला हो गया ! इस सार्थक प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंखरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है,
जवाब देंहटाएंस्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं,
पंचम इसमें वर्जित है, पर
हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने
दिया है... वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट
से मिलती है...
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