मंगलवार, 8 नवंबर 2011

देश को ढूंढना है अभी इस प्रश्न का उत्तर !

देश को ढूंढना है अभी इस प्रश्न का उत्तर !




arunpicअरुण चन्द्र रॉय
पिछले एक महीने में काफी घूमना हुआ. स्क्रीन प्रिंटरों की छोटी अँधेरी गलियों से लेकर कारपोरेट दफ्तरों की चमक दमक तक. दिल्ली की पोश कालोनियों से लेकर बिहार स्थित बिना बिजली सड़क वाले अपने गाँव तक का. कभी बड़े-बड़े ब्रांड के प्रबंधको से लेकर रेडलाईट पर खड़े बच्चों से भी मिला. कुछ बातें मन में उथल पुथल मचा रही थीं. इसी बीच देश के नीति-नियंताओं ने कह दिया कि ३२ रूपये काफी हैं जीवन यापन के लिए.
दिल्ली के विकास मार्ग के अंतिम छोड़ पर करकरडूमा रेडलाईट पर पिंटू नाम का एक लड़का खिलौने बेचता है. पहले लगता था कि ये लड़का उद्यमी है. लेकिन इस से पूछने पर बताया कि माल कोई और दे जाता है और उसे हर खिलौने पर दो रूपये मिलते हैं. कुल मिला कर वह चार हज़ार रूपये कमा लेता है. माननीय मोंटेक साहब के हिसाब से वह गरीबी रेखा से ऊपर है लेकिन उसका जीवन तो देखिये... ट्रैफिक के कम हो जाने के बाद रात को कोई दो बजे करकरडूमा फ्लाई ओवर के नीचे सो जाता है वह. वहीँ पास के नाले के पास शौच जाता है. ढाबे पर खा लेता है. पढाई के नाम पर केवल रूपये गिनने आते हैं उसे. कुछ पैसे जो जमा करता है उसकी माँ आके छीन कर ले जाती है. अफीम, चरस गांजा सब चख चुका है और नियमित नशा करता है. दिल्ली के सैकड़ो रेडलाईट पर कम से कम तीन हज़ार बच्चे हैं जो मेहनत भी करते हैं, पैसे भी कमाते हैं लेकिन उनका जीवन कैसा है, क्या है ! काफी दिनों से पिंटू दिमाग पर छाया हुआ है. अपने बेटे की छवि बार-बार पिंटू में चेहरे पर मोर्फ हो रही है.
एक और चित्र है आलम का. हमारी गली के नुक्कड़ पर एक बाइक पंक्चर बनाने वाली दुकान पर काम करता है. एक दिन बाइक पंक्चर हो गया. मुझे पास में ही जाना था. उसकी दुकान के सामने गुज़र रहा था सो आलम को कहता गया. स्कूटर से चल कर वो मेरे घर तक आया. बाइक से पहिया निकाल कर अपनी दुकान पर ले गया, दस पंद्रह मिनट में बाइक का पहिया लेकर लौटा. उसने सेंट टॉमस स्कूल की टीशर्ट पहन रखी थी. कितना विरोधाभास है. आलम स्कूल क्या मदरसे तक नहीं गया है. पैसे तो चार पांच हज़ार रूपये तक कमा लेता है लेकिन जीवन क्या उसका . वही दुकान पर सोता है. वही जीवन है उसका. जो पैसे बचते हैं वो उसके बाबूजी  लेके जाते हैं. मेरठ के पास किसी गाँव का रहने वाला है आलम. 
मेरे गाँव के एक चाचा हैं.  नोएडा के औद्योगिक सेक्टर में चाय की ठेली लगाते हैं. दस हज़ार रूपये तक कमा लेते हैं लेकिन परिवार के साथ नहीं रह सकते नहीं तो पांच लोगो का परिवार नहीं चल पायेगा. ठेली ही उनका जीवन है पिछले सात आठ वर्षों से.
दिल्ली में आधे से अधिक स्क्रीन प्रिंटर अँधेरी गलियों में हैं. आठ गुणा आठ फुट के कमरे में पंद्रह पंद्रह घंटे काम होता है, कम रौशनी, कम हवा पानी और दस साल से सत्तर साल तक के कामगार. पैसे के लिहाज़ से भले गरीबी रेखा से ऊपर हों लेकिन जीवन क्या है उनका है. एक कमरे में पंद्रह पंद्रह लडको का रहना. ना शिक्षा, ना भविष्य.  झुग्गी पर जब भी चर्चा होती है अक्सर हम कह बैठते हैं कि झुग्गियों में सारी सुविधाएँ मौजूद हैं. टीवी, फ्रिज आदि आदि . लेकिन कभी एक दिन गुज़ार का देखिये. कुछ घंटे रहना मुश्किल है वहां. अमानवीय परिस्थिति में रहते हैं लोग. भले लोग भूखे ना हो लेकिन भूख से बाहर भी तो जिंदगी है.
जब पिछले कुछ महीनो से देश २ ज़ी स्पेक्ट्रम घोटाले, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर इतनी बहस हो रही हो, मुझे लगता है कि देश की नीतियों में ऐसे हजारों बच्चे और कामगारों की गिनती कहाँ है, इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना है बाकी है !

