मंगलवार, 9 अगस्त 2011

चलिए अन्ना गाँव की ओर

चलिए अन्ना गाँव की ओर

arunpicअरुण चन्द्र रॉय

सरकार ने आनन फानन में लोकपाल बिल को संसद में पेश कर दिया है. सब एक ओर से कह रहे हैं, मान रहे हैं कि यह बिल प्रभावी रूप से देश में भ्रष्टाचार को रोकने में कामयाब नहीं होगा. सच भी है. अब अन्ना साहब और उनकी सिविल सोसाइटी ने घोषणा कर दी है कि वे अनशन पर बैठेंगे. सरकार ने अन्ना साहब को बता दिया है कि वे जंतर मंतर पर धरने पर नहीं बैठ सकते. दिल्ली पुलिस ने उन्हें औपचारिक रूप से सूचित भी कर दिया है. अब अन्ना और उनकी टीम किसी वैकल्पिक स्थान की तलाश में हैं. अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी की पहली हार यही है. किसी लोकतान्त्रिक देश में जब आपको किसी खास स्थल पर विरोध प्रदर्शन नहीं करने दिया जाय तो इस से बड़ी अलोकतांत्रिक बात और क्या होगी.

मुझे लगता है कि अन्ना साहब की इस मामले में तैयारी कम थी. जब सरकार संसद में लोकपाल बिल पेश कर रही है तो अन्ना को धरने के लिए उपयुक्त स्थान तलाशने की बजाय जानता के बीच जाना चाहिए. जानता वो नहीं है जो उनके साथ जंतर मंतर पर थी या ई-मेल और फ़ोन के जरिये उनका साथ दे रही थी. जनता वो है जो आज भी दो जून की रोटी के लिए लड़ रही है. जनता वो है जिसके हिस्से का इंदिरा आवास पंचायत तक पहुच कर भी उस तक नहीं पहुचता. जनता वो है जिसे अपने मनरेगा की मजदूरी के लिए गाँव के मुखिया को आधी मजूरी देनी पड़ती है. सरकार न्यूनतम मजदूरी तय करती है और जिन्हें बारह घंटे काम करने के बाद भी वो मजदूरी नहीं मिलती है वे है जनता. और अन्ना जी को जरुर पता होगा कि संसद जो चला रहे हैं वे आपकी बात नहीं सुन रहे, आपसे नहीं डर रहे क्योंकि उन्हें पता है कि आपकी पहुँच वहां तक नहीं है.

सिविल सोसाइटी बनाम पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज़

वर्तमान स्थिति और सत्तर के दशक की इमर्जेंसी से काफी मेल खा रही है. जिस तरह २-ज़ी स्पेक्ट्रम घोटाले और राष्ट्र मंडल खेलों में अनियमितता में प्रधानमत्री और उनके कार्यालय पर उंगलियाँ उठ रही हैं.. उच्चतम  न्यायालय तक से फटकार मिल रही और सरकार तानाशाह की तरह व्यव्हार कर रही है, ऐसी ही मिलती जुलती स्थिति १९७५ में भी थी. १२ जून १९७५ को इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा ने श्रीमती इंदिरागांधी की श्री राजनारायण पर लोकसभा के चुनाव में जीत को खारिज कर दिया था और श्रीमती गाँधी की भ्रष्ट तरीके से चुनाव जीतने के कारण लोकसभा की सदयस्ता समाप्त कर दी थी. उस समय जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, राज नारायण, जॉर्ज फर्नांडीज़ जैसे नेता देश भर के किसानो, मजदूरों, कामगारों और छात्रों को एक जुट करने में लगे थे. जयप्रकाश नारायण की एन जी ओ संस्था पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज़ की इसमें प्रमुख भूमिका थी. ये नेतागण देश के कोने कोने में लोगों को कांग्रेस और उसके भ्रष्ट आचरण के खिलाफ खड़ा करने का काम कर रहे थे. ऐसा आन्दोलन स्वतंत्रता पूर्व ही देखा गया था. लेकिन आज परिस्थितियां एक और आन्दोलन के लिए तैयार हैं लेकिन नेतृत्व दिल्ली से निकल कर गाँव, देहात, मजदूरों और कामगारों तक पहुचने में नाकामयाब है. आज की सिविल सोसाइटी और जय प्रकाश नारायण की पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज़ में बहुत अंतर है.

