आप सब को अनामिका का प्रणाम ! पाठक वृन्द चलिए आज जानते हैं कि दिनकरजी की हुंकार और रेणुका जैसी कविताओं में निर्भीक और रंगात्मक उद्घोष कैसे हुआ ....
पिछले पोस्ट के लिंक
१. देवता हैं नहीं २. नाचो हे, नाचो, नटवर ३. बालिका से वधू ४. तूफ़ान ५. अनल - किरीट ६. कवि की मृत्यु ७. दिगम्बरी 8. ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल, बोल ! 9. दिल्ली 10. विपथगा
दिनकरजी जीवन दर्पण भाग - ११
दिनकर जी अपने बारे में लिखते हैं.....
जलन हूँ, दर्द हूँ, दिल की कसक हूँ,
किसी का हाय, खोया प्यार हूँ मैं.
गिरा हूँ भूमि पर नंदन विपिन से,
अमर-तरु का सुमन सुकुमार हूँ मैं.
जो भी हो, सरकारी नौकरी की विवशता और गुलामी को झेलते हुए भी दिनकरजी ने राष्ट्रीयता का जो निर्भीक एवं रंगात्मक उद्घोष किया था, वह विशेष दृष्टव्य है. रेणुका, हुंकार और सामधेनी की कविताओं ने हिंदी प्रान्तों में देश भक्ति की लहरें उठाने में बड़ा भारी योगदान दिया था और चूँकि ये कवितायें एक ऐसे कवि की लेखनी से आती थीं जो खुद सरकार के चुंगल में था, इसलिए इनकी अपील कुछ और जोरदार थी. भारत के राष्ट्रीय कवियों में दिनकरजी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है. आचार्य शिवपूजन सहाय का यहाँ तक कहना है कि मैथिलि-कोकिल विद्यापति के बाद बिहार में इतना प्रतिभाशाली कवि कोई और नहीं हुआ था.
दिनकरजी की पहली कविता सन १९२४ या २५ में छपी थी जब जबलपुर का 'छात्र सहोदर' नामक मासिक पत्र श्री नर्सिंघ्दास के संपादकत्व में दुबारा निकाला था. १९२९ में बारदोली-सन्देश नाम से उनके राष्ट्रीय गीतों का एक छोटा सा संग्रह निकला, जिनकी रचना बारदोली-सत्याग्रह को लेकर की गयी थी. मैट्रिक पास करने के पूर्व उन्होंने 'वीर बाला' और 'मेघनाद वध' नामक दो अधूरे खंड काव्य भी लिखे थे, जिनकी पांडुलिपियाँ अब अनुपलब्ध हैं. मैट्रिक करने के बाद एक छोटा सा खंड काव्य 'प्रणभंग ' नाम से निकला, जिसकी एक प्रति कवि के पास संचित थी और जिसका उल्लेख रामचंद्र शुक्ल के इतिहास में भी हुआ है.
पर दिनकरजी के कवि जीवन का वास्तविक आरंभ सन १९३० ई. में होता है, जब से उनकी कवितायें पत्र-पत्रिकाओं में सर्वत्र छपने लगीं. और १९३५ में रेणुका के प्रकाशन के साथ तो वे हिंदी के एक उदीयमान कवि के रूप में सारे देश में विख्यात हो गए थे. रेणुका, कुरुक्षेत्र, नील कुसुम और उर्वशी दिनकर काव्य के चार मुख्य स्तम्भ हैं. रेणुका दिनकर जी की जवानी का उद्घोष है. उसकी कुछ कवितायें छायावाद की याद दिलाती हैं और कुछ उस दोपहरी के प्रकाश की जिसकी रचना कवि आगे चलकर करनेवाला था. या प्रकाश पूर्ण रूप से हुंकार में प्रकट हुआ. भारतीय विद्रोह की वाणी के रूप में हुंकार हिंदी ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं में उल्लेख्य ग्रन्थ है. कुरुक्षेत्र उन भावनाओं का दर्शन प्रस्तुत करता है, जिनका विस्फोट रेणुका और हुंकार में हुआ था. कुरुक्षेत्र की रचना के पीछे उस द्वन्द का हाथ है जो हिंसा-अहिंसा को लेकर देश के अंतर्मन में चल रहा था. काव्य जब तक समस्त राष्ट्र की अव्यक्त पीड़ा का माध्यम नहीं बनता, जनता उसे सिर आँखों पर नहीं उठाती. कुरुक्षेत्र जब से प्रकाशित हुआ, वह बराबर जनता के द्वारा पढ़ा जा रहा है. उसका अनुवाद तेलगु और कन्नड़ भाषाओं में भी निकला है. किन्तु केवल दर्शन कह देने से कुरुक्षेत्र के साथ पूरा न्याय नहीं होता. वह पराधीन भारत के क्रोध की कविता है, उसके प्रतिशोध का विस्फोट और गहन द्वंदों का आख्यान है.
