सहज - सुरक्षित रहता यह
अधिकार कहीं मानव का
आज रूप कुछ और दूसरा
ही होता इस भव का ।
श्रम होता सबसे अमूल्य धन
सब जन खूब कमाते
सब अशंक रहते अभाव से
सब इच्छित सुख पाते ।
राजा - प्रजा नहीं कुछ होता
होते मात्र मनुज ही
भाग्य - लेख होता न मनुज को
होता कर्मठ भुज ही ।
कौन यहाँ राजा किसका है ?
किसकी कौन प्रजा है ?
नर ने हो कर भ्रमित स्वयं ही
यह बंधन सिरजा है ।
बिना विघ्न जल , अनिल सुलभ है
आज सभी को जैसे
कहते हैं , थी सुलभ भूमि भी
कभी सभी को वैसे ।
नर नर का प्रेमी था मानव
मानव का विश्वासी
अपरिग्रह था नियम , लोग थे
कर्म - लीन सन्यासी ।
बंधे धर्म के बंधन में
सब लोग जिया करते थे
एक दूसरे का दुख हँसकर
बाँट लिया करते थे ।
उच्च- नीच का भेद नहीं था ;
जन - जन में समता थी
था कुटुम्ब -सा जन - समाज ,
सब पर सबकी ममता थी ।
जी भर करते काम , ज़रूरत भर
सब जन थे खाते ,
नहीं कभी निज को औरों से
थे विशिष्ट बतलाते ।
सब थे बद्ध समष्टि - सूत्र में ,
कोई छिन्न नहीं था
किसी मनुज का सुख समाज के
सुख से भिन्न नहीं था ।
चिंता न थी किसी को कुछ
निज - हित संचय करने की ,
चुरा ग्रास मानव - समाज का
अपना घर भरने की ।
राजा - प्रजा नहीं था कोई
और नहीं शासन था
धर्म नीति का जन - जन के
मन - मन पर अनुशासन था ।
अब जो व्यक्ति -स्वत्व रक्षित है
दण्ड - नीति के कर से
स्वयं समादृत था वह पहले
धर्म - निरत नर नर से ।
ऋजु था जीवन - पंथ , चतुर्दिक
थीं उन्मुक्त दिशाएँ ,
पग - पग पर थीं अड़ी राज्य-
नियमों की नहीं शिलाएँ ।
अनायास अनुकूल लक्ष्य को
मानव पा सकता था
निज विकास की चरम भूमि तक
निर्भय जा सकता था ।
तब बैठा कलि - भाव स्वार्थ बन
कर मनुष्य के मन में
लगा फैलने गरल लोभ का
छिपे छिपे जीवन में ।
पड़ा कभी दुष्काल , मरे नर ,
जीवित का मन डोला ,
उर के किसी निभृत कोने से
लोभ मनुज का बोला ।
हाय , रखा होता संचित कर
तूने यदि कुछ अपना
इस संकट में आज नहीं
पड़ता यों तुझे कलपना ।
waah ....bahut aabhar sangeeta di ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआभार दीदी ||
क्या बताएं कि कितना सच्चा है!
जवाब देंहटाएंPahla shirshak dusra Raja nahin kuchh hota se Kavi ka kya asar teesra upyukt ka byan sa ka bhavarth
जवाब देंहटाएं