चांदनी चौक में सर्वेक्षण : गहराई और गंभीरता दोनों में कमी

अन्ना और उनकी टीम का विज़न कम होता दिख रहा है. उनके सत्याग्रह का प्रभाव कम होता प्रतीत हो रहा है. जिस तरह एक के बाद एक भूषण द्वय पर सरकार की ओर से हमले होने शुरू हुए, जब बाबा रामदेव को रामलीला मैदान से खदेड़ा गया, तभी से सरकार की नीयत साफ़ थी. ऐसे में सबसे बढ़िया रणनीति होती कि आप जनता के पास जाएँ. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अन्ना और उनकी टीम जनता के पास जाने की बजाय राजनीतिक दलों के पास समर्थन के लिए गए. लेकिन यह बात तो साफ़ है कि राजनीति में कोई भी दल ऐसा लोकपाल नहीं चाहेगा जो सांसदों, प्रधानमंत्री को भी कठघरे में खड़ा करने की ताकत रखता हो. हास्यास्पद तो तब लगता है जब अन्ना हजारे की सिविल सोसाइटी चांदनी चौक में सर्वेक्षण करने गए. यदि सर्वेक्षण करना ही था तो करते महाराष्ट्र के गाँव में, मध्य प्रदेश में, बिहार में, गुजरात में, उड़ीसा में, उत्तर प्रदेश में. लेकिन उन धूल भरे गाँव में कौन जाए. इस कारण से अन्ना के सत्याग्रह में गहराई और गंभीरता दोनो में कमी आई है. आम जनता की विश्वशनीयता भी कम हुई है. जो लोग बिल्कुल जमीन से जुड़े हैं वे खुद को अन्ना के सत्याग्रह के साथ जुड़ा महसूस नहीं करते. उन्हें लगने लगा है कि अन्ना और उनकी टीम का लक्ष्य भ्रष्टाचार को ख़त्म करना नहीं बल्कि अपने लिए सुविधाजनक जमीन तैयार करना है. सरकार भी उनकी इस कमजोरी को भांप रही है.

चलो गाँव की ओर
एक समय था जब जॉर्ज फर्नांडीज़ के एक आह्वान पर लाखों रेलवे कर्मचारी क्रांति के लिए तैयार रहते थे. लाखों मिल मजदूर मोरारजी देसाई की एक आवाज़ पर सड़क पर उतर आते थे. जय प्रकाश नारायण, लोहिया, राजनारायण के आह्वान पर देश के किसान और छात्र गाँव गाँव से उठ कर दिल्ली, पटना, लखनऊ से लोहा लेने के लिए तैयार रहते थे. पूरी तरह लोकतान्त्रिक तरीके से. लाठी झेल कर. गोली झेल कर. लेकिन आज के नेतृत्व में वो पहुँच, वह जुझारूपन दिख नहीं रहा. और जब आपकी एक आवाज़ पर लाखो किसान मजदूर भाई बहन संसद पर कूच करने के लिए तैयार रहे तभी सरकार भी सुनती है. देश में भ्रष्टाचार तब तक आम आदमी का प्राथमिक मुद्दा नहीं बन सकता जब तक उसकी रोज़ी-रोटी और छत के मुद्दे का समाधान हो जाये. एक मजदूर यदि अपनी मजदूरी में से दस रूपये देने के लिए तब तक तैयार रहेगा जब तक कि उसके पास कोई विकल्प उपलब्ध नहीं हो जाता है. और उसके सामने यह विकल्प नहीं है न ही निकट भविष्य में कोई विकल्प दिख रहा है. ऐसे में आम जनता का इस मुद्दे के साथ पूरी तरह खड़ा होना अभी दूर ही दिख रहा है. सरकार ने बहुत ही सुनियोजित रूप से किसान, मजदूर की एकता को ख़त्म किया है. 

