रविवार, 31 जुलाई 2011
शून्य मंदिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी
मानवीय मूल्यों के संस्थापक- प्रेमचंद
शनिवार, 30 जुलाई 2011
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखे रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बन्धु !
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहते थी,
सबकी सुनती थी,सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बन्धु !
शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि
नाटक साहित्य-5
भारतेन्दु युग-1
भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि
मनोज कुमार
भारतेन्दु जी सेठ अमीचन्द के वंशज थे। इनका जन्म 1850 में काशी में हुआ था। इनके पिता गोपालचन्द्र जी प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने ‘नहुष’ नामक नाटक भी लिखा था। हालाकि उनकी काव्य-प्रतिभा बाल्य-काल में ही चमक उठी थी, फिर भी उन्हें लगा कि अपने भावों और विचारों को जनता तक पहुंचाने का सबसे अच्छा साधन नाटक है। इसलिए नाटक-रचना की ओर उनका ध्यान आकर्षित हुआ।
उन दिनों अंग्रेज़ी नाटकों को पढ़ने वाले भारतीय, संस्कृत और देशी भाषाओं के नाट्य साहित्य का उपहास किया करते थे। भारतेन्दु जी जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति को यह कहां से बर्दाश्त होता। उन्होंने मातृभाषा की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का संकल्प लिया और इस दिशा में सक्रिय हो गए। उन्होंने सोद्देश्यपूर्ण साहित्य रचना की। नाट्य लेखन में उनकी चिंताएं आधुनिक थीं। उन्होंने नाट्य लेखन को सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय जागरण का माध्यम बनाया। वे हिंदी साहित्य को भी समृद्ध करना चाहते थे। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किए गए उनके प्रयास आन्दोलन की तरह थे।
भारतेन्दु जी के नाटकों का मूल आधार देश-प्रेम है। वे ख़ुद अभिनेता, रंगकर्मी और समीक्षक थे। उन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति का प्रचार-प्रसार भी इस माध्यम से किया। उनके नाटकों का रुझान आदर्शवादी है। देश उस समय ग़ुलाम था। आज़ादी के लिए हमारे चरित्र बल का मज़बूत और शक्तिशाली होना बहुत ज़रूरी था। साथ ही अपनी भाषा, अपने राष्ट्र की भाषा भी होना बहुत ज़रूरी था। तभी हम सही मायनों में आज़ाद कहलाने के हक़दार होते। इन्हीं बातों को सम्प्रेषित करने के लिए उन्होंने अपने नाटकों में कहीं उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया तो कहीं भरत वाक्य में उसे प्रकट किया। नाटक में दृश्यात्मक और काव्यत्व को उन्होंने सबसे अधिक महत्व दिया। हास्य-व्यंग्य की शैली में लिखे गए उनके नाटक चरित्र निर्माण की शिक्षा देते हैं।
भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि
भारतेन्दु जी ने न सिर्फ़ नाटकों की रचना की बल्कि नाटक संबंधी विस्तृत लेख लिखकर उन्होंने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने इस बात पर गहराई से चिंतन किया कि नाटक का लेखन और मंचन क्यों किया जाना चाहिए? नाट्य-परंपरा के विकास के लिए किस परंपरा का अनुपालन किया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा है,
“आजकल यूरोप के नाटकों की छाया पर जो नाटक लिखे जाते हैं और बंगदेश में जिस चाल के बहुत से नाटक बन चुके हैं वह सब नवीन भेद में परिगणित हैं।”
जिस नवीन परंपरा की बात वो कर रहे थे उसे वह पश्चिम के यूरोपीय नाट्य परंपरा और बंगला नाटकों पर उसके प्रभाव से जोड़ते हैं। वे नवीन नाटकों के दो भेद मानते हैं,
१. नाटक – जिनमें कथाभाग विशेष और गीति न्यून, और
२. गीतिरूपक – जिसमें गीति विशेष हों।
इस तरह से वे ऐसे नाटकों की कल्पना नहीं कर सके जो गीत या पद्य रहित हो। वे संस्कृत नाट्य परंपरा को न तो पूरी तरह से अस्वीकार कर रहे थे और न ही उसके अनुकरण की बात कर रहे थे। किन्तु यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि वे प्राचीन नाट्य रीतियों को तब ही स्वीकार करने को तैयार थे जब वे आधुनिक ज़रूरतों के अनुरूप हों। उनके प्राचीन और नवीन के बीच की विभाजन रेखा यथार्थ के प्रति उनका दृष्टिकोण थी। उन्होंने नाटकों में लौकिक दृष्टि के समावेश का प्रयास किया। उनके अनुसार, “जो लोकातीत और असंभव हैं वे वर्तमान काल के लोगों को स्वीकार नहीं हो सकते।” यह उनका यथार्थवादी दृष्टिकोण था।
उद्देश्य