18 टिप्‍पणियां:

  1. जब पिछले कुछ महीनो से देश २ ज़ी स्पेक्ट्रम घोटाले, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर इतनी बहस हो रही हो, मुझे लगता है कि देश की नीतियों में ऐसे हजारों बच्चे और कामगारों की गिनती कहाँ है, इस प्रश्न का ढूंढना है बाकी है !

    बहुत ही सार्थक पोस्ट । एक शिकायत है राय जी,आपसे मेर पोस्ट पर आप कभी नही आते हैं.। यदि हमसे कोई गलती हो गई हो तो क्षमा करेंगे । धन्यवाद ।

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  2. sarthak lekhan ....
    lekin koi dhyaan nahin deta in muddon par ...dukh ki baat hai ....

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  3. ये हजारों ही नहीं लाखों बच्‍चे प्रकृतिस्‍थ हैं। इन्‍हें संस्‍कार रूपी ना तो शिक्षा मिली और ना ही अन्‍य जीवनोपयोगी बातें। बस जैसे-तैसे पैसा कमाकर पेट भरना ही इनका कार्य है। जिस देश में ऐसे बच्‍चों की संख्‍या निरन्‍तर बढ़ रही हो उस देश में विकास के आयामों की बात निरर्थक सी ही है। बहुत अच्‍छा आलेख।

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  4. विचारणीय मुद्दा ... देश के कर्ता कहाँ ये सब देख पाते हैं ..गरीब की ज़िंदगी कागज पर दिए आंकड़ों से देखते हैं .

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  5. यही सच है असली भारत ऐसे ही जीता है आज भी छोटी फक्ट्रियो में लोग १५००- ३००० के बीच काम करते हैं.

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  6. देश में विकास तो बहुत हुआ है . तभी तो ऍफ़ १ रेस भी आ गई है जहाँ 35ooo की टिकेट खरीद कर लोग रेस देखते हैं .
    लेकिन बस १० % लोगों के लिए .
    बाकि सब तो यूँ ही गुजर बसर करते हैं , मुश्किल से .
    कहने को प्रजातंत्र है यहाँ .

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  7. suna tha race ka corporate ticket 7 lack ka tha ..jismein after partys thi or sab kuch unlimited

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  8. इस दर्द को करीब से अनुभव कर रहा हूँ अरुण जी ... आपकी और अनेक कलम के माध्यम से ऐसी कितनी ही जिंदगियों के बारे में पढता हूँ ..और फिर देश की तरक्की के बारे में सोचता हूँ ...
    क्या सच में देश तरक्की कर रहा है ... सेंसेक्स के अलावा तो नज़र कम ही आता है ...

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  9. थोड़ी सी बात को मैं भी बडः़आ दूं अरुण जी ...
    सरकारी आंकड़ो पर यदि गौर करे तो बाल श्रमिको की संख्या लगभग 2 करोड़ हैं परन्तु निजी स्रोतों पर गौर करे तो यह लगभग 11 करोड़ से अधिक हैं .

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  10. • सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में दो करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं, जबकि गैर सरकारी अंस्थाएं यह तादाद पांच करोड़ मानती है।

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  11. ऊपर दिया गया आंकड़ा तस्वीर का एक पहलू है।

    दूसरा पहलू यह है


     टेलीकॉम घोटाले में अनुमान है कि १,७६,३७९ करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।

     यह राशि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए दी गई राशि, १३,९०० करोड़ से १३ गुना ज़्यादा है।
     यह राशि समेकित बाल विकास योजना के लिए दी गई ७,८०० करोड़ की राशि से २२ गुना ज़्यादा है।
     यह राशि, बीपीएल परिवारों सहित सभी भारतीय परिवारों को ३५ किलो अनाज ३ रुपये की दर से उपलब्ध कराने में जितनी राशि की ज़रूरत है, उससे भी ४० हजार करोड़ ज़्यादा है।
     यह राशि अगले पांच साल तक देश के बच्चों की शिक्षा के लिए पर्याप्त थी।

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  12. आओअने जो प्रशन किया है अंतिम पंक्तियों में, उसका मेरा उत्तर यह है ---

     लूट, घोटाला, भ्रष्टाचार की क़ीमत बच्चे और ग़रीब जनता अदा कर रही है।

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  13. @ दिगम्बर नासवा ने कहा…
    ..और फिर देश की तरक्की के बारे में सोचता हूँ ... क्या सच में देश तरक्की कर रहा है

    *** दिगम्बर भाई .. देश की कुल 1 अरब 25 करोड़ की आबादी में से 83 करोड़ लोगों को सिर्फ 20 रूपये रोज पर जीने के लिए मजबूर हैं। क्या यही विकास है? क्या यही तरक्क़ी है??

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  14. प्रश्न अनुत्तरित है…हर आदमी को इन इलाकों में रहने के लिए कहा जाना चाहिए…ऐसे काम अधिक नहीं तो महीने में एक-दो दिन भी करने के लिए कहा जाना चाहिए ताकि सहानुभूति स्वानूभूति में बदल सके…

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  15. ऐसे ही कुछ सवाल मेरे भी मन में उठते हैं....सिर्फ पेट भर जाना ही क्या जिंदगी है...कई लोग बाल श्रम का विरोध नहीं करते कि इस से उन्हें दो वक्त की रोटी तो मिल जाती है...पर जिन हालातों में वे जीवन बसर करते हैं..क्या उसे सही कहा जा सकता है.

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