इसलिए अन्ना हजारे और भूषण द्वय के लिए बेहतर विकल्प है कि इन इन्टरनेट पीढी के वर्चुअल समर्थन के बजाय गाँव, देहात की यात्रा करें, पद यात्रा करें, साइकल यात्रा करें, किसानों से मिले, फैक्ट्री मजदूरों से मिले, निर्माण मजदूरों से मिले, कॉलेज के छात्रो से मिले और उनका समर्थन प्राप्त करें. तभी यह सत्याग्रह देश का आग्रह बन पायेगा. सरकार भी जनता का दवाब महसूस करेगी. अन्यथा सिब्बल साहब धमकी देंगे और आप धरने के लिए वैकल्पिक स्थान और तिथि का का चुनाव करने में अपनी ऊर्जा लगायेंगे.

21 टिप्‍पणियां:

  1. अरुण चंद्र रॉय के लेख पर टिप्पणी
    अरुण जी ने अच्छा विश्लेषण किया है। परंतु मुझे नहीं लगता है कि लोकपाल विधेयक के अधिनियम बनने के बाद भी भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। मैं आजकल उत्तर प्रदेश के गाँव में हूँ और बहुत लोगों से बात की है। मुद्दा चुनाव और निजी हित है। एक ही परिवार में चार भाइयों में मतैक्य नहीं है और सभी में खींच-तान है। महिलाओं की भूमिका कुछ ज़्यादा ही विघटनकारी लगती है। जिसके चार बच्चे हैं उनका बुढ़ापा खराब हो रहा है। अतः गाँवों की हालत तो बहुत ही खराब है। अपने वर्तमान, शहरी पृष्ठभूमि वाले साथियों के साथ अन्ना जी का गाँव का रुख का करना संभव नहीं है। गाँव में युवकों को एक जुट करने के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश के गावों में अतिशीघ्र, जन तांत्रिक नेतृत्व वाला (गुंडा तत्व वाला नहीं) संगठन बनाना और गाँव की समस्याओं को जोड़कर संघर्ष करना ज़रूरी है। लोकपाल बिल अगर पास भी हो गया तो उससे गाँव वाले कतई प्रभावित नहीं होंगे। गाँव वाले तो छोटे भ्रष्टाचार ते प्रभावित हैं और ऐसे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल अधिनियम नहीं बल्कि भ्रष्टाचार निरोधी संघर्ष संगठनों की ज़रूरत है। लोकपाल अधिनियम बन भी जाए तो कोई परवाह नहीं। उसे बदला भी जा सकता है।

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  2. मनोज जी,
    नमस्कार,
    आपके इस ब्लॉग को भी "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगपोस्ट डाट काम"के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|

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  3. विश्‍लेषण तक एक हद तक सहमत हूं। पर विकल्‍प शायद यह भी नहीं है कि आप गांव में जाएं। जनता में जाने का मतलब चुनाव में खड़े होना ही होगा। यह हम सबको समझना पड़ेगा। क्‍योंकि हमारी संसदीय व्‍यवस्‍था ही एक मात्र हथियार है किसी भी व्‍यवस्‍था को बदलने के लिए। अगर देश की पूरी जनता भी संसद के सामने एकत्रित हो जाए तो वह क्‍या करेगी। या तो आप अपने संविधान को पहले नष्‍ट कर दीजिए और फिर नए सिरे से शुरू कीजिए।
    *

    जो लोग शासन में बैठी पार्टी को कोसते रहते हैं, वे भूल जाते हैं कि जो विपक्ष में बैठे हैं, वे भी उसी थैली के चट्टे-बट्टे हैं। और सबसे मजेदार बात यह है कि जिस आम जनता के नाम पर सियापा कर रहे हैं, उसी आम जनता के वोट से वो वहां पहुंचे हैं।
    *

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  4. रोचक जानकारी ! ब्लॉगप्रहरी एग्रीगेटर पर प्रकाशित लिंक के माध्यम से यहाँ पहुँचना हुआ.
    आश्चर्य है कि आपने ब्लॉगप्रहरी का लोगो अपने ब्लॉग पर नहीं लगाया है. जबकि अन्य छोटे -मोटे लिंक्स दिख रहे हैं .