भारतेन्दु जी के नाटकों के उद्देश्य में विवेकपूर्ण आधुनिक दृष्टिकोण दिखाई देता है। नाटक रचना का मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ ही जनमानस को जाग्रत करना और उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न करना था। उन्होंने अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के साथ ही अपने उद्गारों को अभिव्यक्त करते हुए प्रचुर नाट्य साहित्य की रचना की जो मौलिक भी हैं और अनूदित भी। अपने निबंध में नवीन नाटकों के उद्देश्य की चर्चा करते हुए पांच उद्देश्य बताते हैं,
१. श्रृंगार, २. हास्य, ३. कौतुक, ४, समाज संस्कार और ५. देशवत्सलता।
जहां एक ओर वे देशवत्सलता नाटकों का उपयोग लोगों में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए करना चाहते थे वहीं दूसरी ओर समाज संस्कार से उनका उद्देश्य था कुरीतियों और धर्म संबंधी अन्य विषयों में सुधार। लोगों में जागृति पैदा करना उनका प्रमुख उदेश्य था। भारत जननी, नील देवी और भारत दुर्दशा आदि नाटक इसके उदाहरण हैं। वे इन नाटकों के द्वारा उस समय की प्रस्थितियों के प्रति लोगों को जागरूक करना चाहते थे। वे जनजागरण और लोक रुचि के लिए मनोरंजन और हास्य को ज़रूरी मानते थे। उन्होंने नाटक को खेल आदि कहा। हास्य और तीखे व्यंग्य में वे बड़ी से बड़ी समस्या को प्रस्तुत कर देते थे। उनके नाटकों में स्थानीय बोली का प्रयोग, टोन और मुहावरे भी होते थे। नाटक की प्रकृति के साथ जनता की प्रकृति और देश की आवश्यकताओं का सामंजस्य बिठाते हुए उन्होंने साहित्यिकता और रंगमंचीयता का अनूठा उदाहरण पेश किया है।
संदर्भ ग्रंथ
१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड-९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्यम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर १०. जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद ११. अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के सर्जनात्मक बिन्दु – गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय
बालिका का परिचय
गुरुवार, 28 जुलाई 2011
छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि
छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि
आज छायावाद के इतिहास की बात शुरु करते हैं. परंतु छायावाद के इतिहास को जानने से पहले गीति काव्य के बारे में जनना उचित होगा. संक्षिप्त रूप से पहले गीति काव्य की पृष्ठभूमी की बात करते हैं .
गीतिकाव्य का इतिहास
यह तो हम सभी जानते हैं कि गीति काव्य को ही काव्य का सबसे प्राचीन रूप माना जाता है. हमारे वेदों में भी एक ऐसा वेद 'सामवेद' है जिसका गायन होता है. गीत शब्द का अर्थ भी गाये जाने से ही है.
बौद्ध साहित्य कि थेर गाथाओं में भी गीति काव्य के दर्शन मिलते हैं. 'मेघदूत' को भी अधिकाँश विद्वान गेय काव्य ही मानते हैं. संस्कृत साहित्य में गीति काव्य अपने वास्तविक रूप में 'गीतगोविन्द' में प्राप्त होता है. जयदेव के इस काव्य का हिंदी साहित्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ता है. विद्यापति और चंडीदास दोनों कवियों ने जयदेव की शैली को ऐसा आत्मसात किया जिससे काव्यरस और संगीत रस के मिश्रण से गीतकारों के सम्मुख हिंदी गीतों का एक आदर्श रूप सामने आया.
कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, मीरा
इसके बाद कबीरदास के रहस्यगीत बहुत लोकप्रिय हुए जिन्होंने खुद को अपने राम की बहुरिया बना कर विरह और मिलन सम्बन्धी गीतों का ऐसा राग फूंका कि आज तक जनता को तड़पाता और आह्लादित करता है.
कबीर के बाद सूरदास, तुलसी और मीरा आदि वैष्णव भक्तों के गीति काव्यों में रागात्मक तत्वों की प्रधानता पायी जाती है. विद्यापति के सामान सूर के पदों पर भी 'गीतगोविन्द' का प्रभाव स्पष्ट झलकता है. सूर के गीति काव्य में रतिभाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप - भगवद्विशयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति - प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं.
तुलसीदास की गीतावली में भी भावों की व्यंजना उसी रूप में हुई है जिस रूप में मनुष्य को उनकी अनुभूति हुआ करती है या हो सकती है.
मीरा ने विरहिणी के रूप में जिन पदों में आत्मनिवेदन किया है वे निजत्व की पराकाष्ठा तक पहुँच गये हैं. मीरा के विरह से आहत हृदय को जब कसक और वेदना विक्षिप्त बना देती है उसकी मनोदशा का कोई पारखी नहीं मिलता.
हरिश्चंद्र युग
इन सब के बाद हरिश्चंद्र युग की शुरुआत हुई. इस काल में गीति काव्य की दो धारायें हो गयी.
१. आत्मनिवेदन शैली
२. राष्ट्रीय शैली
भारतेंदु की 'चन्द्रावली' में प्रथम शैली और 'भारत दुर्दशा' में दूसरी शैली स्पष्ट झलकती है.
