बुधवार, 7 सितंबर 2011

प्रसादोत्तर काल का नाट्य साहित्य

प्रसादोत्तर काल का नाट्य साहित्य

बीसवीं सदी के तीसरे दशक के अन्त तक यथार्थवादी नाट्य शैली और रंग-शिल्प को अपनाकर कई यथार्थवादी नाटक या समस्या नाटक देखने को मिलते हैं। कृपानाथ मिश्र कृत “मणि गोस्वामी” (1929), लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत “संन्यासी” (1929), से हम यथार्थवादी नाटक या समस्या नाटक की शुरुआत मान सकते हैं। 1930 के आस पास यथार्थपरक नाटकों का कार्य निर्बाध रूप से गतिशील होता रहा और इस तरह के नाटकों एक धारा सी ही चल पड़ी। सेठ गोविन्द दास (सेवापथ, धीरे-धीरे), उपेन्द्र नाथ अश्क (जय-पराजय, स्वर्ग की झलक, छठा बेटा, भंवर, क़ैद और उड़ान, पैतरे, अलग-अलग रास्ते), उदय शंकर भट्ट (नया समाज), गोविन्द वल्लभ पंत (अंगूर की बेटी), पृथ्वीनाथ वर्मा (द्विविधा), वृन्दावन लाल वर्मा (बांस की फांस, पीले हाथ, लो भाई पंचो लो, खिलौने की खोज), भगवती चरण वर्मा, रमेश मेहता, विमला रैना, विनोद रस्तोगी, विष्णु प्रभाकर (डॉक्टर), इन्द्र सेन सिंह, मोहनलाल महतो वियोगी, रेवती शरण शर्मा, अरिगपूडि (कोई न पराया), मैरूलाल व्यास, मन्नू भंडारी आदि ने अपने लिखे नाटकों में सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। हालाकि इन नाटकों में यथार्थ का चित्रण तो था, लेकिन यथार्थवादी रंगमंचीय प्रदर्शन का हिंदी में प्रचलन नहीं होने के कारण, उनका नाट्य लेखन रंग-शिल्प की दृष्टि से अधिक प्रभावकारी नहीं बना।

इस काल में भी लोग प्रसाद नाट्य आदर्शों का अनुगमन करते दिखे। प्रसाद की परंपरा में ऐतिहासिक नाटकों, पौराणिक नाटकों, गीति नाटकों, प्रतीक नाटकों के सृजन का कार्य अनरवत भाव से चलता रहा।

उदयशंकर भट्ट कृत : ‘विक्रमादित्य’ (1933), ‘दाहर’ या ‘सिंध पतन’ (1934), ‘मुक्ति पथ’ (1944), ‘शक विजय’ (1949),।

हरिकृष्ण प्रेमी कृत : ‘स्वर्णविहान’ (1930), ‘रक्षाबंधन’ (1934), ‘पाताल-विजय’ (1936), ‘शिव साधना’ (1937), ‘प्रतिशोध’ (1937), ‘स्वप्नभंग’ (1940), ‘आहुति’ (1940), ‘उद्धार’ (1949), ‘प्रकाश स्तम्भ’ (1954), ‘कीर्ति स्तम्भ’ (1955), ‘साँपों की सृष्टि’ (1959), ‘रक्तदान” (1962)।

प्रेमी जी ने भारतीय इतिहास के मुस्लिम काल को आपने नाटकों का आधार बनाया और हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतिपादन पर उनका विशेष बल रहा। उनके नाटक राष्ट्रीयता और देशप्रेम के भावों से ओत-प्रोत हैं और इस रूप में अपने युग के सच्चे प्रतिनिधि हैं।

चंद्रगुप्त विद्यालंकार कृत : ‘अशोक’ (1935)।

सेठ गोविन्ददास कृत : ‘हर्ष (1935), ‘शशिगुप्त’ (1942)।

लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत : ‘अशोक’ (1926), “संन्यासी” (1929), ‘मुक्ति का रहस्य (1932), ‘राक्षस का मंदिर’ (1932), ‘राजयोग (1934), ‘आधी रात (1934), ‘गरुड़ध्वज’ (1945), ‘वत्सराज (1950), ‘दशाश्वमेध’ (1957), ‘वितस्ता की लहरें’ (1953)।