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  5. वास्तविकता यह है कि अन्ना साहब खुद दो लाख गबन के घपले मे कोर्ट से बीमारी के नाम पर बचते फिर रहे हैं। उनमे नैतिक बल कहाँ है?वह तो कारपोरेट घरानों के दम पर उनके हित मे जनता की मूल-भूत समस्याओं से ध्यान हटाने का आंदोलन चला रहे हैं। उन्हें जनता से मतलब क्या है?अमीर और भ्राष्टाचार के समर्थक ही अन्ना की पीठ पर हैं।

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  6. @ उत्साही जी
    बहुत दिनों बाद आप मेरी किसी रचना पर आये हैं. अच्छा लगा. आपके मत से पूरी तरह सहमत होते हुए कहना चाहता हूँ कि जनता के बीच जाने का तात्पर्य इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाना. अगले चुनाव में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होने वाला है. सरकार अभी अन्ना के दवाब से निकल आई है. आज भी देश के सभी समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर खबर है कि अन्ना की टीम को बुरारी मैदान अनशन के पसंद नहीं आया. दिल्ली पुलिस दो दिनों में वैकल्पिक स्थान सुझाएगी. यह सब प्रायोजित सा नहीं लगता क्या. इस से सत्याग्रह की गंभीरता ख़त्म हो रही है. संसदीय व्यवस्था में विरोध का भी अपना महत्व है. इमर्जेंसी के बाद बहुत कुछ तो नहीं बदला लेकिन राजनीतिक चेतना तो जनमानस में आई ही. अन्ना ने जिस तरह से इस मुद्दे को उठाया था.. एक और क्रांति और आन्दोलन का शक्ल दे सकते थे इसे लेकिन लगता नहीं है कि ऐसा हुआ है. यदि वे जनसमर्थन नहीं जुटाते हैं तो उनके इस आन्दोलन से भारतीय लोकतंत्र को लाभ से अधिक हानि ही होगी.... आगे सभी होने वाले आन्दोलन के समक्ष एक असफल आन्दोलन की परछाई खड़ी रहेगी. अब भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है. १६ अगस्त से दिल्ली में अनशन की बजाये वे पद यात्रा पर निकले.. आम जनता के बीच अपनी बात रखें.... सरकार और अपने लोकपाल बिल के बीच तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कर जनता को जागरूक करें. दिल्ली का मोह छोड़ें अन्ना.

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  7. @ डॉ. यादव
    आपने सही कहा है कि अन्ना की टीम गाँव की ओर का रुख नहीं कर सकती और जो गाँव की ओर नहीं जा सकता है वह देश में जन नेतृत्व नहीं कर सकता. यदि आपने ने संयुक्त समिति में सरकार के नुमायिन्दो को प्रभावित नहीं कर सके तो वह विफलता है. इस मुद्दे को नए सिरे से उठाना होगा. पूरी रणनीति के साथ.

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  8. पहली बात तो यह कि 'राजनीति' यथानाम राज करने की नीति है और इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार के आंदोलन जीवित रखने के लिये विकट जीवट चाहिये।
    विजय माथुर साहब जो कह रहे हैं उससे बेहतर कुछ कह पाते अगर वे इस आंदोलन के औचित्‍य पर विश्‍लेषण प्रस्‍तुत करते।
    भ्रष्‍टाचार विश्‍वव्‍याप्‍त रोग है इसलिये देश-विशेष की बात ही करना बेकार है। लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में सरकार का चयन जनता करती है या कुछ और इसे देखा जाये तो स्‍पष्‍ट है कि राजनीति एक बड़ा जुआघर है। किसी दल की प्राथमिक सदस्‍यता प्राप्‍त करने से राजनीति में भ्ररूटाचार करने योग्‍य पद पाने तक की दौड़ में कई दम तोड़ देते हैं। ऐसी मारा-मारी वाली स्थिति में भ्रष्‍टाचार तो अंतहीन होगा ही।
    ऐसा भी नहीं है कि सभी राजनीतिज्ञ भ्रष्‍ट हैं। ऐसा भी नहीं कि जो स्‍वच्‍छ हैं वे जनता में प्रिय नहीं।
    हॉं अधिकॉंशत: वोट का माहौल खींचने में नोट का प्रभाव स्‍पष्‍ट है।
    जहॉं मीडिया में समाचार का आधा समय इसी बात में जाता है कि 'ये समाचार हम सबसे पहले आपके पास लाये हैं' वहॉं आप सही वोट का माहौल बनाने में मीडिया से भी अपेक्षा नहीं रख सकते।
    कुल मिलाकर देखा जाये तो अभी स्‍वच्‍छ राजनीति की स्थिति का समय भारतवर्ष में तो नहीं आया है। अभी समय है।
    अन्‍ना हजारे के लिये बेहतर होता कि कुछ शुरूआत तो होने देते और फिर सिद्ध करते कि लोकपाल और बेहतर कैसे हो सकता है।

