हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षणभाग – 1 आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल |
हिंदी साहित्य की सृजन परम्परा को देखें तो हम पाते हैं कि आदिकाल और भाक्तिकाल में यह काफी समृद्ध और संपन्न था। पर जहां तक काव्यशास्त्र का प्रश्न है, इस पर कोई खास विचार नहीं किया गया। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है – “सहज कवित करित विमल सोई आदरहि सुजान” इस पंक्ति में काव्यलक्षण का कुछ संकेत तो दिखता है, पर इसे हम विधिवत दिया हुआ काव्य लक्षण नहीं मान सकते। रीतिकाल में हम पाते हैं कि उस काल के कवि और आचार्य प्रायः संस्कृत काव्यशास्त्र के काव्य लक्षणों की नकल ही करते रहे। आचार्य चिंतामणि ने “कविकुल कल्पतरू” तथा “श्रृंगार मंजूरी” की रचना की। इसमें हम पाते हैं कि उनके काव्य लक्षण में आचार्य मम्मट और आचार्य विश्वनाथ के मत का काफी प्रभाव है। आचार्य चिंतामणि ने कहा – “बतकहाउ रस में जु है कवित कहावै सोई”। इस परिभाषा में आचार्य विश्वनाथ की परिभाषा, “वाक्यं रसात्मक काव्यम्” की छाप है। वहीं उनके द्वारा प्रतिपादित अन्य काव्य-लक्षण को देखें – सगुन अलंकारन सहित, दोषरहित जो होई। शब्द अर्थ बारों कवित, विवुध कहत सब कोई। यह आचार्य मम्मट द्वारा प्रतिपादित “तद्दोषौ शब्दार्थों सुगणावनलंकृती पुनः क्वापि” से बहुत मिलता-जुलता है। ऐसा लगता है कि रीतिकाल के कवि या आचार्यों में मौलिक काव्य लक्षण प्रतिपादन करने के सामर्थ्य का अभाव था इसका। परिणाम यह हुआ कि वे संस्कृत के आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य लक्षणों की ही नकल करते रहे। यह परंपरा बाद के दिनों में भी जगन्नाथ प्रसाद भानु, कन्हैया, लाल पोद्दार, आदि तक चलती चली आई । |
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्य लक्षण :: भाग– 1 आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल
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बहुत अच्छी जानकारी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी ...
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी दी।
जवाब देंहटाएंachhi jaankari di hai aapne...
जवाब देंहटाएंMeri Nai Kavita padne ke liye jaroor aaye..
aapke comments ke intzaar mein...
A Silent Silence : Khaamosh si ik Pyaas
....बहुत ही उपयुक्त जानकारी आपने उपलब्ध कराई है!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उपयुक्त जानकारी!
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख।
जवाब देंहटाएंकहते हैं रहीम जिसे वही राम है
जवाब देंहटाएंनेकी ही फ़क़त बन्दे का काम है।
फ़र्क़ की दीवार गिराकर देखिए , खुद को सच्चे मालिक के प्रति अर्पित कर दीजिए यही है सच्चा समाधान । हरेक युग में हरेक महापुरूष ने यही बताया है, चाहे जिस भाषा का ग्रंथ उठाकर देख लीजिए।
काव्य के लक्षण पर और विस्तृत बताएं ,आभार !
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंआदरणीय अरविंद मिश्र जी और आदरणीय अनूप जी आप इस ब्लॉग पर आए और हौसला आफ़ज़ाई की, हम आपके आभारी हैं।
जवाब देंहटाएंडॉ.जमाल जी आप भी पहली बार इस ब्लोग पर आए, हम आपका शुक्रिया अदा करते हैं।
जवाब देंहटाएंआपकी बातें बिल्कुल सही हैं और प्रेरक भी।
पर्याप्त जानकारी ।
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी ...
जवाब देंहटाएंमनोज जी सुंदर और ज्ञानवर्धक लेख हमें पढ़ने का अवसर देने के लिए आपका आभार
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख।
जवाब देंहटाएंऔहो ..लीजिए एक हम थे जो समझते रहे की काव्य की परंपरा काफी पहले से चली आ रही है......आदिकाल से ....धत तेरे के हमारे ज्ञान चक्षु तो इम मामले में बंद ही रहे.....धन्यवाद आपका......ज्ञानवर्धन कराते रहिए जरा
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