बुधवार, 12 मई 2010

तिमिर घना है

तिमिर घना है

       --- मनोज कुमार

  • मानव जीवन क्षणभंगुर है।

पानी केरा बुदबुदा

अस मानस की जात

देखत ही छिप जाएगा

ज्‍यों तारा प्रभात।

मन कुछ देखता है। देख नहीं पाता। अनदेखा कर देता है। सुनता है। सुन नहीं पाता। अनसुना कर देता है। ये अनभिज्ञता कैसी? क्‍या अज्ञानता है मेरी। जो है वह दीखता नहीं। एक अंतहीन खोज है सत्‍य की। अपने भीतर बाहर भी। पाने की चाहत। मेरा अहंकार मुझे उस सच से वंचित रखता है।

मेरी खोज अनंत, क्‍यूंकि यह अनंत की खोज है। गुरू का आश्रय लेता हूँ। पुरखों का भी। वेद-शास्‍त्र पुराणों से भी संग जोड़ता हूँ। पर मेरा भाग्य मेरा साथ नहीं देता। सब छूट जाते हैं। साथ छुड़ा लेते हैं। सब!

उदास, निराश, हताश हूँ, अपने लक्ष्‍य से दूर हूँ। बहुत दूर ..... मैं, अज्ञानी।

किंकर्तव्‍यमूढ़ हूँ। कुछ सूझ नहीं रहा कौन सा रास्‍ता अपनाऊँ। जैसे अर्जुन को हुआ। युद्ध के पहले। उनको तो कृष्‍ण मिल गए। मेरा मार्गदर्शक कौन है? कहां है? मोह माया से घिरा हूँ। अंधकार ही अंधकार है। कृष्‍ण जैसा कोई मार्गदर्शक मिल जाए जो प्रकाश की राह दिखाए। अंधकार दूर हो।

तिमिर घना है

                                                  --- --- मनोज कुमार

तिमिर घना है

रूकना मना है

आत्‍मशक्ति शेष नहीं

आत्‍मज्ञान की कामना है!

 

चंचल मन

अचल पग

हृदय रस विहीन

क्‍या कोई शेष संभावना है?

युद्ध घमासान

अंतस्‍थल में

एक तरफ़ स्‍वयं

दूसरी ओर सेना विराट

काम क्रोध मद लोभ अज्ञानता की

इनसे मोह टूटने का दृश्‍य

डरावना है।

पथ दिखा

ओ कृपानिधान!

कर आलोकित पथ मेरा

चित्त से विकार सब मिट जाए

बस यही सद्भावना है।

***     ****     ***

10 टिप्‍पणियां:

  1. मेने कहीं सूना था शायद आपके काम का है - तेरे घाट भीतर ज्ञान गुरु तू चित को अपने चेला कर

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  2. दूसरी ओर सेना विराट

    काम क्रोध मद लोभ अज्ञानता की...


    इस सेना पर विजय पाए बिना अन्धकार दूर नहीं होने वाला....ये युद्ध तो जीतना ही होगा...

    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  3. .... बहुत सुन्दर ... प्रसंशनीय!!!

    जवाब देंहटाएं
  4. ओ कृपानिधान!
    कर आलोकित पथ मेरा

    बहुत अच्छी प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं
  5. मनोज जी!
    आपकी रचना को पढ़ मुझे लगा कि
    आप का मनोबल और धैर्य विचलित
    हो रहा है-उसे संभालिए। जीवन का दूसरा
    नाम संघर्ष है। मैं आप जैसी मन:स्थिति से
    गुजर चुका हूँ। सन् 1990 में मेरा ‘अपने
    को ही दीप बनओ’ नामक गीत-संकलन
    प्रकाशित हुआ था। अब वह आउट
    आफ प्रिंट है। पुस्तक की प्रति अगर सुलभ
    हो गई तो आप को मेल कर दूँगा। फिलहाल
    उसके "टाइटिल सांग" की निम्न पंक्तियाँ प्रस्तुत
    है। शायद आपके काम आ जाएं .........
    /////////////////////////////
    यह माना गहन अंधेरा है,
    आँखों से दूर सबेरा है,
    तुम ! अपने दीपक आप बनो़।
    तुम ! अपने दीपक आप बनो़।।
    ///////////////////////////////////

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  6. बड़ा साफ़ सुथरा ब्लॉग है ....शुभकामनायें !

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