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  9. अन्ना ने अत्यधिक जिद पकड़ ली इसलिए वे मौका हाथ से खो बैठे . क्योंकि भारतीय संविधान में

    संशोधन की पूरी सुविधा है @ विजय माथुर - दो लाख गबन वाली बात पची नहीं . यदि ऐसा होता

    तो राम देव की तरह इन्हें भी C B I के शिकंजे में ले लेती

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  10. बहुत राजनीति की बातें नहीं जानती ..पर इतना तो ज़रूर है कि जनता संशय में आ गयी है ..

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  11. इतना तो है अन्ना का मुद्दा कमजोर पड रहा है शायद उतनी बुलन्दी से अब अन्ना भी अपनी बात नही रख पा रहे कारण क्या है उसका हम लोग चाहे कितना विश्लेषण कर लें मगर जब तक जनता मे जागृति नही आयेगी अपने हक के लिये जनता खुद लडना नही सीखेगी कोई अन्ना कुछ नही कर सकता । बापू के साथ भी देश की सारी जनता का समर्थन था तभी देश आज़ाद हो पाया और आज भी उसी दौर से गुजर रहा है देश मगर अभी क्रांति की लहर जनमानस के लहू तक नही पहुंची है जिस दिन बच्चे बच्चे के दिल और दिमाग मे ये बात आ जायेगी देश का भविष्य खुद-ब-खुद सुधर जायेगा।
    वैसे अरुण जी आपने काफ़ी गंभीर मुद्दा उठाया है।

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  12. जो गाँव की ओर नहीं जा सकता है वह देश में जन नेतृत्व नहीं कर सकता...बिल्कुल सहमत!!!

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  13. बहुत ही संतुलित और भावनाओं में बहकर नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर लिखी गयी पोस्ट!!

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  14. लोग कैसे कह रहे हैं कि-
    1.लोकपाल विधेयक के अधिनियम बनने के बाद भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इसे रोकने के लिए Prevention of Corruption Act,1984 भी बना था। उसका प्रत्यक्ष परिणाम हम सबके सामने ही है।
    2.हम किस लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं जहाँ शांतिपूर्ण रूप से प्रदर्शन करने वाले निरीह बच्चों, महिलाओं एवं सोये हुए लोगों को पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया गया।
    3.उस लोकतंत्र का क्या होगा जब हमें सरकार की नीतियों के विरूद्ध अपनी आवाज उठाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी ।
    कहना तो बहुत है लेकिन मैं अपनी लेखनी को यही विराम देता हूँ। सार्थक पोस्ट।
    धन्यवाद।

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  15. अरुण जी बहुत ही सही समय पर आपने इस मसले को उठाया है। लगभग सत्तर साल पहले इन्हीं दिनों बापू की अगुआई में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के लिए तब के बंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में देश के शीर्ष नेता जुटे थे। करो या मरो का नारा बुलंद हुआ। ब्रिटिश सरकार से लोहा लेने के बुलंद हौसले के साथ साथ सिर्फ़ एक आधार था- व्यापक जनसमर्थन। जिस सख्स ने आवाज़ लगाई थी, उसने अपना होमवर्क किया था सही मायने में। गांव-गांव घूम-घूम कर उसने लोगों तक अपनी बात पहुंचाई थी।