नील कुसुम की कवितायें सामाजिक उद्देश्यों को प्रधानता नहीं देती. उनकी भाषा बहुत मंजी हुई है और भाव काफी मर्मबेधी हैं, पर वे यह भी बताती हैं कि कवि का मन उस दिशा की ओर मुड रहा है, जिधर रसवंती का स्त्रोत था. फिर भी इस संग्रह की 'हिमालय का सन्देश' नामक कविता सामाजिकता से ओतप्रोत है. इस कविता का धरातल यद्यपि दार्शनिक हो उठा है, पर कवि की मुख्य चिंता यही है कि स्वाधीन भारत शांति-साधना के लिए क्या करे, वय व्यष्टि, समष्टि, प्रजासत्ता और अधिनायकवाद एवं हिंसा और अहिंसा के बीच समाधान कैसे प्राप्त करें.
रसवंती वाली धारा का महान विस्फोट उर्वशी काव्य से हुआ है. इसमें प्रेम और श्रृंगार के भावों का चित्रण ऊँचे धरातल पर किया गया है. पुरुरवा वह मनुष्य है जो द्वंदों से पीड़ित है. वह सुख भोगता है और सुख को छोड़ना चाहता है. वह नारी प्रेम में पड़ता है और नारी का अतिक्रमण करना चाहता है. इसके विपरीत, उर्वशी देवी है, जिसमे कोई द्वन्द नहीं है. वह दैहिक सुख भोगने के उद्देश्य से पृथ्वी पर आई है. इन सारे द्वंदों के एकत्र हो जाने से उर्वशी अत्यंत गहन काव्य का कारण हो उठी है. पुस्तक के अंत में सती नारी की अवतारना करके क्या दिनकरजी ने यह सन्देश दिया है कि नर-नारी सम्बन्ध का समाधान सतियाँ ही लाती हैं, अप्सराएं नहीं ?
क्रमशः
लीजिये प्रस्तुत है दिनकर जी की हिमालय कविता
हिमालय
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
साकार, दिव्य, गौरव विराट
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल !
मेरे जननी के हिम-किरीट !
मेरे भारत के दिव्य भाल !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
युग-हग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग शुची, गर्वोन्नत महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा,
युग से किस महिमा का वितान ?
कैसी अखंड यह चिर समाधि ?
यतिवर ! कैसा यह अमित ध्यान ?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल ?
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
ओ, मौन तपस्या लीन यति !
पल भर को तो कर दृगोंमेश !
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर सन्देश !
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत
सीमापति ! तूने की पुकार,
पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरे सिर उतार !'
उस पुण्यभूमि पर आज तप !
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे,
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
कितनी मणियाँ लुट गयी ? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष !
तू ध्यान -मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा सन्देश !
किन द्रौपदियों के बाल खुले ?
किन-किन कलियों का अंत हुआ ?
कह हृदय खोल चित्तोर ! यहाँ
कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ ?
पूछे सिकता-कण से हिम्पति !
तेरा वह राजस्थान कहाँ ?
बन-बन स्वतंत्रता दीप लिए
फिरनेवाला बलवान कहाँ ?
तू पूछ अवध से, राम कहाँ ?
वृंदा ! बोलो, घनश्याम कहाँ ?
ओ मगध ! कहां मेरा अशोक ?
वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ ?
पैरों पर ही है पढ़ी हुई
मिथिला भिखारिणी सुकुमारी
तू पूछ कहाँ इसने खोयी
अपनी अनंत निधियां सारी ?
री कपिलवस्तु ! कह, बुद्धदेव
के वे मंगल उपदेश कहाँ ?
तिब्बत, इरान, जापान, चीन
तक गए हुए सन्देश कहाँ ?
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ ?
ओ री उदास गण्डकी ! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूंजा यह कैसा ध्वंस-राग ?
अम्बुधि-अंतस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग ?
प्राची के प्रांगन - बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग अग्नि-ज्वाल,
तू सिंघनाद कर जाग तापी !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
रे, रोक युधिष्ठर को न यहाँ
जाने दे उसको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार !
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर-बम का फिर महोच्चार !
ले अंगडाई, उठ, हिले धरा,
कर निज विराट स्वर में निनाद,
तू शैल्रराट ! हुंकार भरे,
फट जाय कुहा, भागे प्रमाद !
तू मौन त्याग कर सिंहनाद,
रे तपी ! आज तप का न काल !
नव-युग शंख ध्वनि जगा रही,
तू जाग, जाग, मेरे विशाल !
(रेणुका) ( १९३०)
अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता है ये दिनकर जी की
जवाब देंहटाएंयह कालजयी कविता पुकार-पुकार कर जागरण का संदेश दे रही है ,पता नहीं सोनिया गांधी या रहुल ने कभी सुनी या नहीं - यदि सुनें भी तो क्या ग्रहण कर पायेंगे इसके भाव !
जवाब देंहटाएंदिनकर जी की रचनाएं भी उनके नाम की तरह ही प्रखर एवं ओजपूर्ण हैं ! आपने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के ऊपर बहुत ही सारगर्भित श्रंखला आरम्भ की है ! इससे बहुत कुछ छूटा हुआ पुन: पढ़ने का अवसर मिल रहा है ! आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार !
जवाब देंहटाएंले अंगडाई, उठ, हिले धरा,
जवाब देंहटाएंकर निज विराट स्वर में निनाद,
तू शैल्रराट ! हुंकार भरे,
फट जाय कुहा, भागे प्रमाद !
राष्ट्रीय कवि की तेज और ओज भरी वाणी पढवाने के लिये आभार!!
आदरणीय अनामिका जी ।
जवाब देंहटाएंआज सुबह इंटरनेट कनेक्सन न होने के कारण आपके पोस्ट पर न आ सका । फिर भी समय निकाल कर अभी आपका पूरा पोस्ट पढ़ा। आपने दिनकर जी के बारे में जिन साहित्यिक तथ्यों को अपने पोस्ट में जगह दिया है,वह प्रशंसनीय है । "हिमालय" कविता का समावेश इसे रूचिकर बना दिया है एवं इस कविता की अंतर्वस्तु से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। सुझाव है इस पोस्ट की निरंतरता बनाए रखें ताकि इस महान साहित्यिक विभूति की अक्षय कृक्तियों से हम सबका सामीप्य-बोध होता रहे । आभार इस पोस्ट को प्रस्तुत करने के लिए । धन्यवाद ।
आज सुबह ही इसे पढ़ा था लेकिन विचार व्यक्त न कर सका। विचार के रूप में चार पंक्तियां कोट करना चाहूंगा --
जवाब देंहटाएंजलन हूँ, दर्द हूँ, दिल की कसक हूँ,
किसी का हाय, खोया प्यार हूँ मैं.
गिरा हूँ भूमि पर नंदन विपिन से,
अमर-तरु का सुमन सुकुमार हूँ मैं.
Aap apne lekhan se mujhe nishabd kar detee hain!
जवाब देंहटाएंकई सालों बाद इस कविता को फिर से पढ़ रही हूँ, स्कूल की किताबों के बाद सिर्फ यहाँ ही।
जवाब देंहटाएंएक उत्कृष्ट रचना को फ़िर से पढवाने के लिये आभार...
जवाब देंहटाएंदिनकर जी की एक और अद्वितीय रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार मैम
खरगोश का संगीत राग
जवाब देंहटाएंरागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में
कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में
पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग
बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत
वेद नायेर ने दिया है...
वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में
चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
My website: खरगोश
Excellent post. I was checking constantly this blog and I am inspired!
जवाब देंहटाएंVery useful info specifically the closing section :) I deal with
such information much. I was looking for this certain info for a very long time.
Thanks and best of luck.
My website > A Good template
Aw, this was an exceptionally good post. Finding the time and actual effort
जवाब देंहटाएंto make a very good article… but what can I say… I put things off a whole lot and never manage to get anything done.
Also visit my web site - realitykingspreview.thumblogger.com
Also see my web site - and this One
Have you ever thought about creating an ebook or guest authoring on
जवाब देंहटाएंother sites? I have a blog centered on the same information you discuss
and would really like to have you share some stories/information.
I know my viewers would enjoy your work.
If you're even remotely interested, feel free to send me an e-mail.
Look at my weblog - erovilla.Com
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आपका अनामिका जी
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 23 अप्रैल 2022 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएं