सोमवार, 16 अगस्त 2010

कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्‍यक्ति है।

"कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्‍यक्ति है।

हिंदी की चिंतन परंपरा में काव्‍य लक्षण

भाग – 5 प्रगतिवाद काल

काव्‍य चिंतन को प्रगतिवादियों ने नए ढंग से उठाया। इस धारा के विद्वानों का मानना था कि कविता विकासमान सामाजिक वस्तु है। इसका सृजन तो व्‍यक्तिगत प्रयास का परिणाम है। पर ध्‍यान देने वाली बात यह है कि यह सृजन मूलतः सामाजिक और सांस्‍कृतिक भूमि पर केंद्रित होता है।

दूसरे शब्‍दों में हम कह सकते हैं कि कविता में संस्‍कृतिक परंपराओं की संवेदना समाहित होती है।

गजानन माध‍व मुक्तिबोध ने नयी कविता का आत्‍मसंघर्ष तथा अन्य निबंध में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि काव्‍य एक सांस्‍कृतिक प्रक्रिया है।

प्रगतिवादी काव्‍य प्रक्रिया को छायावादी काव्‍य प्रक्रिया से अलग मानते है। मुक्तिबोध का मानना था कि –

“इसका अर्थ यह नहीं है कि आज का कवि व्‍याकुलता या आवेश का अनुभव नहीं करता। होता यह है कि वह अपने आवेश या व्‍याकुलता को बांधकर, नियंत्रित कर, ऊपर उठाकर, उसे ज्ञानात्‍मक संवेदन के रूप में या संवेदनात्‍मक ज्ञान के रूप में प्रस्‍तुत कर देता है।”

 

“रोमैंटिक कवियों की भांति आवेशयुक्‍त होकर, आज का कवि भावों को अनायास स्‍वच्‍छंद अप्रतिहत प्रवाह में नहीं बहता। इसके विपरीत, वह किन्‍ही अनुभूत मानसिक प्रतिक्रियाओं को ही व्‍यक्त करता है। कभी वह इन प्रतिक्रियाओं की मानसिक रूपरेखा प्रस्‍तुत करता है, कभी वह उस रूप रेखा में रंग भर देता है।”

मुक्तिबोध ने आगे यह कहा कि “इसका अर्थ यह नहीं है कि आज का कवि व्‍याकुलता या आवेश का अनुभव नहीं करता। होता यह है कि वह अपने आवेश या व्‍याकुलता को बांधकर, नियंत्रित कर, ऊपर उठाकर, उसे ज्ञानात्‍मक संवेदन के रूप में या संवेदनात्‍मक ज्ञान के रूप में प्रस्‍तुत कर देता है।”

मुक्तिबोध का काव्‍य को "सांस्‍कृतिक प्रक्रिया" कहने के पीछे यह तर्क है कि काव्‍य-सृजन में सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक सांस्कृतिक शक्तियों का हाथ होता है इस लिए यह सांस्‍कृतिक प्रक्रिया है।

यह तो स्‍पष्‍ट है कि प्रगतिवाद का काव्‍य चिंतन मार्क्‍सवाद से प्रभावित है। वे यह अवष्‍य मानते हैं कि काव्‍यानुभूति की बनावट में सामाजिक सौंदर्यानुभूति की भूमिका अहम है।

डॉ रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्‍तक प्रगति और परम्‍परा में यह कहा है कि

“काव्‍य एक महान सामाजिक क्रिया है – जो सामाजिक विकास के समानांतर विकसित होती रहती है।” स परिभाषा से यह सिद्ध होता है कि कविता सामाजिक यथार्थ का चित्रण करती है । पाश्‍चात्‍य चिंतक काडवेल का "Illusion and Reality" में कहना था

"Art is the product of society as the pearl is the product of the oyster."

अर्थात "साहित्‍य वह मोती है जो समाज रूपी मोती तें पलता है।” उसके इस कथन को अधिकांश प्रगतिवादी मानते रहे। यह एक भौतिकवादी चिंतन है।

कविता में जिस अनुभूति का चित्रण होता है वह वैयक्तिक न होकर भी सामाजिक होती है। इस सामाजिक अनुभूति में जटिलता, संश्लिष्‍टता और तनाव रहता है।

इससे हटकर जार्ज लुकाच ने द्वंद्वात्‍मक भातिकवादी विचारधार को आगे बढ़ाया। उनका कहना था “हमारी चेतना मात्र भौतिक स्थितियों से नियंत्रित नहीं होती वह अपेक्षाकृत स्‍वतंत्र है और कभी कभी वह बाहरी भौतिक स्थितियों के विपरीत भी जा सकती है।” यह दृष्टि सौंदर्यशास्त्रियों के चिंतन से बहुत मेल खाती है।

ऊपर कही गई बातों पर गौर करें तो हम इस निष्‍कर्ष पर पहुँचते हैं कि कविता में जिस अनुभूति का चित्रण होता है वह वैयक्तिक न होकर भी सामाजिक होती है। इस सामाजिक अनुभूति में जटिलता, संश्लिष्‍टता और तनाव रहता है। इसलिए हम निष्‍कर्ष के रूप में यह मान सकते हैं कि कविता सामूहिक भाव बोध की अभिव्‍यक्ति है। आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल का कहना था कि ज्ञान-प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है। उनकी यह मान्‍यता प्रगतिवादियों को भी मान्‍य रही है।

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति ...

    स्वंत्रता दिवस की बधाइयां और शुभकामनाएं

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  2. कविता पर इतने महान लोगों की कही हुई बात के बाद बहुत अच्छा और सटीक निष्कर्ष निकाला ...अच्छी प्रस्तुति

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  3. हिंदी की सेवा तो आप कर रहे हो ...मेरी हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करें ! समय के साथ यह ब्लाग हिंदी का एक दस्तावेज बनेगा !

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  4. उफ़... मुझे बहुत डर लग रहा है.... लगता है फिर से कही क्लास-रूम तो नहीं बैठा दिया गया... !!!

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  5. ज्ञानवर्धक जानकारी…………आभार्।

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