    दौर बदल चुका है। अपना राज है। लेकिन वाजिब हक़ की लड़ाई के लिए छटपटाहट लोगों में आज भी बनी हुई है। जन-समर्थन के लिए होमवर्क नहीं हो रहा। एस.एम.एस. से जनसमर्थन नहीं जुटते। जनता की भावना की नुमाइंदगी जंतर-मंतर से मंतर फ़ूंककर नहीं आने वाले। आज़ादी के दूसरे संघर्ष का नाम काफ़ी नहीं है। गांधीवादी रास्ते पर चलना इतना आसान भी नहीं है।

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  16. अपने देश में समर्थन के मत में तब्दील न होने की सुदीर्घ परम्परा है। अन्ना को चुनाव लड़ने की ज़रूरत नहीं है,मगर भ्रष्ट जनता भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कोई ठोस मुहिम छेड़ पाएगी,संदेह है।

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  17. arun ji ne acchha mudda uthaya aur us par acchha vishleshan bhi kiya..baaki sab ne bhi apni soch shakti ke hisab se mudde par apne vichar diye...lekin mujhe samajh nahi aata...sab yahin blogs par hi sujhaav aur samasyaai bata rahe hain....koi anna tak pahunchne ki sochte tak nahi hain..vo anna us janmans tak kya pahuch kar samjhayenge....jab samjhe hue log hi unke sath nahi khade hain????

    dusri baat लोकतान्त्रिक देश में जब आपको किसी खास स्थल पर विरोध प्रदर्शन नहीं करने दिया जाय तो इस से बड़ी अलोकतांत्रिक बात और क्या होगी. bahut hi sharm ki baat hai har us voter ke liye jo aisi sarkar chun kar unhe ye fainsle sunane ka hak dete hain.

    vipaksh bhi isi thali ki chtti-batti hai isme koi do-rai nahi.

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  18. जी बिल्कुल सच..
    मेरा भी यही मानना है कि अन्ना का मुद्दा सही है, पर तरीका गलत है। उनके साथ के लोग महत्वाकाक्षी हैं।
    दरअसल देश भर से मिले समर्थन का ये तथाकथित सिविल सोसायटी गलत इस्तेमाल कर रही है। इन्हें अपना प्रस्तावित लोकपाल विल सरकार को सौंपना चाहिए था और किसी भी ड्राप्ट कमेटी में शामिल नहीं होना चाहिए था। सरकार इस कमेटी में राजनीतिक दलों के नेताओं को शामिल करती, जिनके जरिए बिल पर सहमति बनाने का प्रयास होता। पर अब इन्होने बहुत विरोधी पैदा कर लिए हैं। सरकार इनकी मांग मान भी ले तो संसद में बिल पास नहीं हो सकता।

    सार्थक लेख

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  19. सचमुच बहुत बढिया और सामयिक मुद्दा बेहतरीन तरीके से उठाया आपने. फिलहाल मामला तो अब शुरु हुआ है, देखें क्या होता है.

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  20. आपने यह सही लिखा है-
    जानता वो नहीं है जो उनके साथ जंतर मंतर पर थी या ई-मेल और फ़ोन के जरिये उनका साथ दे रही थी. जनता वो है जो आज भी दो जून की रोटी के लिए लड़ रही है. जनता वो है जिसके हिस्से का इंदिरा आवास पंचायत तक पहुच कर भी उस तक नहीं पहुचता. जनता वो है जिसे अपने मनरेगा की मजदूरी के लिए गाँव के मुखिया को आधी मजूरी देनी पड़ती है. सरकार न्यूनतम मजदूरी तय करती है और जिन्हें बारह घंटे काम करने के बाद भी वो मजदूरी नहीं मिलती है वे है जनता.

    जनता के बीच जाकर उससे जुड़ना और उसको शिक्षित करना मेहनत और धैर्य का काम है। अन्ना का आंदोलन अब देखिये आगे कहां किधर जाता है मामला।

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