मंगलवार, 2 अगस्त 2011

औद्योगिक बस्ती – अज्ञेय

अज्ञेयअज्ञेय की कविताएं 7. औद्योगिक बस्ती

पहाड़ियों से घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में

ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर

धुआँ उगलती जाती हैं।

 

भीतर जलते लाल धातु के साथ

कमकरों की दुःसाध्य विषमताएँ भी

तप्त उबलती जाती हैं।

 

बँधी लीक पर रेलें लादे माल

चिहुँकती और रँभाती अफराये डाँगर-सी

ठिलती चलती जाती हैं।

 

उद्यम की कड़ी-कड़ी में बँधते जाते मुक्तिकाम

मानव की आशाएँ ही पल-पल

उसको छलती जाती हैं।

9 टिप्‍पणियां:

  1. औद्योगिक बस्ती का सजीव चित्रण है इस कविता में ...

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  2. मुन्हझौंसी, चिहुन्काती, रंभाती (रेल, डांगर... इन शब्दों को जीवंत कर दिया है अनोखे प्रयोग से.. महान कवि की महान रचना!!

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  3. श्रमिको की बेबसी को स्वर देती एक वातावरण प्रधान प्रगति वादी धारा की श्रेष्ठ रचना . .

    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/http://sb.samwaad.com/

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  4. मार्मिक एवं ज्ञानवर्धक रचना प्रस्तुत करने हेतु धन्यवाद।

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  5. पूंजीवाद के खिलाफ एक आवाज थी जिसमें कामगार उबलते रहते हैं

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