प्रसाद जी से अलग मार्ग पर चलकर उन्होंने हिन्दी नाट्य-साहित्य को नया मोड़ दिया। उनके ‘संन्यासी’ नाटक के साथ ही हिंदी नाटक के विषय और शिल्प दोनों में बदलाव आया। इस नाटक में राष्ट्र और अपनी संस्कृति के गौरवबोध की प्रेरणा मुख्य रही है। ‘संन्यासी’ से ‘आधी रात’ तक अपने सभी नाटकों में उन्होंने सामाजिक समस्याओं का, विशेषकर नारी समस्याओं को आधार बनाया है। नाट्यशास्त्र की दिशा में उन्होंने मौलिक एवं क्रांतिकारी प्रयोग किए हैं।

वृन्दावनलाल वर्मा कृत : “झांसी की रानी’ (1948), ‘पूर्व की ओर’ (1950), ‘काश्मीर का काँटा’ (1948)।

जगदीश चन्द्र माथुर कृत : ‘कोणार्क’ (1946), ‘शारदीया’, ‘पहला राजा’ (1969)।

देवराज दिनेश कृत : ‘मानव प्रताप’ (1952)।

रामवृक्ष बेनीपुरी कृत : ‘अम्बपाली’।

दशरथ ओझा कृत : ‘प्रियदर्शी सम्राट अशोक’, ‘चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य’।

मोहन राकेश कृत : ‘आषाढ़ का एक दिन’ (1956), ‘लहरों के राजहंस’ (1963)।

यथार्थवादी नाटकों की रचना संस्कृत नाटकों के विपरीत केवल मनोरंजन के लिए ही नहीं, अपितु मानवीय विकास में बाधक अवरोधों के संकेत और उनके निवारण के निर्देशों के द्वारा जीवन को विकासोन्मुख बनाने के लिए हुई। यथार्थवादी नाटकों का लक्ष्य समस्याओं को उभारकर जनता के हृदय में असन्तोष उत्पन्न करना रहा है। वे लोग राष्ट्रीय जीवन के विकास के लिए इसे आवश्यक समझते रहे। लेकिन महान कृतियों के लिए जिस महान औदार्य और महती आस्था की अपेक्षा होती है, वह इस युग के नाटकों में उपस्थित नहीं थी। इसीलिए डॉ. दशरथ ओझा कहते हैं, “इस युग के किसी भी समस्या-नाटककार की अनुभूति इतनी गहराई तक नहीं पहुंच पाई कि उसकी कृति स्थाई बन सके।”

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर भावाभिब्यक्ति | धन्यवाद|

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  2. साहित्य के कक्षा सा लग रहा है आपकी यह श्रंखला. सारगर्भित आलेख..

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  3. श्री मनोज कुमार जी,
    आपके द्वारा पोस्ट किया गया " प्रसादोत्त्तर नाट्य- साहित्य" अपनी पूर्ण समग्रता में में सफल सिद्ध हुआ है । इसके ऊपर किसी भी प्रकार की टिप्पणी प्रश्न चिह्न के दायरे में आ सकती है । कुछ नाटककारों का नाम पढ़ कर वहुत अच्छा लगा
    क्योंकि समय के प्रवाह के साथ इन्हे हासिए पर रख दिया गया । मोहन राकेश ने तीन नाटकों को लिखा था ।
    1.आषाढ़ का एक दिन 2.लहरों के राजहंस 3.आधे-अधूरे ( क्रम संख्या तीन का आपने अपने पोस्ट में उल्लेख नही किया है एवं यह नाटक आपके कोर्स में भी है )। इसके बाद भी उन्होंने एक नाटक लिखा था जिसे वे अपने जीवन-काल में पूरा नही कर सके । अभी इसका नाम याद नही है, इसलिए बताने में असमर्थ हूँ । पोस्ट अच्छा लगा एवं मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई । धन्यवाद ।

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  4. सर,
    मैं अपने पोस्ट के साथ-साथ संध्या सिंह, शनीम अहमद , डॉ शरद सिंह इत्यादि पर कमेंट नही दे पा रहा हू । कृपया इसे ठीक कर दें । धन्यवाद ।

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  5. नटी साहित्य के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी ... आपके इस लेख से काफी ज्ञान प्राप्त हुआ .. आभार

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