गुरुवार, 27 मई 2010

पर्वतांचल की नदियां

पर्वतांचल की नदियां
--- --- मनोज कुमार
पर्वतांचल की अधिकांश नदियां,
गर्मी आते ही सूख जाती हैं।
पहाड़ों से उतरने के पहले
अपनी
कल-कल, छल-छल,
कोमल-उज्ज्वल,
निश्छल धाराओं को
किन्ही ठंढ़ी गुफाओं में
छोड़ आती हैं।
पर्वतांचल की अधिकांश नदियां,
गर्मी आते ही सूख जाती हैं।


ताप इतना, कि जल भी जल जाए !
तब रेत और रंगीन पत्थर ही मन को भाए।
नीरस नदियां अश्रु बहाए,
पर बादल न दया दिखाए।
तप्त-गर्म धूप, तप्त-गर्म लू,
तृण-तृण को,
कण-कण को,
जन गण को
आग सी जलाती है।
ग्रीष्म ऋतु के आगमन के साथ,
सूख जाते सरिता के प्राण।
पूर्ण रूप से हो जाता उजाड़,
नव यौवन का हर उद्यान।
क्रूर, कठोर और निर्मम सत्य सा,
नदियां निज रूप दिखाती हैं।


कल-कल छल छल कहां गए
धाराएँ गई किस ओर ?
सूने कर पर्वत के आंचल
कहां गई तट-कूल छोर ?
तृष्णा के बंध्या अंचल में
मृगतृष्णा फैलाती हैं ।


जहां मचलती थी हरियाली
ककड़ी-खरबूजों के खेत,
आज पड़ी है वहां झुलसती
अंगारों सी जलती रेत।
उबड़-खाबड़ शुष्क शिलाएं
प्यास बहुत जगाती हैं।


कल थी केन्द्र केलि-क्रीड़ा की
आज पड़ी है यह मरघट सी,
आज वयोवृद्धा सी जर्जर
कल थी वयस्सन्धि नटखट सी।
भरी हुई उत्कट पीड़ाएं
नियति भी, कैसे खेल रचाती है।


दृग देख जहां तक पाते हैं,
नदियों की सूखी धारे हैं।
फिर भी इस पार खड़ा माझी,
नौका भी हैं, पतवारें हैं।
तृप्त नहीं हो पाती तृष्णा,
आंखें न अश्रु बहाती हैं।


प्रबल-प्रवाह लिए शीतलता,
जैसे नारि नवेली निकले।
फेनिल धारों पर मतवाले,
नाव लिए फिर नाविक पगले।
निर्मल-शीतल धवल स्रोत के,
अन्वेषण उल्लास जगाती है।


मैं पास खड़ा तुम भी आओ,
खेलो इन तीर, तरंगों में।
मन ही मन मैं मतवाला,
अपने ही हील उमंगों में।
मेरे मन की दुबिधाएं,
मुझको ही भरमाती हैं।


पहुँचूंगा मझधार में जब,
शायद न संगी साथी हो।
कलतक थी तट पर भीड़ बहुत,
पर मैं खड़ा आज एकाकी हो।
रेतों पर गिरती धाराएँ
मुझको पास बुलाती हैं।
*** *** ***

4 टिप्‍पणियां:

  1. इस एक कविता में कई शैली प्रयुक्त हुई है..
    गद्यात्मक शैली में नई कविता ..छंद बद्ध गीत और नव गीत का एक साथ प्रयोग होने से पाठक पढ़ते-पढ़ते भ्रमित हो सकता है.
    भाव अच्छे हैं.

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  2. खूबसूरत अभिव्यक्ति....प्रयावरण पर एक सशक्त रचना

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  3. मुक्त विधा की चित्रात्मक रचना ।

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