द्विवेदी युग -
राष्ट्रीय गीत ' जय जय प्यारा भारत देश' श्री धर पाठक जी के गीत से सारा हिंदी प्रदेश गूँज उठा. इस युग के मैथिलीशरण गुप्त जी के राष्ट्रीय गीतों का अधिक प्रचार हुआ.
बाबु गुलाब राय जी का मत था कि गुप्त जी ने चार प्रकार के गीतों का प्रणयन किया ;
१. छायावादी २. आह्लादसूचक ३. वेदनासूचक ४. नारी-गौरव सूचक.
छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि
द्विवेदी युग में गीति काव्य की दो प्रमुख धाराएँ थी :
१. भारतीय परंपरावादी
२. परिवर्तनवादी
महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रथम धारा के समर्थक थे, और नवयुवक कवियों मे मुकुट धारी, प्रसाद, पंत, निराला आदि द्वितीय धारा के परिपोषक थे. परंपरावादियों की रूढ़िवादिता और हिन्दी के प्रति अँग्रेज़ीदानों की उपेक्षा के थपेड़ो से ऊबकर नवयुवक वर्ग कोई नया मार्ग ढूँढने को व्यग्र हो रहा था. इसी काल मे बंगाल का एक भारतीय अपनी ही भाषा और अपने ही परिचित विचारों के बल से काव्य के विशाल मंदिर में विश्व के दिग्गज विद्वानों द्वारा सम्मानित किया जा रहा था. उसकी कविता ने भारतीय भाषा प्रेमियों को उस तिमिराच्छन्न काल मे आशा की वह ज्योति दिखाई जिसकी ओर निराश हृदय नवयुवक दौड़ पड़े. रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाए बड़ी रूचि के साथ पढ़ी जाने लगीं. गुप्त बंधु और सुमित्रा नंदन पंत ने यह स्वतः स्वीकार किया है कि उन पर रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है.
पंत जी का मत है कि - पूर्व में उपनिषदों के दर्शन के जागरण की आभा को पश्चिम की यंत्र युग की सभ्यता सौंदर्य बोध से दूषित कर कवीन्द्र रवीन्द्र ने सर्व-प्रथम छायावाद की भावना को जन्म दिया.
इतिहास साक्षी है कि ईसा की बीसवीं शताब्दी लगते लगते स्कूलों और कालेजों में अँग्रेज़ी साहित्य की शिक्षा का प्रचार व्यापक बन गया था. परिणाम-स्वरूप अँग्रेज़ी काव्य का प्रभाव हिन्दी कविता की गतिविधि पर पड़ने लगा. नंददुलारे वाजपेयी का मत है कि इसका सबसे अधिक प्रभाव हिन्दी की उस काव्यधारा पर पड़ा जो थोड़ी अधिक भाव-प्रवणता लिए उद्भासित हुई. इस स्वच्छंदतावादी काव्य प्रवृति में उत्तर भारत की परिवर्तन शील सामाजिक स्थितियाँ मुख्य रूप से कारण बनीं थी.
इन सब कारणों से छायावादी कविता का जन्म हुआ. जन्मकाल मे इसका रूप कई आचार्यों को इतना विकृत प्रतीत हुआ कि वे इसका जन्म - देश और जाति के लिए अमंगलकारी मानते थे. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने एक बार खीजकर लिखा : छायावादियों की रचना तो कभी समझ में भी नही आती. ये लोग बहुधा बड़े ही विलक्षण छंदों या वृतों का भी प्रयोग करते हैं. कोई चौपदे लिखते हैं, कोई छःपदे, कोई ग्यारह पदे, कोई तेरह पदे ! किसी की चार सतरें गज गज भर लंबी तो दो सतरें दो ही दो अंगुल की. फिर ये लोग बेतुकी पद्यावलि भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं. इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरख धंधा हो जाती है. न ये शास्त्र की आज्ञा के कायल, न ये पूर्ववर्ति कवियों की प्रणाली के अनुवर्ती ; न ये समालोचकों के परामर्श की परवाह करनेवाले. इनका क्या इलाज हो सकता है, कुछ समझ में नहीं आता.
छायावाद की प्रयोगावस्था -
छायावादी कविता अपने आरंभिक काल में स्वच्छंदतावाद के समीप पहुँचती है और परिपक्वावस्था में रहस्यवाद का दर्शन कराती है. सन 1850 से 1912 तक की हिन्दी कविताओं पर अँग्रेज़ी की स्वच्छंदतावादी काव्य प्रवृति के अपरिपक्व रूप का प्रभाव झलकता है, किंतु सन 1913 से 20 तक का समय ऐसा प्रतीत होता है मानो हिन्दी कवियों की स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति परिपक्व और प्रगाढ़ बनती हुई छायावाद की विशिष्ट काव्यशैली के रूप में परिवर्तित और परिणत होती जा रही है.
अगला भाग अगले वृहस्पतिवार को …
क्रमशः
अकाल और उसके बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।